शंभुनाथ
उपनिषद में भाषा को ‘मन की नहर’ कहा गया है। वह मानव चित्त का प्रतिबिंब होने के अलावा समूची सभ्यता का प्रतिबिंब है। हम जो बोलते हैं, उसमें इसकी झलक होती है कि समाज किस तरफ जा रहा है। खासकर बहस की भाषा से सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास की दिशा का बोध हो सकता है। हमारा ध्यान इस ओर जाना चाहिए कि इन दिनों सार्वजनिक अभिव्यक्ति में अपशब्दों के बढ़े प्रयोग के कारण भाषा कैसी होती जा रही है।
भाषा का सवाल सिर्फ हिंदी को अपनाने, अंग्रेजी का महत्व बताने या हिंदी-उर्दू मामले तक सीमित नहीं है। इससे भी जुड़ा है कि हम अपनी भाषा में कैसी रुचि, विचार और ज्ञान की रचना कर रहे हैं।
एक समय शिक्षित लोग अंग्रेजी सिर्फ इसलिए नहीं सीखते थे कि वे अंग्रेजों के बीच बैठें-उठें, आम भारतीयों पर रोब गांठें और अपना स्वार्थ सिद्ध करें। वे अंग्रेजी यह जानने के लिए सीखते थे कि अमेरिका आखिर किस तरह उपनिवेशवाद से मुक्त होकर एक स्वतंत्र देश बना, यूरोप में ज्ञानोदय की कौन-सी लहरें हैं तथा पश्चिम के लोग मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के क्यों दीवाने हैं। वे जानना चाहते थे कि पश्चिम में कौन से नए उद्योग-धंधे शुरू हुए हैं। उन शिक्षित भारतीयों की आधुनिक समझ में औपनिवेशिक तत्व थे, लेकिन उनमें बौद्धिक खुलापन भी था। उनमें मतांधता की जगह सतत जिज्ञासा की प्रवृत्ति थी। वे अपने अतीत की बुद्धिपरक खोज और नए भारत के निर्माण में लगे हुए थे।
भाषा की उदात्तता कहां खो गई
गांधी जब भाषा पर बात करते थे, उनका मकसद महज अंग्रेजी को हटाकर हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाना या एक नई भाषा सीखना भर न था। उन्होंने कहा था, ‘भाषाएं उनके बोलने वाले लोगों के चरित्र का प्रतिबिंब होती हैं।’ (द्वितीय गुजरात शिक्षा सम्मेलन, 1917)। वे भाषा के ज्ञान को ‘बुद्धि, अन्वेषण शक्ति और चरित्र की वृद्धि’ से जोड़कर देखते थे। कहना न होगा कि किसी भी भाषा से प्रेम का अर्थ उस भाषा के संपूर्ण विश्व से प्रेम है। इसके साथ, यह उस भाषा की गरिमा की रक्षा करने से जुड़ा है।
मलयालम कवि वल्लतोल (1878-1958) अपनी भाषा के सौंदर्य का चित्र खींचते हैं, ‘मेरी भाषा में कई चीजें घुली-मिली हैं- समुद्र की गहराई, सह्याद्रि की पहाड़ी दृढ़ता, गोकर्ण मंदिर की प्रफुल्लता, कन्याकुमारी का आनंद, गंगा और पेरियार नदियों की शुद्धता, कच्चे नारियल पानी का मीठापन, चंदन की शीतलता, इलाइची-लवंग की महक, संस्कृत का स्वाभाविक ओज और ठेठ द्रविड़ का सौंदर्य!’ यदि देखा जाए, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौर में सभी भाषाओं के कवियों-लेखकों ने अपनी भाषा में कुछ ऐसी ही उदात्तता देखनी चाही थी और उसमें वैचारिक ओज के साथ सौंदर्य की भी कल्पना की थी। वे बड़े मन के लोग थे। कहा जा सकता है कि 21वीं सदी भौतिक सभ्यता की दृष्टि से भले बढ़ी-चढ़ी हो, पर फिलहाल यह सदी सामाजिक ह्रास के चरम शिखर पर है। इससे सारी भाषाएं ही, खासकर हिंदी सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। हिंदी इधर बड़े पैमाने पर घृणा, शत्रुता, ईर्ष्या-द्वेष और गालियों की भाषा में ढलती जा रही है। जिधर देखो, अपशब्द हैं। कहीं खुलकर सांस लेने की जगह नहीं है।
अब गालियां ही विचार हैं
