वरिष्ठ लेखिका। ‘अठन्नी’, ‘गिरती दीवारों का सच’ (कहानी संग्रह)। संप्रति :  सिटी मोंटेसरी पब्लिक स्कूल बनकटवा में प्रिंसिपल।

 

जून की एक तपती दोपहरी में गाड़ी दौड़ी जा रही थी श्रीनगर से पहलगाम की ओर। कश्मीर की वादियां पुरसुकून जरूर थीं, मगर श्रीनगर में मौसम का तेवर बिलकुल अलहदा था।

रास्ते भर झेलम चलती रही साथ-साथ। पत्थरों से टकराती, शोर मचाती, तो कहीं शांत-चुपचाप। फेनिल पानी और उसकी आवाज उस नीरवता के घेरे को तोड़ रहा था, जिसे बुना था प्रकृति ने आसपास अनायास।

अभी होटल पहुंचने में घंटा भर का सफर शेष था।

‘क्या नाम बताया था मैडम होटल का?’

फिरदौस की आवाज ने चुप्पी तोड़ी।

‘केसर कॉटेज। क्या पहले आ चुके हो यहां?’ नीला ने उत्तर के साथ प्रश्न भी रख दिया था।

‘कोई मसला नहीं। मैं तो हमेशा आता-जाता रहता हूँ। सारा एरिया जाना हुआ है।’ कहते हुए उसने मैप लगा लिया था।

‘वाकई बहुत सुंदर है कश्मीर, जितना सुना था उससे कहीं ज्यादा!’

मौसम अब खुशगवार हो चला था। पेड़ झूमने लगे थे और ठंडी हवा उन्हें छू-छू कर इतरा रही थी। अजीब सी मोहक गंध पसरी थी हर तरफ। दूर कहीं बर्फ से ढके पहाड़ खड़े थे। नदी तो हर जगह मिलती रही बहती हुई, उमंग से छलकती हुई। तमाम रास्तों पर उत्साह से भरी हुई साथ-साथ चलती रही नदी। बारिश की बूंदें पड़ने लगी थीं अब।

तभी रास्ते से भेड़ों का झुंड गुजरा। अपने पारंपरिक पोशाक में चरवाहे भेड़ों के साथ चल रहे थे। गाड़ी की रफ्तार धीमी हो गई थी। नीला ने चहकते हुए कहा, ‘फिरदौस, जरा गाड़ी साइड कर दें। मुझे इन भेड़ों के साथ-साथ चलना है, और हां, मेरी एक तस्वीर भी निकाल दें इनके साथ।’ नीला को अपनी बोली पर हैरत हुई कि इन चार दिनों में ही उसका लहज़ा यहां के लोगों जैसा हो चला था।

नीला अपना मोबाइल अनलॉक कर थमा चुकी थी फिरदौस को।

जब तक भेड़ों का झुंड गुजर नहीं गया, नीला चलती रही उनके साथ-साथ उनको छूती हुई, महसूसती हुई।

फिरदौस की आंखें भी निहार रही थीं तमाम मंजर को।

‘मैम, आप पहली बार आई हैं कश्मीर?’

नीला ने बेफिक्री से हां में सिर हिलाया।

‘कैसे जाना…?

‘आपको देखकर।’

‘कोई मसला नहीं’, उनकी ही पंक्ति दोहराती नीला हँस पड़ी थी।

‘कैसा लग रहा है कश्मीर और यहाँ के बाशिंदे?’ फिरदौस के पास एक सवाल था और चेहरे पर काबिज़ थी मासूमियत।

‘बेहद खुबसूरत है कश्मीर और यहां के बाशिंदे। नेक दिल और लहजा उनका इज्जत देने वाला लगा मुझे। श्रीनगर होम स्टे वाले दानिश हों या रात जहां खाना खाया, वहां का होटल मालिक आफ़ताब, जहां खरीदारी की वह दुकानदार हो या फिर तुम फिरदौस… बिलकुल परिचित से लगे।’ नीला बोलती गई अपनी भावनाओं में बहती हुई। उसने चुपचाप सुन लिया।

अब प्रश्न था नीला का, ‘कब से चला रहे हो टैक्सी?’

