युवा लेखिका।दार्जिलिंग गवर्मेंट कॉलेज में प्रोफेसर।

 

साहित्य अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से टकराने और उन पर सोचने का अवसर देता है।इसलिए आजादी के इस अमृत महोत्सव में एक नागरिक और एक मनुष्य की हैसियत से समय की क्रूर और नग्न सच्चाइयों से रूबरू होना बेहद जरूरी है।इस समीक्षा संवाद के लिए जिन तीन उपन्यासों को आधार बनाया है, वे अपने समय और समाज का प्रामाणिक दस्तावेज बन कर राष्ट्र, राष्ट्रीय पहचान, नागरिकता और ‘दूसरों की तकलीफों से जुड़े कुछे जरूरी सवाल उठाते हैं।

 

 

कभी भी इतना अंधेरा नहीं होता कि हम रोशनी के सपने भी न देख पाएं।साहित्य इसी सपने का नाम है जो वृद्ध पूंजीवाद द्वारा पैदा की गई मास जड़ता के खिलाफ लड़ता है।

प्रवीण कुमार का पहला उपन्यास ‘अमर देसवा’ कोरोना काल में ‘व्यवस्था के तिलिस्म’ के भीतर भारत के आम आदमी की विवशता, पीड़ा और अधिकार वंचना का जीवंत और प्रामाणिक दस्तावेज है।कोरोना जैसी मानव निर्मित त्रासदी के समय में संवेदना और दायित्वहीन बनी व्यवस्था (विधायिका), कछुए गति से चलती और देश के आम नागरिक को हताश और निराश करती न्याय व्यवस्था (न्यायपालिका), भ्रष्टाचार में डूबी कानून व्यवस्था (कार्यपालिका) और जी-हजूरी करती बिकाऊ मीडिया (लोकतंत्र का चौथा खंभा) सब पर पैनी नजर रखते हुए लेखक ने नागरिकता का हनन करने वाली पूरी व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोला है।

उपन्यास का केंद्रीय पात्र अमृत सवाल उठाता है, ‘क्या हमें इतना भी हक नहीं कि हम कीचड़ में सूअरों की जिंदगी न जिएं?’ व्यवस्था हर रोज साधारण मनुष्य को मनुष्यता के पायदान से नीचे गिराते हुए कमतर मनुष्य बनाता जा रहा है।इसलिए राष्ट्र की सत्ता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।कथाकार ने डॉ. बी. पी. मंडल और अमृत के बीच तर्क-वितर्क के सहारे यह दिखाने की कोशिश की है कि किस तरह आज सर्वसमावेशी राष्ट्र की परिकल्पना क्षत-विक्षत डॉ मंडल कहते हैं, ‘कई बार लगता है हमने मनुष्य को नागरिक बनाकर कुछ मनुष्यों को बहुत पीछे छोड़ दिया है अमृत! जैसे वे किसी सांप की पुरानी केंचुली हो।’ अमीर और गरीब के बीच का लगातार बढ़ता फर्क और हाशिये की निरंतर बदतर होती जीवनस्थिति और असुरक्षित भविष्य की चिंता किसी पार्टी के एजेंडे में नहीं है।सुविधा के अनुसार हाशिये का भविष्य तय कर रहे हैं।डॉ मंडल कहते हैं, ‘मैं देख रहा हूँ एक लपकी हुई नागरिकता में विशिष्ट और अति-विशिष्ट नागरिक अपने से कमतर नागरिकों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। …और हम हैं कि इस भ्रम में जी रहे हैं कि हम एक सभ्य समाज के वासी हैं।

वर्तमान भ्रष्ट तंत्र का जो चेहरा है वह इतना आम हो चुका है कि अब सर्वस्वीकृत है।अब यही न्यू नॉर्मल है।

उपन्यास में दर्ज एक मिथकीय कथा के माध्यम से प्रवीण कुमार सवाल उठाते हैं, ‘भला कौन वह बाप होगा जो अपने बच्चे की पीठ को चमगादड़ों के पंख से नत्थी करवाएगा? कौन-सा बाप? कौन-सा विक्रमादित्य?’ इस प्रश्न की अर्थछाया मिथकीय संसार से निकलकर वर्तमान सत्ता तंत्र और उसके निजाम तक पहुंचती है जिसकी अक्षमता और दायित्वहीनता ने पूरे देश की जनता को कोरोना जैसी महामारी के बीच असहाय और अकेला छोड़ दिया था।

