सुपरिचित कथाकार। अद्यतन काव्य संग्रहअब ख्वाब नए हैं

‘मुझे तुम अपनी पूरी बस्ती दिखलाओगी?’

‘हाँ बाबू, आपको घूमने का बहुत सौख है ना? चलो।’

उसके नूपुर की गूंज आगे-आगे, मैं पीछे-पीछे। पहाड़ी के ऊपर से दिखते उसके घर एवं आस-पास के घरों की लघुता देख मुझे हँसी आ गई। मैं जोर से हँस पड़ा।

‘बाबू, हँसे काहे? हामर घर है।’

अजीब लड़की है। इसे हर बात की कैफियत चाहिए। मन की मन में रही। मैं धीरे-धीरे उसके साथ पहाड़ी से उतरता रहा। कहीं-कहीं मुझे उतरने में दिक्कत महसूस हो रही थी तो झुक कर किसी चट्टान के नुकीले कोने को थाम लेता पर वह पहाड़ी नदी सी कल-कल, छल-छल करती नीचे की ओर यूं उतरती जा रही थी कि मैं स्तब्ध था।

पिंडलियों से नीचे खुले उसके पैरों में गजब की चपलता थी। एक लहराती बदली, खिलखिलाता सावन। क्या कहूं उसे? वह खिल-खिल हँसती जाती। पीछे पलट कर मुझे देखती, ठहर कर लगभग पास आने देती और फिर बढ़ जाती। मैं हाँफने लगा था। उसके पैरों की हिरणी चंचलता ने किसी तरह से थकान को उसके पास आने नहीं दिया।

‘और कितनी दूर है?’

‘बस्स, थक गए बाबू?’

मैं एक शिला पर बैठ गया।

वे गर्मियों की अलसाई सुबह के दिन थे। धूप की चंद कतरनें भी उमस के कारण रात्रि जागरण से अलसाए मन-तन को और भी शुष्क किए दे रही थीं। वह मेरे करीब आ गई- ‘बाबू, चाय पियोगे?’

‘यहाँ चाय कहाँ मिलेगी?’

‘हमरा घर पास ही है, हम बनाकर पिलाएंगे।’

‘न…नहीं छोड़ दो।’

‘क्यों? हमरे हाथ का पीने में…?’ उसके चेहरे पर शरारत नाच रही थी।

‘अरे नहीं, वैसी बात नहीं है। चलो पहले तुम्हारे घर ही चलते हैं।’

वह खिल उठी। उसकी काली-काली आँखें चमक से भर गईं। पांच मिनट के बाद मैं उसके घर पर था। घर नहीं, झोपड़ी। साल के सूखे पत्तों से जैसे मढ़ दी गई थी। बाहर एक किनारे चार पतले बाँसों को घेर कर छोटी-सी जगह पर एक छाजन डाला गया था। उस जगह पर एक ओर मिट्टी का चबूतरा बना कर उस पर एक ढोल, ढाक, दो माँदर रखा गया था। मैं उन्हें गौर से देखता हुआ अंदर ही जा रहा था कि हाथ का बुना मोढ़ा लेकर एक बच्ची आती दिखलाई दी।

तभी दो-चार काली-लाल मुर्गियां एवं उसके छोटे-छोटे कोमल रोयें वाले बच्चे इधर-उधर भागते दिखे। ‘हट! हुस्स!’ उन्हें हाथ से भगा, मोढ़ा वहीं पर रख, बिना कुछ बोले वह बच्ची अंदर की ओर भाग गई। गोल मंगोलियन चेहरेवाली बच्ची को मैंने निमिष भर में देख लिया। बस रंग की कमी थी अन्यथा वही गोल-मटोल चेहरा। वह केवल कच्छा पहने हुए थी। मैं मोढ़े पर बैठते ही पूछ बैठा-

‘यह कौन?’

‘मेरी छोटी बहन’

‘बहुत खूबसूरत है, तुमसे भी ज्यादा।’

आखिर ऐसा मैंने क्या कह दिया कि जोन्हा के झरने-सी उसकी खिलखिलाहट फिर फूट पड़ी, मैं समझ नहीं सका।

‘क्या बात है? इतना क्यों हँस रही हो?’

‘हम और सुंदर!’

उसने अपने काले चेहरे की ओर मेरा ध्यान खींचा। मैं अपदस्थ होते हुए भी उसके चेहरे के लावण्य को झुठला नहीं पाया। कैसे झुठलाता, उसका चेहरा ही चुगली खा रहा था। दोनों का चेहरा। इन लोगों का चेहरा स्वाभाविक रूप से दमकता रहता है। कई गोरी चमड़ियां मात खा जाएं। उसकी हँसी को ब्रेक लगाने की गरज से कहा-‘विश्वास न हो तो आईने में देख लो।’

‘आईना नहीं है बाबू, पानी में देख सकते हैं। परसों ही गिरकर टूट गया था।’

कालेपन में एक अजीब-सी कशिश होती है, वह कशिश उन दोनों के चेहरे पर थी। ऊपर से वह भोलापन, वह निश्छलता। प्रसाधन मुक्त खूबसूरती। दुर्लभ होती जाती सहजता। गुड़ की चाय पीकर मैं तरोताजा महसूसने लगा। गुड़ की चाय पीने की आदत मुझे यहीं लगी थी। उसके सोंधे और अनोखे स्वाद ने ऐसा बांधा कि यहां आने पर बकरी के दूध से बनी गुड़ की गाढ़ी चाय ही पीता हूं। तीन साल पूर्व जोन्हा की इस जादुई जमीन पर अपने यायावर मित्रों के साथ पहली बार कदम रखा था। गर्मी की छुट्टियों में टूरिस्ट बस से हम आठ परिवारों का दल रांची के जोन्हा फॉल से काफी दूर बने रेस्ट हाउस में पहुंचा था। तब हमें आभास नहीं था, हम ऐसी जगह देख पाएंगे और हमें कहना पड़ेगा-

‘पृथ्वी पर स्वर्ग यहाँ भी है।’

सब बेहद प्रफुल्लित हो उठे थे। कितना इंज्वाय किया था सबने। लौटते समय चारों ओर की खूबसूरती हमें गलबहियां डालकर रोक रही थी। मजबूरन उसके आग्रह को झटक हमें लौटना पड़ा था। पर इस अल्पज्ञात जगह ने बारंबार आने का निमंत्रण ही दे डाला। कलकत्ता की गर्मी से भाग कर यहां आता। कई-कई दिन गुजारता। यह सुंदर क्षेत्र बहुत भा गया। मैं चाह कर भी इससे दूर नहीं रह पा रहा था। हर साल जैसे यहां से एक आवाज आती और मैं भागता-दौड़ता चला आता।

झोपड़ी के अंदर कराह की आवाज से चौंक गया, यह तो उसके बाबा की आवाज है। वह बाहर क्यों नहीं आए? कराह की आवाज के साथ गालियों की आवाज भी आने लगी। खांसने और कराहने की आवाज लगातार आ रही थी।

‘तुम्हारे बाबा घर पर हैं?’

