वरिष्ठ लेखिका और समीक्षक।संप्रति इलाहाबाद में शिक्षण कार्य।

उपन्यास अपने समय और समाज की सशक्त विधा और उपलब्धि है।साथ ही यह पाठक से संवाद करने में अधिक समर्थ है।हर उपन्यास में एक कथा संसार होता है।कथा में घटनाओं की श्रृंखला होती है, किस्सागो तथा श्रोता एक दूसरे के आमने-सामने होते हैं।इधर कई वरिष्ठ कथाकारों ने हिंदी उपन्यास को नई जमीन दी है और इस विधा को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

कथाकार ने इनसे संबंधित इतिहास के कई अनछुए पहलुओं को उठाया है और दिखाया है कि एक खास राजवंश की पहचान  किस तरह लुप्त होती जा रही है।वे इनकी गंगा-जमुनी संस्कृति को दर्शाते हैं।

भगवान दास मोरवाल का ख़ानज़ादाउपन्यास उन अद़ृश्य तथ्यों की निर्ममता से खोज करता है जो हमारे राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़े हुए हैं।यह उपन्यास मुगल साम्राज्य से लेकर ऐसी कई शौर्य गाथाओं को विषय बनाता है, जो इतिहास में नजरअंदाज किए गए हैं।

‘ख़ानज़ादा’ शब्द तुगलक राजवंश से लेकर लोदी, अफगान और मुगल वंश तक  वीरता और स्वाभिमान के लिए याद किया जाता है।तुगलक से अकबर और रहीम तक इन ख़ानज़ादाओं की एक लंबी परंपरा है, जो उपन्यास में झलकती है।मेवात के राजपूत तुगलक के शासनकाल में इस्लाम कबूल कर चुकने के बाद भी भूल नहीं पाए कि उनकी शिराओं में पुराना राजपूत रक्त है जो शौर्य से भरा है।ये ख़ानज़ादा अपनी मातृभमि की रक्षा के लिए सदैव तत्पर थे और जातीय स्वाभिमान से भरे थे।इनसे दिल्ली शासक हमेशा सचेत रहते थे।कथाकार ने इनसे संबंधित इतिहास के कई अनछुए पहलुओं को उठाया है और दिखाया है कि एक खास राजवंश की पहचान  किस तरह लुप्त होती जा रही है।वे इनकी गंगा-जमुनी संस्कृति को दर्शाते हैं।

इस उपन्यास में चर्चित चरित्र हसन खां मेवाती के चचेरे भाई जमाल खां, उनकी बेटी सलीमा और अब्दुर्रहीम खानखाना हैं।ये तीनों हुमायूं, बैरम खां और सुल्तान जहांगीर को विशेष अवसरों पर जो जवाब देते हैं, वह उल्लेखनीय है।एक प्रसंग में सलीमा अपने शौहर बैरम खां द्वारा ईद के मौके पर लाए गए कपड़ों को इस आधार पर पहनने से इंकार कर देती है कि बैरम खाँ विवाह की रस्में पूरी किए बिना ही उसे मेवात से जबरन उठा लाए थे, जो मानवीय नहीं था और इस्लाम के नियमों के खिलाफ भी था।सलीमा के इस जवाब का बैरम खां पर बहुत गहरा असर पड़ता है, जिसे उपन्यास में रहीम ने इस रूप में व्यक्त किया- ‘यह सुन अब्बा जैसे थके हुए कदमों से बाहर निकल गए, अम्मी जान से नजर मिलाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई।’

जहांगीर ने शासन पर आरूढ़ होते ही भाइयों की हत्या कर दी, इससे क्षुब्ध होकर रहीम लिखते हैं-