उपन्यास में ऐसी तमाम घटनाएं दर्ज हैं जो दिखाती हैं कि व्यवस्था में जब ऊपरी स्तर पर संवेदनहीनता, अमानवीयता और भ्रष्टाचार का जन्म होता है तो यह केवल वहीं तक सीमित नहीं रहता, यह छूत की बीमारी की तरह पूरे समाज में फैलता है।इसके अधिकतर शिकार रामायन की तरह वे लोग होते हैं  जो ‘सबसे ज्यादा भूख से बिलबिलाए होते हैं।’

कोरोना काल में अगर व्यवस्था के ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार और कालाबाजारी का चरम देखने को मिला तो इस दृश्य से निचले स्तर के वे एंबुलेंस चालक, अस्पतालों के कर्मचारी और श्मशान घाटों पर मौत के सामान पर मुनाफाखोरी करने वाले भी बाहर नहीं थे, जिन्होंने अपनी नैतिकता और मनुष्यता को ताक पर रख कर त्रासदी के समय को मुनाफा का स्वर्णकाल मान लिया था।

प्रवीण कुमार कथा में अपने नए प्रयोगों के लिए जाने जाते हैं।इस उपन्यास में भी उन्होंने पुराण कथा का संदर्भ लेकर विक्रमादित्य और उड़ने वाले तेंदुए की जो कथात्मक निर्मिति की है, वह उपन्यास के शिल्प में एक नया आयाम जोड़ती है।हालांकि इस कथात्मक निर्मिति ने आम पाठक के लिए उपन्यास को थोड़ा दुर्बोध जरूर बनाया है।

जिज्ञासा : आज के इस संवेदनहीन और लोभी समाज की जड़ में आप किन चीजों को देखते हैं?

प्रवीण कुमार : मनुष्यता के ठीहे पर टिके रहना कभी आसान नहीं था।जो टिके रहता है वह भारी कीमत चुकाता है।गांधी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।मनुष्यता और नैतिक मूल्य की कोई वाणिज्यिक क़ीमत नहीं, इसलिए इसे खो देने से तत्काल लाभ मिल रहा है।वृद्ध पूंजीवाद ने कोरोना काल में इस अवसर को भयानक ढंग से पैदा किया और उसने दिखा दिया (कम से कम 20 अप्रैल 2021 से 5 मई 2021 तक पंद्रह दिनों के ही बीच में) कि उसे यदि छूट मिल जाए और स्टेट अपनी सारी मशीनरी के साथ गायब हो जाए तो वह क्या नहीं कर सकता।वह ऑक्सीजन सिलिंडर 50 हजार में बेच सकता है और एक छोटे कस्बे के एक मरियल से प्राइवेट हॉस्पिटल के औसत वार्ड  में दाखिला लेने के लिए मरीज से 80 हजार प्रतिदिन ऐंठ सकता है।खतरनाक यह है कि हम सबने इसे देखा और चुप रहे।पर मुट्ठीभर लोग जो लगातार अंजान लोगों की मदद करते रहे उसने आज भी एक उम्मीद बचाई है।कभी भी इतना अंधेरा नहीं होता कि हम रोशनी के सपने भी न देख पाएं।साहित्य इसी सपने का नाम है जो वृद्ध पूंजीवाद द्वारा पैदा की गई मास जड़ता के खिलाफ लड़ता है।

जिज्ञासा : सभ्यता के विकास क्रम में अर्जित की गई ये अवधारणाएं आज क्यों वास्तव में महत्वहीन हो गई हैं?

प्रवीण कुमार : महत्वहीन हुई नहीं, कर दी गई हैं।वैसे तो सिद्धांतकारों ने राष्ट्र को एक अनिवार्य बुराई के रूप में देखा है फिर भी एक हकीकत है कि हमें सोचने-समझने और झगड़ने के लिए एक राष्ट्र चाहिए।दिक्कत यह हुई कि राष्ट्र के नाम पर हम सबने एक बड़े भूगोल और बड़ी आबादी को शामिल किया पर उसके नागरिकों से राष्ट्र के नाम पर किए गए वादे पूरे ही नहीं हो रहे हैं। ‘अमर देसवा’ उपन्यास के अंत में कजरौटा अपनी बेटी की चिता जलाने के लिए अपनी देह के अंतिम कपड़े धोती तक खोल डालता है।स्पष्ट संकेत है, कोरोना ने अंतिम नागरिक की धोती तक उतरवा लिया और राष्ट्र देखता रह गया।संकट यहां है।यही राष्ट्रीय संकट है मेरी दृष्टि में।इसलिए तमाम अवधारणाओं पर प्रश्न उठ खड़े होते हैं।राष्ट्र, नागरिकता या कल्याणकारी राज्य की अवधारणा कजरौटा जैसों की रक्षा की गारंटी से मजबूत होगी, विज्ञापनों से नहीं।

जिज्ञासा : एक साहित्यकार के विजन से सर्वसमावेशी राष्ट्र बनाने का रास्ता क्या है?