आजकल टीवी और सोशल मीडिया की जगहों पर अहंकार ज्यादा छाया है। यहां कटूक्ति, विष-वमन और बुनी हुई शत्रुता ज्यादा दिखती है। मुख्य बात है, राजनीतिक रहनुमाओं ने ही हिंदी सबसे ज्यादा मैली कर रखी है। राजनीतिज्ञ पहले भी लड़ते थे, पर वे राजनीतिज्ञ होते थे, महज राजनीतिक दलपति नहीं। पहले राजनीति के बाहर और इससे ऊपर भी बहुत कुछ था। आज ऐसा नहीं है, यहां तक कि सूरज और चांद भी धार्मिक शिविरों में बंट गए हैं।
कभी संसद से लेकर सड़क और मीडिया तक भद्र और विचारपूर्ण भाषा थी। आज ऐसा नहीं कहा जा सकता। समझने की जरूरत है कि अंध-विरोध से विरोध और अंध-समर्थन से समर्थन कमजोर होता है। यह अगर अपशब्दों में हो तो और मुश्किल है।
यह बात जोर देकर कहनी होगी कि भाषिक प्रदूषण का असर सिर्फ उस जगह नहीं होता, जहां यह फैलाया जाता है, बल्कि यह मानव संबंधों, कलाओं, विश्वासों और पूरी संस्कृति को सूक्ष्मता से प्रभावित करता है।
भाषिक प्रदूषण भी एक तरह का प्रदूषण है। यह सांस्कृतिक प्रदूषण का एक अंग है। आमतौर पर जलवायु परिवर्तन, गैस-उत्सर्जन, वायु या ध्वनि प्रदूषण पर जितना ध्यान दिया जाता है, भाषिक और सांस्कृतिक प्रदूषण उस तरह से मुद्दा नहीं बनता, जबकि इसका मानव अस्तित्व से गहरा संबंध है।
निश्चय ही एक बुरी भाषा असहमति का ही सतहीकरण नहीं करती, यह संपूर्ण ‘मानव-आत्मा’ को मार डालती है। इससे रुचियों में विकृति आती है, सरोकारों में गंभीरता नहीं रह जाती। गालियां ही जब विचार बन जाएं, इसके बाद भाषा में कुछ भी अच्छा बचा नहीं होता। यह वस्तुतः बौद्धिक रिक्तता का चिह्न है।
वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में गालियों और अपशब्दों के प्रयोग के कुछ नमूने देखे जा सकते हैं। एक बार शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर को ‘50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड’ बताया गया। 2012 के गैंगरेप के बाद दिल्ली की लड़कियों ने विरोध प्रदर्शन किया तो उन्हें ‘डेंटेड-पेंटेड स्त्रियां’ कहा गया। लंबे समय तक ‘पप्पू’ और ‘फेंकू’ शब्द चले। एक सांसद को ‘शूर्पणखा’ कहा गया तो एक सांसद अभिनेत्री को ‘फिल्मों में नाचने वाली’। एक खास प्रांत के लोगों को ‘गधा’ कह दिया गया। एक भाषण में कब्र से निकाल कर बलात्कार करने जैसी विकृत मानसिकता सामने आई। दिल्ली में जब किसान आंदोलन कर रहे थे, उसपर खालिस्तानी मदद लेने का आरोप लगा। यह कहा गया कि वे पिज्जा-बर्गर और केएफसी का खाना खा रहे हैं। इस तरह उत्तेजित करने वाली भाषा बुरी भाषा का ही एक रूप है। चिंताजनक है कि पब्लिक का एक बड़ा हिस्सा ऐसे कथनों में रस लेता है और ऐसे भाषण सुनकर उसकी तालियों की गड़गड़ाहट बढ़ जाती है।
भाषा आज एक विध्वस्त घर है, एक विध्वस्त भविष्य है। भाषा को संवाद के माध्यम की जगह संवाद भग्न करने का जरिया बना दिया गया है। इस तरह भाषा अपने को स्पष्टता और तार्किकता से अभिव्यक्त करने के आत्मीय माध्यम की जगह अब प्रोपेगंडा का रूप है। कई व्यक्ति उन लेखकों और पुस्तकों के बारे में घृणा-भरी बातें कहते हैं, जिन्हें उन्होंने पढ़ा ही नहीं है और वे सिर्फ उड़ती बातें जानते हैं। अपने बारे में वे खुशफहमियों से घिरे रहते हैं। देखा जा सकता है कि हर जगह समर्थकों की मस्तिष्कहीन भीड़ है। वह अतार्किक कथनों के पीछे आंख मूंदकर खड़ी हो जाती है।
देखा जा सकता है कि अब उपहास, छींटाकशी और गालियों के बाहर राजनीतिक भाषा बहुत कम बची है। कोई जानना नहीं चाहता कि इससे कितनी बड़ी सामाजिक क्षति हो रही है। कोई भी राजनीतिक नेता अपने साथियों और समर्थकों को अपशब्दों के प्रयोग से बचने के लिए नहीं कहता। आखिर कौन किसको मना करे, यहां तो सभी नेता रंग पोत के बैठे हैं!