‘रहिमन राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय/कहा बापुरो भानु हैं, तपै तरैयन खोय।’ इस रचना की वजह से रहीम को जहांगीर का कोपभाजन बनना पड़ा।उपन्यास में रहीम का यह कथन रचनाकारों के स्वाभिमान को व्यक्त करता है- ‘जहांपनाह यह दोहा एक कवि का है, जो किसी शहंशाह की हुकूमत का हाकिम नहीं है, यह दोहा एक ऐसे कवि का है, जो हुकूमत से कोई तनख्वाह नहीं लेता है।’ इन दो प्रसंगों से मेवात के ख़ानज़ादाओं का व्यक्तित्व और स्वभाव स्पष्ट हो जाता है। ‘ख़ानज़ादा’ उपन्यास में राणा सांगा जैसे चरित्र की पोल खोली गई है, जो राजपूत योद्धा होकर भी वायदों को नहीं निभाता।वह हसन खां जैसे देशप्रेमी को आगे कर खुद रणक्षेत्र से भाग जाता है और देशभक्त हसन खां मेवाती मारा जाता है।

भगवानदास मोरवाल एक गहन अनुसंधानकर्ता हैं।वे अछूते विषयों को अपने उपन्यास में रेखांकित करते हैं।उनका यह उपन्यास परंपरा, लोकतंत्र और जन-जिजीविषा को वाणी प्रदान करता है।मेवाती भाषा की देशज महक और उर्दू-फारसी शब्दों का प्रयोग ‘ख़ानज़ादा’ उपन्यास को अधिक वास्तविक बना देता है।

जिज्ञासा:‘ख़ानज़ादा’ उपन्यास लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?

भगवानदास मोरवाल: वर्तमान में उन तथ्यों को उजागर करने की जरूरत है, जो विस्मृत हो चुके हैं।मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं रहा हूँ।इतिहास की मेरी जो भी समझ बनी, वह ऐतिहासिक सामग्री संग्रह करते समय।इतिहास स्मृतियों के आधार पर तैयार किया जा सकता है।शुरुआत के दिनों में मेवात की राजनीतिक-सामाजिक समझ हुई थी, उससे जिज्ञासा बढ़ी। ‘काला पहाड़’ उपन्यास के बाद मेवाती वंशजों के बारे में लिखने की इच्छा जगी।इसलिए हसन खां मेवाती को लेकर सोचना शुरू हुआ।यह भी जानकारी मिली कि वे युद्ध में मारे गए थे।

जिज्ञासा: उपन्यास में दस्तावेजीकरण अधिक है, क्या आपको लगता है?

भगवानदास मोरवाल: जब हम उपन्यास लिखते हैं या ऐतिहासिक लेख लिखते हैं, तो दोनों की बुनावट के अंतर को समझना पड़ेगा।हमारे इतिहास में मुगलों को लेकर गलत धारणा है।बाबर को इस देश में केवल आक्रमणकारी माना गया।आज भी हिंदू-मुसलमानों का वैमनस्य हर तरफ देखा जा सकता है।सोचने का विषय यह है कि बाबर को लाया कौन? दरअसल राणा सांगा के बारे में कुछ नहीं कहा जाता।राणा सांगा ने ही बाबर को भारत में आमंत्रित किया था।बाबर केवल लुटेरा नहीं था, उसने तो साम्राज्य निर्मित किया।अंग्रेज लुटेरे थे, जो लूटकर चले गए।बाबर इस देश में आने पर मात्र ४ साल तक जीवित था।दूसरी तरफ, इतिहास में बाबर की व्यक्तिगत रुचियों और विशेषताओं को ज्यादातर अनदेखा किया गया है।बाबर के पिता की जब मृत्यु होती है तो वह मात्र १३ साल का था।उसके ऊपर तमाम जिम्मेदारियां आ जाती हैं।वह केवल कठोर ही नहीं था, बल्कि  सहृदय व्यक्ति भी था।ऐसा उसकी साहित्यिक अभिरुचियों से ज्ञात होता है।समरकंद के युद्ध में जब उसकी बहन को उठा लिया जाता है या सभी जब दाने-दाने को तरस रहे होते हैं, तो भी वह किताब तलाश रहा होता है।

जिज्ञासा: क्या यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है?