प्रवीण कुमार : इसके लिए किसी रॉकेट साइंस को नहीं समझना है।बहुत सीधा है कि संविधान में जो प्रावधान हैं उनका अनुपालन हो।वहीं हमारी और तमाम तरह के जनपक्षीय परिवर्तनों की शक्ति है।शिक्षा और स्वस्थ्य के साथ-साथ रोजगार की गारंटी के कई बिल पड़े हैं संसद में वर्षों से, जो कभी पास नहीं हुए।वृद्ध पूंजीवाद के सामने दुनिया के कई देश घुटने टेक चुके हैं, उससे हमें सीखना होगा।श्रीलंका को ही देख लीजिए।पूंजीवाद उपद्रवी अवधारणा है जो अब स्टेट्स को खा रही हैं।उनकी वजह से एशिया और अफ्रीका के कई देश युगांडा और सोमालिया होने के रास्ते पर हैं।यह सब ऐसा इसलिए हो रहा है कि जनता की जगह पूंजीपतियों  को तुष्ट किया जा रहा है।इसकी कीमत पूरे राष्ट्र को चुकानी पड़ रही है।कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की ओर लौटने से ही एक देश अपने यहां के संभावित उपद्रव को रोक सकता है।

जिज्ञासा : कहते हैं, बुरे से बुरा समय भी हमें कुछ अच्छा देकर जाता है।कोरोना महामारी के बाद वे कौन-सी अच्छी चीजें या सकारात्मक परिवर्तन हैं जो अपने समय और समाज में आपने दर्ज की हैं?

प्रवीण कुमार : पहला तो यही कि हमने खतरे को एक बार्डर के बीच का खतरा मानना छोड़ दिया।ग्लोब एक सच है, पृथ्वी ही एक मात्र सच है।उसके भीतर की आड़ी-तिरछी रेखाएं जिसे हम राष्ट्र के नामों से जानते हैं वह झूठ है, मानव निर्मित और गैर-प्राकृतिक हैं।यह समझना कोई मामूली बात नहीं।कोरोना ने धनी राष्ट्रों को भी यह बता दिया कि आप सुविधाओं के सात दरवाजों में भले बंद रहो पर जब महामारी फैलेगी तो आप बच नहीं सकते।ग्लोब के किसी भी हिस्से में कोई दिक्कत हो रही है तो वह पूरी दुनिया के लिए दिक्कत है अब।पृथ्वी को एक समूची देह के रूप में हमने तब समझा जब कोरोना बार्डर तोड़कर फैला।पर यह समझ केवल जनता के स्तर तक ही सीमित है।पूंजीपति और कई राष्ट्राध्यक्ष शायद अब भी नहीं समझे हैं।यूक्रेन युद्ध ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वे अभी भी चेते नहीं हैं।शायद दुनिया को वे अभी कोरोना से बड़ी महामारी में झोंकने की तैयारी कर रहे हैं।अब तो हर देश के हर एक नागरिक को अपने ही देश के भीतर युद्ध के विरोध और बराबरी के हक में सड़कों पर उतरना होगा, तब जाकर यह वसुधा रहने लायक बनेगी।

 

 

फसलें पहले भी खराब होती थीं, बारिश पहले भी दगा देती थी, पर तब किसान हौसले का नाम था पर आज जिल्लत से भरी परिस्थितियां इस कदर कोंच-कोंचकर मार रही हैं कि वह उठकर खड़ा होने की बजाय उठ जाना पसंद करने लगा है।

राजनीतिक सत्ता, पूंजीवाद और बाजारवाद के गठजोड़ को एक नए संदर्भ में उठाने वाला उपन्यास है मधु कांकरिया का ढलती साँझ का सूरज।यह उपन्यास विमर्शों के दौर में पीछे छूट गए एक बेहद जरूरी विमर्श- कृषक विमर्श को आगे बढ़ाता है।इसमें लेखिका ने महाराष्ट्र के किसानों के बहाने भारतीय किसान की स्थितियों और जटिल होते शोषण चक्र को रेखांकित किया है।उपन्यास का केंद्रीय विचार बिंदु है, ‘किसान का चेहरा वह आईना है जिसमें सभ्यता का चेहरा झलकता है।’

