हंसा दीप, कनाडा:‘वागर्थ’ के सितंबर  अंक। ‘टूटी पेंसिल’ की बेहतरीन प्रस्तुति ने मुझे बहुत प्रभावित किया। तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूँ। कहानी पर लगातार कई प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। ‘वागर्थ’ का पाठक वर्ग व्यापक है।

राजेश पाठक, गिरिडीह:‘वागर्थ’ का अगस्त अंक। यह एक क्रूर सत्य है कि आजादी एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। यह समय और काल के अनुरूप अपनी बहुआयामी प्रकृति एवं स्वरूप लिए सर्वदा आम लोगों के बीच अवतरित हो सत्यबोध कराती रहती है।

आज मानव को दोहरा द्वंद्व करना पड़ रहा है- एक मानव के ही विरुद्ध तो दूसरा मशीन को लेकर। निश्चित ही इस द्वंद्व की परिणति भयावह और सृष्टि संहार के रूप में होने की प्रबल संभावनाएं हैं। अब भी वक्त है, मानव और उसके नियामक नियंता इस सत्य को आत्मसात करें ताकि सद्गुणों से युक्त सृष्टि कायम रहे।

किरण अग्रवाल:‘वागर्थ’ का अगस्त अंक। बेहद गहन, गंभीर और विचारोत्तेजक। वाकई एक खतरनाक समय में जी रहे हैं हम। कितने ही लोग अपने को अनफिट पाते हैं इस झूठी स्वाधीनता की दौड़ती-भागती, दिखावटी दुनिया में और डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं या फिर बिलकुल अकेले और सबसे कटकर रह जाते हैं।

केशव शरण, वाराणसी:  ‘वागर्थ’ का अगस्त अंक। आज़ादी और लोकतंत्र पर केंद्रित  बहुआयामी चिंतन गहरा यथार्थबोध जगाता है। लोकतंत्र की जययात्रा लोकतंत्र की जय से अधिक लोकतंत्र की क्षययात्रा की वास्तविकता दिखाती है।

‘वागर्थ’ के अंक-दर-अंक नए विषय पर एक गंभीर विषय पर साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के विचार पढ़ने को मिलते हैं जो विषय के प्रति संज्ञान और दिशा-दृष्टि निरूपित करते हैं। आज का लोकप्रियतावाद भी एक गंभीर विषय है। इससे सांस्कृतिक निर्माण कम होता है, भावनात्मक दोहन और विकृत प्रयोजन अधिक दिखाई देता  है।

‘वागर्थ’ में एक और चीज़ जो अलग नज़र आती है, वह है समीक्षा संवाद की प्रस्तुति। इसकी द्विस्तरीय पेशकश जिसमें  कृति की समीक्षा भी है और कृतिकार का साक्षात्कार भी, रोचक है। यह कृति तथा कृतिकार को समझने में सहायक है। इतना पढ़ने के बाद भी कहानियों और कविताओं का ज़ख़ीरा छोड़ते नहीं बनता।

योगेश्वर नारायण शर्मा, जयपुर:‘वागर्थ’ का अगस्त अंक। असहिष्णु सत्ता के दौर में किसी विचारवान का विचारसहित रहना मन को आश्वस्त करता है। संपूर्ण अंक एक ‘पुरुषार्थ’ जैसा है।

रामभरोस झा, हरिहरपुर:‘वागर्थ’ जुलाई अंक। हम सब जिस दौर में जी रहे हैं वह दौर अतीत को भूलने का दौर है। प्रेमचंद हिंदी साहित्य में वह नाम है, जो यथास्थितिवादी समाज की कुंठाग्रस्त मानसिकता पर ताउम्र प्रहार करते रहे। भारतीय समाज खासतौर से हिंदी समाज रूढ़िवादी और अंधविश्वासों पर आंख मूंद कर विश्वास करने वाला समाज रहा है। यह अपने पथ- प्रदर्शकों से पल्ला झाड़ कर मूढ़ताओं से गलबहियां डाले हुए जीने में मस्त रहता है। स्त्रियों, दलितों, किसान- मज़दूरों और उपेक्षितों की आवाज बुलंद करने वाले हैं।

