1- चितरंजन भारती, असम : वागर्थ का अंक 303। फणीश्वरनाथ रेणु के महत्व को सवालों के दायरे में रख सुधी रचनाकारों ने महत्वपूर्ण जानकारी दी है। उपन्यास में बदलते गांव को तीन उपन्यासों के मद्देनजर श्रद्धांजलि सिंह ने बेहतरीन विवेचन किया है। पंकज चतुर्वेदी, उमाशंकर चौधरी, विराग विनोद की सामयिक कविताएं पसंद आईं। तमाल वंद्योपाध्याय की ‘पिता’ और उन्मेष सिन्हा की ‘झब्बू’ मार्मिक कहानियां हैं। आयशा आरफीन ‘लकड़ी के घोड़े’ पर चढ़ एक जीवंत दास्तान कह गईं।
2- ज्ञानेन्द मिश्र : संवेदना किसी की गुलाम नहीं होती। यह अमीरी-गरीबी से परे होती है। यह उसी का आश्रय हो सकती है, जो सहृदय हो। वागर्थ के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित उन्मेष सिन्हा का ‘झब्बू’ प्रेमचंद के ‘हामिद’ के समान दायित्व बोध से प्रभावित है। हामिद अपनी ‘दादी’ के प्रति फिक्रमंद है तो झब्बू अपने ‘बाबू’ के लिए। वह हामिद की तरह तार्किक नहीं है, बल्कि खिन्न है; इसलिए वह खुराफाती है। उसकी यह पीड़ा है कि जिस तरह मैं अपने ‘बाबू’ की मनोभावों को महसूस करता हूँ, वैसे ही और लोग भी महसूस करें। समदुखकातर मनुष्य ही अपनी मनोभावों का आदान-प्रदान करते हैं। झब्बू अपनी बात कहने के लिए गुब्बारे वाले को चुनता है।
झब्बू ने लोकतांत्रिक सरकारों के ‘कठकरेजी’ सरकारी विज्ञापनों पर भी कील ठोक दी है। अस्तित्व के लिए जूझते हुए व्यक्ति धर्म-संप्रदाय और मंदिर मस्जिद का भेद नगण्य है। यह साधन-संपन्न सुविधाभोगी निठल्लों का एक प्रपंच है। इसलिए झब्बू जिस भावना से मंदिर में जाता है उसी भावना से मस्जिद में भी। कुल मिलाकर उन्मेष सिन्हा ने समाज की कुछ ज्वलन्त समस्याओं को अपनी कहानी के माध्यम से जिस तरह संप्रेषित किया है वह विचारणीय है।
3- अनिल कुमार शर्मा, आगरा : ‘वागर्थ’ के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित उपमा ॠचा की कविताएँ बहुत ही गहराई ली हुई हैं। इनका बार-बार पाठ करना भाता है। लेखिका की सोच व समझ को नमन।
4- रामजनम पाठक : ‘वागर्थ’ मार्च अंक में सरोज सिंह की समीक्षा नए दौर में एलजीबीटी को एक उपेक्षित समूह के तौर पर रेखांकित करती है। लेकिन वेश्याएं अति प्राचीन दमित समूह रही हैं। समीक्षा में कुछ और कहानियां भी शामिल की जा सकती थीं। हिंदी आलोचना में जब व्यवस्थित ढंग से काम नहीं हो रहा है, प्रवृत्तियों की शिनाख्त नहीं हो रही है, ऐसे में आपका प्रयास सराहनीय है।
5- नवनीत कुमार झा, दरभंगा : बात शुरू हुई पश्चिम में बाबेल की मीनार से जुड़ी एक कथा से और चली आई भाषाओं की भिन्नता या विविधता तक! वैश्वीकरण के कारण अंग्रेजी का वर्चस्व लगातार बढ़ा है और भाषाओं के ऊपर संकट बढ़ता ही जा रहा है! कई भाषाओं का लोप हो चुका है और कई अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं! स्थानीय मातृभाषाओं से उसे बोलने/बरतने वाले ही विमुख हो रहे हैं तो स्वाभाविक है कि भाषा के ही साथ लोक संस्कृतियों के अस्तित्व पर भी संकट आ गया है, क्योंकि भाषाएं ही तो हमारी संस्कृति की संवाहिका हैं! मातृभाषा में स्कूल नहीं, अखबार नहीं और रचनात्मक और ज्ञान की पुस्तकों का प्रकाशन नहीं। ऊपर से नई पीढ़ी भी दिनों-दिन अंग्रेजी मीडियम में ही रचती-बसती जा रही है । वर्तमान युग में उच्च सांस्कृतिक आदर्शों और मूल्यों की अहमियत भी छीजती जा रही है और स्वार्थी प्रवृत्तियों में भी चौगुना इजाफा हुआ है। भारत को विविध भाषाओं और संस्कृतियों का केंद्र माना जाता है, लेकिन भाषा में आई गिरावट और सतहीपन के कारण कई भाषाई बुर्ज ढहने के संकट से जूझ रही हैं।
अनिता रश्मि के ‘सरई फूल’ को पढ़ना शुरू किया जिसमें आदिवासियों के सरल और सहज भाषा और जीवन की झलकियां प्रस्तुत की गई हैं। आदिवासियों के सादगी भरे जीवन में कठिनाइयों की कोई कमी नहीं है, फिर भी लाजवाब है इनकी जिजीविषा जो ये हर कठिनाई को हँसते-हँसते झेल जाते हैं। लेकिन इधर कुछ अरसे से आदिवासियों की सादगी और उत्सवधर्मिता को किसी की नजर लग गई है लेकिन लेखिका आशान्वित हैं कि भटके हुए आदिवासियों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है। इस बेहतरीन कहानी के लिए कथाकार को धन्यवाद।