बीस वर्षों बाद स्वदेश लौटे अविनाश के लिए अपनी मां को खोजने की यात्रा स्वयं को खोजने की अंतःयात्रा बन जाती है।इस यात्रा में वह भारत के किसानों की ऐसी समस्याओं से रूबरू होता है, जिसकी दुनिया के सबसे अमीर देश स्विट्ज़रलैंड में रहते हुए उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।अपने जीवन के सबसे उपजाऊ बीस साल स्विट्ज़रलैंड में बिता देने और एक हद तक जीवन में सफल होने के बावजूद कथानायक अविनाश को जीवन की सार्थकता मिलती है भारत आकर यहां के किसानों से जुड़ने के बाद।किसानों की समस्याओं को समझने और एक हद तक उनकी सहायता करने में ही अविनाश को जीवन की पूर्णता और सार्थकता का एहसास होता है।

उपन्यास से गुजरते हुए यह देखा जा सकता है कि प्रेमचंद के बाद एक लंबा दौर गुजर जाने के बाद आज भी किसानी घाटे का ही सौदा बनी हुई है।गांव के लोगों का मजदूरी के लिए शहरों की ओर पलायन लगातार बढ़ रहा है।लेखिका ने कहना चाहा है कि जब तक किसानों की स्थिति नहीं सुधरेगी, किसानी घाटे का सौदा बनी रहेगी।गांव से शहरों की ओर पलायन भी नहीं रुकेगा।हमारे समय की विडंबना है, ‘हर दिन कोई किसान दफन हो रहा है और उसकी जगह कोई मजदूर, कोई दरबान, कोई सिक्युरिटी गार्ड उग रहा है।’

शहरों में इन मजदूरों की जीवन और कार्यदशाएं इतनी खराब हैं कि हर दिन काम पर जाना युद्ध पर जाने जैसा है।

प्रेमचंद के किसान आत्महत्या नहीं करते थे, जबकि पिछले दस-पंद्रह सालों में किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं की हैं।इसका कारण किसानों के जीवट में आई कमी नहीं, बल्कि जटिल होती परिस्थितियां और सूक्ष्म शोषण चक्र है।लेखिका की चिंता है, ‘कुछ तो बदला है इन सालों में।पहले किसान टूट-टूटकर जुड़ जाता था, अपनी ही राख झाड़कर खड़ा हो जाता था।फसलें पहले भी खराब होती थीं, बारिश पहले भी दगा देती थी, पर तब किसान उम्मीद, जद्दोजहद और एक हौसले का नाम था पर आज जिल्लत और अपमान से भरी परिस्थितियां इस कदर कोंच-कोंचकर मार रही हैं उसकी गरिमा को कि वह उठकर खड़ा होने की बजाय उठ जाना पसंद करने लगा है।’

मधु कांकरिया ने दिखाया है कि किस तरह बाजार पर निर्भर यह व्यवस्था किसानों को लगातार पराश्रित और विकल्पहीन बना रही है।पहले किसानों को अधिक फायदे देने वाली फसलों, बीजों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल करने और उनसे अधिक से अधिक लाभ कमाने का लालच दिया जाता है।इन सबके लिए जमीन रेहन पर रख कर बैंक आसानी से कर्ज देने के लिए तैयार बैठे रहते हैं।उसके बाद किसी कारण से अगर फसल से अपेक्षित लाभ नहीं हुआ या फिर फसल नष्ट हो गई तो बैंकों द्वारा कर्ज वसूली की नृशंस प्रक्रिया शुरू हो जाता है।बैंक किसानों के आत्मविश्वास और अंतःशक्ति को खत्म कर दे रहे हैं।आज किसानों के आर्थिक संकट के मूल में अक्सर बाजार द्वारा पैदा की गई अधिक लाभ का लोभ और कुछ लोगों की गिरफ्त में सारे संसाधनों का होना है।