‘चार साल हो गए मैम। बी.टेक किया, मगर अभी तक मनमाफिक जॉब नहीं मिली। कोशिश में हूँ। देखें अल्लाह कब रहम फरमाता है!’

‘फिर लगकर तैयारी क्यों नहीं करते… टैक्सी चलाकर कैसे कर पाओगे…’ नीला का मन विचलित था।

‘जिंदगी भी तो बसर करनी है मैम।’

जिंदगी का सच बयां करता जवाब था उसका और निरुत्तर थी नीला।

‘आप शायरी करती हैं मैम?’ एक संजीदा प्रश्न था उसके पास।

‘हां! शायरी तो नहीं, मगर कविता जरूर लिखती हूँ। कैसे जाना तुमने?’

‘आपको देखकर। मैं भी शायरी करता हूँ। कहें तो सुना दूँ।’

‘इरशाद…’ खुश होते हुए नीला ने कहा।

‘इतने बुरे भी नहीं हम जितना समझा हमें लोगों ने/कुछ किस्मत का कुसूर था, कुछ आग लगाई अपनों ने।’

फिरदौस अब चुप था। नीला समझ गई थी इन पंक्तियों में छुपे दर्द को। शायरी से ज्यादा यह पीड़ा थी उनकी, जिसे फिरदौस ने शब्द दिए थे।

‘बहुत खूब!’ बात बदलने की गरज से नीला ने कहा, ‘अच्छा फिरदौस, यह बताओ कि क्या मतलब है तुम्हारे नाम का?’

‘जन्नत।’ संक्षिप्त उत्तर था।

‘अहा! बिलकुल कश्मीर से मिलता जुलता है तुम्हारा नाम। सच ही तो कहा है, धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है!’

नीला मुस्करा रही थी बेवजह, जबकि गाड़ी चलाता हुआ फिरदौस आदतन चुप था।

‘ऐसा करो फिरदौस, कोई कश्मीरी गाना बजा दो कि सफर खुशगवार रहे।’

बाहर देखती हुई नीला ने सलाह दी।

गाना बज रहा था, जिसमें अल्लाह की इबादत और अपनी धरती से प्रेम का मिलाजुला भाव था।

गीत के बोल पूरी तरह समझ में नहीं आने के बाद भी अर्थ और भाव स्पष्ट थे।

प्रकृति के सौंदर्य को निहारती नीला खोई थी उन लमहों में, जिन्हें कश्मीर में बिताया था पिछले चार दिनों में।

जम्मू से ही फिरदौस उसके साथ था अपनी टैक्सी के साथ। चिनाब नदी भी चल रही थी संग-साथ पत्थरों को फलांगती, ऊंची-नीची जगहों पर बेझिझक पूरे उत्साह से बहती। हरहराती हुई, जैसे श्रीनगर में नीला के आने का जश्न मना रही थी।

कई लंबी सुरंगें पार कर पहुंच रही थी नीला पहाड़ों के करीब, वादियों में विचरने। कश्मीर की वह पहली रात, जब श्रीनगर पहुंचते-पहुंचते रात के ग्यारह बज चुके थे। हैरान थी नीला, तमाम अंदेशे कहीं दुबके पड़े थे जैसे मिथ्या ही थे सब। उसको महसूस हो रहा था, जैसे किसी सामान्य हिल स्टेशन पर ही पहुंच रही थी वह।

दहशत और आतंक का जो भाव था मन में, अब वह दूर-दूर तक नहीं था।

सड़कें चकाचक और लाइट खूब थी। बेइंतहां रौशन था शहर।

‘कितना जगमग है श्री नगर!’

