वरिष्ठ लेखिका और समीक्षक।संप्रति इलाहाबाद में शिक्षण कार्य।
हिंदी लेखक आर्थिक स्तर पर सामान्यत: इतना समर्थ नहीं होता कि आने-जाने, रहने-बसने, पढ़ने-लिखने और सामग्री जुटाने के साधन जुटा सके। पर मुझे लगता है कि आप कुछ करने की ठान लो, तो काम चलाने योग्य साधन जैसे-तैसे जुट ही जाते हैं। |
इतिहास और संस्कृति किसी भी देश का मेरुदंड होती है। जब कथा साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति होती है तो वह एक नई प्रेरणा देती है। कथाकार इतिहास का पुन: सृजन करते हुए उसके परिवेश को उभारता ही है, अपने चरित्र के मन के संकल्प-विकल्प और समकालीनता के भी चित्र खींचता है। महेश कटारे का उपन्यास ‘भवभूति कथा’ कुछ मायने में विशिष्ट है। यह भवभूति के जीवन पर आधारित एक खोजपरक उपन्यास है, जो उनके जीवन-संघर्ष, हताशा-निराशा और नाट्य कला के प्रति उनके समर्पण को गंभीरता से उभारता है। यह उपन्यास जाति-वर्ण, धार्मिक विधियों, स्त्री की दासता तथा उसके माध्यम से यथार्थ को देखने का आग्रही है।
यह उपन्यास एक नाटकीय परिद़ृश्य की सृष्टि करता है, जो रोचकता और कौतूहल से भरपूर है। इसमें भवभूति की जीवनशैली, रचनाओं और उनके समय को गहनता से पिरोया गया है।
उपन्यासकार ने भवभूति के जीवन विवरण को अनेक स्थानों की कठिन यात्राओं के माध्यम से संगृहीत किया है। वे आठवीं सदी के कवि और नाटककार थे। उनके तीन नाटक हैं- महावीर चरितम्, मालती माधव और उत्तररामचरित। इन नाटकों के माध्यम से उनके जीवन पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। महेश कटारे ने उपन्यास की कथा को संयोजित करने के लिए भवभूति के नाट्य लेखन और मंचन से जुड़े अनेक स्थानों, जैसे पवाया (पद्मावती), कन्नौज, चंद्रपुर, उज्जैन, अमरावती और चंदेरी की यात्रा करके लोक विवरणों के आधार पर कल्पना के सहारे उपन्यास की रोमांचक कथावस्तु की रचना की है। रंगमंच के लिए भवभूति ने अपने समय में जो अथक परिश्रम किया और स्त्रियों के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था की, उन लोकश्रुत घटनाओं को इस उपन्यास में सूक्ष्मता से व्यक्त किया गया है। भवभूति की प्रेमानुभूति उनकी दीवानगी को भी लेखक ने कथाप्रवाह में संजीदगी से रखा है। उनके सामाजिक बहिष्कार की मार्मिक व्यथा कथा भी है।
उपन्यास का प्रारंभ ही ‘नैष्ठिक ब्राह्मण के लिए नटकर्म वर्जित है’ वाक्य से होता है। जातिप्रथा हमारे समाज का नासूर है। ब्राह्मण होकर नाट्यकर्म में उनकी प्रवृत्ति के चलते ही उनका जीवन कठिन हो गया था। इसी परिप्रेक्ष्य में उपन्यासकार ने भवभूति के बहुवर्णी चरित्र को उभारा है। उन्होंने प्रेम को मूल विषय के तौर पर उठाते हुए उसपर दार्शनिक द़ृष्टि भी डाली है। उन्होंने माना है कि योग, सांख्य, वेद, उपनिषद द्वारा प्राप्त ज्ञान का नाट्य क्षेत्र में क्या-क्या काम है। यह उपन्यास ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गलित सामाजिक मूल्यों और स्त्री-विषयक रूढ़िवादी धारणाओं पर प्रहार करता है। श्रीकंठ (भवभूति), चित्रा, मंजरी, हारीत, चंद्र, सारिका, मयूरी, माधुरी, महादेवी, बासकी इत्यादि पात्रों के माध्यम से यह तद्युगीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश के साथ भवभूति की रामकहानी बहुत नाटकीय ढंग से उपस्थित करता है।
जिज्ञासा : ‘भवभूति कथा’ उपन्यास में आपने हमारे देश के सांस्कृतिक इतिहास को औपन्यासिक ढाँचे में बद्ध किया है, जबकि और भी प्रभावक पात्र हो सकते थे!