भगवानदास मोरवाल: इस उपन्यास की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है।ऐतिहासिक घटनाओं के बीच जो गैप है उसे लेखक अपनी क्षमता से भरता है। ‘ख़ानज़ादा’ ऐतिहासिक कथा पर आधारित है और प्रामाणिक है।निश्चय ही लेखक उसे अपनी कल्पना से पेंट करता है।सलीमा बेगम का प्रसंग इसी तरह का है।रहीम की मां मेव सरदार की बेटी थी। ‘ख़ानज़ादा’ शब्द मुस्लिम राजपूतों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।मैंने बहुत रिस्क लिया है।

जिज्ञासा:‘ख़ानज़ादा’ में बोलियों से सामाजिक चित्र विश्वसनीयता से उभरे हैं।आपका क्या कहना है?

भगवानदास मोरवाल: मेवाती एक तरह से खड़ी बोली का हिस्सा है।यह कठेर मेवाती है।जिस मेवाती पर ब्रज का असर हो, वह कठेर मेवाती कही जाती है।यह अलवर में भी बोली जाती है।किसी भी समाज के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक वैशिष्ट्य को बिना उसकी लोक भाषा को सामने लाए समझना मुश्किल है।लोक के बीच विभाजक रेखाएं नहीं होती हैं।मैं ब्रज के कवि अब्दुर्रहीम खानखाना को ब्रज की अपेक्षा मेवात का कवि मानता हूँ।मेवात का इसलिए कि अब्दुर्रहीम खानखाना मेवात के आखिरी मेव सरदार हसन खां मेवाती के चचेरे भाई जमाल खां का नाती था।

कथाकार ने बताया है- विडंबना यह है कि जाली नोट के छापने का का मामला महेंद्र मिश्र के जीवन से जुड़ गया।इस संदर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र है गोपीचंद जासूस, जिनका जीवन एक अलग ही किंवदंती है।

संजीव के कथा साहित्य में हमारे समय और समाज का जीवंत परिद़ृश्य है।संजीव ने ‘पुरबी बयारउपन्यास में महेन्द्र मिश्र के जीवन, भोजपुरी अंचल के इतिहास एवं भू-संस्कृति और लोकगीतों को अच्छी तरह उठाया है।उपन्यास में महेंद्र मिश्र के साथ दूसरे चरित्र भी बहुत शक्ति, संवेदना और लेखकीय कौशल के साथ व्यक्त हुए हैं।महेंद्र मिश्र के गीतों के जरिए आम जन का प्रेम, पीड़ा, जीवन संघर्ष तथा भोजपुरी जीवन के प्रति सजग द़ृष्टि दिखाई देती है। ‘पुरबी’ उनकी महान देन है।उनको भोजपुरी भाषी ‘पुरबी का जनक’ मानते हैं।कथाकार ने बताया है- विडंबना यह है कि जाली नोट के छापने का का मामला महेंद्र मिश्र के जीवन से जुड़ गया।इस संदर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र है गोपीचंद जासूस, जिनका जीवन एक अलग ही किंवदंती है।

लेखक कहता है, ‘बेहतर होता, उनपर अलग से एक उपन्यास लिखा जाता।फूलों भरी डाल-सी लचकती छम-छम बजती कुछ खिली-कुछ अधखिली, आघातें सहती ढेलाबाई का जीवन भी अपने आप में एक आख्यान है।’ ‘पुरबी बयार’ में ‘यथासंभव महेंद्र मिश्र से जुड़े जीवन प्रसंगों को समेटा गया है।सत्य के गिर्द लताओं की तरह लिपटी अनेक कथाओं-उपकथाओं में कथा अक्सर उलझती रही।’ संजीव ने ‘पुरबी बयार’ में उनकी हाजिर जवाबी और वाकपटुता को दर्शाया है और उनकी जिंदगी के कई मार्मिक प्रसंगों को उजागर किया है।उनकी भाषा उनके दर्द का बयान करने में बहुत समर्थ है, उसमें भोजपुरी संस्कृति की दबा दी गई आवाज उभरी है।

जिज्ञासा:‘पुरबी बयार’ में महेंद्र मिश्र के जीवन को आपने अत्यंत रोचक ढंग से व्यक्त किया है, इसकी प्रेरणा कहां से मिली?