नीला का स्वगत कथन था, मगर फिरदौस उस धीमी आवाज को भी पकड़ चुका था रात्रि की निस्तब्धता में।

‘हां, परसों यहां अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होने जा रहा है, जिसमें कई देशों के डेलीगेट्स आएंगे। इसलिए इतनी चमक दिख रही है।’

उसकी आवाज में तंज था, मगर चेहरे पर मुस्कराहट थी।

‘वैसे सामान्य दिनों में भी सुंदर दिखता है श्रीनगर।’ दोबारा जैसे बात संभाली उसने।

डल लेक वाली सुबह बेहद खुबसूरत थी नीला के लिए। जैसा तसव्वुर में था, उससे भी कहीं ज्यादा। झील में सजे-धजे शिकारे पर बैठी वह तैरती रही खुद से भी बेखबर।

शिकारा चलाता हुआ आसिफ तमाम बातें साझा कर रहा था, ‘मैडम, देखें कि इसी हाउस वोट में ‘फिजा’ फिल्म की शूटिंग हुई थी।’

नीला ने निहारा। फिर वह दूर चमकते पहाड़ों को देखने लगी। शिकारे में बैठी वह किसी और जहां में आ गई थी जैसे।

‘इस हाउस वोट में गाना शूट हुआ था मैडम, बुमरो बुमरो…’ आसिफ ने इशारा किया।

मिशन कश्मीर का वह दृश्य साकार था नीला के जेहन में। उसने गौर से देखा सामने उस एरिया को जो रस्सियों से घेरा गया था।

‘और ये क्या है… बताएं आप…?’ प्रश्न था अब।

‘यहां खेती होती है फूलों की, इधर को शिकारा नहीं जाता।’

‘इतनी खूबसूरती के दरम्यां इतनी दहशत क्यों आखिर?’

मिशन कश्मीर का कथानक एक बार फिर साकार था जेहन में। उसने खुद को समझाया, ‘अब हालात बदल चुके हैं यार… बेफिक्री से मजा लो प्रकृति का। सब अपने जैसे ही तो हैं।’

तभी एक शिकारा पास आकर रुका, ‘दीदी! ये चीजें बहुत सुंदर हैं। ले लो कुछ यहां की निशानी के तौर पर।’

नेकलेस, ब्रेसलेट के जाने कितने डिजाइंस थे। वह असमंजस में थी।

‘आप ही का इंतजार करते हैं हमलोग। आप आते हैं तो हम खुश होते हैं। रोजी-रोटी चलती है हमारी।’

नीला ने खरीद ही लिया कुछ सामान।

जाने कितने शिकारे ऐसे थे जो समान बेच रहे थे। कहीं शाल तो कहीं चेरी, कटोरियों में भरी, सजी हुई। कहीं गरमागरम भुट्टा, तो कहीं कवाब- जैसे एक सुंदर शहर बसा हो झील में। किनारे कई दुकानें सजी थीं। रेस्टोरेंट भी स्वागत के लिए तैयार थे पर्यटकों के।

मगर नीला विचर रही थी स्वप्नलोक में। अरसे बाद एक सपना पूरा हुआ था कश्मीर को देखने का। शिकारे में बैठी वह पर्वतों को निहार रही थी।

उसे निखिल की याद आई। तमाम दृढ़ता के बाद भी भीतर कोई था जो उकसा रहा था उसे। दिखा रहा था वह खालिस जिंदगी का, जिसे वह झुठला रही थी। वह जैसे गिना रहा था कमियां जिंदगी की।

निखिल को यहां होना चाहिए था उसके साथ, तब यात्रा कुछ ज्यादा जीवंत होती। कुछ ज्यादा पुरसुकून होते जिंदगी के ये लमहे। काश कि वह अपने अनुभव और खुशियां बांट सकती बेझिझक।

नीला जानती थी निखिल जानबूझ कर काम का बहाना बना रहा था। उसकी यह यात्रा एक मकसद के तहत भी थी। यहां कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य जुटाने थे उसे अपनी आगामी किताब के प्रामाणिक लेखन के लिए।