महेश कटारे : समाज में परिवर्तन लाने के आकर्षक नारे वाले कुछ विचारकों को भारतीय संस्कृति पर आक्रमण करने के लिए एक अमूर्त शब्द मिला- ब्राह्मणवाद। ब्राह्मणवाद के नाम से प्रहार कोई सौ साल पहले ही शुरू हो गए थे। इसके पीछे अंग्रेजों की कूटनीति थी, जिसे उनके लाभार्थियों ने अपनाया। बेशक वर्णवाद और जातिप्रथा भारतीय समाज का नासूर है। इसी कमजोरी को लक्ष्य बनाकर भारतीय दर्शन और धार्मिकता के साथ संस्कृत भाषा पर भी नाक-भौं सिकोड़ी जाने लगी। अपनी जीवंत विरासत को सामने लाने, सहेजने के क्रम में मुझे आवश्यक लगा कि साहित्य-संस्कृति के महान निर्माताओं के जीवन, संघर्ष और रचनाकर्म की प्रेरणाओं को पाठकों के सामने लाया जाए।
जिज्ञासा : राजशेखर क्या सचमुचं भवभूति के अवतार थे, क्या इसका प्रमाण है?
महेश कटारे : अवतार और पुनर्जन्म में बहुत से लोग विश्वास करते हैं। कई मानने, न मानने की दुविधा में हैं। मुझे लगता है कि अवतार का आशय किसी महान व्यक्ति या बौद्धिक शक्ति की परंपरा के निर्वाह से है। राजशेखर ने ‘काव्य मीमांसा’ के अलावा नाटक और नाटिका लिखे हैं। इस रचनागुण-न्याय से वे भवभूति के अवतार कहे जा सकते हैं। भवभूति और राजशेखर दोनों का जन्म विदर्भ में हुआ था।
जिज्ञासा : भवभूति की नाट्य कला और कवि प्रतिभा को सृजित करने में आपके समक्ष कौन सी कठिनाइयां आईं?
महेश कटारे : मैं बचपन से तरुणाई तक रामलीला तथा बाद में नाट्य लेखन, मंचन से जुड़ा रहा हूँ, इससे भवभूति के रचना कर्म और रचना-प्रक्रिया को समझने में मुझे सहूलियत भी हुई। उनकी जिद भी समझ में आई। कठिनाई उनके समय और समाज को समझने के संदर्भ में हुई। उस काल में राजनीतिक अस्थिरता अधिक थी, ऐसे में प्रबंध से जुड़ा कला कर्म कठिन होता है। मुझे खंडहरों की आवाजें सुननी थीं। पद्मपुर से यात्रा की थी भवभूति के साथ। मुझे उन स्थानों की मिट्टी का स्वाद जानना और उस हवा की गंध सांसों में भरनी थी। भांति-भांति के समाज थे…. उनसे परिचित होना था। उस समय के नदी, पहाड़, जंगल, पुर-नगर-ग्राम आदि के चित्र मन पर खींचने थे।
हिंदी लेखक आर्थिक स्तर पर सामान्यत: इतना समर्थ नहीं होता कि आने-जाने, रहने-बसने, पढ़ने-लिखने और सामग्री जुटाने के साधन जुटा सके। पर मुझे लगता है कि आप कुछ करने की ठान लो, तो काम चलाने योग्य साधन जैसे-तैसे जुट ही जाते हैं। भवभूति को मान्यता पाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था। उनकी नाट्यकला और रचना क्रमश: विकसित हुई। इस सबकी खोज, परख और अभिव्यक्ति में कठिनाइयाँ तो आनी ही थी। कभी-कभी निराशा, हताशा भी घेरती थी।
जिज्ञासा :इस उपन्यास में आपने समकालीन प्रश्नों को किस तरह उठाया है?
