युवा लेखिका। कहानी संग्रह उजालों के रंगऔर तूफ़ान। कविता संग्रहअनुभूति’, ‘एक टुकड़ा धूप काप्रकाशित।

‘बूंदों की भी अपनी भाषा होती है। जैसे सन्नाटे की और शोर की भी। सीने में घुटते दर्द की भी होती है, आंखों में फंसी नमी की और होठों के कोर में फंसी हँसी की भी। सबकी एक भाषा होती है। हां, हर भाषा हर किसी को नहीं आती। तुम्हें भी नहीं आती। आती तो तुम भी इन बूंदों की भाषा समझते और फिर यह न कहते कि कितना शोर है।’

उनका एकालाप चल रहा था, अपनी ही रौ में, बिलकुल बारिश में बरसती बूंदों की तरह। कोई सुन रहा है या नहीं, इससे फर्क नहीं पड़ता। वे तो खुद में ही गुनती रहती हैं। मिहिर के कान अपनी दादी की बातों में लगे रहते हैं। वह सोचता है, क्या, सब बूढ़े ऐसे ही हो जाते हैं जैसे उसकी दादी। वह गौर से देखता है, दादी के चेहरे को और सोचता है कि कितनी मासूमियत है दादी के चेहरे में। 88 बरस की दादी के चेहरे पर, उनकी उम्र झुर्रियों की सलवटों में फंसी झांकती रहती है, पेड़ की कोटर में छुपे नवजात पंछी सी। जब दादी हँसती हैं तो पिघली चांदी-सी ये झुर्रियां पिघल कर बहने लगती हैं। इनकी चमक कितना प्रकाश भर देती है उसमें। वह सोचता है, वह दादी को बताए यह सब। उनकी हँसी की चमक, उनके चेहरे का नूर। उसे शब्द नहीं मिलते। वह दादी की तरह मुखर नहीं है। उसके शब्द बोलने के पहले ही छुप जाते हैं किसी शर्मीले बच्चे की तरह न जाने किस दीवार की ओट में। वह उन्हें बुलाता ही रह जाता है और वे बाहर ही नहीं निकलते। और दादी के शब्द तो उसे लगता है खुले आसमान के नीचे खेलते ही रहते हैं, तभी तो उनके पोपले मुख से झरते ही रहते हैं, बेधड़क।

‘क्या सोच रहे हो, मिहिर!’ दादी के चेहरे पर फिर से वही बाल सुलभ उत्सुकता, नन्ही चिड़िया-सी इधर-उधर फुदक रही थी।

‘कुछ नहीं दादी।’ वह हँस दिया।

‘हमें तो लगता है, तुम दादी और हम पोता हैं।’

‘अच्छा, वह कैसे दादी?’ उत्सुकता की वह चिड़िया, अब उसके चेहरे पर फुदक रही थी।

‘तुम सोचते रहते हो हर वक्त बूढ़ों की तरह और मैं बोलती रहती हूँ, बच्चों की तरह। वह क्या कहते हो तुम, हां! ‘रोल रिवर्सल’ है, हमारे बीच।’

और दादी हँस रही थीं, दूर जंगल के पार किसी पुराने मंदिर में बजती घंटियों की धुन-सी हँसी गूंज रही थी। दादी की हँसी ढलती शाम का उजाला है।

‘अच्छा क्या सोचते रहते हो तुम, हर वक्त?’

दादी पूछ रही थीं।

‘कुछ नहीं दादी, कुछ भी तो नहीं।’

वह दादी के ऐसे अप्रत्याशित हमलों से घबराता है। कोई क्या बताए और कैसे बताए कि वह हर वक्त क्या सोचता रहता है।

‘कितना घबराते हो तुम मिहिर?’

दादी फिर से हँस रही थीं। ओह, फिर वही दूर किसी पुराने मंदिर की घंटी की टुन-टुनाहट।

‘मार्च की पैदाइश हो न, ओ! तुम्हारे सन साइन में क्या होता है वह? अरे हां पाइसेस। ख्यालों की दुनिया में गुम रहने वाले।’ दादी फिर से हँस रही थीं।

वह भी हँसने लगा।

‘अब यह सब किसने बता दिया आपको, दादी?’