‘हाँ, बाबू, वह बहुत बीमार हैं। उसको डाक्टर उठने से भी मना किया है।’

‘चलो, उसे देख लें।’

हम झोपड़ी के अंदर गए। हाथ की बुनी कलात्मक चटाई पर खाली बदन लेटा हुआ वह खांसे जा रहा था। सामने बैठी कैथी उठ कर खड़ी हो गई।

‘जोहार बाबू!’ मद्धिम आवाज कैथी की। पेट-पीठ मिल कर एक। आंखें धँसीं हुईं। जगह-जगह की झुर्रियां समय पूर्व ही बुढ़ापे को निमंत्रण देती हुईं। गले की हड्डियां तक झांक रही थीं उसकी। दोनों में से कौन ज्यादा बीमार, पहचानना कठिन।

‘क्या हुआ है?’

मैं किससे पूछूं समझ में नहीं आया। यही कैथी कितनी हँसती थी। गालों पर हलके डिंपल उभर आते थे। हर समय दांत बाहर। काले चेहरे पर सफेद दांतों की झिलमिल! अभी स्वेदकण और थकावट चुहचुहा रही है। सारा सौंदर्य, सारी कमनीयता कहां तिरोहित हो गई? बातचीत से पता चला, वह खटने के लिए कई साथियों के साथ बॉक्साइट के खदान तक गई थी।

आस-पास के लोग चिदा, गुवा जैसे लौह पट्टियों, कोडरमा के अबरख खानों, राखा, सुरदा, धोवानी के तांबे की खानों में, तो कुछ कोलियरी में खट रहे थे। जनी मन भी बाहर चली गई थीं। वह जल्द लौट आई। करमा की बीमारी का निमंत्रण था। छोटी बेटी, बड़े बेटे की पढ़ाई छूट गई। घर में खाने को अन्न नहीं। गिलट की हंसुली तक बिक गई।

‘करमा आज मांदर बजा कर नहीं दिखलाओगे?’

वह उठने की कोशिश करने लगा पर कमजोर देह ने फिर से भूमि पर लिटा दिया।

‘अरे! इतना कमजोर कैसे हो गया जी? अब भी बांसुरी-वांसुरी बजा पाते हो कि…?’

‘हमारे देही में अब जरा भी ताकत नहीं है, हम का बांसुरी बजाएंगे।’

अखरा के इस मंदरिका मांदर वादक की निराश-हताश आवाज ने अंदर तक हिला दिया।

मैं थोड़ी देर उसके पास बैठा, उसकी सांसों की घर्र-घर्र से परेशान होता रहा। हर समय के हंड़िया-सेवन ने उसकी क्या गत बना दी। दिन-रात खटिया तोड़ते निट्ठले करमा के रात-दिन का हंड़िया सेवन और क्या रंग ला सकता था।

अखरा में मांदर की आवाज सुन भले उसके कदम नहीं रुकते, काम के नाम पर वह हिल भी नहीं सकता था। रात भर अखरा जगाने में वह नाच-डेग सकता था। लेकिन दो घंटे खटनेे के नाम पर नानी याद आती। उसकी अलग दुनिया।

कैथी का श्रम घर को बचाए रखता। कैथी को देख नहीं लगा कि इसने ही वह गीत सुनाया था।

पहली भेंट में उसका गाया लोकगीत मैं नहीं भूला सका कभी-

जा तो गुईया लानी देबे
सोना के रे माला
रूपा के रे माला

एक कोने में हाथ बुने पंखे, लकड़ी से बना चाकू, लकड़ी का खंजर, तलवार आदि रखा था। वहां के वाशिंदों का यह पसंदीदा काम! जीने का एक छोटा-सा उपक्रम। वहीं बैठ कैथी फिर से चटाई बुनने लगी। प्राय: हर ग्रामीण के घर में ये काम होता था। मुर्गा-लड़ाई, हड़िया और मांदर आदिवासियों की पहचान।

कई जगहों से पेट के गटर ने जांबाज मुर्गों की लड़ाई को लील लिया था। पर यहां के लोग अब भी कलगीदार मुर्गों को खिला-पिला कर बढ़ाते रहते, लड़ना सिखाते रहते और ट्रेंड होते ही ये हाट या मेले में आमने-सामने डट जाते। पैरों में काँईत बंधे मुर्गे जब उछल-उछल कर एक-दूसरे पर वार करते, जन-समूह की आवाज आकाश से गलबहियां करती। मुझ पर भी नशा छा जाता रहा है। विजयी लड़ाके को देख कर मैं भी कई बार अचंभित रह गया था। कई बार भोज-भात के आयोजन को देख कर भी आनंदित हुआ।

मैंने देखा है, जिस मुर्गे की जीत होती, उसके मालिक के पांवों में जैसे घुंघरु बंध जाते। खूब नाचता। हारा, हताश, घायल मुर्गा जीते हुए मुर्गे के मालिक की प्रॉपर्टी। खूब आनंद से भोज-भात होता। मैंने भी दो-एक बार मुर्गे पर बोली लगाई थी। इस इलाके में आते रहने की एक और वजह।

मुर्गों की लड़ाई भी एक बड़ा लालच है मेरे लिए। इस रत्नगर्भा धरती के झाड़-झंखाड़वाले इलाकों के आदिम लोगों की सभ्यता-संस्कृति, चित्रकला, पर्व-त्योहार, गीत-संगीत की समृद्धि भी मेरे लिए कम पायने रखती है? मैं अक्सर उनके बारे में सोचता। जितना सोचता, उतना ललचाता। जितना ललचाता, उतना ही आने को उत्सुक हो जाता। मैं इससे स्वाभाविक रूप से पूरे मन से जुड़ गया। आदिवासियों की गदराई सभ्यता-संस्कृति का कायल-घायल मैं।

नए राज्य के गठन के साथ ही पूरे भारत की निगाहें अचानक इस पर मेहरबान हो गई। नेता-अभिनेता, बाजार-उद्यमी, कलाकार, साहित्यकार, संपादक सबकी निगाहें अचानक उदार! चढ़-चढ़ कर, हितैषी होने की कोशिशों में जुट आया बाजार, साहित्य, संपादक, पेपर-पत्रिका सब। अचानक! बस नहीं बदल पा रही थी तो इन निर्धन वाशिंदों की जिंदगी। काफी बदलाव आए, सच्ची कोशिशें हुईं। लेकिन कुछ लोगों का जीवन वहीं ठहरा हुआ सा।

