वरिष्ठ आदिवासी कवयित्री। पुुस्तक ‘आदिवासी देशज संवाद’ और काव्य संग्रह, ‘दिसुम का सिंगार’।
तुम्हारे बिना
मैं डरती हूँ
जब तुम जंगल की पगडंडियों से
शहर जाते हो
जब तुम रेलवे स्टेशन से
कहीं दूर जाने के लिए निकलते हो
मैं पत्ते की तरह कांपती हूँ
तुम्हें शहर के बेरहम हाथों में
देखती हूँ तो डरती हूँ
जब तुम आओगे
तो मैं तोड़ लाऊंगी जंगल से
सारू, वनपोई
जिरहुल फूल तोड़ लाऊंगी
तुम यहां होते तो मेरे लिए
गूंजों की माला जरूर लाते
तुमने कहा था
मैं आषाढ़ में आऊंगा
तुम्हारे लिए कर्णफूल लेकर
तुम्हारे लिए लाह की चूड़िया लेकर
खेती का समय है
और तुम शहर में हो
तुम हाथ पैरों में दर्द लेकर
सर में पीड़ा लेकर
जब घर लौटते हो
तुम्हारे दर्द को दूर कर देना चाहती हूँ
और माथे पर पड़ने वाले शिकन को भी
पर तुम शहर में हो और मैं जंगल में
अभी तक प्रेम की कोई निशानी नहीं
हर बार नदी पूछती है
चिंतित होकर आंसू बहाती है
हर बार बड़ादेव पूछते हैं
हमारे फूलों के बारे
कहीं हमारा अस्तित्व मिट तो नहीं जाएगा
इस धरती से।
गीतों से संवाद
मैं नेतरहाट के ऊंचे जलप्रपात
बूढ़ाघाघ के पास तुम्हारी प्रतीक्षा करती
काश तुम आवारा बादल की तरह पास आते
मैं हँसती-गुनगुनाती कोई आदिम गीत
तुम बांसुरी से छेड़ते कोई मीठी तान
हम गीतों से ही संवाद करते
जंगल पहाड़ों में
हम नई पगडंडियां बनाते
हम आदिम गीतों में
कुछ नया जोड़ते
कविता के लिए बिंब चुनते
हम गीतों से ही संवाद करते
कभी मैं नेतरहाट के पाट से उतरकर
कोईल नदी तीर में गाती कोई प्रेम गीत
तुम बांसुरी की धुन में
मवेशी चराते मेरे आदिम चरवाहे
तुम तोड़ लाते जंगल से
मेरे लिए जूड़ा भर फूल
हम गीतों से ही संवाद करते।
संपर्क : आसरी रेसीडेंसी, ब्लॉक–सी, 3 सी, न्यू गितिलपीड़ि, दिनकर नगर, हटिया स्टेशन रोड, बिरसा चौक, रांची, झारखंड–834003 मो.6207937207