‘छुटकी बता रही थी कुछ दिन पहले। पढ़ती रहती है न, ये सब। यूट्यूब में वीडियो दिखा रही थी। कहती है कि हम एरीज हैं। पहला साइन। नवजात बच्चे जैसा, और तुम आखिरी साइन। हर अनुभव और ज्ञान की छोर।’

‘आप मानती हैं दादी ये सब?’ दादी की इस उम्र में भी कुछ न कुछ नया सीखने, जानने की उत्सुकता उसे कौतुक से भर देती है।

‘अब इसमें मानने, न मानने जैसा क्या है? जो जानना, समझना चाहे तो उसके लिए कुछ न कुछ तो है ही।’

‘मैं भी देखती हूँ छुटकी के साथ, अच्छा लगता है। हम मिलकर मिलान करते हैं कि किसमें कितना गुण मिलता है, आनंद आता है।’

वह मुस्कुरा दिया, दादी की आंखों से छलकता उत्साह, मानो सुबह की ओस में भीगे पत्ते पर टिकी थरथराती ओस की बूंदें हैं।

‘तुम लिखा करो, मिहिर। बोलते नहीं हो तो, लिखो या फिर चित्रकारी या कुछ और। जहां मन रमे। हमारे दिमाग की चक्की में विचार और भाव नहीं रुकते न, चलते ही रहते हैं, निकलते रहें तो अच्छा है। नहीं तो ठहरे पानी से सड़ने लगते हैं।’

वह कुछ नहीं बोला, दादी को देखता रहा। तो क्या दादी विचारों की सड़न से बचने के लिए बोलती रहती हैं, कुछ न कुछ नया सीखती रहती हैं। बरसती बूंदों की भाषा भी सुनने और समझने की कोशिश में लगी रहती हैं। फूल-पौधों से बातें करती हैं। हवा की सिहरन, धूप की नरमी-गरमी में भी कुदरत का कोई संदेश गुनती हैं।

‘इस जन्मदिन पर मैं तुम्हें, एक अच्छी-सी नोटबुक दूंगी। अगले सप्ताह ही तो है न जन्मदिन बेटा! चौदह बरस के हो जाओगे अब तुम। रंगीन पन्नों वाली नोटबुक दूंगी। लिखना उसमें तुम, वह सब कुछ, जिन्हें बोलने के लिए तुम्हें शब्द नहीं मिलते। कई बार लिखना, बोलने से आसान होता है।’

‘ठीक है, दादी। कोशिश करूंगा।’ वह मुस्कुरा दिया।

‘दादी, आज पकौड़ों के साथ चाय थोड़ी मीठी बनाई है। मजा आएगा पीने में। नरम-गरम पकौड़े और मीठी-मीठी चाय, इस अचानक की बारिश के साथ, क्या बात है न दादी?’ छुटकी चाय और पकौड़ो की ट्रे लेकर खड़ी थी।

‘तुम कब बना लाई ये सब, मेरी छुटकी। देख मिहिर! तेरी दीदी कितनी स्मार्ट है। है न?’ दादी की आवाज बाहर तड़ातड़ बरसती बूदों-सी कमरे में गूंज रही थी। मां, पिताजी दोनों ही एक रिश्तेदारी में शहर से बाहर गए हुए थे। अगले दिन सुबह तक ही आने वाले थे। घर पर बस वह, दीदी और दादी ही थे। ऐसे अवसर कम ही आते हैं कि वह तीनों घर में यूं अकेले हों। मार्च का पहला सप्ताह चल रहा और इस अचानक बारिश से जाती हुई ठंड ठिठक कर खड़ी हो, मानो सोच रही कि जाऊं या थोड़ी देर और ठहर जाऊं। ठंड को भी कहीं मोह तो नहीं हो गया या फिर बिछड़ जाने की पीड़ा का डर!