राजनीतिक अपशब्द या अपभाषा की खूबी है कि यह लोगों के बीच तेजी से फैलती और लोकप्रिय होती है। खासकर भारत में ऐसी चीजें इसलिए ज्यादा फैलती हैं कि इस देश के लोगों में सामान्यतः बुद्धिपरक ढंग से सोचने की प्रवृत्ति पर्याप्त विकसित नहीं हो पाई और भावभूमि राजनीतिक प्रचारों द्वारा संकीर्ण बना दी गई। ऊपर से मीडिया ने दबंगई के साथ लोगों के बौद्धिक सतहीकरण में भारी योग दिया। यही वजह है कि राजनीतिक उद्देश्य से प्रयुक्त सस्ती भाषा पेट्रोल की आग की तरह फैलती है। शिक्षित व्यक्ति भी अपभाषा का मजा लेते हैं, क्योंकि उनकी तार्किक विश्लेषण की इच्छा मर गई होती है। ऐसे शिक्षित व्यक्ति बड़ी आसानी से उपहास, गालियों और उत्तेजक कथनों में विचार पा जाते हैं। दरअसल देश के दिमाग के एक बड़े हिस्से का फ्यूज उड़ गया है।
उल्लेखनीय है कि हर खास अपशब्द की एक ‘एक्सपायरी डेट’ है। इसलिए किसी व्यक्तित्व को तबाह करने के उद्देश्य से नए-नए उपहास, नई-नई गालियों की जरूरत पड़ती है। इसलिए अपशब्दों की होड़ है। इनके उत्पादन के लिए बौद्धिक-राजनीतिक फैक्टरियां हैं। इधर के दशकों में घृणा से भरी अपभाषा ने आदमी को ज्वालाओं में बदल दिया है।
भाषिक हिंसा का लैंगिक, जातिवादी, धार्मिक और नस्लवादी झुकाव
किसी देश का पतन उस देश की भाषा के पतन से शुरू होता है। हमारे देश में उपहास, गाली और अपभाषा का उपयोग ज्यादातर किसी खास जेंडर, जाति, धार्मिक संप्रदाय या नस्ल को राजनीतिक लक्ष्य बनाकर होता है। यह भाषिक हिंसा का विस्तार है। दुनिया भर में हाल की राजनीति ने उदार और बुद्धिपरक चिंतन को ही नष्ट नहीं किया है, भाषाओं को भी बुरी तरह भ्रष्ट कर दिया है। अंग्रेजी भी भ्रष्ट हुई है। पश्चिमी देशों में नस्लवादी कटूक्तियां बढ़ी हैं।
इन दिनों लोगों के दिमाग को बड़े पैमाने पर उत्तेजक कथनों से भरा जा रहा है, जो वर्चस्व की आकांक्षा से उपजते हैं। पिछले सालों में बढ़े यौन उत्पीड़न को देखकर ऐसे पितृसत्तात्मक सुझाव आए हैं कि स्त्रियां लक्ष्मणरेखा न लांघें और सूरज डूबने के बाद ज्यादा देर घर से बाहर न रहें। पौराणिक काल से स्त्रियों में यह डर बोया जाता रहा है। एक स्त्री ने ट्विटर पर पूछा, ‘यदि रात 9 बजे के बाद पुरुष घर से बाहर न निकलें तो स्त्रियां क्या करेंगी?’ फिर उसने खुद जवाब दिया, ‘वे उन सारी सड़कों पर निकलेंगी, जहां से गुजरते हुए उन्होंने कभी रात नहीं देखी। वे नाइट शो फिल्म देखकर अपनी गली से खिलखिलाते हुए घर लौटेंगी!’ क्यों सिर्फ पुरुष ही ऐसा कर सकते हैं?