‘हड़िया पीना बंद करो। हमें तुम्हारी बांसुरी सुननी है करमा। खाली मुझे नहीं, पूरी दुनिया को।’

एक संभावना का अंत नजर आ रहा थ। अब तो उसे पंख मिलते और उसकी उड़ान देख पाती यह दुनिया कि वह परकटे पक्षी-सा धराशायी। वह बहुत अच्छा वादक है। शायद आकाश की बुलंदी उसके नाम।

मैं वहां से बाहर आया। बच्चे एवं कैथी भी बाहर तक छोड़ने आए। मैं ढोल-मांदर, नगाड़े को देखता गमगीन हो गया। टोकरी में बैठे कई चेंगने-मुर्गे की ‘कुट-कुट’ पर मेरा ध्यान नहीं था अब।

इन लोगों से पहला मिलन याद आ गया। उस समय हम सब चलते-सुस्ताते सीढ़ियां उतर कर झरने के निकट पहुंच गए थे। चारों ओर की हरियाली ने हमारा मन मोह लिया था। छोटी-बड़ी चट्टानों से घिरे झरने को देखने की उत्सुकता चरम पर थी। तेज आवाज में गिरता झरना कुछ दूर आकर नदी में परिवर्तित हो गया था। बीच-बीच से नुकीले चट्टानों पर पैर रख, हम सब साथी झरने की ओर बढ़ रहे थे कि नदी के पार मांदर लेकर जाता हुआ करमा दिखा था।

साथ में और कई लोग थे। किसी के हाथ में ढाक, तुरही। किसी के हाथ में नगाड़ा। किसी के हाथ में मांदर। हम सब उत्सुकता के मारे पागल हो उठे थे। बनर्जी ठहरा संगीत का रसिक। उसने आवाज देकर सबको रोक लिया। उसने सबसे आग्रह किया कि एक गीत सुना दें। पहले तो वे हँसे, बाद में गीत सुनाने के लिए तैयार हो गए।

मांदर बजने लगा था। तांग गितांग, धातिंग तुंग, धातिम धूंग!

रसधार बहने लगी। हम सब डूबने-उतराने लगे। कल-कल, छल-छल बहती नदी। जोन्हा के चट्टानों के पार गिरता जलप्रपात। चारों ओर आच्छादित वृक्षों के बीच में बहुत देर तक लोक संगीत की रसधार बहती रही। ढोलक, मांदर, बांसुरी सबकी तान ने वह जलवा बिखेरा कि सारे साथी मदमस्त हो गए। उन लोगों को जिद कर रोक लिया हमने।

क्या इंद्र का दरबार भी ऐसे ही सजता होगा?

उन लोगों के साथ आई औरतों में लगभग सोलह साल की एक लड़की भी थी। अल्हड़, मासूम शरारतों से भरी हुई। बिना मेकअप के ही उसका अछूता सौंदर्य दिप-दिप दमक रहा था। लाल ब्लाउज, लाल किनारी की साड़ी में लिपटी वह अपने खोपे में कुछ घास-पात और जंगली फूल भी खोंसे हुए थी। गले में थी जंगली फूलों की अनगढ़ माला।

वह भी अपने साथियों के साथ झूमर खेलकर लौट रही थी।

‘क्या नाम है तुम्हारा?’

‘सरई।’

‘अरे! यह क्या नाम हुआ? सरई!’

उसकी मां ने जवाब दिया था- ‘इसका नाम सरई ही है। असल में इसका जनम सखुआ-पेड़ के नीचे हुआ था, जब हम साल का पत्ता चुन रहे थे। तभी से इसका नाम यही पड़ गया- सरई!’

उसने अपना लुग्गा मुंह से लगाते हुए कहा था। सरई की घुटनों तक बंधी साड़ी में कई लाल किनारियां चमक उठी थीं। उसके चेहरे पर लाज की आभा छा गई थी। वह सरई फूल की तरह श्वेत, पवित्र लगी थी।

सरई, उसकी मां एवं अन्य लोगों ने लकड़ियां लाकर रखी थीं। दो पत्थरों को जोड़ चूल्हा बनाया। पतली, सूखी लकड़ियां आस-पास ही मिल गईं। खाना बनाने से लेकर, पत्तों का पत्तल-दोना बनाकर, खाना खिलाने तक में उन लोगों ने बहुत मदद की थी। करमा ने कहीं से केले और सखुआ के बड़े पत्तों का जुगाड़ किया था। सबने एक पांत में बैठकर खाया था, किसी ने केले के पत्ते पर, किसी ने सखुआ के पत्तों से बने ताजे पत्तल पर।

उन लोगों ने दनादन उन पत्तों से पत्तल-दोना टीप दिया था। बहुत दिनों तक इस अनोखे इंज्वायमेंट को सब भूल नहीं पाए थे। सबने इन लोगों के गीत, बोली एवं सान्निध्य का भरपूर लुत्फ उठाया था।

तब से हर साल जब भी अपनी यायावरी चित्त की भूख मिटाने यहां आता हूँ, यह मुझे जगह-जगह घुमाती है। करमा बांसुरी पर फिल्मी गीत के साथ-साथ अपनी भाषा का गीत भी सुनाता है। मैं पिछले आठ-नौ सालों से कलकत्ता में ही काम  कर रहा था। खास कर नौकरी लगी, तब से। नहीं तो घर छोड़ कर कब से बंगलौर में पढ़ाई करता रहा। किशोरावस्था में ही निकल जाने के कारण बंगला की छांह कम ही मिली। जबान में हिंदी, इंग्लिश छाई रही।

सोचते हुए झरने के एकदम निकट पहुंच गया। मैं पानी को फुहारों के रूप में उड़ते हुए महसूस कर रहा हूँ। जल के छींटों से मेरा पूरा मुंह भीग गया है। चट्टानों की भयावहता अब नहीं डराती, अभ्यस्त हो गया हूँ। बहुत देर वहीं बैठा रह गया। इस बड़े से चट्टान पर अक्सर बैठकर झीने फुहारों में भीगना मुझे कितना भाता है, मैं बता नहीं सकता।

लेकिन मैं किसी और फुहार से भी सराबोर हो रहा हूँ, मुझे एहसास नहीं हो रहा था बस! वहां बैठे रहने के लिए स्वर्ग का सुख भी छोड़ने के लिए तैयार हूँ।

