शशि खरे, रायपुर:‘वागर्थ’ जुलाई अंक। लंबे समय बाद इतना गंभीर, रचनात्मक, लगातार बांधे रखने में सक्षम, सही मायने में संपादकीय पढ़ा है।

प्रेमचंद साहित्य को लेकर  अतीत और वर्तमान, वैश्वीकरण का फैलाव और मानसिक संकीर्णता, पैसा, सुख और सत्ता की दौड़ में शामिल लोग और बदलता सौंदर्यबोध और भी अनेक मुद्दे… सभी का खरा मूल्यांकन और यह प्रश्न -क्या नागरिक समाज में ऊंचे आदर्शों की वापसी संभव है? यह प्रश्न केवल साहित्य से जुड़े लोगों का नहीं है, यह समाज, देश और राष्ट्र से जुड़ा है। ऐसा प्रश्न जो उम्मीद भी जगाए रखता है। प्रेमचंद के पीछे कोई सत्ता नहीं है -यह याद दिला कर आपने बहुतेरे संघर्षरत लोगों को प्रेरणा दी।

बहुत-सी प्रतिभाएं हैं साहित्य जगत में, उनके संकल्प हैं इस संघर्षमय व्यापार क्षेत्र में, इस स्थिति में प्रेमचंद उनके संबल बने हैं और प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं।

अनेक बार अनेक युगों में साहित्य ने ही रोशनी दिखाई है समाज को, इस बार भी यथार्थ की रोशनी में आदर्शोन्मुखी सौंदर्यबोध संपन्न भविष्य की कल्पना साकार होगी।

प्रखर गर्ग, पूना:‘वागर्थ’ मई अंक। ‘खासकर वैश्वीकरण, आर्थिक सुधार और तकनीकी क्रांति ने दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने का स्वप्न दिखाकर आज इसे एक खूबसूरत नरक में बदल दिया है, जो अनंत है। इसमें सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं है। क्या सिद्धांत विचारों के लिए एक जेल है? ‘यदि सिद्धांत में खुलेपन और पुनर्गठन के लिए स्पेस नहीं है तो वह एक जेल है।’

आप एकदम सही कहते हैं। लेकिन मैं इस बात को एक अलग दृष्टिकोण से परखना चाहता हूँ। हालांकि मेरी उम्र कम है, लेकिन यह जो आज की पीढ़ी है, जो ख़ुद को जेन-ज़ी या मिलेनियल के नाम से संबोधित करने में ख़ासी रुचि रखती है, इस पीढ़ी का भविष्य और वर्तमान, दोनों ही, बहुत असमंजस में पड़े हुए लगते हैं। हालांकि, ऐसा शायद हर बोधक अपनी पीढ़ी के बारे में कहे। चिंता की बात यह है कि जब इस दुनिया में सिद्धांतों की जगह नहीं है, तो क्या नई पीढ़ी के लिए यह समय खुद-ब-खुद एक वैचारिक खुलेपन में रहने का और पुनर्गठन का समय है?

यदि पुराने सिद्धांत आर्थिक और तकनीकी रूप से हमारी दुनिया में अब अस्तित्वहीन हो चुके हैं तो क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि इसने विचारों के ढांचे के पुनर्गठन का अवसर दिया है, साथ ही एक नई दुनिया की रचना करने का भी?

सवाल यह भी है कि इस दुनिया में रूढ़िवादियों की हुकूमतों का बोलबाला है और बहुत कम सभ्यताएं ऐसी हैं जो इन रूढ़िवादी हुकूमतों के खिलाफ लड़ रही हैं, या जीत रही हैं।

यह मेरे आपसे निजी सवाल हैं। क्या आप इस बारे में कुछ राय देना पसंद करेंगे कि जो आज की और आने वाली पीढ़ी है, वह अपने समय की हुकूमतों के खिलाफ, एक बोधक के रूप में कैसे सोच पाएगी और लड़ पाएगी? क्या आपको इस अंधेर नगरी में कोई उम्मीद की रोशनी नजर आती है?