लैंगिक विषमता को मिटाने की जगह खासतौर से महिलाओं पर घटिया टिप्पणी करने की प्रवृत्ति इसलिए तेज हुई है कि वे इधर अपने हक के लिए मुखर हुई हैं। उनमें सत्ता का हिस्सा होने की इच्छा बढ़ी है। तमिलनाडु के एक नेता ने एक अभिनेत्री को ‘पुराना बर्तन’ कहा। इसी तरह मध्य प्रदेश में एक महिला प्रत्याशी को ‘आइटम’ कहा गया। एक नौजवान बाबा ने अपने प्रवचन में कुँआरी लड़कियों को ‘खाली प्लाट’ कहा। वहां सैकड़ों भक्त स्त्रियां थीं और वे चुप थीं। ऐसी चीजों को जुबान फिसलना नहीं कहा जा सकता। यह सदियों से वंचित वर्गों के प्रति पुरुषों, उच्च जातियों और क्षमतावानों की वर्चस्ववादी सोच को प्रत्यक्ष करता है। इस किस्म की सोच नए सिरे से जोर पकड़ रही है।
इधर लैंगिक के साथ-साथ जातिवादी दुर्व्यहार भी बढ़ा है। दलितों के बारे में अब कुछ भी बड़ी सावधानी से कहा जाता है। फिर भी ऊँची जाति के लोगों की अवमाननापरक मानसिकता झलक जाती है। उत्तर प्रदेश में एक बार एक प्रभावशाली दलित महिला के बारे में कहा गया, ‘वह वेश्या से भी बदतर चरित्र की है।’ एक स्त्री ने दलितों के बारे में कहा, ‘आज जो लोग संविधान के सहारे राज कर रहे हैं, याद करो, उनके पूर्वज हमारे जूते साफ किया करते थे।’ एक राज्य मंत्री ने दलितों को ‘कुत्ता’ कहा। महाराष्ट्र में एक नेता ने कहा कि जिस तरह अब्राहम लिंकन ने नाली से सूअर को निकाला था और साफ किया था, उसी तरह अब भारत में दलितों के उत्थान के लिए काम किया जा रहा है। ऐसी बातें राजनीति में पैठी क्रूर भेदभावपूर्ण मानसिकता को दर्शाती हैं।
आम बोलचाल में ‘तिरियाचरित्तर’, ‘चोरी-चमारी’, ‘जंगली’ जैसे शब्द चलते हैं। हाल में मध्य प्रदेश में एक आदिवासी पर पेशाब करने की घटना सामने आई और मणिपुर में दो कुकी महिलाओं को मैती जनजाति की एक पागल भीड़ द्वारा नंगा घुमाया गया। ये सारी घटनाएं अवमानना के सामुदायिक झुकावों को व्यक्त करती हैं। ऐसे उपहास वर्चस्व के चिह्न होते हैं। इनका उद्देश्य सामाजिक सौहार्द को नष्ट करके ध्रुवीकरण है। ऐसे उपहास मध्यवर्गीय निर्माण हैं।
वंचित समुदायों पर खीझकर दुर्भावनापूर्ण ढंग से हँसना या उनका उपहास करना सिर्फ तब संभव है, जब तर्क से वैर हो। ऐसी कुटिल हँसी उस साहित्यिक व्यंग्यपूर्ण हँसी से भिन्न है, जो कोहरा साफ करने वाली धूप की तरह होती है। कहना न होगा कि कुटिलता से दूसरों पर हँसकर मजा लेनेवाले अंततः खुद हास्यास्पद हो जाते हैं। दरअसल किसी का दूसरों पर फब्तियां कसते हुए हँसना उसकी बौद्धिक-राजनीतिक अक्षमता का चिह्न है।
बुरे शब्दों या अपभाषा का प्रयोग बड़े उद्देश्यों से हमेशा विमुख कर देता है। यह रुग्ण असहमति है। गालियों का प्रयोग करने वालों की विचारशक्ति अंततः नष्ट हो जाती है। विचारों की लड़ाई अक्सर घृणित स्तर पर आ जाती है, जिसके कारण अब राजनीति ‘संभावनाओं के खेल’ (बिस्मार्क) की जगह उत्तेजक शब्दों या अपशब्दों का खेल है!