महेश कटारे : किसी प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखने में सबसे बड़ी जरूरत उसके समय और समाज को शब्दों से आकार देने की रहती है। यह बड़ी कठिन प्रक्रिया है- लेखक का शरीर वर्तमान में होता है तो चेतना अतीत में। अजीब सी बेचैनी उसे घेरे रहती है। इस स्थिति से गुजरते हुए ही वह अपने पाठक को अपनी रचना के वांछित स्थल और कालखंड के बीच ले जाकर खड़ा करता है। आस्वादक को लगे कि सब कुछ उसकी आँखों के आगे घटित हो रहा है और जब रचना से होकर निकले तो सूखा नहीं, बल्कि एक तरलता में भीगकर निकले।
यह सही है कि समकालीन प्रश्नों से जूझे बिना अथवा उनसे अछूते रहकर कोई भी रचना समाज में अपना स्थान नहीं बना सकती। इस उपन्यास में कुछ ऐसे सामाजिक प्रश्न हैं जो सहस्राब्दियों से भारतीय समाज को मथ रहे हैं। जाति-वर्ण, सामाजिक और धार्मिक विधि-निषेध तथा उन्हें मानने-न मानने का द्वंद्व। स्त्री को कुछ अधिकार मिले हों, पर समाज में उन्हें न्यायपूर्ण स्थान अभी तक नहीं मिला। भारत में ही नहीं, संसार भर में मध्यकालीन बर्बरता है। तो सदियों से अब तक चले आ रहे इन प्रश्नों की थाह लेने के लिए इतिहास के अँधेरों में गश्त करनी होती है।
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अच्छा-खासा पाखंड है यह शब्द-व्यवहार, लेकिन सभ्याचार करने की प्रतीति देता है। संक्षेप में हथियारबंद सुरक्षात्मक उपाय और हथियारबंद आक्रामक उपाय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह सिक्का कभी चित गिरता है तो कभी पट। |
उपन्यास साहित्यिक कृति के अलाव पर सामाजिक निर्मिति भी है। उसकी जनतांत्रिकता केवल सृजनात्मकता में नहीं, बल्कि सामाजिक विमर्श में भी निहित होती है। देश के विभाजन का संबंध सांप्रदायिक दंगों और विस्थापन के दर्द से है। हरीचरण प्रकाश के ‘बस्तियों का कारवां’ उपन्यास के जरिए सिंधी परंपरा और उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझा जा सकता है। देश विभाजन पर बहुत से उपन्यास हैं, किंतु बस्तियों का कारवां सिंध से आए शरणार्थियों की दीन-हीन स्थिति, संघर्ष और उनकी व्यथा का रेखांकन करता है।
हिंदू सिंधी एक ऐसा समुदाय है जिसके सदस्यों को पाकिस्तान में अपने मूल स्थान को छोड़कर भारत के विभिन्न कस्बों और शहरों में रहने के लिए विवश होना पड़ा। उसकी संस्कृति और परंपराओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हरीचरण प्रकाश सिंधी नहीं है, किंतु उन्होंने सिंधी समुदाय की जीवन-गति बखूबी समझी है। इस उपन्यास का कथानक दो ऐतिहासिक घटनाओं की त्रासदी को समेटता चलता है। एक 1947 के विभाजन के बाद शुरू होती है और दूसरी 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद।
उपन्यास का कथानक सोमामल की कहानी को व्यक्त करता है। वह अपनी बहन और उसके बेटे के साथ उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर शम्शाबाद पहुंचता है। बिछुड़ने के कारण छोटा भाई आसुमल अलग रास्ते से भारत पहुँचकर सिंधी पुनर्वास निगम के संपर्क में आता है। वह अपने बड़े भाई को भी ढूंढ़ता है। बड़े भाई के मिल जाने पर दोनों कठिन परिश्रम करके संपन्न बनते हैं, किंतु उन्हें मुसलमानों और कांग्रेस से नफरत होती है और छोटा भाई तो कट्टरपंथी हिंदू समूह में शामिल हो जाता है।
उपन्यास के अगले पड़ाव पर लच्छू और नजमा की कहानी प्रारंभ होती है। लच्छा अपने मामा सोनामल के व्यवसाय में सहायक बनता है। उसका मुस्लिम-विरोधी रवैया दिखाई देता है। किंतु लच्छा से प्रेम के कारण नजमा उससे विवाह कर लेती है। तात्पर्य यह है कि प्रेम एक ऐसा भाव है जो घृणा और हिंसा को समाप्त कर देता है, यही इस उपन्यास का प्रतिपाद्य है। हिंसा का कोई न कोई समाधान निकलना ही चाहिए। उपन्यास में लच्छा सिक्ख विरोधी दंगे में अपने ही लोगों के कारण मारा जाता है। बलात्कार की पीड़ा और स्त्री शोषण भी इस उपन्यास का एक प्रमुख विषय है। कथाकार ने स्त्री की जागरूकता का चित्र खींचा है और राष्ट्रवाद की गंभीर आलोचना करते हुए विस्थापन के दर्द और हिंसा के तिरस्कार पर जोर दिया है। 1984 में शम्शाबाद भी सिक्ख विरोधी दंगों से प्रभावित हुआ था। यह उपन्यास सांप्रदायिक घृणा, असुरक्षा और हिंसा को दूर करने की आवश्यकता पर जोर देता है।
जिज्ञासा : आपने विभाजन की पीड़ा और त्रासदी को विस्थापित सिंधियों के माध्यम से व्यक्त किया है, क्या उनमें भी कहीं नफरत और हिंसा भरी हुई थी?