आधुनिक मलयाली लेखक तकषि शिवशंकर पिल्लई ने कहा था भारत को उसके सौंदर्य ने नहीं, उसकी पीड़ा ने गढ़ा  है।उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम के आमजन और मेहनतकश किसानों की पीड़ा समान है।यह पीड़ा ही उनकी ताकत है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भारत को गढ़ने वाले हाथ किसानों और मजदूरों के नहीं बल्कि विश्व बाजार के आकाओं के हैं।उपन्यास में एक जगह बालासाहब किसान कहते हैं, ‘मनुष्य का अस्तित्व ही उसकी चेतना का निर्धारण करती है।शुरुआती जवानी में हम किसान भी आग से भरे थे।याद कीजिए 1967 की बसंत क्रांति का वह नारा ‘जमीन उसकी हल जिसका’।यह नारा भी किसानों ने ही लगाया था लेकिन आज हमको इतना निचोड़ दिया गया है कि आज जिंदा रहने को ही हम सब अपनी उपलब्धि मान बैठे हैं।आज हम अकेले अपनी मेंड़ पर बैठे अपनी परेशानियों से जूझ रहे हैं।’

उपन्यास में अलग से रेखांकित करने योग्य है कृषक स्त्रियों की जीवटता।गरीबी, कर्ज और सामाजिक प्रतिष्ठा के बोझ तले दबकर जहां बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या कर रहे हैं, वहीं ये ग्रामीण किसान स्त्रियां तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों बीच अपना जीवन संघर्ष जारी रखती हैं।

उपन्यास के कथ्य में यह संभावना थी कि इसे एक सुचिंतित कृषक विमर्श बनाया जा सकता था।लेकिन लेखिका ने कृषक जीवन के जटिल यथार्थ, अंतर्विरोधों और संघर्षों को चित्रित करने के बजाय उपन्यास का अधिकांश हिस्सा कथानायक के मानसिक उथल-पुथल, उसके अंतर्द्वंद्वों को उकेरने में खर्च कर दिया है।उपन्यास में बाहरी घटनात्मकता के बजाय अंतश्चेतना के स्तर पर चलता वैचारिक उथल-पुथल अधिक दर्ज हुआ है।लेखिका ने दिखाया कम, बताया ज्यादा है।उपन्यास में ईमेल और चिट्ठियों के रूप में कथानायक के अंतःसंघर्षों को दर्ज करते या भारतीय और पश्चिमी संस्कृति की तुलना करते लंबे-लंबे संवाद हैं जो मूलतः संवाद कम एकालाप अधिक बन कर रह गए हैं, क्योंकि इसमें भी संवाद का दूसरा पक्ष पूरी तरह से अनुपस्थित है।इन कमियों के बावजूद कहा जा सकता है कि समकालीन कथा साहित्य के मुख्यतः शहरी मध्यवर्गीय परिवेश में किसानों की समस्याओं को शामिल करते हुए मधु कांकरिया ने एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पहल की है।

जिज्ञासा : पिछले कुछ सालों में किसानों की आत्महत्याएं तेजी से बढ़ी हैं।इसके बावजूद वर्तमान साहित्य में इस गंभीर विषय की अनुपस्थिति के क्या कारण हैं? इस विषय पर लिखने का विचार आपके मन में कैसे आया?

मधु कांकरिया : हर लेखक अपनी जमीन से उगता है।मैं उन दिनों मुंबई में थी और ‘हिंदू’ जैसे अखबारों में हर दिन किसानों की आत्महत्या के बारे में पढ़ रही थी।मेरे कानों में नाना पाटेकर के स्वर गूंज रहे थे – ‘अगर मुंबई में सड़क पर अचानक कोई आपसे मदद मांगे तो उसे भिखारी न समझे, वह किसान हो सकता है…।’ उन्हीं दिनों एक ग्रुप से मेरा परिचय हुआ जो किसानों के लिए कुछ करने का जज्बा लेकर जालना के कुछ गांवों में जा रहा था।संयोग से उनमें मेरा बेटा भी था, मैं उनके साथ हो ली।

प्रस्थान बिंदु यही था।बाद में बाजार और समय की चुनौतियों से टकराते किसानों से, आत्महत्या कर चुके किसान परिवार की महिलाओं से, सरपंच से, कलेक्टर से, किसानों की आत्महत्या को रोकने के प्रयास के लिए बने फाउंडेशन वालों से मेरे संपर्क बनते गए, बढ़ते गए।फिर ऐसा मुकाम भी आया कि पांव में जैसे चक्का लग गया।यात्राएं होती रहीं, बल्कि ये यात्राएं, ये अंत:यात्राएं मेरी चेतना यात्राएं बन जीवन का प्राप्य ही बन गईं।इनके साथ ही जुड़ती गईं मेरी अनुभूतियां, संवेदनाएं, कल्पनाएं, विचार, दर्शन, जीवन दृष्टि और सभ्यता का अमानवीय इतिहास, जिसकी अंतिम परिणति इस उपन्यास के रूप में हुई।