तेरे हाथ में जादू है, छुटकी! क्या पकौड़े बने हैं!दादी मुंह में पकौड़े चुभलाते खासी खुश दिख रही थीं। दादी छोटीछोटी बातों में भी खुशियों का खजाना पा लेती हैं, फिर पलटकर, उस खजाने को सब पर वापस बरसा देती हैं। दादी का जीवन जीने का यह भरपूर अंदाज ही तो उन्हें इस उम्र में भी स्वस्थ और मजबूत बनाए हुए है।

है न, दादी! एकदम मस्त बना है न!दीदी में एक दूसरी दादी तैयार हो रहीं। मिहिर को लगता है दादी के सारे ही गुणसूत्र दीदी में उतर आए हैं। वही जिंदादिली, वही हावभाव, वही शक्लसूरत। उन्नीस बरस की दीदी में, बरसों पहले की उन्नीस बरस की दादी फिर से जिंदा हो गई हों, जैसे।

‘इतनी बारिश में कामवाली दीदी का आना तो मुश्किल लग रहा।’

चाय का घूंट भरती दीदी खिड़की के बाहर झांक रही थीं। बारिश के झोंकों में घर के लॉन के पेड़-पौधे झूम रहे थे।

‘हां, बारिश नहीं थमेगी आज रात भर। तुम मोबाइल में देखकर कह तो रही थी सुबह।’

‘हां दादी, ऐप में यही प्रिडिक्शन दिखा रहा है।’ दीदी फिर से मोबाइल ऐप चेक करते हुए बोली।

‘कोई बात नहीं, आज हम मिलकर खाना बनाएंगे।’

‘अरे परेशान क्या होना छुटकी, बाहर से मंगा ले, वह एक एप्प है न, क्या कहते हैं उसे, जोमेटो, स्विग्गी!’

मिहिर हँसने लगा, ‘दादी, आपको सब पता है। ऐसा भी कुछ है जो आप नहीं जानतीं?’

‘सब कुछ तो कहां जानती हूँ! ये थोड़ा-बहुत सीख गई हूँ सुन-सुन कर।’

दादी सकुचाती हुई हँसने लगीं।

‘अरे नहीं दादी, आज मस्त दिन है। एक नई रेसिपी ट्राई की जाए। मैंने दिखाई थी न उस दिन यूट्यूब पर आपको।’ दीदी ने हवा में मोबाइल लहराया।

दादी खुश हो गईं, ‘ठीक है, हम मिलकर पकाएंगे। ठीक है मिहिर?’

‘हां दादी, एकदम, मैं भी मदद करूंगा, मुझे भी आता है थोड़ा-थोड़ा। नहीं तो आज सीख लूंगा।’

वह भीगी शाम एक अलग रंग में डूब गई। स्मृतियों के पैलेट में न जाने कितने रंग उलीच गई। हँसी के छोटे-बड़े गुब्बारे उस दिन घर के किचन में रह-रहकर उड़ते रहे और दूर समय की गीली चादर में हमेशा-हमेशा के लिए समा गए।

वह अनगढ़ हाथों से रोटी बेलने की जिद पर अड़ा था। दीदी से एक नई बहस छिड़ी थी कि दादी की खनकती आवाज ने उनकी बहस को ओर से छोर तक पहुंचा दिया।

‘कोई बात नहीं छुटकी, आज हम अफ्रीका का नक्शा खा लेंगे, अपने मिहिर की रोटी में।’ दीदी और दादी की हँसी का मंजीरा सुन उसके कान और गाल गरम-गरम भाप छोड़ने लगे।

‘देखो कैसे तो शर्माता है ये, दादी?’ दीदी की हँसी चाभी भर कर छोड़ा खिलौना है, हँसना शुरू तो रुकने का कोई हिसाब नहीं। मिहिर ने देखा, दादी की आंखों में प्रेम का सैलाब रह रह कर उमड़ रहा है।

‘रोटी सेंकते लड़के अच्छे लगते हैं मिहिर, जैसे ऑफिस में कंप्यूटर पर काम करती लड़कियां अच्छी लगती हैं। यह गुण है मेरे बच्चे, पेट भरता है इससे।’