लेकिन क्यों? आखिर क्यों? आदमी बहुत कुछ जानने का दावा करता है, अपने मन को ही पूरी तरह क्यों नहीं पहचान पाता? मैंने भी अब तक कहां पहचाना था।

‘चलिए बाबू।’ दूर शहतूत के पेड़ के नीचे खड़ी वह चिल्ला रही है। मैं नहीं सुन पाता। अचानक उधर देखा तो वह हाथ हिला-हिलाकर बुलाने लगी। उसके चेहरे पर धूप-छांह! पास पहुंचने पर उसने कहा-

‘जल्दी चलिए। हमको पत्तल-दोना और करंज-सखुआ का दातुन लेकर हाट जाना है।’

इनकी आजीविका का साधन दातुन, लकड़ी-पत्तल बेचना। चौथे प्रहर से ही उनका सफर शुरू हो जाता। जंगल से पत्ते-दातुन तोड़ कर लाना और सवेरे-सवेरे बेचने निकल पड़ना।

वह इस बीच कब नदी में नहा चुकी थी, पता ही नहीं चला। गीले कपड़ों से पानी के मोती गिराती मेरे साथ राह दिखलाती चलती रही। पानी टपकता रहा टप! टप! टप! टप!

मैं शायद फिर सराबोर हो रहा हूँ। न उम्र की सीमा  हो, न जन्म का हो बंधन। जगजीत सिंह की दर्दीली आवाज के जादू का कायल रहा हूँ। कहीं न कहीं जगजीत सिंह की आवाज जाग रही थी मेरे अंदर।

जादू! काला जादू मुझे अपनी गिरफ्त में ले रहा था। मैं होश में था, पूरे होशो-हवास में। मैं होश में नहीं था। मेरे होशो-हवास खो रहे थे। पानी टपकता रहा टप! टप! मैं अंदर से रिक्त होता रहा।

पूरी कायनात और भी प्यारी लगने लगी। मन में मांदर बजने लगा-

तांग गितांग! धातिंग तुंग! धातिंग! तुंग! धातिंग धूंग!!

वह किन-किन लता-गुल्मों के बीच घुमाती ऊपर ले आई। देखा, पहली सीढ़ी के पास पहुंच गया हूँ। सीढ़ियों पर चढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी। सामने के खंडहर में बदलते मंदिर की ओर सरई बढ़ती गई। मैं पीछे-पीछे चित्रलिखित-सा चलता गया। उसने उस भग्न मंदिर के अंदर जाकर प्रणाम किया। चारों ओर की बियाबान जगह को देखता हुआ उसके पास पहुंचा। वह दोनों हाथ जोड़ ध्यान मग्न थी।

‘क्या आज ही सब मांग लेगी?’

‘हम तो रोज मांगते हैं।’ टप से एक बूंद पानी उसके बालों से फिर टपका। मोती धूप से चमचमा उठा।

‘रोज? क्या मांगती हो इतना डूब कर?’

वह मुस्करा कर रह गई।

‘बोलो न, क्या मांगती हो, पैसा?’

‘अरे! नहीं-नहीं। हम बस ये ही मांगते हैं कि हामर जल, हामर जंगल, हामर जमीन सब बचा रहे।’

इतना कहते हुए उसके चेहरे की चमक बढ़ गई। मैं उसके लावण्य से भरा काला चमकीला चेहरा देखता रह गया। कौन न मर जाए इस सादगी पर ऐ खुदा!’

अचानक मेरे सामने पतली मोटी लकड़ियों का गट्ठर सर पर लाद कर चलती औरतों, किशोरियों, बच्चियों की चींटी-सी कतारें आ गईं। पानी से भरी पतीली, डेगची, बाल्टी थामे स्त्रियां भी।

‘यह तो मुझे पता है। पर…’ मैंने जानना चाहा- ‘पत्तल-दोना और दातुन बेच कर कितना कमा लेती हो? इतने से तुमलोगों का काम चल जाता है? रोज-रोज गौतमधारा से ट्रेन पकड़ कर लकड़ियां लेकर रांची जाती हो, क्या टी.टी. नहीं पकड़ता है?’

वह हँसने लगी- ‘आज हमारे साथ चलिए, चलिए न!’

‘ठीक है, चलूंगा। लेकिन आज नहीं, कल।’

‘एक बात हमको भी बताइए, आप हर साल हिंया काहे आते हैं?’ पूछते हुए उसके चेहरे की मासूमियत दुगनी हो गई।

‘मैं यायावर हूँ, आवारा यायावर।’

‘अब ई का होता है?’

‘मैं घुम्मकड़ हूँ। इधर-उधर भटकने वाला।’

‘का मिलता है?’

‘आनंद, घनघोर आनंद! प्राकृतिक दृश्य मेरी कमजोरी है। मैं साल में तीन बार पहाड़, पठार या समुद्री इलाके के भ्रमण पर निकलता ही हूँ।’ मेरी आंखों के सामने से कई दृश्य निकल गए।

‘काहे?’ उसकी विस्फारित आंखों के सफेद कोये में मैं खो-सा गया।

‘उससे मुझे ऊर्जा मिलती है। ऐसे भी बंगाल के लोग जन्म से ही यायावर होते हैं। तुम्हारे पठार का यह इलाका मुझे हर साल पुकार उठता है। मैं जमशेदपुर के डिमना लेक में स्थित कॉटेज में तीन-चार रातें गुजार कर आस-पास के प्राकृतिक सौंदर्य का रस भी पी चुका हूँ। सच, तुम्हारा झारखंड बहुत सुंदर है।’

‘खाली सुंदर है सब?’ गहरी उत्सुकता उसकी आंखों में झांकी। एक विरक्ति भी।

‘नहीं, सब सुंदर तो नहीं है। इसीलिए मैं तुमलोगों की समस्याएं, तकलीफें जानना और दूर करना चाहता हूँ। यह जगह मुझे पसंद है क्योंकि यहाँ कभी गौतम बुद्ध आए थे।’

‘कौन?’

‘गौतम बुद्ध! विश्व-शांति के प्रतीक!’ जानता था, नहीं समझेगी। फिर भी कहा मैंने।

वह चुपचाप पेड़ की डाल पकड़ कर खड़ी हो गई। डाल भार से झुक गई। उसने हौले से पूछा- और?’