मगर अकेले यात्रा करने का एक अपना सुकून भी होता है। पता था नीला को, पर जानती है, रिश्तों को सहज होना ही चाहिए। लचीलापन जरूरी है ताकि टिक सकें ताउम्र रिश्ते। ज्यादा दबाव या तनाव न तो वह खुद सह पाती है न ही देना पसंद करती है निखिल को।

पिछली बार दोनों साथ-साथ थे मध्यप्रदेश भ्रमण पर। उज्जैन, खजुराहो, पंचमढ़ी के बाद मांडू जाने की जिद थी नीला की। रानी रूपमती का महल भर नहीं देखना था उसे, वहां ठहरकर स्थानीय लोगों से मिलकर वहां प्रचलित रानी रूपमती और बाज बहादुर के प्रेम को सुनना और जीना था। दरअसल वह रानी रूपमती पर कुछ लिख रही थी उन दिनों। मध्यप्रदेश की यात्रा का प्रोग्राम बनाने के पीछे एक प्रच्छन्न मोह था मांडू का। समय सीमित था, लौटना था निखिल को।

उसकी मंशा जानकर निखिल ने प्रतिरोध जताया, ‘ऐसी यात्रा खुद करो जहां तुम्हें कुछ दिन सुकून से रुकना हो, जानना हो।’

झल्लाहट साफ दिख रही थी उसके चेहरे पर। तभी तय किया था नीला ने, बांधेगी नहीं। स्वेच्छा से  साथ हो तो ठीक, अन्यथा जिंदगी एक है और अपनी है। अपने तरीके से जीने का अधिकार सभी को होना चाहिए।

यात्रा का अगला पड़ाव गुलमर्ग था। याद कर नीला असंयत हो गई थी कुछ पलों के लिए। हैरान थी, घोड़े पर सवार होकर ऊपर जाने का विचार किया तो आखिर कैसे। मगर यात्रा की शुरुआत हो चुकी थी बर्फ तक पहुंचने की। घोड़े पर सवार वह संतुलन साधते यात्रा पूरी तो कर चुकी थी, मगर उबड़-खाबड़ रास्ते की चढ़ाई पर घोड़े की तरह घोड़ेवाले के पैरों के संतुलन को देखकर वह अचंभित थी।

दुबला-पतला मगर बेहद फुर्तीला अहमद बेहद सजगता से चल रहा था। बीच-बीच में उसे हिदायत भी दे रहा था।

‘लगाम पकड़ो मैडम, सीधा बैठो…’ तमाम रास्ते संतुलन साधने की कवायद में वह मन की दहशत को झुठला रही थी। रास्ते बेहद खतरनाक थे और डरा रहे थे। मगर फिर भी अहमद की नजरों में असफल ही थी वह। संतुलन साधना इतना आसान नहीं था शायद उसके लिए।

अंततः परेशान नीला ने कहा, ‘इतने खतरनाक रास्ते पर यात्रा की अनुमति ही क्यों देती है सरकार? या फिर देती है तो पहले रास्ते को बनवा देना चाहिए।’

‘सीजन में तो ये तमाम रास्ते बर्फ से ही ढके होते हैं मैडम। सड़क कितने दिन चलेगी फिर…’ अहमद का तर्क था।

‘आते ही क्यों हैं लोग ऐसे रास्ते पर!’ नीला हैरान थी।

‘आप आते हैं तो हम जीते हैं, हमारा परिवार जीता है। इंतजार करते हैं हम आपका, क्योंकि यही हमारी रोजी-रोटी है।’ घोड़े को सहलाते हुए अहमद ने बेबाकी से अपना मंतव्य रखा।

नीला ने गौर से देखा। सूखे गोरे चेहरे पर ऊंची नाक, आंखों में चपलता और पैरों में घोड़े से अधिक संतुलन साधे वह इंसान ही था। अहमद एक मेहनतकश था, जो अपनी मुश्किल जिंदगी इतनी सहजता से जी रहा था, अपनी मेहनत की बदौलत।