‘जी दादी!’ वह मुस्कुरा दिया। कितनी अलग हैं उसकी दादी, बाकियों की दादी से कितनी समझदार, अपने समय से बहुत आगे। उसने नहीं सुना दादी को अपनी मां के लिए कभी कुछ गलत बोलते या दीदी और उसे हर बात पर टोकते, डांटते जैसे उसके कुछ दोस्तों की दादियां करती हैं। घरों के अंदर ही चलते एक विनाशकारी शीत युद्ध का हर पल बिगुल थामे। वह सोचता है, क्या उसकी दादी जैसा बनना इतना मुश्किल है?

आज खाने का एक अलग ही स्वाद था। उसके अफ्रीका के नक्शे वाली रोटियों का स्वाद बहुत मीठा था। मिहिर ने दादी की तारीफ अपने सीने में दबा कर रख ली। वह भी दीदी के साथ नई-नई रेसिपी बनाएगा। उसकी इस सोच में भी एक मिठास थी।

बारिश को आज रात थमना नहीं है, यह बात बीच-बीच में गरजते बादल और तड़पती बिजली मानो धमकी देती सी बता जाती थी।

‘दादी! आज हम दोनों भी आपके पास ही सो जाते हैं।’ दीदी उसके मन की बात पढ़ लेती है क्या? मिहिर के मन में दुबके भाव खरगोश के बच्चों से गहरी नींद से अंगड़ाई लेकर उठ बैठे।

‘तो अब भी तुम्हें कहानियां सुननी हैं, कोई नई कहानी नहीं बची है अब मेरे पास।’ दादी की आवाज में स्नेह से भीगी बाती जल रही थी। इस रात का अंधेरा बल्ब की रोशनी नहीं, दादी की आवाज से आलोकित था।

‘तुम भी एक कहानी हो दादी, 88 बरस की कहानी। आज हमें यही कहानी सुना दो।’ दीदी बातों की जादूगर है, मिहिर को इस बात पर कभी कोई शक नहीं रहा।

बारिश ने ठंड के हौसले बढ़ा दिए थे। बक्सों में बंद होते-होते स्वेटर, शॉल, कंबल अपनी गरिमामयी उपस्थिति से फिर से मुदित हो उठे थे। दादी के हाथ अपने पसंदीदा कंबल को अपने पैरों के ऊपर खींचते ठिठक गए।

‘मेरी कहानी में कुछ भी नया नहीं है, जो है तुम्हें पता है।’ दादी स्मृतियों के तले में डूबने से बचती हैं। नहीं तो 88 बरस की दादी की कहानी में उन्हें सब पता हो, ऐसा नहीं हो सकता।

‘दादी, आप इस कंबल की और अपनी कहानी सुना दो आज। घर में इतने अच्छे, नए, गरम रजाई, कंबल हैं, तब भी आप इस कंबल को नहीं छोड़तीं। इस पर मां नए-नए कवर चढ़ा कर इसे जैसे-तैसे बचाए हुए हैं। इनमें ऐसा क्या है दादी जो आप को इतना पसंद है यह? हमसे भी ज्यादा प्यारा है, ये आपको।’

‘तो छुटकी को इस बेचारे कंबल से प्रतिस्पर्धा है।’ आज दादी ने मानो एक नया रहस्योद्घाटन किया।

‘क्या, मिहिर! तुम भी अपनी दीदी की तरह सोचते हो क्या?’

मिहिर मुस्कुरा दिया, है तो कुछ ऐसा ही, एक कंबल से इतना मोह!

