युवा कवि।इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक के तृतीय वर्ष के छात्र।

बेजुबान

सतही नहीं हो जाती पीड़ा
सिर्फ इसलिए कि वह तुम्हारी नहीं है
भाषा में लेकिन अपनी बात
कहने की इजाजत है सबको

सुधीजनो, आप चाहते हैं
कि मैं बेजुबानों की आवाज़ बनूं

लेकिन जब शुरुआत से ही
मैं कुछ कहने की कोशिश में हूँ
तो क्या वह लिख पा रहा हूँ?

और अगर मैं नहीं लिख पा रहा
तो क्या आप वह कह पा रहे हैं?

भेड़िया

मैं भेड़िए की उस कहानी का नायक हूँ
जिसमें भेड़िए के आने पर
कोई नहीं आता

और भेड़िया जब
गपागप लील रहा होता है
नन्ही-नन्ही जिंदगियां
असहाय होकर मैं
उसकी तरफ़ देखता हूँ
भेड़िए के आने पर
लोग नहीं आते

वे दरअसल, कभी नहीं आते
उन दिनों या तो
भीड़ आती है
या कोई भी नहीं।

चेहरा मेरा

मैं एक दिन अपने ही शहर में खो जाऊंगा
जैसे मृगी, मरीचिका में खो जाती है
समर्पण की तरह नहीं
उलाहना की तरह

मुझे रखनी है हत्यारे से पूरी सहानुभूति
मैं हूँ जिरहों में समर्थ वकील
मैं पुलिस की उकड़ू निष्पक्षता
मैं मी-लार्ड का अंधा-धुंध न्याय
मुझसे एक लाश नहीं पहचानी जाती
मैं एक हत्या का चश्मदीद गवाह!

जो तुम मुझे कहीं रख के भूल गए
मेरा चेहरा अब दफ्तरी कागजात से मिलता है
मैं आवश्यकता में जितना भी रहा हूँ
मैं वास्तविकता में इतना ही बचा हूँ

और?
और तुम्हें मुझसे निजात चाहिए।