वरिष्ठ ग़ज़लकार और कथाकार। कलकत्ता दूरदर्शन के उर्दू न्यूज सर्विस में दस वर्षों तक हिंदी अनुवादक रहे। तीन कहानी संग्रह प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन।
उनका कुछ और नाम था। लेकिन शहर में आकर उन्होंने अपने इसी नाम को स्थापित कर लिया था। उनका जो असली नाम वज़ीर खां था, उसे गांव वालों ने बिगाड़ कर उजड़ खां कर दिया था। गांव के पठानों को किसी का नाम बिगाड़ कर बोलने की आदत थी। उनके पिता का नाम मुसबत खां था, जिसे लोग मुसीबत खां के नाम से पुकारते थे। उनके दादा परवेज़ खां को पहाड़ खां के नाम से चिह्नित करते थे लोग। परवेज़ खां तो वास्तव में लंबे-चौड़े साढ़े छह फुट के पहाड़ की भांति कद काठी के व्यक्ति थे। ऐसे उद्भट पठानों के गांव से वे आए थे! आए क्या थे, भगा दिए गए थे!
बात यह हुई थी कि भुसहुल में बकरी के साथ बलात्कार करते पकड़े गए थे। पिता ने जूतों से पीटा था…। मां बचपन में गुजर गई थीं, पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। सो कोई मोह-माया और लाड़ प्यार करने वाला नहीं था। कई दिनों तक वे गांव में ही खेत खलिहानों में छुपते रहे। फिर एक मित्र के साथ साइकिल पर बक्सर आ गए। दिन में ‘आया सावन झूम के’ फिल्म देखी और शाम को कलकत्ता वाली रेल पकड़ कर काशीपुर में रहमान खां दरवान के यहां आ गए।
सिर्फ दसवीं पास थे उजड़ खां उर्फ वज़ीर खां उर्फ हमदर्द खां महेंदवी…। रहमान खां उनके पट्टीदार थे। उन्होंने उजड़ को चित्तपुर के गोल कोठी में दरवानी पर लगवा दिया। यह उनके लिए उस वक्त एक बड़ा सहारा था।
हमदर्द फिर कभी गांव नहीं गए। लेकिन अपने गांव को अपने नाम के साथ सदा जोड़े रखे- हमदर्द खां महेंदवी।
महेंदवी शायरों-सा उपनाम था, लेकिन हमदर्द शायरी क्या, अदब की किसी विधा से उनका दूर-दूर का रिश्ता नहीं था!
गाज़ीपुर शहर से चौबीस मील दूर का यह करैली माटी वाला गांव अपनी कई विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध था- लठैत, पुलिस, दंभी, अड़ियल लोग, लाठी और मुकद्दमेबाजी में मशहूर।
उनके गांव में एक सईद खां थे, जिन्हें लोग ‘लुकई सईद’ नाम से याद करते थे। कारण यह था कि जब पटीदारों में लाठी चलती तो वे मस्जिद (लुका कर) में छुप जाते और शांति की दुआ मांगने लगते। ऐसे शांति प्रेमी व्यक्ति को लोग डरपोक, कायर और न जाने किन-किन उपनामों से चिढ़ाते…! उनका परिवार आज भी लुकई सईद के घर के नाम से जाना जाता है।
‘कमसारनामा’ के लेखक सुहैल खां के अनुसार जहां आज महेंद गांव है, वहां चेरू खरवार निवास करते थे। लेकिन कुछ और इतिहासकारों के अनुसार महेंद के मुसलमान हिंदू से मुसलमान नहीं हुए थे, बल्कि गज़नी (अफ़ग़ानिस्तान) से आए ख़ालिस युसूफ़ ज़ई पठान हैं…! लेकिन हमदर्द को अपने पठान होने न होने पर कोई गर्व नहीं था। वे तो चमरू अज़ीज़ के खानदान से होने पर भी गर्व कर सकते थे। हां, उन्हें फ़ख्र है कि फिल्मों में ज़ोरदार ठहाके लगाने वाले एक्टर ‘यूनुस परवेज़’ उनके गांव के थे। वह उनके एकमात्र पुत्र के प्राथमिक विद्यालय में सहपाठी थे, यार थे। उन्होंने खेत-खलिहान और छत पर बहुत अटखेलियां की थीं उसके साथ।
खैर, बात जो भी हो, पांच फुट तीन इंच का यह पठान अपने को ‘पठान’ कहने में शरमाता था। यह वह ज़माना था जब उसके ज़िला जवार व कमसार–व–बार के लंबे–चौड़े अड़ियल–कड़ियल पुलिस के जवान कलकत्ता के पुलिस के हर थाने चौकी में तैनात रहते। उन लोगों की बड़ी धाक थी। जो भी गांव से भाग कर आता और कहीं कुछ नहीं कर पाता था, तो थोड़ी कसरत, दौड़–धूप और अखाड़े में लड़–भिड़ कर पुलिस में बहाल हो जाता था।
उनके देखते-देखते पुलिस गारद से अखाड़े खत्म कर दिए गए। हाफ़ पैंट पहनने वाली कलकत्ता पुलिस फुल पैंट में हो गई। कॉलेज, यूनिवर्सिटी से फारिग लोग कांस्टेबल में भर्ती होने लगे। यह पुलिस संभ्रांत बंगाली पुलिस थी, जो अपनी जान जोखिम में डाल कर चोर पकड़ने या जुआ, शराब के अड्डों पर छापा मारने में बहुत तत्परता नहीं दिखलाती थी.. !