उसके पैरों की चाल घोड़े की टापों से कम कहां थी। पत्थरों के दरम्यां तो कभी गड्ढे में गिरते-गिरते भी संभल जाते थे। ग़जब संतुलन था उसके कदमों का।

‘मैडम, जहां से आपने घोड़ा लिया था, बरफ वहां तक ही मिल जाती, अगर आप महीने दो महीने पहले आती।’ अहमद की बातें जारी थी मगर नीला चुप थी।

ऊपर बर्फीली वादियों में पहुंच कर नीला यात्रा की जद्दोजहद बिसरा चुकी थी। एक उल्लास था अब आसपास। तमाम पर्यटकों के चेहरे प्रफुल्लित थे। सभी अपने तरीके से जी रहे थे उस पल को। संजो रहे थे उसे अपने मन में। स्कीइंग, स्लेजिंग तमाम करतबों से दो चार होती नीला एकटक नीहार रही थी बर्फ से ढके पहाड़ को, जिनपर पड़ती सूर्य की किरणें एक तिलस्म रच रही थीं। गुलमर्ग की वह यात्रा यादगार थी भय और प्रसन्नता दोनों ही लिहाज़ से।

जब नीला पहलगाम पहुंची, तो शाम घिर आई थी। बारिश नहीं हो रही थी, मगर बारिश के आसार जरूर थे। उमड़ते आ रहे बादलों ने इस बात की तसदीक कर दी थी कि चाहे जो हो आज जम कर बरसना है उनको।

केसर गेस्ट हाउस का बोर्ड दिखने लगा था अब। पास जाने पर नीला ने देखा बिलकुल सामान्य था होटल। आसपास छोटे-छोटे कुछ घर थे, जिनके बाहर बच्चे अभी भी खेल रहे थे।

गाड़ी का हार्न सुनकर गेट खोला था गेटमैन ने। जिस कमरे को बुक किया था ऑनलाइन, छोटा कमरा था, मगर सहूलियत की सारी चीजें मौजूद थीं। हालांकि बस कामचलाऊ थीं चीजें।

थोड़ी कोफ़्त हुई नीला को, क्योंकि कमरे में घुसते ही उसे घुटन महसूस हुई। सीलन भरा कमरा था। हालांकि खिड़की थी उसमें, मगर शीशे से पैक और परदे से लैस।

उसने जरा सा परदा सरकाया। सामने सड़क दिख रही थी और दूर पहाड़। हवा खूब थी, तो पेड़ भी झूम रहे थे।

सामान शिफ्ट होने के बाद वह मार्केट निकल गई। सोचा था, चाय पीकर रात का खाना भी पैक करा लाएगी। उम्मीद कम थी कि वहां खाने को मिलेगा। आसपास एक ढाबा तक नहीं था। गेस्ट हाउस में रेस्टोरेंट भी नहीं दिख रहा था।

घंटे भर बाद लौटी थी, तो शांत दिख रहा था सबकुछ। सुनसान था गेस्टहाउस का माहौल भी। तीन लड़के, जो गेस्ट हाउस के केयर टेकर थे, वहीं रिसेप्शन पर बैठे थे।

नीला ने गर्म पानी का आर्डर दिया। अब उसे पता लगा कि किचेन था वहां, जहां से जरूरी चीजें ले सकती थी वह। कमरा उसका बगल में ही था। जब चाय के लिए कहने आई तो अब एक और शख्स मौजूद था वहां, जो लगातार सिगरेट पिये जा रहा था। नीला ने देखा, तो उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट थी भरपूर, जिसके कई कई अर्थ निकाल चुकी थी नीला।

अपनी बात पूरी करके वह कमरे की ओर मुड़ी। अनायास उसकी नजरें मिलीं तो वह शख्स उसी अंदाज में मुस्करा रहा था जैसे किसी मनसूबे को अंजाम देने की सोच रहा हो। एक तंज़ भरी मुस्कराहट। मगर क्यों?