संजीव: भूपेंद्र अबोध जी के कहने पर मैं यह उपन्यास लिखने की ओर बढ़ा।महेंद्र मिश्र से मैं पहले भी प्रभावित था, शारदा सिन्हा (भोजपुरी की प्रतिष्ठित गायिका) मेरी मित्र रही हैं।उनसे इस संबंध में बहुत मदद मिली।महेंद्र मिश्र को लेकर मेरी जो जिज्ञासा थी, इस संदर्भ में कई लोगों ने जानकारी दी।धर्मेद्र सुशांत जी ने सामग्री संकलन में बहुत सहायता की।महेंद्र मिश्र के बेटे जो कार्टूनिस्ट थे, उनसे भी मैंने बहुत सी बातें करके जानकारी बटोरी।बहुत सारी अफवाहें महेंद्र मिश्र के बारे में फैली थीं, मैंने उनका भी निराकरण करने का प्रयास किया है।

जिज्ञासा: गोपीचंद के खुफिया चरित्र का प्रसंग क्या वास्तविक है या कल्पना-प्रसूत है?

संजीव: गोपीचंद्र या जटाधारी प्रसाद का चरित्र वस्तुतः एक जासूस का वास्तविक चरित्र है।उनकी मां का साया बचपन में छिन जाता है, सौतेली मां परवरिश करती है।पिता मुंशी जी कचहरी के नाजिम थे।सौतेली मां की फटकार और तिरस्कार ने जटाधारी को बदले की भावना से अधिक सशक्त और तंदुरुस्त बना दिया था।उसने सौतेली मां की यातनाओं को झेला।यह सब वास्तविक है।कलकत्ता जाने के बाद के मामले में कल्पना का समावेश है।कोई भी आदमी नोट छापने वाली बात ऐसे ही नहीं बताएगा।बंकिमचंद ने कहा था, ‘इसमें इतिहास नमक के बराबर है।’ जटाधारी प्रसाद का चरित्र और उसकी बातें सही थीं।शोध के दौरान कई चरित्र मिले जो बता रहे थे कि नोट छापने की कला कहां से आई।यह तो बाद में आई।इंग्लैण्ड से नोट छप के आ रहे थे।यह शोधपरक द़ृष्टि थी।कैसी चीजें रही होंगी, सचाइयां क्या रही होंगी, इन मामलों में गिरमिटिया मजदूर बहुत जिज्ञासु नहीं थे।सब अफवाहें थीं।आनंद मठ के संदर्भ में भी बंकिमचंद्र ने कई जिज्ञासाओं को शांत किया है।

जिज्ञासा: विद्याधरी, केसर बाई और ढेला बाई के प्रसंग क्या वास्तविक हैं?

संजीव: ढेला बाई का चरित्र वास्तविक है, वह अंत तक उनसे जुड़ी रही।महेंद्र मिश्र के पौत्र ने कहा कि उनसे मिलते रहते थे और इसमें पूरी वास्तविकता है।महेंद्र मिश्र के सकारात्मक चरित्र को अधिकांश लोगों ने सराहा है।कोठे के व्यक्ति का राष्ट्रीयता से सरोकार होगा, यह बात मुझे हजम नहीं होती।गिरमिटिया मजदूरों की कथा में भी सचाई है।

जिज्ञासा: महेंद्र मिश्र द्वारा नोट छापने वाली मशीन का उपयोग क्या सचमुच किया गया था?