भले ही हमारी नई पीढ़ी प्रेमचंद को भूलने लगी है, पर इससे प्रेमचंद की प्रासंगिकता समाप्त नहीं हो सकती, क्योंकि प्रेमचंद ने अपने साहित्य के मा़र्फत न स़िर्फ तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी, बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों पर भी कुठाराघात किया। उपनिवेशवाद के साथ ही साथ उनके शब्दों ने जाति और धर्म के पाखंड और आडंबर को भी पर्याप्त निशाने पर लिया। ‘वागर्थ’ के माध्यम से प्रेमचंद के साहित्य को नए आयामों से देखने और पढ़ने की प्रेरणा मिलती है। भौतिक सुखभोगों से आज हमारी आत्मा और आत्मीयता दोनों पर ख़तरा है। अमीरी की चकाचौंध में क्या देशप्रेम और क्या साहित्य-प्रेम, आज तो मानवीय प्रेम भी सूखता जा रहा है। बाहर से सुख – समृद्धि झलकती है पर भीतर खोखलेपन के अलावा कुछ नहीं है । सृजनात्मक रूप से दरिद्र होते समाज जहां कृत्रिम सौंदर्यीकरण को ही जीवन का चरम लक्ष्य बना ले रहे हैं, वहां मानवीय विद्रूपताओं को आईना दिखाने के लिए प्रेमचंद हमेशा पथप्रदर्शक रहेंगे!!

शंकर की कहानी एक रिक्शा चालक की कहानी नहीं है, बल्कि उसी बहाने लॉकडाउन से जूझते हर मेहनतकश इंसान की कहानी है। एक ऐसा इंसान जिसकी इंसानियत अभी मरी नहीं है। तभी तो बिन पहचान वाले बीमार व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाने के लिए उसने इतने कष्ट उठाए। रोज़ा रखे हुए अब्दुस्समद ने जिस तरह से अपने इंसान होने का फ़र्ज़ निभाया है, उसे पढ़ कर पत्थरों में भी इंसानियत जग जाए!

शशि खरे, रायपुर:‘वागर्थ’ का जुलाई अंक। प्रेमचंद साहित्य को लेकर  अतीत और वर्तमान, वैश्वीकरण का फैलाव और मानसिक संकीर्णता, पैसा, सुख और सत्ता की दौड़ में शामिल लोग और बदलता सौंदर्य बोध और भी अनेक मुद्दे….सभी का खरा मूल्यांकन और यह प्रश्न -क्या नागरिक समाज में ऊंचे आदर्शों की वापसी संभव है?

यह प्रश्न केवल साहित्य से जुड़े लोगों का नहीं है, यह समाज, देश और राष्ट्र से जुड़ा ऐसा प्रश्न है जो उम्मीद जगाए रखता है। प्रेमचंद के पीछे कोई सत्ता नहीं है -यह याद दिला कर आपने बहुतेरे संघर्षरत लोगों को प्रेरणा दी है।

बहुत सी प्रतिभाएं हैं साहित्य जगत में, उनके संकल्प हैं इस संघर्षमय व्यापार क्षेत्र में, इस स्थिति में प्रेमचंद उनके संबल बने हैं और प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं।

अनेक बार अनेक युगों में साहित्य ने ही रोशनी दिखाई है समाज को, इस बार भी यथार्थ की रोशनी में आदर्शोन्मुखी सौंदर्यबोध संपन्न भविष्य की कल्पना साकार होगी।

रश्मि, एर्णाकुलम (केरल):‘वागर्थ’ के अगस्त अंक में प्रकाशित असद ज़ैदी द्वारा बालचंद्रन चुल्लिक्काड की कविता का हिंदी अनुवाद पढ़कर अच्छा लगा। इसका मल्टीमीडिया प्रस्तुतीकरण भी काफी अच्छा रहा। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साहित्य को हिंदी में अनुवाद कर प्रकाशित किया जाना वागर्थ पत्रिका की विशाल सोच को उद्घाटित करता है। लेकिन मूल कवि के बारे में दी गई जानकारी के अंतर्गत बताए गए रचनाओं के शब्दानुवाद में सुधार की आवश्यकता है। उनकी पहली रचना ‘पतिनेट्टु कविताकल’ अगर ‘पतिनेट्ट कवित्अकल’ लिखते तो ज्यादा बेहतर उच्चारण लगता। इसका अर्थानुवाद है ‘अठारह कविताएं’। ‘मानसंथारम’ की जगह ‘मानसान्तरम’ सही शब्दानुवाद है, यानी ‘मानसिकता में बदलाव’।