जन्म 1962, आरा (बिहार) में।कविता संग्रह- ‘अपने जैसा जीवन’, ‘नींद थी और रात थी’, ‘स्वप्न समय’ और ‘खोई चीजों का शोक’ प्रकाशित।संप्रति इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में प्रोफेसर।हिंदी अकादमी द्वारा सम्मान के अलावा महादेवी वर्मा पुरस्कार से सम्मानित।

उदास स्त्री

रात चूमती है उसे
बदहवास वह कुछ नहीं कहती
निर्वस्त्र उसकी आत्मा उसी की हुई जाती है
कोई आया नहीं यहां कि वह कुछ कहे भी
एक चुप में सब कुछ होता चला जाता है
सुभाषित भोर में कोई चांद जैसा
उसके कानों में सिर्फ सांस चलने की
आवाज भर छोड़ जाता है
जागने पर एक हिदायत भी
वह जागती है
किसी चिड़िया की तरह दर्ज करने
कायनात में अपनी उपस्थिति
शाश्वत स्पर्श सा तब भी
फैला रहता है रात का जादू
समेटती किसी तरह खुद को
वह उसी में धंसी जाती है
हवा आती है सारी छुपी अतृप्तियों को
उजागर करती
जगाती किन वासनाओं को आह!
यह कौन सा दौर है
एक उदास स्त्री के लिए, सचमुच!

अब यूं ही रहना है

अब इसी तरह रहना है
चाहते हुए उन चीजों को
जिन्हें नहीं मिलना है
जैसे यह जिंदगी भी तो
मिली हुई एक चीज है
अब उसी खुशी को
चाहते हुए जीना है
जो दूसरों को मिलती है
अब बहुत कम चाहते हुए जीना है
क्या यह कम खुशी की बात है
कि जिस गुलाब को महीनों से
सींच रही थी
आज वह खिल उठा है
लाल गुलाब अब भी पत्तियों
कांटों और नई कलियों के साथ
अब इसी तरह रहना है
उन तारों को चाहते हुए
जो अब भी नींद की परतों में फंसे मिलते हैं
उन्हीं की रोशनी से आंखों को भरते रहना है
भले वे दूसरों को मेरी आंखों की रोशनी लगें
अब भी खुद से बातें
ऐसे ही करते रहना है।

आज और अभी

यह कोई हृदय नहीं
इसे रचने वाले का नहीं कुछ
नाम पता भी
लाशें ही लाशें हैं
उन पर पड़े केसरिया कफन
हवा और बारिश मिलकर
और भी उजागर कर रहे हैं
दिखता है जो वही समय है
या कि उसका चांद सा चेहरा!
यह कोई नई बात नहीं
गए ही आखिर हमें प्यार करने वाले
समय से गए नाना नानी
दादा दादी
मां गई पिता भी
और आखिर पति
लेकिन यश का जाना ज्यादा ही खल गया
मेरा भतीजा अभी तो बस बीस का हुआ था
उसकी हड्डियां तो अभी मजबूत होनी थीं
और तो और वह कोरोना से पहले गया
सोचती हूँ
मानने को विवश भी
कि जीवन से बड़ी है मृत्यु
उसके कई दौर हैं
और कितने ही दौरे
जीवन है ही छोटी सी एक रात
ब्रह्मांड की किसी खराब नींद में फंसी हुई
यह कोई दृश्य नहीं
एक ख्याल है
प्रेम और मृत्यु के बारे में
आज और अभी दिल में उतरा हुआ।

इंतजार के पार

सारे पत्तों को चलो इकट्ठा करें
एक ढेर बनाएं
इंतजार करें
हवा का
आग का
हम इंतजार करें
पीले रंग के सूखने का
भीतर एक मरोड़ का
उसके अंत का
अंत तक
चलो इकट्ठा करें
झूठों के पुलिंदों
बेईमानियों को चलो इकट्ठा करें
वे अपनी ही होंगीं
इंतजार करें हवा का
आग का
एक लपट के उठने का
खाक होने का इंतजार करें
इंतजार के पार जाने का इंतजार करें।

सारी पृथ्वी चाहिए

लाशें जल रही हैं
लकड़ियां घट रही हैं
यह पृथ्वी खाली हो रही है
कितने ही लोगों के मंसूबों को
साथ लिए जा रही है
सबसे कम जगह
मरने वालों के लिए बची है
सबसे कम हवा गरीबों के लिए
लोगों को विदा कर रही है पृथ्वी
खुद को बचाने के लिए
या उनको, तानाशाहों को
जो आखिर में इसका बलात्कार करेंगे
ये खानदानी बलात्कारी हैं
इन्हें सारी पृथ्वी चाहिए
उसके खदान, बॉक्साइट, लोहा एल्यूमिनियम
इन्हें इसका प्लूटोनियम चाहिए
परमाणु शक्ति
संसार की हर चीज पर इनका शासन हो
इन्हें यही चाहिए
सब कुछ इनके अधीन
और ऐसा तो है भी अब
यह पृथ्वी अब इनकी गुलाम है
और प्रकृति बस एक स्त्री।

सन्न

हमारे पास ले देकर प्रेम ही तो था
धीरे-धीरे गल गया
अलकतरे की तरह मन की राहों पर
बिछ गया
हम जान भी नहीं पाए
कब उस पर दूसरी गाड़ियां
चलने लगीं
कब अजनबी लोग
उस पर टहलने लगे
मैं गिरी इसी बीच
अपनी आत्मा के भीतर
इतनी घायल कि आवाज भी गुम हुई
बस अब ताकती हूँ
और आंखें सन्न हैं।

21वीं सदी कविता से संवाद के अंतर्गत कवि विशेष की रचनाप्रक्रिया पर आशीष मिश्र  का आलेख ‘स्त्री के अंतर्लोक का वैभव’ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.