हरीचरण प्रकाश : अधिकांश विस्थापित सिंधियों के मन में एक ढंकी हुई नफरत और दुबकी हुई हिंसा थी, क्योंकि वे उस हिंसा का प्रतिशोध नहीं ले पाए थे जो उन्हें भुगतनी पड़ी थी। लेकिन वक्त के साथ घृणा की भावनाएं शिथिल होती गईं और केवल मनुष्य होने का सच ऊपर आने लगा। इसके बावजूद यह तथ्य तो स्वीकार किया ही जाना जाना चाहिए कि सिंधियों के मन में इस बात की गहरी पीड़ा थी कि तत्कालीन राजनीति में जो वर्चस्वशाली नेतृत्व था, उसने सिंधी हिंदुओं के हितों की पैरवी नहीं की। चूंकि सिंधियों ने भारत में अपने को सफलतापूर्वक स्थापित कर लिया है, इसलिए अब उनमें वैसी बात नहीं है। आर्थिक सफलता उदारता को जन्म देती है।
कुछेक सिंधियों में खीझ है कि प्रेम से संबंधित जो सिंधी लोकगाथाएं हैं उनके अधिकांश नायक मुस्लिम हैं और नायिकाएं हिंदू। शम्शाबाद में हिंदू बनाम मुस्लिम के सांप्रदायिक दंगे में उनकी दमित हिंसा खुलकर फूटती है और एकाएक वह हिंदू समुदाय का हीरो हो जाता है। घृणा और हिंसा के दौर के बाद नजमा का प्यार उसे साधता और संवारता है तो उसे मनुष्य होने का सच मिलता है। अंत में यही लच्छा सिखों को हिंदू भीड़ से बचाने के प्रयास में मारा जाता है। एक किस्म की हिंसा ने उसे पैदा किया और दूसरी किस्म की हिंसा ने उसे मारा। पूछना चाहिए कि क्या मर कर भी वह किसकी हिंसा को पराजित कर सका।
जिज्ञासा : ‘दो भूले हुए हथगोले और एक गर्भ’ -आपने क्या सोचकर इस प्रकार का शीर्षक दिया?
हरीचरण प्रकाश : दो हथगोले पड़े थे। इन्हें कहीं फेंकना था, क्योंकि इनकी जरूरत नहीं रही। फेंक भी दिया होगा। फिर दो हथगोले क्यों। हथियारों और इंसानों के विनाशकारी संबंधों की एक आनुवंशिकी होती है और उनका एक प्रक्षेप पथ भी। लच्छा के शरीर पर फटे हथगोले उन्हीं विस्मृत हथगोलों की रचनात्मक कल्पना हैै जो एक साथ आभासी भी है और वास्तविक भी।
उन्नीसवीं शती तक और बीसवीं शती के एक अच्छे खासे हिस्से तक पश्चिमी देशों में युद्ध मंत्रालय होता था। अब सब जगह इसका नाम बदल कर रक्षा मंत्रालय हो गया है और रणनीतिक कारणों से आक्रमण को भी सुरक्षा के लिए की गई पहलकदमी माना जाता है। अच्छा-खासा पाखंड है यह शब्द-व्यवहार, लेकिन सभ्याचार करने की प्रतीति देता है। संक्षेप में हथियारबंद सुरक्षात्मक उपाय और हथियारबंद आक्रामक उपाय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह सिक्का कभी चित गिरता है तो कभी पट। गर्भ में पल रहा शिशु हर हथियार और हथियारबंद इंसान को मिलने वाली सबसे बड़ी चुनौती है।
जिज्ञासा : आपने स्त्री देह का मुद्दा भी उठाया है, जो महत्वपूर्ण है। क्या इस समस्या का कोई समाधान नजर आता है?
