प्रशासकीय पद से सेवानिवृत्त। बाल उपन्यास लहू के प्यासे’, कविता संग्रह शब्दों के शीशम पर’, ‘कितनी दूर और चलने पर

कुओं में सुबह

जी हां
कुओं में भी सुबह होती है
उन पलों में झिलमिलाता है उनका पानी

ईंटें
जिन्होंने बांधकर रखी हैं
उनकी दीवारें
गिनी जा सकती हैं, दूर तक

इधर-उधर उगी वनस्पतियां
लौटती हैं
अपने मौलिक हरेपन में

कितनी लंबी रस्सी पर्याप्त होगी
एक बरतन के गुड़ुप होने के लिए
देखते ही पता चल जाता है

एक मोहल्ला
जिसकी बाल्टियां खाली हैं
जुटता है उनके वृत्त के इर्द-गिर्द

तमाम चीजों की तरह बारिश में
दो-चार हाथ पास आ जाती है
उनकी सतह भी

अच्छी बात है
थोड़ी-सी पृथ्वी उनके अंदर भी है।

प्याज काटती लड़की

इतनी तो मैं
कम नंबर आने पर भी नहीं रोई

तब भी नहीं
जब भैया ने मेरी गुड़िया पटक दी थी
या इतवार के दिन मुझे डांटकर
देवी के मंदिर ले गई थी
नानी और मौसी अलस्सुबह

भैया आंखों की कड़वाहट को क्या समझे
उसे प्याज नहीं काटना पड़ता
कोई उसे देवी के मंदिर ले जाने पर भी
जोर नहीं देता

क्या देवी ने कभी
प्याज की गांठें छीलने का काम किया
या वह राक्षसों को ही मारती रही आजीवन

प्याज काटने के लिए
नानी और मौसी पीढ़े पर बैठकर
फुर्ती से चाकू चलाती हैं
मां उनसे भी अधिक तेज

मुझे इन लोगों के आंसू नहीं दिखते
क्या सूख गए हैं धीरे-धीरे
कोई सिसकी दबाने की कोशिश में

कोशिश एक अच्छा शब्द है
मेरा पसंदीदा शब्द
राह दिखाने वाला शब्द

एक दिन अकेले आऊंगी देवी के मंदिर
पूछूंगी फुसफुसाकर –
आप राक्षस कैसे मार लेती हैं?

पीट दूंगी

मां का तकियाकलाम था-
पीट दूंगी
हम उनकी
इस शब्दावली के साथ बड़े हुए

बचपन के हमारे नखरे
सारी शैतानियां आपसी लड़ाई-झगड़े
आंख बचाकर सिक्का उठाने की हरकत
गेंदों और गुब्बारों से जुड़े टंटे
लोगों के पास से गुजरती
हमारी गिल्लियां
स्कूल के वक्त बुखार में होने का
हमारा अभिनय
ये सब उनकी इस भाषा को
वैसे ही पहचानते थे
जैसे कोई तोता पहचानता है
पिंजरे में डाली गई मिर्च को
और उसे कुतरता है मजे ले-लेकर

वह भी हम सबको
अच्छी तरह समझती थीं
जैसे कोई पौधा महसूस करता है
अपने एक-एक फूल को

उन्हें किसी भी बच्चे का बेवजह रोना
सख्त नापसंद था

जिस दिन वह हमसे विदा हुईं
हम फूट-फूटकर रो रहे थे
लेकिन वह शांत थीं

मगर उनके होंठ
थोड़े-से खुले थे
जैसे कहने ही वाली हों
पीट दूंगी!

कीलें

उनपर बड़ी जिम्मेदारियां थीं दोस्तो
उन्हें जूतों में ठुकना था
दरवाजों को बचाना था उखड़ने से
हिलती-डुलती मेजों में फूंकने थे प्राण

दीवारों पर सही जगह टांगने थे चेहरे
कसकर थामे रखना था
देवताओं का पतन

धीरे-धीरे धुंधली होने देनी थीं
सिंहासनों और सलीबों के काम आए
अपने कुल की कहानियां
और सबसे बढ़कर
अपनी रीढ़ को सीधा रखकर
याद करने थे चुपचाप
हथौड़े की जरा-सी चोट से
टेढ़े हुए अपने दोस्तों के कूबड़।

मामूली चीजें

कई बार एक रूमाल
रोककर रखता है हमारी सीट

कई बार एक झाड़ू
अचानक दिख गए बिच्छू से निपटने में
करती है हमारी मदद

कई बार एक पुराना स्टूल
हमारे कद में जुड़कर
घोंसले में रख देता है
वहां से लुढ़ककर जमीन पर गिरे चिरौटे

कई बार एक आलपिन
हमारे पैर में पड़ी चप्पल को
कारगर ढंग से पहुंचाती है गंतव्य तक

कई बार सबसे मामूली चीजें
अपनी भूमिका से निकलकर
नए सिरे से घोषित करती हैं
अपनी मौजूदगी।

संपर्क : 14/34 (प्रथम तल), इंदिरानगर, लखनऊ 226016  मो : 9918165747