‘और तुम सबके बारे में जानना-समझना चाहता हूँ, पूरी तरह से।’

डाल से दाहिना हाथ तेजी से हटा कर मुंह पर तर्जनी उंगली रख वह धीरे से फुसफुसाई। डाल के हिलने से पत्ते कांप उठे। मेरा मन भी।

‘चुप! काहे झूठ बोलते हो बाबू! हमारे बारे में जानने को है का? सब हमारा मेहनत, ईमानदारी का फायदा उठाने आता है। या हमें बहला-फुसला कर, बाहर ले जाकर, खटाने-बेचने। तुम अकेले हो जो…’

उसने जानबूझकर बात को बीच में ही छोड़ दिया। दर्द के कोहरे से उसका चेहरा धुंधला गया। उसके कथन में झूठ कहां था। सीधे-सादे आदिवासी छतीसगढ़ के हों, उड़ीसा के, असम के या फिर झारखंड के। लोगों को आकर्षित करते हैं अपने श्रम के लिए, प्रताड़ना के लिए, दैहिक शोषण के लिए भी। कई बड़े-बड़े पत्रकारों, समाजशास्त्रियों ने अंतत: अपने अंतस की गंदगी की पोल खोल दी है।

मुझे ऐसे कई बड़े नाम याद आ गए, जो इनके लिए काम करने के नाम पर इनका ही दैहिक शोषण करते रहे हैं। लोगों के ‘विश्वासघातों’ की बात से तकलीफ भी पहुंची है। काफी तकलीफ! अगर उन भेड़ियों के मन की लपलपाहट को पहचान कर ये उठ खड़े होते, कितना अच्छा होता।

‘ये ही हैं नीले सियार! नीले रंग में रंगे सियार!!

पर ‘हुंआ हुंआ’ बहुत देर बाद किया सबने।

इतना कठिन जीवन जीनेवालों के साथ भी कैसे-कैसे धोखे कर जाते हैं लोग। मेरा ध्यान भटक गया।

एक छोटी-सी लगभग चार दिन की जिंदगी, वह भी…

‘का सोच रहे हो बाबू?’

‘कुछ नहीं।’

मैं लौट आया वहां, जहां सरई खड़ी मुझ पर विश्वास व्यक्त कर रही थी। सरई ने तिरछी नजर से देखा। फिर तेजी से अपने झोपड़े की ओर बढ़ गई।

सखुआ पेड़ की उस झूम उठी डाल को देर तक देखता रहा। पगडंडी को देखते हुए मैं भी अपने रेस्ट हाउस की तरफ बढ़ा।

दूसरे दिन मैं गौतमधारा स्टेशन के लिए निकल पड़ा। स्टेशन एवं उसके बाहर तक अट्टिया (एक बराबर काटी गईं लकड़ियां) का गट्ठर थामे लोग खड़े थे। किसी के कंधे पर बहंगी के दोनों छोर पर कई गट्ठरों का बोझ, तो कई के पैरों के पास बिखरा गट्ठरों का संसार। जंगल की छाती से निकल शहर की छाती पर छितरा उठने के लिए अकथ मेहनत बेचैन! इनमें भी लपलपाती जीभें नजर आ गईं। क्या इन्हें पता है, भगवान बुद्ध कभी यहां आए थे और जोन्हा को गौतमधारा नाम थमा गए। मैंने सर को झटका दिया। नहीं, इन्हें नहीं ही पता होगा।

सीटी के गूंजते ही अफरा-तफरी मच गई। मैं भी भीड़ को ठेलते-ढकेलते अंदर दाखिल होकर किसी तरह जगह बना कर बैठ गया। सरई ने कहा था, वह साथ में रांची जाएगी। मुझे उसके साथ जाना जरूरी नहीं लगा। सीट पर, सीट के नीचे, बेसिन के नीचे, बाहर दोनों तरफ खिड़कियों से बंधी गट्ठरें।

-यहाँ तक कि संड़ास की बगल में भी लोग एवं लकड़ियों का गट्ठर। ठसम-ठस! टी.टी. के आते ही कोई अपनी अंचरा से, कोई अंटी से निकाल रुपयों का चढ़ावा चढ़ाने लगा। बदले में बिना किसी गिले-शिकवे के उन्हें इस सफर का परमिशन मिल गया। गाड़ी चल पड़ी।

कुछ लोग कंपार्टमेंट के बाहर भी अपनी लकड़ियों के साथ लटके थे। ट्रेन सर्प-सी भागी जा रही थी। जीने के कितने उपाय! अगर पापी पेट नहीं होता, ये जद्दोजहद नहीं झेलनी पड़ती। पेट होता, लेकिन भूख न होती, तब भी।

‘तब जीवन जीवन न होता। सब आलसियों की तरह पड़े रहा करते। ऊब-ऊब कर मर जाते सब। पेट आदमी को जिंदा रखता है।’

‘और मारता भी है।’ बड़ी बउदी से कभी बहस हुई थी, मुझे वही याद आ गया।

रांची पहुंचते ही मैं अपने मित्र लाल से मिला। वह बहुत हुलस कर गले लगा। वह मुझसे पांचेक साल बड़ा है। कभी हम साथ-साथ काम करते रहे थे।

‘मैं तुम्हारे पास एक काम के सिलसिले में आया हूँ।’ उसकी दुकान का मुआयना करते हुए मैंने कहा।

‘हाँ कहो, क्या काम है?’ लाल ने एक कुर्सी बढ़ाई और हाथ से ही कुर्सी झाड़ी। हाथ को  पैंट में पोछ लिया। अरे वाह! स्मार्ट लाल?

‘जोन्हा में एक लड़की और उसका परिवार रहता है। उनकी हालत ऐसी है कि सुबह चूल्हा जले, तो रात का ठिकाना नहीं। रात जले, तो सबेरे फाका मस्ती। चाहता हूँ, तुम उनकी मदद करो।’

‘अरे! वहां क्या दो-तीन ऐसे हैं। सारी बस्ती ही…’

उसने पल्ला झाड़ लेने वाले अंदाज में कहा। वह और ऐसा उदासीन! छात्र जीवन का वह मित्र कहां खो गया? उम्र की मार या जीवन की आपाधापी? आंखों की आग इतनी ठंडी? छात्रों और गृहस्थों में यह दूरी आम। जे.पी. के समय का लाल कहां खो गया? संपूर्ण क्रांति, समानतामूलक समाज का वाहक और चाहक लाल? मैंने गहरी नजर डाली। इसके सामने भी उसी पापी पेट का सवाल अड़ा था शायद।

‘सही है। बस्तीवालों को दिन-रात काम में डूबे रहने पर भी भर पेट रोटी नसीब नहीं होती है। तू…’

‘मैं क्या कर सकता हूँ?’

उसने कलाई पर बैठी मक्खी को उड़ाया, जैसे हर फिक्र को धुएं में उड़ाया हो।

‘तुम उनके कलात्मक सामानों को उचित दाम देकर अपनी दुकान में रख लिया करो। मैं उनसे बात करता हूँ। वे लोग खुद सारा सामान लाया करेंगे, तुम्हें हाथ-पैर हिलाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। बस, उन्हें उचित मेहनताना…’

‘ठीक है, मैं देखता हूं। कुछ कर सकता हूँ तो जरूर…। हाँ, तुम अपनी सुनाओ, कैसे हो?’