हरीचरण प्रकाश : कोई आश्चर्य नहीं है कि पहले युद्ध के दौरान और उसके बाद भी स्त्रियों की देह एक रण-स्थली बन जाती थी। ‘जर, जोरू और जमीन’ जैसे मुहावरे की प्रतिध्वनि क्या है? मेरी अपनी समझ में स्त्रियों के सौंदर्य के प्रतिमान बदलने की आवश्यकता है। लेकिन ऐसा तब तक नहीं हो सकता, जब तक पुरुष के शौर्य के प्रतिमान न बदले जाएं। स्त्रियां पुरुष की विजय पताका नहीं हैं।
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आंचलिकता कोई चीज होती ही नहीं है। ‘आंचलिकता’ एक शब्द के रूप में भले नकारात्मक हो या न हो, परंतु साहित्य में उसे नकारात्मक रूप में देखा गया है। कोई भी रचना यदि अपने गांव, परिवेश, भाषा, रीति-रिवाज से ज्यादा संपृक्त है तो क्या आप उसे आंचलिक कह कर रिड्यूस कर देंगे? |
उमाशंकर चौधरी मूलत: कवि हैं। उनका ‘अंधेरा कोना’उपन्यास हमारे समय और समाज के साथ लोकतंत्र की विद्रूपताओं को उद्घाटित करता है। आधुनिक समाज की बुनियादी शक्ति लोकतंत्र है। पर हम जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं, उसकी कलई खुलती जा रही है। बाहुबल और धनबल की प्रमुखता बढ़ी है, जनता कमजोर पड़ती जा रही है। विस्थापन और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएं हैं। विकास के नाम पर विनाश की ओर हम बढ़ते जा रहे हैं। उमाशंकर चौधरी ने एक छोटे से गांव के जरिए लोकतंत्र और विकास हमारा सामन करवाया है। लेखक पूर्ण चौकन्ना होकर वस्तुस्थिति को व्यक्त करता है। ‘अंधेरा कोना’ उपन्यास यथार्थ के जरिए सरकार, राजनीति, गांव, विकास, प्रेम और नई तकनीक को आधार बनाकर लिखा गया है। इसमें आम आदमी की अनंत पीड़ा, घुटन, व्यग्रता और निराशा के बीच घटित उम्मीद और प्रेम की कथा भी है, ‘यह मोहब्बत भी अजीब चीज है। हरेक की मोहब्बत अलग-अलग है। कोई अपनी पत्नी से मोहब्बत करता है, कोई अपनी प्रेमिका से। कोई सत्ता से, कोई आंसू से, कोई नशे से और कोई अपनी कुर्सी के नशे से, तो कोई अपने विचार से।’
इस उपन्यास का प्रमुख पात्र नागे (नागेश्वर महतो) अपने सूरज (घोड़े) से प्रेम करता है। मनुष्य और पशुओं के प्रेम पर काफी लिखा गया है, लेकिन नागे का स्नेह मानवीय संवेदना के सूक्ष्म धरातल पर घटित है।
उपन्यास दिखाता है कि विकास किस तरह सबसे पहले गांव को भ्रष्ट करता है। परिवेश, प्रकृति और स्वच्छता को खत्म करते-करते हमने मनुष्य के लोक-लाज को भी समाप्त कर दिया। विदो बाबू के संदर्भ में देखा जाए तो उनके दो जवान पुत्र अचानक गायब हो जाते थे। यदि कोई खोजने का प्रयास करता तो भड़क उठते थे। इस उपन्यास में चिड़िया और नागे के प्यार की अंतहीन घटना कब लोर बनकर घुल मिल जाती है, यह नागे को पता ही नहीं चल पाता है।