‘मोह के गर्भ में ही तो जीने की लौ छुपी है, मिहिर!’ दादी मन पढ़ लेती हैं।

‘तुम्हारी दादी जब बस बीस बरस की थीं, जीने की यह लौ उनसे रूठ गई थी।’

‘अच्छा ऐसा क्या हुआ था दादी?’ मिहिर और छुटकी भी दादी के कंबल में घुसते हुए उनके अगल-बगल बैठ गए थे। दादी की आवाज में अंधेरा उनके लिए अनजान था।

‘दिन से रात होने में और रात से दिन होने में समय लगता है, छुटकी। पर जीवन के उजाले को अंधेरे में डूब जाने में कई बार बिलकुल वक्त नहीं लगता। मेरा जीवन भी एक झटके में अंधेरे में डूब गया था।’

‘क्या हुआ था, दादी?’ छुटकी की आवाज में भारीपन एक नई अनुभूति थी मिहिर के लिए। उसने आंखों के कोर से धीरे से देखा था, उसके सीने में एक धप-सी आवाज हुई थी जो उसे एक विस्फोट-सी सुनाई दी थी।

‘घर जल रहे थे, बेटा। शोर था, इतना कि अगल-बगल खड़े को भी एक दूसरे की बात नहीं सुनाई देती थी।’ दादी की सांस थम-सी गई थी।

‘दंगे हो गए थे, क्यों? किसी को भी ठीक से नहीं पता। एक डर था जो मन के हर भाव पर भारी था। एक डरे हुए जीव से अधिक खतरनाक कोई नहीं होता, छुटकी! कोई मुझे मारे, इसके पहले मैं उसे मार दूं। कोई मेरा घर जलाए, उसके पहले मैं उसका जला दूं। भय और घृणा से बड़ा कोई दुश्मन नहीं होता। यह दुश्मन सब पर भारी था। जब यह दुश्मन थक कर सुस्ताने लगा तब तक न जाने कितने घर जल चुके थे। परिवार उजड़ गए थे। न जाने कितनी सांसें हमेशा के लिए टूट गईं थीं, और उनके टूटने से न जाने कितने मोती टूटकर मिट्टी में बिखर गए थे। बेसहारा। बेदम। उन टूटकर बिखरे मोतियों में एक मैं भी थी। बेरंग। बेकार।

‘मेरी गोद भी सूनी हो गई थी और मांग भी। बस दो महीने का था, मेरा बच्चा। मेरा पहला बच्चा। एक बड़ा, भरा-पूरा परिवार था, अब कुछ नहीं था। कोई नहीं बचा था। मुझे पता नहीं कि हुआ क्या था? कुछ याद ही नहीं। बस मैं जिंदा थी इसका एहसास धीरे-धीरे मेरे ही जीवित शरीर ने कराया था।’ दादी की आवाज दूर न जाने किस काल और समय की सीमा पार कर उन तक पहुंच रही थी। काल और समय की यह दूरी ही थी कि वह एक सुरक्षित घर के कोने में गरम कंबल के अंदर आरामदायक बिस्तर पर बैठे थे। और बस सुन रहे थे, किसी अन्य की स्मृतियों के एक हिस्से को, उसके बताए जितना ही जीने और समझने की कोशिश करते हुए।

फिर क्या हुआ, दादी?’ मिहिर की आवाज में एक दर्द उतर आया था। इस दर्द ने एकात्म होने का भाव सहज ही उपजा दिया था। भविष्य, इतिहास से तब ही तो कुछ सीख और समझ पाता है। कांटों पर चले बिना भी कांटों पर चलने की चुभन की पीड़ा। दादी के बीते कल में वही चुभन थी।

अंधेरा कितना भी घना क्यों न हो, उसके पार उजाला सदैव होता है, मिहिर। मेरे आसपास भी उसे गाढ़े अंधेरे के बीच ही उजाला चल रहा था, दबे कदमों से। जैसे हर आपदा में कुछ बच ही जाते हैं। बिखरा टूटा समेटने और जोड़ने को। मेरे जैसे कई बच गए थे, सांसों की लड़ियां फिर से जोड़ने की जद्दोजहद करते।