संजीव: महेंद्र मिश्र का जमाना स्वतंत्रता आंदोलन का था।उस समय आदर्श चरित्र गढ़ने की बात होती थी।नोट इसलिए छपते थे कि अंग्रेजों का भट्ठा बैठा सकें।कलकत्ता में ‘गिन्नी छापने’ की घटना का जिक्र आता है।जटाधारी प्रसाद खुद बड़े जासूस थे, जासूसी का इतना प्रभाव था कि राजकपूर और फिल्मी दुनिया के लोग भी इसका प्रयोग करने लगे।गोपीचंद जासूस के पौत्र हमारे कुल्टी वाले कस्बे में आए थे तो उनके जीवंत चरित्र पर भी चर्चा हुई थी।

जिज्ञासा: महेंद्र मिश्र न होते तो भिखारी ठाकुर न पनपते, इसपर आपके क्या विचार हैं?

संजीव: दरअसल उनके जीवन और साहित्य के संबंध में अनेक अप्रामाणिक घटनाओं को जोड़कर एक रोमांचक वायवीय मिथक का निर्माण किया जाता रहा है।इसका परिणाम यह हुआ कि उनका वास्तविक जीवनवृत्त और संपूर्ण कविकर्म गौण एवं विलुप्त होता गया।महेंद्र मिश्र रसिक प्रवृत्ति के थे।धर्मेंद्र सुशांत जी जब राजकमल प्रकाशन में थे, तो उन्होंने मुझे महेंद्र मिश्र पर लिखने के लिए प्रेरित किया था।जो सचाई है, मैंने उसको शामिल करने का प्रयास किया है।भिखारी ठाकुर का चरित्र वास्तविक है।राजेंद्र जी उनके नाती हैं, उन्होंने उनके विषय में बहुत कुछ बताया।महेंद्र मिश्र के बहुत से मौलिक तथा कल्पित प्रसंगों तथा गीतों की धुन की नींव पर भिखारी ठाकुर ने अपने लोक नाटकों की शानदार इमारत खड़ी की।कलकत्ता एक ऐसा केंद्र है जो कलाकारों का क्षेत्र रहा है।अगर यह न होता तो दोनों न होते।इन्हीं से दोनों कलाकारों का विकास हुआ।भिखारी ठाकुर नाई जाति के थे, समाज की सभी दुर्दशाओं से वे परिचित थे।महेंद्र मिश्र ब्राह्मण थे।किंतु भिखारी ठाकुर ने लिखा वही, जो समाज में घटित हो रहा था।

उपन्यास में वैश्विक महामंदी के चलते जहाज और उससे जुड़े लोगों के बेकार होने का मार्मिक वर्णन है।मनोज रूपड़ा ने आर्थिक साम्राज्यवाद को बड़ी रचनात्मकता से इस उपन्यास में उजागर किया है।

मनोज रूपड़ा का ‘काले अध्यायउपन्यास अपने में अनेक विधाओं को समेटे आदिवासी जीवन की वास्तविकता से रूबरू करता है।यह छत्तीसगढ़ का परिवेश जीवंत कर देता है।यह दो खंडों का उपन्यास औद्योगीकरण की समस्याओं को उजागर करता है, साथ ही छत्तीसगढ़ के गांवों में रहने वाले लोगों की कठिनाइयों को दर्शाता है।लेखक इस उपन्यास के जरिए अतीत और वर्तमान के कई काले अध्यायों से पूरी संवेदना के साथ परिचय कराता है।