‘अंधेरा कोना’ एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपन्यास है। उमाशंकर चौधरी ने इसमें लोकतांत्रिक राजनीति में उत्पन्न अंधेरे को जादुई यथार्थवाद की शैली में बहुत सुंदरता से व्यक्त किया है। इस उपन्यास का अंधेरा हमें लोकतांत्रिक समाज के अंधेरे कोनों में ले जाता है, जिन्हें हम दूर से देखते तो हैं, लेकिन इसके भीतर जाने से भय खाते हैं।
घूटर यादव और विदो बाबू के रूप में झूठ और सच के दो ध्रुव स्पष्ट दिखाई देते हैं। सरकारी संवेदनहीनता, राजनीति के अपराधीकरण तथा पारिवारिक मूल्यों के हनन में शामिल जीवन के उलझाव ही वर्तमान के सच हैं, जिनके शिकार विदो बाबू, दुक्खन, चिड़िया और अंतत: उपन्यास का नायक नागो भी होता है।
यह एक कवि का उपन्यास है, जिसमें एक धीमा दुख मन को अंदर तक कातर बना देता है। ‘सार, इ कौन है जो लोकतंत्र की बात कर रहा है। इ होता क्या है? जैसे लगता है कि दोसरा आ जाएगा तो बड़का लोकतंत्र बहाल हो जाएगा।’ इन पंक्तियों में लोकतंत्र का वर्तमान सच ही नहीं, भविष्य भी उजागर हो जाता है। हालांकि लोकतंत्र की रक्षा के लिए विदो बाबू ने अपना प्राण न्योछावर कर दिया। जो आवाज उठाता है, उसकी आवाज दबा दी जाती है। उपन्यास में लोकतंत्र में चुप्पी कई सवाल उठाती है। केवल एक बूढ़ा चुप नहीं रहता!
जिज्ञासा : क्या आपको लगता है कि ज्यादतर गांवों में लोकतंत्र की विसंगतियों की यही स्थिति है?
उमा शंकर चौधरी : सवाल यहां गांव या शहर का तो है ही नहीं। सवाल यहां आम मनुष्य का है। वह गांव का भी हो सकता है या फिर शहर का। मैंने ‘दिल्ली में नींद’ या ‘इब्नबतूता गायब हो गया’ जैसी कहानियों में दिल्ली के आम आदमी की कहानी लिखी है। आप वहां देखेंगे कि उनके हालात और भी बदतर हैं। उनके पास तो उनका दुख सुनने वाला भी कोई नहीं है। साहित्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती लोकतंत्र को अपनी मूल स्थिति में बचाए रखने की है। ‘अंधेरा कोना’ उपन्यास विकास की असमान अवधारणा पर लिखा गया उपन्यास है।
जिज्ञासा : पर्यावरण, विस्थापन की समस्या और विकास के नाम पर क्या वास्तव में कहीं कुछ हो रहा है?
उमा शंकर चौधरी : इस देश में जो भी कार्य हो रहे हैं वे दावे में हो रहे हैं या फिर कागजों पर। आम आदमी के जीवन में क्या बदलाव है, मूल बिंदु यह है। हमें समझना यह पड़ेगा कि विकास की जिस रफ्तार की बात की जा रही है उस रफ्तार में हाशिये पर पड़ा हुआ समाज कहां पहुंचा है। एक भी व्यक्ति अपनी मूलभूत जरूरतों से, अपनी आजादी से अगर महरूम रहता है तो उसके हक में साहित्य में आवाज हमेशा उठती रहनी चाहिए। उपलब्धियों को गिनाने के लिए ढेर सारे दावे और विज्ञापन हैं।
जिज्ञासा : ‘अंधेरा कोना’ उपन्यास गांव के राजनीतिक दांव-पेंच और नीतियों का खुलासा करते हुए भी उसे बचाए रखने का प्रयास करता है। आप क्या कहना चाहेंगे?