दरअसल किसानों की समस्या की गंभीरता को आप महानगर में रहकर समझ ही नहीं पाएंगे तो लिखेंगे कैसे? आप खुद ही बाजार में धंसे हुए हैं।भूमंडलीकरण से उपजे बाजारवाद ने हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान संस्कृति के परखच्चे उड़ा दिए हैं, बाजार का चरित्र बदल डाला है।

जिज्ञासा : उपन्यास का एक मुख्य मुद्दा है पश्चिमी और भारतीय संस्कृति की तुलना।आपने दिखाया है कि भारतीय जीवन का अटूट हिस्सा है परिवार और समाज का साथ, जबकि स्विट्जरलैंड में अकेलापन और डिप्रेशन आम स्थिति है।लेकिन क्या भारत के बड़े शहरों में भी ये चीजें तेजी से नहीं बढ़ रही हैं?

मधु कांकरिया : माना कि संबंधों के ग्लेशियर यहां भी पिघल रहे हैं।फिर भी यहां अभी बचे हुए हैं संबंध और आपसदारी।भारत की तरह यूरोप में शादी, जन्म, मुंडन, गृहप्रवेश तो दूर की बात – मृत्यु और उठावना जैसे मौकों पर भी परिवार के लोग, रिश्तेदार, बिरादरी के लोग इकट्ठे नहीं होते।कोई विश्वास करेगा कि यहां आज भी शादी में चार पीढ़ियों के लोग आमंत्रित होते हैं।रीति रिवाजों, उत्सवों, त्यौहारों, गीतों और नृत्यों से भरी भारतीय जीवन पद्धति आदमी को कभी अकेला नहीं छोड़ती।हमारे पुरखों ने जीवन को बेहतर समझा, जबकि स्विस जल्दी से दूसरों से घुलते-मिलते नहीं।बाहर घूमने भी निकलते हैं तो इस कदर कि दूसरों को दिखे नहीं, दूसरों की निजता में खलल न हो।

मुझे नहीं लगता कि देह की मीनारों में कैद वहां की पीढ़ी कभी औरत और आत्मा के सत्य तक पहुंच पाएगी।

जिज्ञासा : स्त्रियों की जीवटता का कारण क्या है?

मधु कांकरिया : जब-सब कुछ दांव पर लगा हो, जब किसी प्रकार जिंदा भर रह पाना जीवन की उपलब्धता हो, ऐसे चरम क्षणों में वह कौन सी शक्ति है जो आत्महत्या किए हुए किसानों की पत्नियों को जीवन की ओर उन्मुख रखती है, मैं सटीक जवाब नहीं दे सकती।

 

 

पहचान की राजनीति का बुनियादी सिद्धांत यह है कि इसमें ‘अन्य’ के प्रति एक असुरक्षा का भाव होता है।इसलिए अपनी अपनी पहचान की रक्षा का एकमात्र उपाय है ‘अन्य’ पर वर्चस्व बनाकर उसके भीतर एक हीनताबोध स्थापित कर दिया जाए।

राष्ट्रीय आत्मपहचान और सर्वसमावेशी राष्ट्र की परिकल्पना को क्षरित करने वाली ताकतों से एक अन्य स्तर पर टकराता है रणेंद्र का उपन्यास ‘गूंगी रुलाई का कोरस’।हिंदुस्तानी संगीत के बहाने देश में बढ़ते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और घृणा की राजनीति को सामने लाने वाला यह उपन्यास, बतौर विजय बहादुर सिंह, ‘उन तमाम लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण किताब है, जिनका भरोसा इस देश की साझी संस्कृति में है और जो इस अटूट जीवनधारा को समय के तमाम झंझावातों के बावजूद बचाना और जीते रहना चाहते हैं।’ यह कथा है उस्ताद माहताबुद्दीन और उनकी चार पीढ़ियों की जो धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ण से परे केवल संगीत और प्रेम की इबादत करता आ रहा था।लेकिन तेजी से बदलते देश के हिंसक माहौल में अब उनकी पहचान, उनकी इबादत से नहीं बल्कि धर्म से होने लगी है।रणेंद्र यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि भारत जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक बहुलता वाले देश में पहचान की राजनीति का शुद्धतावादी घोड़ा जब दौड़ता है तो वह किस तरह साझी संस्कृति और विरासत को रौंदते हुए आगे बढ़ता है।