‘तुम कहां रहती थी, क्या खाती-पीती थी, दादी?’ मिहिर की आवाज में बेचैनी थी। दादी चुप थीं। तन से वह यहां थीं पर मन से कहीं और ही थीं, जहां वे दोनों, उनकी आवाज की तरंगों में डूबकर ही पहुंच सकते थे। उनकी आवाज का ठहराव सारे द्वार बंद कर रहा था। पर दादी को ‘अंधेरे के ओर को उजाले के छोर तक’ इन बच्चों को दिखाना था। यह बताना था कि अंधेरा अंत नहीं होता।

‘जले, टूटे, बिखरे सामान और घरों के बीच मैं भी बैठी रहती थी, छुटकी। अपने आस-पास रोते-बिलखतों को चुपचाप देखती। एक हल्का उजाला सबके भीतर होता है। कितनी भी मिट्टी की परतों में दब जाए। चमक नहीं जाती। उस चमक से बिंधे कोई न कोई खाना-कपड़ा बांटता दिखता, हर रोज, सुबह-शाम।’

दादी पल भर को ठिठक गईं। जैसे समय के एक कालखंड में वह फिर से तिरोहित हो गई हों।

‘एक सुबह मेरी अन्यमनस्क, ठंड से सिकुड़ी हथेलियों पर किसी ने यह रंगीन कंबल डाल दिया था। और मेरी बेरंग जिंदगी में रंग भर गए। मैंने कंबल देने वाली की आंखों में चौंक कर झांका। कौन है ये? जिसने पल में मेरी ठिठुरती जिंदगी में एक नरम गरमाहट भर दी। उस 50-55 बरस के सलोने चेहरे में मेरा भविष्य कुनमुनाया। उन स्नेहिल आंखों में चुंबक जड़े थे, जिनमें मेरे मन की धातु बेकाबू हो खिंची और चिपक गई। मैं सम्मोहित-सी उन्हें देख रही थी। लगा, मैं इन्हें न जाने कितने युगों से जानती हूँ। और ये एहसास एकतरफा नहीं था।

‘मेरे साथ चलोगी, मेरे घर? वह पूछ रही थीं। मुझे लगा यह सवाल नहीं, एक पुकार है, एक मां के सीने से निकल कर एक बेटी के सीने में समा गई। मेरी आंखें डबडबा गईं। वह मानो सब समझ गईं।

‘अब से तुम अकेली नहीं हो। चलो मेरे साथ। अब से मैं हूँ तुम्हारे साथ, हमेशा।

‘भरोसे की डोर बहुत गूढ़ होती है। टूटती है, उखड़ती है, जड़ से और न जाने कैसे फिर पनप आती है? मेरा मन एक बार भी नहीं ठिठका। अगले कुछ दिनों में, मैं उनके शहर में, उनके साथ उनके घर में थी। मेरा जैसे एक झटके में, एक उतार में सब खो गया था, वैसे ही दूसरे चढ़ाव में धीरे-धीरे सब वापस मिलता गया। बस रूप, रंग और परिवेश बदल गया था। मां ने अपने बड़े बेटे मतलब तुम्हारे दादा जी से मेरी शादी करवा दी। उनकी पहली पत्नी बच्चे के जन्म के समय चल बसी थीं। उस बिन मां के बच्चे को मां मिल गई थी और मुझे भी मेरा खोया बच्चा। तुम्हारे ताऊ जी हैं वे।’

‘मतलब ताऊ जी को आपने जन्म नहीं दिया, दादी, हमें ये सब पता ही नहीं। कितनी अनोखी कहानी है, आपकी! ऐसा सब भी सच में होता है क्या, दादी?’ दीदी से दादी के जीवन के अनछुए पहलू संभल नहीं रहे थे। मिहिर दीदी की आवाज में बसे अविश्वास की धार अपने मन पर भी फिरते महसूस कर रहा था। 88 बरस के जीवन में कहानियों की न जाने कितनी परतें हैं?