कोई अपभाषा या गालियों का इस्तेमाल कर रहा हो तो मान लेना चाहिए कि उसके पास तर्क का बल नहीं है। राजा राममोहन राय पर जब एकबार अपशब्दों से लगातार आक्रमण हो रहा था तो वे चुप थे। किसी के पूछने पर उन्होंने जवाब दिया था, ‘मेरे बारे में जो व्यंग्य-विद्रूपपूर्ण अपशब्द कहे गए हैं, उनका उत्तर न देने के कई कारण हैं। एक तो धर्म-परमार्थ जैसे विषय पर चर्चा करते समय अपशब्द सर्वथा अनुचित हैं। दूसरे, हम लोगों का तरीका ऐसा नहीं है कि अपशब्दों के बल पर इस संसार में जीत हासिल करें।’ इस कथन में एक बौद्धिक दिशा है।
क्या हम अपनी ही भाषा में आउटसाइडर हो चुके हैं
भाषा भोजन और नींद की तरह जरूरी है। इसका धीमा पर निरंतर विकास होता रहा है। एक समय उद्योगीकरण के परिणामस्वरूप भाषा में बदलाव और विस्तार आया था। भाषा के भूगोल और संस्कृति दोनों में व्यापकता आई थी। इधर ‘उच्च टेक्नोलॉजी और निम्न राजनीति’ का गठबंधन भाषा का पानी एक भिन्न दिशा में बदल रहा है। भाषा से सौंदर्य गायब हो रहा है, कड़वाहट और ‘वल्गरिटी’ बढ़ रही है।
माना जाता है कि भाषा मनुष्य जाति की सबसे मूल्यवान संपत्ति है। यह सभ्यता की सबसे बड़ी उपलब्धि है और जातीयता की आत्माभिव्यक्ति का साझा माध्यम है। इसका मानव अस्तित्व से अविभाज्य संबंध है। क्या मान लिया जाए कि आज राजनीति और टेक्नोलॉजी का गठबंधन भाषा में हिंसक एकतरफापन ला रहा है और भाषा की महिमा को बरबाद कर रहा है?
भाषा में अंधेरा कब छाता है? उत्तर है, भाषा से जब मनुष्यता को गायब करके उसमें विकृत चीजें भर दी जाएं। भाषा इसलिए है कि मेरे अलावा ‘और’ भी हैं। यह ‘और’ जितना विस्तृत होगा, भाषा का विश्व उतना व्यापक होगा। ‘और’ की जगह ‘बनाम’ जितने बढ़ेंगे, भाषा उतनी संकुचित होती जाएगी।
भाषा में अंधेरा तब छाता है, जब भौतिक ऊँचाइयों के बावजूद बौद्धिक जड़ता अपने चरम पर हो। ऐसी स्थिति में काफी लोग अपनी भाषा में अपने को ‘आउटसाइडर’ महसूस करने लगते हैं। वस्तुतः भाषा से तब साझे तौर पर अर्जित जातीयता गायब होने लगती है। राज्य चरमराने लगते हैं, कलह फैलता है। आदमी ही नहीं भाषा भी भीतर से कई फाड़ हो जाती है। वह अत्याचार का रूप धारण कर लेती है। ऐसे समय में लालसा होती है, कहीं से यह आवाज आए – ‘तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन’! (कामायनी)
भाषा में जब अंधेरा छाने लगता है, लोग सैकड़ों साल के उन अनुभवों से विच्छिन्न हो जाते हैं जो उनके महान साहित्य के अलावा स्थापत्य, चित्र, संगीत और मानव श्रम की अन्य उपलब्धियों में व्यक्त हुए हैं। भाषा सांस्कृतिक नवोन्मेषों का औजार न रहकर तब अज्ञानता-निर्माण के हिंसक उद्योग में बदल दी जाती है।
मनुष्य का जीवन जब धार्मिक कूपमंडूकता और भौतिक सुख-सौंदर्य के बीच सैंडविच हो, यह भाषा में अंधकार का समय होता है। कुछ भी सद्भावपूर्ण और तर्कसंगत बचा नहीं होता। इन दिनों जब गालियों, झूठ और दिखावा का व्यापक उपयोग हो रहा है, भाषा में एक खास तरह के प्रस्थान को लक्षित करना मुश्किल नहीं है। हम कुरूप भाषा में एक बड़े श्रोता-दर्शक समूह को आज निर्द्वंद्व मजा लेते हुए देख सकते हैं।