प्रसिद्ध चिंतक एरिक हाब्सबॉम ने कहा था, ‘राष्ट्रवाद को इतिहास की तलब उतनी ही होती है जितनी कि एक अफीमची को अफीम की।’ पिछले कुछ सालों में न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया में इतिहास की कब्र खोदकर सांप्रदायिक दुश्मनी के प्रेत निकालने की तंत्रविद्या बढ़ी है।धर्म के अलावा जाति, नस्ल, रंग, स्थानीयता, भाषा जैसे अनेक आधारों पर भी ‘हम’ और ‘वे’ का विभाजन करते हुए ‘अन्य’ के रूप में दुश्मन की पहचान जरूरी हो गई है, ताकि घृणा करते हुए स्वयं को सच्चा देशभक्त और राष्ट्रवादी घोषित किया जा सके।दरअसल पहचान की राजनीति का बुनियादी सिद्धांत ही यह है कि इसमें ‘अन्य’ के प्रति लगातार एक असुरक्षा, एक संदेह का भाव होता है।इसलिए अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की रक्षा का एकमात्र उपाय है ‘अन्य’ पर वर्चस्व बनाकर उसके भीतर एक हीनताबोध स्थापित कर दिया जाए या फिर उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया जाए।रणेंद्र लिखते हैं, ‘यूरोप-अमेरिका में नस्ल, रंग और नेशन के जलवे थे।सब जगह एक बात कॉमन थी कि सबका अपना-अपना एक गैर, एक स्थायी दुश्मन था जिससे बिना नफरत किए, बिना दुश्मनी निभाए अपने नेशन, अपने मजहब, अपनी कौम से मुहब्बत हो ही नहीं सकती थी और इस गैर, पक्के दुश्मन के खत्म होते ही जमीं पर जन्नत का उतर आना तो पहले से ही तय था।’

यह सही है कि वर्तमान समय में भारत की सांस्कृतिक बहुलता को क्षत-विक्षत करते हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जहर तेजी से फैला है।लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि अनेकता में एकता स्थापित करने वाले इस देश की राष्ट्रीय आत्मपहचान को क्षरित करने की कोशिशें पहले भी हुई हैं।यह भी उतना ही सही है कि ऐसी बहिष्कारपरक और संहारक शक्तियां न पहले प्रतिरोधहीन थीं और न आज हैं।लेकिन एक फर्क यह आया है कि पहले सांस्कृतिक वर्चस्व का अभियान राजनीतिक वर्चस्व द्वारा पूरा होता था और इसमें देश के आमजन की सहमति और भागीदारी नहीं होती थी।बतौर उपन्यासकार, ‘स्वाभाविक है (पहले भी) वैचारिक टकराहटें तो थीं, किंतु एक दूसरे का वजूद मिटाने की नफरत नहीं थी।जिस किसी शासक ने कट्टरता दिखाने की कोशिश की, वह इतिहास में खलनायक की तरह दर्ज हो गया, चाहे वह पुष्यमित्र शुंग हो या शशांक, प्रतापरुद्र देव हो या अल्लाउद्दीन खिलजी या औरंगजेब।इन्हें इतिहास और अवाम ने कभी इज्जत नहीं बख्शी।’

आज स्थिति यह है कि पहचान की राजनीति अधिक हिंसक होकर सामने आई है और इसने अपने पक्ष में एक बड़ा जनसमर्थन तैयार कर लिया है।इस अभियान में उसका सबसे अधिक साथ निभाया है मीडिया ने।उपन्यासकार ने यह दिखाने की कोशिश की है कि सांस्कृतिक शुद्धतावाद और पहचान तथा घृणा की राजनीति जब मीडिया की ताकत से लैस होकर झूठ की सवारी करने लगती है तो आम समाज में उसका प्रभाव कितना विनाशकारी हो सकता है।

पहचान की राजनीति ने आज मीडिया के सहारे झूठ का एक सघन वातावरण तैयार किया है जहां सेकुलरवाद सबसे बड़ी गाली है और ‘अन्य’ से नफरत न करने वाला सबसे बड़ा राष्ट्रद्रोही।इस देशद्रोह के अपराध में कई लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों और पत्रकारों को मॉब लिन्चिंग और सामाजिक हत्या का शिकार होना पड़ा है।उपन्यास में नानू अयूब खान, अब्बू खुर्शीद जोगी, बाबा मदन बाउल और अंत में कमोल कबीर एक-एक कर खत्म कर दिए जाते हैं।