वह मुस्कराया। क्या वह सही में मुस्कराया। उसने अपने खिचड़ी बालों को सहलाते हुए सर हिलाया। आधे बालों में खिजाब, आधे में सफेदी की खिचड़ी। अब वह भी शायद इसी तरह की खिचड़ी बन चुका था। आधा आदर्शवादी, आधा व्यापारी। कॉलेज में नेतागिरी करते बड़ी-बड़ी डींगे हांका करता। काम भी करता। किसी काम को असंभव नहीं मानने वाला था वह।

‘कर सकता हूँ नहीं, करना पड़ेगा। तुम जानते हो यार, उन लोगों ने मेरी कितनी सहायता की है।’

दिन भर मैं शहर घूमता रहा। सांझ ढले स्टेशन पर आकर खड़ा हुआ कि एक आवाज से चौंक पड़ा।

‘बाबू! बाबू!’

मैं इधर-उधर देखने लगा। रांची जंक्शन का शोर चरम पर था। भीड़ में मेरी आंखें उस आवाज का पीछा करने लगीं।

‘बाबू!’ वह एकदम सामने आकर खड़ी हो गई। सरई की छोटी बहन बच गए दातुन को सर पर रखे हुए मेरी ओर दौड़ी चली आई थी। पीछे-पीछे उसकी मां और सरई। दोनों के हाथ में एक-एक टोकरी। टोकरी में बचे सामान। पत्ते, बने-अधबने पत्तल-दोने। हम साथ लौटे। सबके चेहरे पर मेहनत का उजास था, चेहरे पर थकान न थी। सरई की बड़ी-बड़ी काली पुतलियों वाली आंखों में हँसते हंस का जोड़ा मैंने देख लिया। देर तक देखता रहा।

वह बेखबर। ट्रेन चलती रही। मेरे मन की जमीन पर भी विचारों के पाखी उड़ रहे थे। वे सब चुहुलबाजी में व्यस्त। मैं थकान महसूस कर रहा था। सरई के चेहरे पर उसके खोपे की जेल से निकल भागा लट अठखेलियां कर रहा था। मेरी नजरें चोर बन गईं।

यहां बहुत संभावना है। पर्यटन को बढ़ावा मिलना चाहिए। उसी में इन सबकी भलाई है। पलायन भी थमेगा। सोचते हुए मैंने अपने कमरे में प्रवेश किया। बेसिन के पास जाकर पानी के छींटों से चेहरे को दुलराया तो दिन भर की थकान से थोड़ी राहत मिली। फिर निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गया। ये लोग इतना श्रम कैसे कर लेते हैं! मेरे जेहन में फिर यह बात आई।

दो-चार दिनों बाद मैं अपने घर वापस आ गया। धीरे-धीरे काम में रमता गया। इधर एक अजीब बात हुई। सोते-जागते एक मासूम काला चेहरा आंखों में छाया रहने लगा। पानी से भीगा, धुला-धुला-सा चेहरा! एक लड़की हाथ जोड़ कर आस्था में डूबी जब-तब दिखे और काम करते हाथ ठिठक जाए। उस लावण्यमयी चेहरे में मन-दिमाग अटक जाए। वही रूप उभर आता। खुले दांतों से झरते मोती की चमक। हिरणी की चपलता, सब याद आता। यादें मेरा रास्ता रोक लेतीं जब-तब। काम में मन नहीं लगता। कितनी गलतियां होने लगीं। बेचैनी की अबूझ लहरें उठने लगीं। आंखें किसी को तलाशने लगीं हरदम।

टूटे मंदिर के पास खड़ी प्रार्थना में लीन वह मुझे बहुत भोली-निष्पाप लगी थी। ठीक सरई फूल की  तरह। झारखंड के आदिवासी इन सखुआ फूलों को कितना पवित्र मानते हैं। सरहुल पर्व पर इस पवित्र फूल की उपयोगिता देखते बनती है। पूजा में भी चढ़े, फूल खोंसी में पाहन पुजारी के द्वारा घर-घर बांटा भी जाए। सबके कानों में, जूड़ों में सज उठने वाले पवित्र सरई पुष्प से जुड़ा गीत मुझे याद आ जाता-

फूल गेलई सरई फूल/ सरहुल दिना आबे गुईया

दस-बारह महीने बीतते ही मैं फिर हाजिर। वहां एक आश्चर्य मेरा इंतजार कर रहा है, मैं नहीं जानता था। पहाड़ी झरने-सी चंचल सरई मुझे कहीं नहीं दिखलाई पड़ी। बेचैनी चौगुनी! आंखों की खुमारी में उदासी का रंग घुलने लगा। कहां खोजूं? मैंने जोन्हा का चप्पा-चप्पा छान मारा। उसका परिवार कहीं चला गया था। कोई नहीं बता पाया, कहां। मैं कई दिन तक हर संभावित जगह तलाश कर निराश हो चला। मन के टूटे शाखों पर पतझड़ छाने लगा। अब लौटने का मन बना रहा था कि-

रात के दो बजे थे। गेस्ट हाउस के कमरे में बैठा मैं डायरी में मन के भावों को कलमबद्ध कर रहा था। आज सब सच-सच लिख देने का मन था। कोई पढ़े या समझे नहीं, तब भी। एक अंधी गली के मोड़ पर खड़ा था मैं अभी। बस्स! अपने मन के सच को डायरी के पन्नों पर उगल डालने को यूं ही बेचैन था। कलम तेजी से चल रही थी। मन के भाव भी।

खट-खट!

‘कौन है?’

खट-खट!

‘कौन है भाई दरवाजा तोड़ ही डालोगे क्या? तोड़ ही दो भैया।’

खट-खट!

मैं खीज कर उठा। दरवाजा खोलते ही पिस्तौल से लैश बीस-पचीस आदमी अंदर घुस आए। दो ने मेरी बांहें मरोड़ कर पकड़ ली। मेरी घिग्घी बंध गई। जब तक मैं कुछ समझ पाऊं, वे मुझे खींचते हुए बाहर ले चले। मैं सैंडो गंजी और पाजामे में ही उनके साथ घिसटने लगा। वे मुझे घेरे हुए चल रहे थे। जोन्हा के जंगल के भयावह सन्नाटे को उनकी पदचाप भंग करने लगी। चारों ओर ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के कारण जंगल का अंधेरा और भी गहरा उठा था। उन्हें देख लगा नहीं, यह अंधकार उनके लिए कोई बाधा खड़ी कर रहा है। मैं बेहद डरा हुआ!