गोरा, लंबा, दाढ़ी वाला वह शख्स फिरन पहने था काले रंग का। बिलकुल पारंपरिक पोशाक, मगर उसकी मुस्कराहट उसे रहस्यमयी लग रही थी। थोड़ी बेफिक्री, थोड़ा तंज अब भी था वहां।

यात्रा के क्रम में पहली बार उसे डर का एहसास हुआ। पता नहीं क्या मंशा थी उसकी। शांति इतनी थी कि उसे लगा जैसे आसपास के तमाम कमरे खाली थे। कौन जाने मन का वहम ही था शायद।

वह झट से कमरे में चली गई। उसने सिटकनी को आजमाया। बेहद कमजोर था। शायद एक झटका भी न झेल पाए। सचमुच डर गई थी नीला। तभी बेल बजी। उसे पता था, चाय थी। दरवाजा खोला और फिर झट बंद कर लिया। एक बार मन हुआ निखिल को फोन कर ले। अपने संशय से अवगत करा दे। फिर रुक गई। हो सकता है ये उसका वहम हो। फिर उतनी दूर निखिल को बेवजह परेशान करना ठीक नहीं लगा उसे।

 रात के सन्नाटे में उसके मन में बेतरह शोर मचा हुआ था। वे तमाम घटनाएं, जिसे अब तक पढ़ा या देखा था समाचार के माध्यम से, अब साकार हो रहे थे उसके जेहन में।

माना कि हजारों लोग आते हैं यहां। आ रहे हैं लगातार, मगर दुर्घटना तो चंद लोगों के साथ ही घटित होती है। बेहद डर गई थी नीला। डर के उन क्षणों में सिगरेट का कश लेता वह मुस्कराता अजीबोगरीब शख्स सामने था। अजीब सी मुस्कराहट थी उसके चेहरे पर। कहीं ये किसी दुर्घटना का इशारा तो नहीं था। उसने जबरन अपनी सोच की दिशा बदली। अब वह घूम रही थी ख्यालों की वादियों में।

वह मंजर अब उसकी आंखों में साक्षात था जो लुभाता था उसे। वादियों में घूमती वह थोड़ी दूर निकल गई थी। सामने बर्फीले पहाड़ पर सूर्य की चमकीली किरणें एक तिलस्म रच रही थीं। सामने नदी बह रही थी- लिद्दर, जिसका नाम बस सुना था, आज साक्षात थी यहां। सामने मैदान था। हरी घास के मखमली पैरहन उसे सुकून दे रहा था। उसने देखा, बाईं ओर शामियाना लगा था। कौतूहलवश बढ़ती गई वह। पास जाने पर सबकुछ स्पष्ट था।

कोई आयोजन था वहां। पारंपरिक पोशाक पहने और टोपी लगाए जनता के नुमांइदे थे मंच पर। वहीं कुछ दूर पर खाना बन रहा था। मटन और बिरयानी की महक फैली थी हर ओर। जायजा लेने के बाद वह मुड़ गई। फिर वादियों की तरफ लौट रही कि नौ-दस बरस के एक सुंदर मासूम लड़के को देखा। उसकी आंखों में मासूमियत के साथ-साथ कौतूहल भी था।

मगर उसकी चाल में सजगता थी, बचपन की बेफिक्री नहीं। हाथ में कुछ लिए वह आहिस्ता आहिस्ता जा रहा था। फिर हांड़ी में कुछ डाला और विपरीत दिशा में जाने लगा।

कार्यक्रम में व्यस्त किसी का भी ध्यान नहीं गया था, मगर नीला के मन में जाने कैसी आशंका घर कर गई थी।

उसने देखा। खाना अब परोसा जा रहा था। कार्यक्रम का मध्याह्न था शायद। विपरीत दिशा में चलती हुई कुछ दूर जाकर वह ठिठक गई थी। कुछ अफरातफरी, चीख-पुकार की आवाजें अब मंजरे आम थी। फिर पुलिस की गाड़ियों का सायरन, एंबुलेंस आ रहे थे।