इन हिंसक घटनाओं के बावजूद उपन्यास का अंत इस सकारात्मक विचार के साथ होता है कि घृणा की राजनीति का प्रसार जितना गहरा और व्यापक क्यों न हो, संकल्पधर्मी रचनात्मकता उसके सामने आत्मसमर्पण नहीं करती।भारत की आत्मा लहूलुहान होकर भी बची हुई है।कुछ तो बात है संस्कृति और विरासत के इस साझेपन में कि सत्ता और राजनीतिक गलियारों से बेदखल होकर भी देश के उन आम नागरिकों की आत्मा में यह बचा रहता है।इसके लिए आज भी हिंदू या मुसलमाम होने से ज्यादा जरूरी है हिंदुस्तानी होना।जीवन के तमाम मोर्चों पर आहत और क्षत-विक्षत होकर भी शब्बो भाभी संगीत के माध्यम से इंसानियत और भाईचारे की उस संस्कृति को बचाए रखने का संघर्ष जारी रखती हैं, ‘दंश तो शब्बो भाभी ने भी कम नहीं सहा था।किंतु उन्होंने सारे विष को पचाना सीख लिया था।समझ लिया था कि पहचान की राजनीति केवल घृणा और घृणा को ही जन्म देती है जिसकी हिंसा की आग हर कहीं हर किसी को झुलसा रही थी।’ इस हिंसक समय से मुठभेड़ के लिए शब्बो भाभी फिर उस संगीत का सहारा लेती हैं जो उनके लिए इबादत था, ‘दिन के चौथे पहर मांमोनी की तीसरी मंजिल की कोठरियां तानपुरे की झंकार से गूंजने लगीं। ‘शिउड़ी जुटान’ के लिए रियाज जरूरी था।’

भारत की साझी सांस्कृतिक विरासत के लहूलुहान होने की पीड़ा को हिंदुस्तानी संगीत के बहाने सामने लाने का जो प्रयास रणेंद्र ने किया है, वह निश्चित ही सराहनीय है।लेकिन कई बार हिंदुस्तानी संगीत के पूरे इतिवृत्त को दर्ज करने के लिए संगीत घरानों की बड़ी-बड़ी हस्तियों से जुड़े विवरण, विभिन्न राग रागिनियों के विवरण उपन्यास की पठनीयता बाधित करते हैं।इसी तरह दुनिया भर में फैल रही घृणा की राजनीति से जुड़े लंबे-लंबे विवरण पुराने अखबार की कतरनों को पढ़ने का आभास भी देते हैं।दरअसल उपन्यासकार ने अपने इस शोधपरक उपन्यास में हिंदुस्तानी संगीत के समग्र इतिवृत्त और हिंसक समय के यथार्थ को तथ्यात्मकता के साथ प्रस्तुत करने के प्रयास में उपन्यास की पठनीयता के साथ समझौता कर लिया है।उपन्यास पढ़ते हुए कई बार यह भी महसूस होता है कि लेखकीय संवेदना पूरी तरह संगीतकारों के पक्ष में होने के कारण उनकी आंतरिक कमियों को उपन्यासकार ने अनदेखा कर दिया है।हिंदुस्तानी संगीत अपने जिस आभिजात्यवाद के कारण आम जनता से कटती गई, उसने लोकवाणी से जिस तरह अपने को दूर रखा, उसकी तरफ लेखक ने नहीं देखना ही उचित समझा।

रूह से रूह तक उतरनेवाली हिंदुस्तानी मौसीकी, जो कभी इबादत हुआ करती थी अब डेसिबल युद्ध की रणभूमि में तब्दील होती जा रही थी।

दुख और निराशा के उन घड़ियों उन दिनों में यह शिद्दत से महसूस होना शुरू हुआ कि दरअसल हम एक यातनाशिविर में रह रहे थे और हमारी मौत की सजा पहले से तय थी।किसे गोली मारनी है किसे सीढ़ियों से धकेलना है किसे बीच चौराहे पर घेर कर दिनदहाड़े जिबह करना हैकिसे हाथ बांध पेड़ से लटका फांसी देनी है, सब पहले से तय।बस फंदा कसने और नकाब पहनाने के बीच का जो अंतराल है उतना ही वक्त हमारे लिए शेष था।

समीक्षित पुस्तकें :
(1) अमर देसवा : प्रवीण कुमार, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, पहला संस्करण : 2022
(2) ढलती साँझ का सूरज : मधु कांकरिया, राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण : 2022
(3) गूंगी रुलाई का कोरस : रणेंद्र, राजकमल पेपरबैक्स, पहला संस्करण : 2021

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