आप जिस ‘आत्म के संकट’ की तरफ़ इशारा करते हैं, क्या आज की पीढ़ी उससे ग्रस्त नहीं है? सिर्फ यही पीढ़ी नहीं, औपनिवेशिक युग के ‘हम और वे’ ने हर पीढ़ी के मनुष्य को जानवर बना दिया है। वह अपने मोबाइल फोन के स्क्रीन की कैद में बंद है। एक बहुत बड़ा तबका नौकरी और ईएमआई के बोझ के तले अपने आपको इस अनंत नरक की रौनक में उलझाए रहता है। आप जिस सुविधावाद की बात कर रहे हैं, आज के समाज का वही तो आधार है।  उत्तर-आधुनिक विमर्श, जो ‘सबका क्रंदन’ नहीं पहचान पा रहा है, चिंतित करता है, क्योंकि यहां भी किसी विचार या विचारधारा का बीज फूटता नहीं दिख रहा है। अमेरिका के ‘ब्लैक-लाइव्स मैटर’ के बल पर जो बदलाव हमें देखने को मिल रहे हैं, ऐसे कुछ बदलाव हमें भारत में ‘मी टू’ के ज़रिए देखने को मिलने चाहिए थे, लेकिन हाल में कुश्ती के खिलाड़ियों के संघर्ष को लेकर सरकार का रवैया बहुत चिंताजनक है।

मैं एक युवा आदमी हूँ, और मैं अपनी और अपने समाज की चिंता करता हूँ। आत्मनिरीक्षण की जहां तक बात है, वही मेरा आधार रहा है। अपनी उम्र के लोगों को देखता हूँ, उनकी बातें सुनता हूँ, उनके ख्याल सुनता हूँ, तो सिहर जाता हूँ। आपके संपादकीय एकदम सटीक और तीखे होते हैं, लेकिन ऐसा क्या हो कि बाकी लोग भी उन्हें पढ़ें और समझें? सुविधावाद ने हमारे समाज में रहने वालों की सोच पर जो प्रहार किया है, उसके आगे भाषा में ध्वंस की बात कोई नहीं करता। सब शॉर्ट कट में लगे हैं। हर गुजरते चेहरे को देखता हूँ तो मंगलेश डबराल की कविता याद आती है ‘हरेक चाहता है किस तरह झपट लूँ, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार’। नहीं जानता कि आपको यह सब लिख कर क्या पाऊंगा, शायद दो पल का सुकून।

डॉ. एस एस: ‘वागर्थ’; जुलाई 2023।  दुनिया चाहे जितनी आधुनिक हो जाए या विश्व व्यापी ‘टेक्नोलॉजी’ चाहे जितना ‘एडवांस’ हो जाए, प्रेमचंद को भूलने या भुला देने का कोई औचित्य ही नहीं बनता। इस संदर्भ में ‘परीक्षा’ कहानी का संक्षिप्त विश्लेषण तो जैसे एक बृहद परिणाम का उद्घाटन स्वतः कर देता है।

‘वागर्थ’ की कहानियों में, चाहे वह ‘रोजे का दिन’, ‘गैजेट गढ़ी संतानें’, ‘मेरी साइकिल मत खरीदिए पापा’, ‘रिश्ता’ या ‘धमतरी से कांकेर वाया नरहरपुर’ हो, सभी अपनी कथावस्तु के माध्यम से पाठक के दिल में उतरने में सफल हैं।

कविताओं में बिंब और सत्य की गंभीरता है। उसी तरह सोशल मीडिया के पन्ने सचमुच हमारे अंदर की वैचारिक भूमि को जाग्रत करते हैं। लेखकीय वक्तव्य, आलेख, विश्वदृष्टि, समीक्षा संवाद, देश-देशांतर, मल्टी मीडिया सहित मीरा जैन की लघुकथा ‘अद्भुत’ है। वागर्थ की समस्त सामग्री के लिए वागर्थ टीम को धन्यवाद।