‘हर जीवन की कहानी अपने आप में एक अनोखी कहानी होती है, छुटकी। मेरी, तुम्हारी और मिहिर की, हम सबकी एकदम अलग कहानी है, हम साथ रहते हैं, तब भी एकदम अलग कहानी जीते हैं।’

‘पर दादी ऐसे उतार-चढ़ाव हर जीवन में नहीं होता, जैसे आपने जिया है।’

‘हो सकता है इतने गहरे उतार-चढ़ाव न हों छुटकी, पर कुछ न कुछ होता ही है बेटा, सबके साथ, नहीं तो क्या जिए फिर। उतार-चढ़ाव ही  समझ के गहरे तले में ले जाता है।’

‘दादी, पर सब नहीं झेल पाते ये सब। कुछ लोग तो जरा सी तकलीफ में टूट जाते हैं, सूखी लकड़ी की तरह। आप कैसे इतना झेल कर भी इतनी जिंदादिल हैं। ऐसा बनना आसान नहीं।’

‘जीवन में कठिन-आसान जैसा कुछ नहीं है, छुटकी। कठिन है या आसान यह चुनने का विकल्प, हमेशा तुम्हारे पास है, बस। हँसकर झेलना है या कुढ़कर, यह तुम ही समझो और जानो।’

‘ये क्या इतना आसान है, दादी?’ इतनी देर से चुप मिहिर से अब रहा नहीं जा रहा था।

‘किताबी बातें हैं न दादी, ये सब।’

‘देखो, छुटकी, बोला तो क्या बोला, मेरा बच्चा।’ दादी की हँसी का फव्वारा फिर फूट पड़ा।

‘किताबों में भी तो जिए हुए का सार ही बसता है न, मिहिर। लोगों के भोगे हुए सच का ही अंश सांस लेता है न, किताबी बातों में भी।’

‘हम जीवन के हर मोड़ को जितना सहज लेते हैं, उतना ही हर मोड़ आसान लगता है। नहीं तो रोओ, कलपो, दुनिया को दोष दो, अपनी जिंदगी भी अजाब करो और दूसरों की भी। करते ही हैं, लोग। उन्हें पता ही नहीं कि वे किसी जाल में फंसे हैं। और उन्हें निकलने की जरूरत है। और कई बार निकलना चाहते ही नहीं। उसी की आदत है उनको। उससे अलग सोचना ही नहीं चाहते। यहां भी विकल्प है ही मिहिर उनके पास।’

मिहिर के चेहरे पर असहमति की चीटियां रेंग रही थीं, काली, पीली। दादी की मानो तो, जैसे सब हमारे ही हाथ में है हँसने का कारण और रोने का भी। ऐसा कहां होता है? कितना अनचाहा घटता है, कोई क्या करे?

‘अनचाहा घटने पर जोर नहीं, मिहिर, पर उस घटे पर टूटकर, हमेशा-हमेशा के लिए बिखर जाने या नए सिरे से खुद को जोड़कर फिर उठ खड़े होने का विकल्प हम सबके पास हमेशा होता है। बस यह बात भूलनी नहीं है, याद रखनी है।’ मिहिर को लगा, दादी मन पढ़ लेती हैं। एक एक्सरे है इनके पास, जिससे कुछ नहीं छुपता।

‘नहीं भूलूंगा दादी, याद रखूंगा। मुझे ही चुनना है, अंधेरा या उजाला।’

‘वाह, मैं कहती हूँ न मिहिर, लिखा करो, नोटबुक दूंगी मैं तुम्हें, रंगीन पन्नों वाली। कितनी अच्छी बात कही है तुमने। बस यही जीवन का सार है, बेटा। तुम्हारी 88 बरस की दादी के जीवन का निचोड़। बहुत उतार-चढ़ाव आए और तुम्हारी दादी ने हमेशा यही चुना- जिंदादिली से जीने का विकल्प।’

‘छुटकी तुम क्या कहती हो, वह कि मैं डबल 8 हो गई हूँ। 8 को लिटा दो तो इनफिनिटी का चिह्न बन जाता है, मतलब उतार-चढ़ाव, गहरे-गहरे, उतार-चढ़ाव। कितना मजेदार है न उतार आए तो दौड़ लगा दो, चढ़ाव आए तो गहरी सांस भरो और धीरे-धीरे कदम बढ़ाओ। दोनों का अपना मजा है। दोनों ही जरूरी हैं।’