कुछ बोलना या पूछना भी मुश्किल। वे एक अनजानी भाषा में बात कर रहे थे जिसका एक लफ्ज भी मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा था। हवा की सांय-सांय बात करने को बेताब थी, मैं सुन्न था। पता नहीं चला,वे लोग किस भाषा में बात कर रहे हैं खोरठा, मुुंडारी, हो, खड़िया या कुडुख में।

उनके साथ चुपचाप चलते हुए लगभग आधे घंटे बाद एक बड़ी चट्टान के सामने पहुंच गया। सामने के दूसरे चट्टान पर लालटेन अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ अंधेरे के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए था। चट्टान के पास जाकर मेरे डरावने सहयात्रियों में से कइयों ने अपने हाथ में पकड़ी लालटेनों को चट्टानों के हवाले कर दिया। आस-पास का इलाका जगमगा उठा। मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम। आखिर मैंने क्या गलती की? ये मुझसे चाहते क्या हैं?

मैं सांस रोक कर उनके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा। मैं समझ गया, मैं किनके चंगुल में पड़ गया था। वे खड़े थे। एकदम चुपचाप, अनुशासनबद्ध। अब मेरा क्या करेंगे ये? अचार डालेंगे? छह इंच छोटा कर देंगे? गोली मारेंगे भेजे में? आखिर क्या करेंगे? भय रगों में, मन को चुहलबाजी से बहलाना चाहा। कोई उपाय भी तो नहीं, थोड़ी चुहलबाजी ही सही।

बहुत देर की प्रतीक्षा के बाद सामने बने छोटे-से झोपड़े से एक व्यक्ति बाहर आया। लालटेन की रोशनी में देखा-घुटने से उठाकर बांधी गई धोती और गंजी में एक मासूम चेहरा!  बड़ी-बड़ी मूंछें! लेकिन चेहरा एकदम भोले बच्चे-सा। यह? इतना मासूम चेहरा कहीं…! समय कितना क्रूर हो चला था। सोचने का वक्त कहां था।

बाहर आते ही उसने कुछ पूछा। जवाब सुन कर पता नहीं क्या कहा कि पलक झपकते ही सबकी पिस्तौल की तीखी नाल रोशनी में चमक उठी। दो पिस्तौल की नोक कमर से आ लगी। मेरी ऊपर की सांस ऊपर, नीचे की नीचे।

घबरा कर मैंने अपनी आंखें मूंद लीं। बस्स! अगला पल मौत का पैगाम है। हड़बड़ी में इष्ट देवता भी याद नहीं आ रहे थे। हनुमान जी ही जल्दी में याद आए। मैं उन्हीं का नाम जपने लगा।

‘संकट मोचन नाम तिहारे, भूत-पिशाच निकट नहीं आवे।’

वे नंग-धड़ंग लोग क्या भूत-पिशाच से कम नजर आ रहे थे! मौत को इतने करीब से मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं थर-थर कांपने लगा।

तभी जंगल के किनारे से एक तीखी आवाज आई, नारी स्वर! फटी होने के वावजूद मैंने इस आवाज को पहचानने में कोई भूल नहीं की। मैंने पलट कर पीछे देखना चाहा। पिस्तौल की एक नाल कमर में, एक गर्दन में चुभी। मैं सीधे चट्टान की ओर देखते हुए सरई के पैरों की आहट में अपनी सांसें महसूसने लगा। सूखे पत्तों की चरमर-चरमर, चरमर! चरमर!

इस रूह को कंपा देने वाली शांति में भली लगने लगी यह चरमर! चरमर! सरई सीधे झोपड़े से निकले व्यक्ति के पास चली गई। आस की एक किरण मेरे हृदय तक पहुंची। उन दोनों के बीच कुछ बातचीत, कुछ झड़पें, कुछ मान-मनुहार! पर क्या, मेरे पल्ले नहीं पड़ा।

उसने मुझे बचाने के लिए जी जान लगा दी है, यह बात समझ में आई। खतरा टला नहीं, कमर एवं गर्दन पर एकाएक चुभती नाल भी बता रही थी। कभी-कभी अत्यधिक चुभ उठती नोकों से ही बातचीत की विफलता का एहसास होता। पूरा वजूद कमर, गर्दन के दई-गिर्द सिमट आया।

एक-ब-एक कमर और गर्दन की चुभन कम हो गई। कुछ देर बाद खतरा कम होने का एहसास जगा। विश्वास नहीं हुआ। सामने खड़े व्यक्ति का दाहिना हाथ हिला- ‘जाओ।’

सरई ने हाथ थामा। पलट पड़ी। जब पांच-छह पिस्तौलधारी साथ चल पड़े। तब जाना, हाथ ने ‘ले जाओ’ का संकेत उगला था। लौटते हुए भी मैं नि:शंक नहीं था। आधे जंगल तक उनका साथ रहा। फिर मैं और सरई कोयल की कूक, पक्षियों के कलरव एवं कई जंगली जानवरों की डरावनी आवाजों के बीच चलते रहे। मैं रह-रह कर उसकी ओर देख लेता। कुछ कह न पाता।

इस परिस्थिति में मुलाकात होगी, यह कल्पना भी बेमानी थी। पर यही सौ फीसदी सच था। मिल कर आवाज गुम थी। माहौल ने आवाज को काठ बना डाला था। उसकी आवाज को भी। सदा चहकने वाली बुलबुल आज शांत थी। मेरा ध्यान इधर न था। मैं सोच रहा था-

‘देखो बिरसा, तुम्हारे जंगल को लोगों ने क्या बना डाला। इसी दिन के लिए?… तुम्हारी बांसुरी की गूंज कहां गई बिरसा? और तुम्हारे दहाड़ने की आवाज? बिरसा! बिरसा! बिरसा! कुछ जवाब है तुम्हारे पास?’

होटल पहुंचने पर ही मैं अपनी उखड़ती सांसों को थोड़ा समेट पाया। दरवाजे तक पहुंचा कर वह लौट गई। मेरी बनियान गीली भय की वजह से। अब भी खून की रफ्तार बढ़ी हुई। पसीने की धार भी। आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। सोना संभव नहीं, सोया भी नहीं। मैंने उस भोले चेहरे को प्यार करके कोई गलती तो नहीं की? भोला चेहरा? कितना भोला?