डर गई थी नीला। अपनी दिशा बदलकर वह लौट रही थी अब, मगर मन आशंकित था। तो क्या वह लड़का खाने में जहर मिला रहा था। स्पष्ट तो नहीं देखा था, मगर संदिग्ध थी उसकी गतिविधियां। आखिर किसके इशारे पर किया था उसने।

टीवी पर देखे गए समाचार में पत्थरबाज लड़के छोटी उम्र के भी होते थे जो आतंकियों के हाथों के खिलौना बने होते थे।

चेहरा ढके लड़कों के वे झुंड आते और पत्थर फेंक गलियों में गुम हो जाते।

श्रीनगर के लाल चौक से गुजरते हुए वह मंजर उसके जेहन में जीवित हो उठते। तमाम परदे के बाद भी कई मासूम आंखों को कैमरा फोकस कर ही लेता था। उनके साहस और जुनून को देख हैरत होती उसे। उफ़! वो मंजर…!!

मगर आज उस जगह की निश्चिंतता और सुकून को देखकर वह आश्वस्त थी।

दूर से देखा नीला ने। अफरातफरी की स्थिति थी। किसी ने देखा था शायद उस लड़के की  झलक उस टेन्ट में। किसी ने जाते हुए भी देखा था। पुलिस के जवान और कुछ लोग उसी दिशा में दौड़ रहे थे जिधर लड़का अदृश्य हुआ था।

नीला का अंदेशा वाकई सही था। अब वह टैक्सी की ओर बढ़ रही थी यहां से। कहां तो वह प्रकृति को बिलकुल पास से महसूसने, देखने चली जा रही थी अपनी रौ में। जाने कैसे वह साक्षी बन गई थी उस अवांछित घटनाक्रम की।

नीला की आंखों में उस मासूम का चेहरा था और जेहन में कई-कई सवाल भी।

क्या वह मासूम बच्चा कभी कर सकता था ऐसी हरकत वगैर किसी दबाव के! शायद कभी नहीं। बेशक ऐसे मासूमों को मोहरा बनाकर आतंक का दांव चला जा रहा था अरसे से।

क्या कुसूर है इन बच्चों का और क्या हासिल है ऐसी गतिविधियों का। उसे फिरदौस की याद आई। इतना पढ़ने-लिखने के बाद भी अपने दर्द को छुपाए जीने की जद्दोजहद में था। कहीं उसे एक अच्छा जॉब मिल जाए तो अमन की जिंदगी गुजारने का मंसूबा था उसका।

आखिर इन मासूमों के टूटते ख्वाबों और जख्मी ख्वाहिशों का मरहम कौन देगा। स्थानीय लोग या सरकारें।

इनके जेहन में जहर भरने और हाथों में पत्थर और बंदूक थमाने वाले कौन से लोग थे आखिर, जो अमन नहीं चाहते इस घाटी में।

अपनी ही सोच में गुम नीला की चाल अब तेज हो चली थी। बतौर पर्यटक यहां के सियासी मसलों में राय जाहिर करने की उसकी औकात ही क्या थी आखिर?

इस जन्नत की सैर कर वह अपने घर पहुंच जाए सुरक्षित, यही सोच थी बस।

तभी पास में कोलाहल सुनाई दिया। उसने मुड़कर देखा, लिद्दर के किनारे वह लड़का दौड़ रहा था पत्थरों को फलांगते।

पुलिस बिलकुल करीब थी उसके। अंततः अब वह गिरफ्त में था उनकी। नीला के जेहन में बस बच्चे का मासूम चेहरा जज्ब था अभी। वह गाड़ी के करीब पहुंच चुकी थी कि सामने पुलिस थी। उसको पुलिस गाड़ी में बिठाया जा रहा था। वह लगातार पूछे जा रही थी। ‘आखिर मेरा कुसूर क्या है?’