इस युग में आमतौर पर कोई आदमी असमंजस में नहीं है। सभी को लगता है कि वह जो बोल रहा है, ठीक बोल रहा है और जो कर रहा है, वह ठीक कर रहा है। व्यक्ति में असमंजस का न होना उसकी बौद्धिक जड़ता का सबसे बड़ा चिह्न है।
क्या हिंदी का सांस्कृतिक विश्व सिकुड़ रहा है
इस युग में सारी क्रांतियों को पछाड़ कर जितनी तेज संचार क्रांति हो रही है, व्यक्तियों का संवाद उतना कम होता जा रहा है और प्रोपेगंडा बढ़ता जा रहा है। बहस में तर्क नहीं, अब शोर का जोर है।
भाषा को कई बार जातीय पहचान की जगह धार्मिक पहचान से जोड़ने की कोशिश होती है, जबकि भाषा और धर्म के बीच कभी संबंध नहीं रहा है। उदाहरणस्वरूप प्रसिद्ध बौद्ध कवि अश्वघोष और दार्शनिक दिङ्नाग के ग्रंथ पालि की जगह संस्कृत में हैं। इन दिनों कई हिंदुओं और सिखों की मातृभाषा अंग्रेजी होती जा रही है। वे भारतीय भाषा नहीं जानते। बांग्लादेश के मुसलमानों ने उर्दू को ठुकराकर बांग्ला चुना था। कहने का आशय है कि एक भाषा कई धर्मों, जातीयताओं और नस्लों की सांस्कृतिक वाहक हो सकती है। किसी भाषा की जीवंतता और व्यापकता इसपर निर्भर करती है कि उसमें कितने अधिक भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र के अनुभवों के समावेशन की शक्ति है। हर आवाज के प्रति उसमें कितना आदर है, कितनी सहिष्णुता है और संवादप्रियता है। संवाद टूटता जाए और भाषा जोड़ने का काम करे, यह एक असंभव कल्पना है।
इधर हिंदी को लेकर राजनीतिक उग्रता जितनी बढ़ी है, उसका सांस्कृतिक विश्व उतना सिकुड़ा है। आज से पहले हिंदी में कभी इतनी सिकुड़न नहीं थी, इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
आदमी की मुट्ठी में भाषा है या भाषा की मुट्ठी में आदमी है
20वीं सदी की शुरुआत में फ्रेंज बाओस और एडवर्ड सैपिर जैसे भाषा दार्शनिकों ने घोषणा की थी कि भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है, यह मनुष्य के विचारों का स्वरूप भी निर्धारित करती है। कहने का अभिप्राय है कि मनुष्य वस्तुतः भाषा का हथियार है। यदि दो देशों के लोगों के बीच रुचि, संस्कार और सभ्यतागत फर्क है तो यह भाषा का भी फर्क है। यदि कोई समाज पिछड़ी अवस्था में है, तो यह उस समाज के लोगों की भाषा का पिछड़ापन है।
भाषा के दार्शनिकों के बीच ऐसे सवाल उठते रहे हैं-भाषा संवेदना का निर्धारण करती है या संवेदना भाषा का निर्धारण करती है? उपर्युक्त धारणा को मनोवैज्ञानिक आधार पर विकसित करते हुए कहा गया है कि भाषा अवचेतन रूप से निर्मित और व्यवहृत होती है। इसके विपरीत, यह भी कहा गया है कि भाषा की कोई स्वतंत्र भूमिका नहीं है। वह आर्थिक शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है और एक ‘सुपरस्ट्रक्चर’ है।
लक्षित किया जा सकता है कि संचार क्रांति के बाद मनुष्य की बहुत सी ताकत भाषा के पास आ गई है और भाषा की ताकत बड़ी आर्थिक शक्तियों के पास चली गई है। भाषा अब मानवीय अनुभवों से एक भिन्न सत्ता बन गई है। वह अब ‘अनुभव’ या ‘दर्शन’ से ज्यादा ‘प्रोपेगंडा’ के अधीन है। भाषा अब ‘निर्मित अनुभव’ की देन है। भाषा की इस दिशा में बढ़ती ताकत 20वीं सदी की शुरुआत से दिखाई पड़ने लगी थी। वैश्वीकरण के बाद यह ज्यादा स्पष्ट होता गया कि अब आदमी की मुट्ठी में भाषा नहीं है, भाषा की मुट्ठी में आदमी है।