जाने के पहले सरई और उसके परिवार से मिलने की इच्छा है। हिम्मत नहीं। ग्यारह बजे मेरी गाड़ी है। मैंने साढ़े आठ-नौ में ही निकलने का प्लान बना लिया। यहां रुके रहने की सच में कोई वजह नहीं बची है अब।

जोन्हा के जल, चट्टान और झोपड़ों में लपलपाती जीभें दिखलाई पड़ रही हैं। जान बचाकर मैं लाखों पा चुका था। पर उन मासूमों के बदलते चेहरों की सचाई जानने के लिए भी बेचैन था, सरई के भी।

मैं रात से पड़े सैंडविच को ताकने लगा। ताजे सैंडविच को मैं कुतर ही रहा था कि सरई और उसके बाबा आ पहुंचे।

‘कहां जा रहे हैं बाबू?’

सरई की नजर बंधे सामानों पर टिक गई। मैंने देखा, उसकी पोशाक बदल गई है। लाल शर्ट और नीली जींस! यह तो उसका पहनावा नहीं। मैं देख रहा हूँ लाल शर्ट से खून टपक रहा है। झिलमिलाता मोती कहीं खो गया टूटकर-टूटकर।

‘वापस।’

‘पर काहे?’

‘अब यह तुम पूछ रही हो?’

‘मत जाइए। अब कुछ नहीं होगा कभी।’

मैंने चौंक कर देखा। वह बहुत गंभीर थी। वह मेरी अटैची उठा कर किनारे रखने लगी। उसके चेहरे में एक दबी चिंगारी थी। उसके चेहरे के आत्मविश्वास ने मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।

‘उन लोगों के साथ तुम्हारा संबंध क्या है सरई?’

मेरी आवाज लरज रही थी। मैं जो पूछना नहीं चाहता, पर समझ चुका था, वह अचानक मुंह से निकल गयाा

वह चौंकी। वह हँसी- ‘क…कुछ…कुछ… भी नहीं बाबू।’

मुझे उससे बहुत ज्यादा डर लगने लगा। मैं अचंभित! सरई के इस भोले चेहरे के पीछे उसका कौन सा रूप छुपा है। इस जहरीले वृक्ष ने आखिर कहां तक अपनी जड़ें फैला लीं। किस-किस को कैसे छू लिया? मकड़ी ने चारों ओर जाला बुन लिया। यह राज्य विभिन्न बेशकीमती रत्नों के लिए सुख्यात है। यहां भी जाला। अभी तो सिर मुड़ाया भी नहीं, फिर ओले? इस धरती ने कैसे-कैसे रत्न पैदा कर दिए? गीतों की मिठास में क्या घुल रहा है। सरई छुपी रुस्तम। यह सादा सखुआ का दातुन करंज जैसे तीखे स्वाद वाले दातुनों के साथ कैसे, कब जा मिला? सरई हीरा नहीं, कोयला… कोयला मात्र!

तभी मांदर की आवाज दूर से आई। तांग गितांग! धातिंग! तुंग धातिंग तुंग!!

पर मुझे यह युद्ध के नगाड़े की आवाज क्यों लग रही है?

कहीं नृत्य की थिरकन भी होगी। अखरा में झुमराहिनों ने झुमर खेलना शुरू कर दिया होगा। गीत के बोल पक्षियों के कलरव की तरह लहरा कर उठे होंगे और पूरे जंगल को गूंजा गए होंगे?

अखरा में जोड़ा मांदर बोलत हे

चलु नी पिया लेगाए राखू

यह आवाज उतनी सुरीली क्यों नहीं लग रही है? इसकी मादकता कहां गुम गई? मांदर की थाप में दम क्यों नहीं?

टूटी गेलक टंगना रे
फूटी गेलक मांदरा
चलु नी पिया लेगाए राखू

मेरे अंदर यह कौन गा रहा है? मैं आंखें फाड़ कर उसे देखते हुए सोचे जा रहा हूँ। उसकी ओंखें नम हो रही हैं, मेरी भी। बूंदें अब टपकीं… अब टपकीं। दोनों की। मैं उसके आर-पार देख पा रहा था। वह कह नहीं पा रही थी, मैं समझ पा रहा था।

‘किसी-किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता।’

‘बाबू, इतना जास्ती मत सोचो। दिमाग खराब हो जाएगा।’

उसकी आवाज में थोड़ा गीलापन! मेरी अटैची पर रखा वह स्वर थरथराने लगा? मैंने उस थरथराते स्वर को पकड़ना चाहा। चाहा, उतनी सहजता से ही उससे लड़ूं, बोलूं, बतियाऊं पर… अंदर, मेरे अंदर भी कुछ कांपने लगा था। उसका चेहरा ताकना चाहा, ज्यादा देर निगाहें टिक नहीं पा रही थीं। उसका स्वर थरथराता रहा। लगा, जल्द से जल्द यहां से निकल जाऊं।

अब एक पल और ठहरना पॉसिबल नहीं। मैंने कनखी से एक नजर उस पर डाली। उसका चेहरा गीला, आवाज गीली, चेहरा थरथराता, आवाज थरथराती हुई। कहीं उसके अंदर भी तो कोंपल नहीं फूंटी? जरूर, जरूर उधर भी कुछ अंखुवाया है। कोंपलों की पहचान हो गई मुझे। लफ्जों की जरूरत नहीं। थी ही कब!

मैंने सैंडविच की ओर ताकना छोड़ दिया। दरवाजे की ओर भी। सोचा अनायास, मुझे रुकना चाहिए। कोयले में से हीरे को अलग कर तराशना चाहिए। संभव है? उठा द्वंद्व। द्वंद्व पर द्वंद्व!

कोशिश करने में क्या हर्ज है? अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। इतने सालों की निश्छलता पर ये दस-बारह महीने कैसे भारी पड़ सकते हैं। मुझे पुरानी सरई याद आने लगी। पवित्र सखुआ फूल की तरह। एक मुलायम लचीली डाली की तरह।

अक्सर कोशिशें सफल भी हो जाती हैं। सच्चे मन से की गई कोशिशों में बहुत दम होता है न। मेरी सोच अनियंत्रित? उसे, उसके परिजनों तथा अन्य भटके लोगों को फिर से मुख्यधारा में लाया जा सकता है।

जैसे प्यार में देर नहीं हुआ करती, वैसे ही शायद! शायद! शायद!

‘सरई! अटैची से एक जोड़ी कपड़ा बाहर निकाल कर दे सकती हो? और जरा गुड़ की चाय हो जाए।’

मेरे लबों ने मेरे मन का साथ बखूबी निभाया था। मैं उनका गुलाम हो गया। मैंने ताजे सैंडविच को कुतरना शुरू कर दिया।

संपर्क सूत्र : 1सी, डी ब्लॉक, सत्यभामा ग्रैंड, कुसई, डोरंडा, रांची-834002 (झारखंड) मो.9431701893