उमा शंकर चौधरी : यह गांव की राजनीति और दांव-पेंच को बचाने का प्रयास नहीं करता है, बल्कि अपनी संस्कृति को बचाने की कोशिश करता है। उपन्यास यह नहीं कहता कि गांव में विकास न हो, बल्कि यह विकास जैविक तरीके से हो, वह यह कहना चाहता है। जैविक यानी एक साथ सभी का। एक का विकास बहुत तेजी से हो और दूसरा उस विकास में बर्बादी के कगार पर पहुंच जाए, यह किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र और समाज के लिए ठीक नहीं है।
जिज्ञासा : आप इस उपन्यास को राजनीतिक उपन्यास कहना चाहेंगे या आंचलिक?
उमा शंकर चौधरी : मेरा मानना है कि कोई भी साहित्य राजनीति से विमुख हो नहीं सकता है। राजनीतिक परिवर्तन हमारे समाज को जितना और जिस तरह प्रभावित करता है, साहित्य का उद्देश्य है कि वह इन प्रभावों से उत्पन्न हुए विभेदों, अंतर्द्वंद्वों को अपने यहां जगह दे। एक उत्कृष्ट साहित्य ऐसा हमेशा से करता रहा है चाहे वह ‘तमस’ हो, ‘मैला आंचल’ हो या फिर ‘गोदान’।
आंचलिकता कोई चीज होती ही नहीं है। ‘आंचलिकता’ एक शब्द के रूप में भले नकारात्मक हो या न हो, परंतु साहित्य में उसे नकारात्मक रूप में देखा गया है। कोई भी रचना यदि अपने गांव, परिवेश, भाषा, रीति-रिवाज से ज्यादा संपृक्त है तो क्या आप उसे आंचलिक कह कर रिड्यूस कर देंगे? यह गहराई उस उपन्यास की ताकत है न कि उसकी कमजोरी। और यह जब मैं कह रहा हूँ तो निस्संदेह ‘मैला आंचल’ को ध्यान में रखकर ही कह रहा हूँ।
जिज्ञासा : स्वप्न एक संजीवनी है, सबका अधिकार है। इस उपन्यास के एक प्रमुख पात्र नागो और चिड़िया का भी एक स्वप्न है। क्या उसे पूर्णता का अधिकार नहीं है?
उमा शंकर चौधरी : स्वप्न देखने का और उसे पूरा करने का अधिकार सबका है, हमारे लोकतंत्र की आधार पंक्ति यही है। परंतु राजनीति ने इतने वर्षों में उसे इस तरह रहने नहीं दिया। आज स्थिति यह है कि जिनके पास संपत्ति है उनके पास ही स्वप्न देखने और उसे पूरा करने का अधिकार है। ऐसा नहीं है कि नागो श्रमशील नहीं है। परंतु यह शासन व्यवस्था उसे बिना विकल्प दिए अपने व्यवसाय से विस्थापित करता है और इस तरह उसका स्वप्न टूट जाता है।
जिज्ञासा : विदो बाबू और घूटर यादव जैसे पात्र सच और झूठ के दो ध्रुव प्रतीत होते हैं। इस उलझन का क्या समाधान है?
उमा शंकर चौधरी : समाधान क्या है यह तो बहुत ही वायवीय सवाल हो गया। क्योंकि कोई भी साहित्य समाधान नहीं देता। साहित्य का काम है अपने समय-समाज की समस्याओं, चुनौतियों को उठाकर हमारी निगाह में लाना। आम आदमी के हक में उनकी आवाज बनना। आज विडंबना यह है कि चारों तरफ झूठ का बोलबाला है। घूटर यादव जैसे चरित्र ही इस लोकतंत्र में नायक हैं। तो लगातार इस बात को उठाते रहने की जरूरत है। लगातार साहित्य को अपनी भूमिका अदा करते रहने की जरूरत है ताकि इस समाज को सिर्फ झूठ और फरेब से ढक नहीं दिया जाए।
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समीक्षित पुस्तकें–
- भवभूति कथा (उपन्यास), महेश कटारे, राजकमल पेपर बैक्स, 2023 (2) बस्तियों का कारवाँ (उपन्यास), हरीचरण प्रकाश, सेतु प्रकाशन, 2022 (3) अँधेरा कोना (उपन्यास), उमाशंकर चौधरी, राधाकृष्ण पेपर बैक्स, 2023
एसोसिएट प्रोफेसर (हिंदी), सी.एम.पी. कालेज, प्रयागराज–२११००२, मो.९४१५६१६०८३