प्रोपेगंडा का संसार सड़कों पर होर्डिंग और टीवी के न्यूज चैनेलों से लेकर सोशल मीडिया के संदेशों और छवियों तक फैला है। इन सबमें जितना सच होता है, उससे अधिक झूठ भरा रहता है। भाषा महज क्रीड़ा होती है, जिसमें मनुष्य अपना ‘स्व’ खोकर फंस जाता है। इसे एक नग्न उदाहरण से समझा जा सकता है। बहुत से प्रचारों के नीचे अत्यंत छोटे अक्षर में लिखा होता है- ‘कंडीशंस एप्लाइ’, जो सामान्यतः नहीं दिखता। इसका अर्थ है, जो कुछ कहा जाता है उसमें कुछ छिपाया भी जाता है।
इस समय सूचना की बड़ी-बड़ी राजनीतिक और व्यापारिक फैक्टरियां हैं। ये बहुत भारी अर्थशक्ति और कल्पनाशक्ति के साथ चिह्नों, छवियों, ध्वनियों और संदेशों के एक विराट संसार का निर्माण कर रही हैं। ये भाषा-फैक्टरियां अमानवीय चीजों को मानवीय और ‘अनैतिक’ को ‘सुंदर’ बनाकर दिखाती हैं। वे इतिहास और निजी जन सर्वेक्षणों से भी चीजें लेती हैं। यहां अपभाषा भी सुचिंतित रूप में है, कानून के प्रावधानों को नजर में रखते हुए। प्रोपेगंडा अब स्त्री, दलित-वंचित या किसी भी नागरिक के ‘स्वानुभव’ की तुलना में एक बड़ी शक्ति है। इस जगह हर अनुभव का विसर्जन है, हर सचाई की उपेक्षा है और एक अप्रत्यक्ष गुलामी है।
इसी अर्थ में, आज भाषा आदमी की मुट्ठी से बाहर है, बुद्धिजीवी फेसबुक, ह्वाट्सएप, टि्वटर आदि पर जितना बोलें। आदमी आज प्रोपेगंडा द्वारा निर्मित भाषा की मुट्ठी में है। वह असहाय है। वह दाता नहीं, अब याचक है। कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक तहस-नहस इतना व्यापक है कि इस चुनौती का सामना करने के लिए एक बड़े हृदय और एक बड़े बौद्धिक आंदोलन की जरूरत है, अन्यथा मनुष्य की असहायता बढ़ती जाएगी।
बाबेल का मीनार : मनुष्य होने का गर्व क्यों जरूरी है
मनुष्यजाति की यात्रा बहुत लंबी है। इसने अपने इतिहास में तरह-तरह से एकता, आत्मिक-बौद्धिक जागरण और वैश्विक प्रेम के सपने देखे हैं। इसने भिन्नताओं के बावजूद एक-दूसरे को समझने के रास्ते तलाशे हैं। हालांकि आज भी मनुष्यजाति संचार क्रांति और चरम सभ्यतागत विकास के बावजूद बिखरी की बिखरी है।
विभिन्न भाषाओं की उत्पत्ति के संबंध में ‘बाबेल के मीनार’ की एक रोचक कथा है। एकबार संपूर्ण मनुष्यजाति एक जगह इकट्ठी हुई। सभी लोगों ने एक साथ रहना शुरू कर दिया। उन सभी की एक ही भाषा थी, एक स्वप्न था। उनके मन में आया कि वे ऐसा कुछ करें, जिससे मनुष्यजाति की कीर्ति बढ़े। लोगों को अपने मनुष्य होने पर गर्व हो। उन्होंने ईंटें पकाईं, सामान इकट्ठा किए और मिलकर एक शहर बनाया। उन्होंने एक ऐसा ऊँचा मीनार बनाना शुरू किया, जो उनकी मनुष्यता का उत्कर्ष होकर स्वर्ग को छू सके। देवताओं ने यह सब देखा। वे यह भांपकर अप्रसन्न हो गए कि सभी की एक भाषा है, सभी आपस में घुले-मिले हैं और वे स्वर्ग की तरफ बढ़ते आ रहे हैं। अभी यह हाल है तो पता नहीं आगे क्या होगा। लगता है, वे बहुत कुछ अपने यहां के इंद्र की तरह सोचते थे!