‘हां, दादी! एकदम सही बात।’ नींद में डूबती छुटकी की टूटी-फूटी आवाज सुनाई दी।

‘अरे, ये तो दोनों सो गए। बड़े प्यारे बच्चे हैं।’ दादी हल्के हाथों से बारी-बारी उनके सिर सहलाती, न जाने कब नींद के मुलायम आंचल में समा गईं।

भीगी रात की सुबह हुई तो छुटकी की नींद खुली। 6.30 बजे थे। इतनी गहरी नींद, छुटकी हैरान थी। आज दादी भी नहीं उठीं अभी। रोज  पांच बजे उठ जाती हैं। बरसों से नियम है यह उनका। कुछ हो जाए, कभी फेर बदल नहीं हुआ इसमें। आज क्या हुआ? छुटकी का दिल जोर से धड़का।

‘दादी! दादी! दा.. दी! मिहिर, उठो, देखो दादी उठती क्यों नहीं?’

दादी इस जीवन के उतार-चढ़ाव से मुक्त हो गई थीं। इतनी शांति से, हँसते-खेलते दादी चली गईं, जैसे देह छोड़ना कोई बड़ी बात नहीं। छुटकी और मिहिर के अंदर एक सन्नाटा भर गया। इतना गहरा-उतार बिना किसी पूर्व सूचना के, कैसे संभालें। मन में एक गाढ़ी धुंध-सी भर गई थी। कुछ नहीं सूझ रहा था उन्हें। दादी की बातें याद करने की कोशिश करने पर भी, कुछ याद नहीं आता था। अंधेरा कुछ ज्यादा घना था।

……………………..

दादी को गए, कुछ दिन बीत गए थे। मिहिर अब और भी अधिक खोया-खोया रहता। छुटकी देख रही, सोच रही, क्या करे कि अंधेरा छंटे। मिहिर का जन्मदिन कब का बीत गया। ऐसा सूना जन्मदिन कभी नहीं बीता उसका। दादी होतीं तो क्या-क्या करतीं, सोचती छुटकी मुस्कुरा दी।

उस शाम मिहिर अपना होमवर्क करने बैठा तो चौंक गया। उसकी आंखें डबडबा गईं। रंगीन पन्नों वाली एक सुंदर नोटबुक और रंग-बिरंगे जेल पेन का एक सेट, उसके टेबल पर रखा था। उसके मन पर छाई गाढ़ी धुंध एक झटके में तेजी से छंटने लगी। वह बरबस मुस्कुरा रहा था। उसने कांपते हाथों से नोटबुक खोली। पहला पन्ना हल्के नीले रंग का था, उसने हरे रंग का जेल पेन खोला, कुछ देर सोचता रहा। अनायास ही, वही लेटा हुआ 8 बनाने लगा। अनंत का चिह्न। एक बार, दो बार परत दर परत आठ बार, पूरे मनोयोग से बनाते उसे लगा जैसे कोई और ही उसके हाथ पकड़ कर उस से यह बनवा रहा।

‘दादी, ये आप ही हैं, न?’ उसके मन ने पूछा।

‘तुम्हीं बताओ, तुम्हें सब पता है।’ उसके मन में जवाब गूंजा।

वह पढ़ रहा, बार-बार, 8 नंबर, अनंत का नंबर, उसकी दादी का नंबर, उनका जीवन इनफिनिटी के नंबर की एक झलक ही तो था। उसे लगा वह इनफिनिटी को समझ रहा है। इनफिनिटी के चिह्न पर अंगुली फेरते, उसे लगा कि वह दादी के जीवन पर अंगुली फेर रहा, और जहां कहीं दादी का जीवन रुकता हुआ सा लगा, मानो बस वहीं से उसका जीवन शुरू हो गया, इनफिनिटी के चिह्न के किसी मोड़ पर। उसके मन से, जीवन से अंधेरा छंट रहा था हमेशा के लिए। आखिर उसे उजाला ही चुनना है न, अपनी दादी की तरह!

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