उपन्यास की शुरुआत एक बच्चे की यादों से होती है।उसने एक हाथी को मरते देखा था, जिसका शिकार जंगली कुत्तों ने किया था।उस रात बच्चा पहली बार मौत से किसी को जूझते देखकर हमेशा के लिए भयमुक्त हो जाता है।उस लड़के के माध्यम से मनोज रूपड़ा छत्तीसगढ़ के जंगलों में अपनी जमीन, जंगल और अपने तरीके़ से जीवन की लड़ाई लड़ रहे लोगों की कहानी कहते हैं।उस लड़के से असीम स्नेह करने वाली और उसकी जिंदगी संवारने वाली सौतेली बहन नक्सलवादी अभियान से जुड़ी हुई थी।वह बंदूकों, गोलियों, डेटोनेटरों, हथगोलों की चोरी छिपे आपूर्ति में शामिल है।वह भाई को सिविलाइजेशन की तरफ ढकेल रही थी और स्वयं हमेशा के लिए जंगल के दुर्गम हिस्से में चली गई थी।जब भाई इंजीनियरिंग करके शहर लौटता है, तब तक बहुत कुछ बदल चुका होता है।वापस आए उस युवक के सामने दो विकल्प दिखाई देते हैं- वह  अपनी बहन को खोजने के लिए जंगलों में घुसता जाए या फिर इन सबसे कहीं दूर निकल जाए।वह पहला विकल्प चुनता है।

मनोज रूपड़ा ने जंगली पशुओं के नैसर्गिक व्यवहार को बड़ी संवेदना से व्यक्त किया है।भाई सोचता है, ‘मैं यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि मुझे शिक्षा दिलाने और मेरे जीवन को संवारने वाली बहन मुझे जीवन के इस पड़ाव में अकेला छोड़कर क्यों चली गई?’ वह अपनी बहन यादवी इरमा की तलाश में छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाकों में जाता है।वह जंगल से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों की तकलीफ और व्यथा को करीब से देखता है।पर यादवी के बिलकुल करीब पहुंचकर भी उससे मिल नहीं पाता।उपन्यास में वैश्विक महामंदी के चलते जहाज और उससे जुड़े लोगों के बेकार होने का मार्मिक वर्णन है।बचपन में जिस तरह उसने हाथी को मरते देखा था, उसी तरह उसी निर्विकार ढंग से वह जलदूत को नष्ट होते देखता है।मनोज रूपड़ा ने आर्थिक साम्राज्यवाद को बड़ी रचनात्मकता से इस उपन्यास में उजागर किया है।

जिज्ञासा:‘काले अध्याय’ उपन्यास में कहानी, उपन्यास और संस्मरण तीनों विधाओं की चीजें दिख रही हैं, क्या ऐसा है?

मनोज रूपड़ा: नहीं, इसमें संस्मरण नहीं हैं।किसी भी प्रसंग में मेरे व्यक्तिगत जीवन का कोई अंश नहीं है।दरअसल इस किताब के ब्लर्ब लेखक ने किताब को बिना ठीक से पढ़े ब्लर्ब लिखा है।इसलिए पाठक को भ्रम हो जाता है कि ये मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं।हां, इस उपन्यास के लिए मैंने लोकेशन पर जाकर फील्ड वर्क जरूर किया था।जहां कुछ घटा था, वहां जाकर मैंने एक गहरी सांस ली थी।

जिज्ञासा: वह कौन-सा अध्याय है, जो सोचने पर विवश करता है?

मनोज रूपड़ा: यह उपन्यास अलग-अलग घटनाओं और देश-विदेश की अलग-अलग परिस्थितियों का कोलाज है, लेकिन इस कोलाज के केंद्र में आदिवासी समुदाय है, जो सत्ता और नक्सलवाद के बीच पिस गया है।इस उपन्यास में तीन बड़े विखंडन है।एक हाथी का जंगली कुत्तों द्वारा विच्छेदन, फिर बहुत बड़े पैमाने पर दो धुर विरोधी शक्तियों द्वारा आदिवासी समुदाय का विखंडन, फिर अंत में जहाज का विखंडन।आदिवासी समुदाय का अध्याय सबसे ज्यादा विचलित करता है।उनकी तकलीफों का कोई पार नहीं है।वे दोनों तरफ से मारे गए।

मनोज रूपड़ा: इस उपन्यास में औद्योगीकरण से उत्पन्न समस्याओं को चिह्नित किया गया है।क्या यह सब आपने अपने अनुभव से लिखा है?