देवताओं ने तय किया कि वे सभी एकसाथ नीचे धरती पर जाएं, उनकी भाषाएं अलग-अलग कर दें और उन्हें भ्रांतियों से भर दें, ताकि वे एक-दूसरे से भिन्न हो जाएं और पृथ्वी पर हमेशा अराजकता बनी रहे। देवताओं ने यही किया। वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। बाबेल का मीनार अधूरा रह गया। लोग पृथ्वी पर बिखर गए। अलग-अलग भाषाओं का जन्म हुआ और भ्रांतियां निर्मित होने लगीं।
यह एक कथा है, जो प्राचीन शैली में यह सच कहने की कोशिश है कि मनुष्यजाति की एकता, उसके आत्मिक-बौद्धिक जागरण और वैश्विक शांति के जितनी बार सपने देखे जाएंगे, उतनी बार वे तोड़ दिए जाएंगे। हाल में वैश्वीकरण ने ‘विश्व गांव’ का सपना दिखाया, जबकि एक तनाव-भरा और हिंसक विश्व दिया।
मनुष्य के सपने बार-बार तोड़े गए हैं। फिर भी ऐसा नहीं हुआ कि उसने कभी सपना देखना छोड़ा। मनुष्य प्रतिकूल स्थितियों में भी हमेशा ऐसी राहें खोजता है और छोटे-छोटे ही सही, ऐसे काम करता है, जिनसे उसे मनुष्य होने का गर्व हो।
vagarth.hindi@gmail.com (All paintings : Subhajit Paul)
इस सम्पादकीय के लिये लेखक को धन्यवाद। विशेषकर भाषायी सामर्थ्य व सौन्दर्य के लिये।
जबसे हिन्दी लेख आनलाइन प्रकाशित होने लगे हैं। भाषायी अशुद्धियाँ विशेषकर अनुनासिक के प्रति लेखक वर्ग उदासीन होता जा कहाना। आज जब सारे आधुनिक साधन ( key board , Google) उपलब्ध हैं तो क्यों हम अनुनासिक बिन्दी लगाकर चन्द्रबिन्दु अर्ध न और अर्ध म् को भूलते जा रहे हाँ
आपके इतनी अच्छी हिन्दी में लिखा सम्पादकीय भी जब कहाँ, यहाँ को “कहां” और सम्पादकीय को भी संपादकीय में समेट रहा है तो मन क्षोभ से भर उठता है। क्यों हम शुद्ध हिन्दी नहीं लिख रहे हैं ? यह कैसी लापरवाही? कैसी उदासीनता है हमारी भाषा की ध्वन्यात्मकता के प्रति?
भाषा के संदर्भ में बेहद सटीक और सुंदर लेख । यकीनन भाषा मनुष्य के शिक्षा,संस्कार,मानवीय भाव बोध और मनुष्य के विकास गाथा का आइना है। और भाषा का विस्तार अपरिमित है। आज राजनीतिक हलकों या मनोरंजन के क्षेत्र या अन्य क्षेत्रों में भाषा का निरंतर गिरते हुए स्तर से मन क्षुब्ध हो जाता है। महज सस्ती लोकप्रियता के लिए पढ़ा लिखा इंसान भी भाषा की गरिमा को समझ पाने में अक्षम है। यह बहुत ही गंभीर विषय है।जितना की वैश्विक पटल पर जलवायु परिवर्तन।