तभी दरवाजे पर दस्तक होती है। नीला पसीने से सराबोर, देखती है अपने आसपास। वह तो होटल में अपनी बिस्तर पर थी। तो क्या अभी-अभी जिस दहशत को जिया था उसने, वह ख्वाब था। मगर इतनी रात को कौन दरवाजा खटखटा रहा था!

आखिर क्यों?

क्या जिस डर के साथ उसकी आंख लगी थी, वह हकीकत थी।

अंधेरे में उसने जायजा लिया। डर बढ़ता जा रहा था। आखिर इतनी रात को उसका दरवाजा क्यों खटखटाया जा रहा था। उसने महसूस किया, पसीने से तरबतर थी उसकी देह। तभी बाहर से आवाज आई, ‘मैडम, कोई प्राब्लम तो नहीं। आपकी आवाज आ रही थी।’

अचानक उसे अपना वह स्वप्न याद आया जिसकी दहशत में थी वह अभी तक। उस घटनाक्रम की याद के साथ वह खुद को सहेजने लगी।

बमुश्किल आई नींद आंखों से उड़ चुकी थी। जबकि उसे पता था, यह एक दुःस्वपन था जिसे अरसे से सहेजा गया था, जाने-अनजाने उसके जेहन में।

तमाम उलझनों के बाद भी जाने कब आंख लगी थी उसकी। बाहर बरतन और लोगों के समवेत स्वर से उसकी नींद खुली। उसने परदा सरकाया जरा सा। सामने सूरज आसमान में मुस्करा रहा था। पेड़ और हरे-भरे हो चले थे बारिश में नहा कर। सारी प्रकृति निखरी हुई थी।

पहाड़ पर तने पेड़ आश्वासन दे रहे थे कि सबकुछ सामान्य है।

उसने चाय के लिए दरवाजा खोला। सामने वाला कमरा खुला था। कई लोग किचेन के सामने डाइनिंग टेबल पर नाश्ता कर रहे थे। उनकी बातों में उल्लास और सहजता थी। पिछली रात सिन्थन टाप से लौटे थे वे लोग। शायद देर इसलिए हुई थी कि लैंड स्लाइड की वजह से रास्ता बंद था। मगर उन दृश्यों की सुंदरता में अब भी खोए थे वे लोग।

नीला उनके चेहरे का उल्लास देख रही थी। चाय कुछ ज्यादा पसंद आई उसे। इस चमकीली सुबह में केसर गेस्ट हाउस अपनी छोटी-मोटी कमियों के बावजूद उसे अच्छा लग रहा था। अब यहां जीवन था, उल्लास था।

सामने सोफे पर वही शख्स बैठा था। वही काला लिबास और हाथ में सिगरेट। आज भी मुस्कराहट थी उसके चेहरे पर, वह रहस्यमयी बिलकुल नहीं लगी थी।

डर रात के अंधेरे के साथ ही कहीं दूर चला गया था।

यहां ठंड कुछ ज्यादा थी। चाय का दूसरा कप पकड़ते हुए नीला के चेहरे पर अब मुस्कराहट थी।

अभी दो दिन शेष थे उसकी कश्मीर यात्रा के, जिन्हें बड़े एहतियात और नजाकत से जीना था उसे। बेमकसद व्यर्थ ख्यालों की बंदिश में बिलकुल जाया नहीं करना था एक भी लमहे को।

प्लान के मुताबिक आज उसे सिन्थन टाप जाना था। वह कमरे में चली गई तैयार होने के लिए। मोबाइल बज रहा था। फिरदौस की सलाह थी, सिन्थन टॉप के लिए जल्दी निकलना सही फैसला है।

‘कोई मसला नहीं… अभी आई!’ जवाब देती हुई नीला मुस्करा रही थी। उसके चेहरे पर हवा की ताजगी और सुनहरी किरणों का तेज काबिज़ था।

 

 

संपर्क :द्वारा प्रिंस पैलेस, बनकटवा, बगहा-1, पश्चिम चंपारण, बिहार-845101,  मो.9801267638