मनोज रूपड़ा: मैं कोई सामाजिक कार्यकर्ता या पत्रकार नहीं हूँ।इसलिए युद्ध क्षेत्र के बारे में कोई नजदीकी अनुभव नहीं थे।लेकिन मैंने सुधा भारद्वाज की कुछ पुस्तिकाएं, हिमांशु राय के कुछ व्याख्यान और गौतम नवलखा की रिपोर्ट पढ़ी थी, जो इस समस्या के बहुत प्रामाणिक दस्तावेज हैं।इसके अलावा मेरे पत्रकार मित्र राजकुमार सोनी मुझे उन अंदरूनी इलाकों में ले गए थे, जहां कुछ बड़ी मुठभेड़ें हुई थीं।एक लेखक का काम सिर्फ अतीत और वर्तमान को कड़ियों में पिराते जाना है।मैंने भी बस उतना ही किया है, जो एक लेखक कर सकता है।

जिज्ञासा: क्या आपको छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की समस्याओं का कोई समाधान दिखता है?

मनोज रूपड़ा: एक लेखक की हैसियत से मैं सिर्फ जीवन स्थितियों का चित्रण कर सकता हूँ।समाधान केवल तब हो सकता है, जब मूल समस्याओं का सम्यक संज्ञान लिया जाए।जब तक हमारी न्याय व्यवस्था स्वत: संज्ञान नहीं लेगी, तब तक ये हालात नहीं बदलेंगे।आदिवासियों को कुचल देना आसान है, लेकिन आदिवासियों के संरक्षण के लिए उन्हें उनके मूलभूत अधिकार देना बहुत कठिन है।

जिज्ञासा: इस उपन्यास में जहाज के कैप्टन दत्त और युवक के बीच इतिहास की चर्चा बहुत व्यथित कर देती है।आपने भी इस चीज को गंभीरता से अवश्य महसूस किया होगा।

मनोज रूपड़ा: जब मैं बातचीत के उन अंशों को लिख रहा था तब मुझे डर था कि दो लोगों की आपसी बातचीत से मैं इतिहास के जो इतने लंबे वृत्तांत प्रस्तुत कर रहा हूँ, उससे कहीं पाठक ऊब न जाएं।उस दौरान बहुत सी चीजें फैल और बिखर भी गई थीं, उन्हें समेटने और उन्हें औपन्यासिक गठन के साथ गूंथने में बहुत ऐहतियात की जरूरत थी।

जिज्ञासा: इस उपन्यास के घटनाक्रम चलचित्र जैसे लगते हैं, जो उपन्यास को पठनीय बनाते हैं।

मनोज रूपड़ा: जी, कोशिश हर बार यही होती है कि मैं जो लिख रहा हूँ, वह पढ़ने वाले को सामने घटित होता हुआ दिखाई दे।मेरे शाब्दिक वर्णन में सिनेमेटिक विजुअल्स आते हैं।कारण यह है कि मैंने सिनेमा के अपने गुरु स्वर्गीय सतीश बहादुर से शिक्षा ली है।वे फिल्म एप्रिशियेशन के उस्ताद थे।उन्हीं की शिक्षा का असर है कि मैं कागज के बजाय सेल्युलाइड पर कहानी लिखने लगा।

समीक्षित पुस्तकें : (1) ख़ानज़ादा– भगवान दास मोरवाल, राजकमल प्रकाशन, २०२१ (2)पुरबी बयार– संजीव, सेतु प्रकाशन, २०२१ (3) काले अध्याय– मनोज रूपड़ा, भारतीय ज्ञानपीठ २०२१

एसोसिएट प्रोफेसर (हिंदी), सी.एम.पी. कालेज, प्रयागराज२११००२, मो.९४१५६१६०८३