लेकिन हमदर्द ऐसे पठान थे, जो क़द और ज़ेहन से पठान नहीं थे। वह बहुत शांत और गंभीर स्वभाव के थे। सोचने-समझने की उनमें क्षमता थी। वे लठैत नहीं थे। शिक्षा कम थी, लेकिन बुद्धि-कौशल से पूर्ण थे। अच्छी समझ थी। उनमें वक्त और समय की पहचान थी।
उनके पिता मुसबत खां उर्फ मुसीबत खां अपने को चंगेज़ खां के पुत्र उलूग खां का वंशज मानते थे। हां, उनको मालूम था कि चंगेज़ या उलूग मुसलमान नहीं थे। वे कहते,‘उसी मंगोल और चंगेज़ी पूर्वज के वंशज बाबर से लेकर आखिरी मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र थे। ज़फ़र की मां हिंदू थीं तो क्या हुआ…? भारत के हम मुसलमान तो बस ऐसे ही हैं …आधा मुसलमान-आधा हिंदू…!’
वक्त बदला, समय बदला। हमदर्द दरवानी छोड़ कर धर्मतल्ला में गमछा का डाला लगाने लगे। थोड़े दिनों के बाद वे हॉकर यूनियन के लीडर बन गए। बोलने बतियाने में तेज़ थे। बहुत जल्दी क्षेत्रीय छुटभैया नेताओं से उनका संपर्क हो गया। वामपंथियों की सरकार थी। जलसा जुलूस का दौर था। मिछिल में हमदर्द शामिल होने लगे थे। उसी दौरान प्राथमिक स्कूल के अध्यापकों की बहाली निकली और हमदर्द ‘केला बागान उर्दू प्राइमरी स्कूल’ में नियुक्त हो गए। जीवन बदल गया। रुतबा, रंग बदल गया। विचार में परिवर्तन आ गया। अब वे बाकायदा बुद्धिजीवियों के संपर्क में हो गए थे। वे अब न दरवान थे न हॉकर। अब मास्टर साहब थे। गांव की ‘बद-फेली’ का दाग़ पीछे छूट गया था। लेकिन यादें पीछा करती रहती थीं। ग़ाज़ीपुर गोंडउल गांव के एक रमेश सिंह गमछा खरीदते हुए पूछ बैठे थे, ‘कहां के हो बचवा, का नाम है?’
हमदर्द बोले, ‘………..’
रमेश ठहाके मार कर हँसे, बोले ‘बचवा, तू खां साहब हवअ। वह भी गाज़ीपुर के हाथी जैसे पहलवान शमशुद्दीन खां, जलालुद्दीन खां के गांव के…?’ उस दिन हमदर्द को बड़ी शर्मिंदगी हुई थी।
दरवान से हॉकर, हॉकर से मास्टर जी हो गए थे। उनका गांव छूट गया था। लेकिन वे बराबर गांव की खोज-खबर लेते रहते थे। उनके गांव के टोला-मुहल्ला के बहुत से लोग थे, शहर में। कितने पुलिस में थे, जिन्हें वे जानते थे। लेकिन उनका मिलना-जुलना नहीं होता था। एक दूरी थी, कसक थी, झेंप थी, जिससे वे अपने परिचितों से सहजभाव से नहीं मिल पाते थे। हालांकि उस घटना को गुज़रे कितना समय हो गया था। संभवतः लोग भूल गए थे या बहुतों को इसकी खबर तक नहीं थी। लेकिन हमदर्द खां के अंदर एक ग्लानिबोध था, जो उन्हें परेशान करता रहता था। वे स्वयं भी याद कर अपने आपमें लज्जा से सिकुड़ जाते थे। मन ही मन सोचते, ‘जवानी में बहुतों ने इस प्रकार का गुनाह किया होगा।’ कलकत्ता में भी दरवानी करते हुए, वे मकान मालिक की बेटी से एकतरफा इश्क कर बैठे थे। इसके लिए उन्हें जुलैखा से अपमानित होना पड़ा था। फिर जुलैखा के पिता ने ‘मास्टर जी’ को खुशी-खुशी जुलैखा का हाथ दे दिया…!
हमदर्द कहते- ‘भैय्या, यह सब वक्त-वक्त की बात है। मैं तो फिल्म ‘वक्त’ का यह गाना बहुत पसंद करता हूँ- ‘वक्त से दिन और रात…. वक्त का हर शै पर राज… वक्त है फूलों की सेज, वक्त है कांटों का ताज। आदमी को चाहिए वक्त से डर कर रहे… कौन जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज…?’ वक्त ने करवट ली थी और निज़ाम बदल गया था। सब कुछ बदलने लगा था। हमदर्द खां महेंदवी हेड टीचर होकर रिटायर हो गए थे।
उनके रिटायर होने की भी अजब कहानी है। अब जिस आबादी में उनका स्कूल था वहां उर्दू बोलने वालों की आबादी वैसी नहीं थी जैसा कि ‘केला बागान स्कूल’ क्षेत्र में थी…!
स्कूल में चार टीचर थे, जिसमें एक पहले रिटायर हो गए। दो में से एक अपने मुहल्ले प्रिंस अनवर शाह रोड में ट्रांसफर करवा लिए। एक जो थे, उनकी अकाल मृत्यु हो गई। अब अकेले हमदर्द रह गए थे जो टीचर भी थे, हेड टीचर भी थे। दरवान, प्यून और चपरासी भी वही थे!
सुबह आकर स्कूल खोलते। इधर-उधर की धूल झाड़ कर बैठ जाते। बच्चे कम होते-होते पांच रह गए थे। रजिस्टर में कुछ फॉल्स हाजिरी भरते। फाइल रजिस्टर लेकर डीआइए कार्यालय जाते। शिक्षा अधिकारी से झूठ-सच बोल कर लौट आते। कभी-कभी इंस्पेक्टर का फोन आ जाता, बगल के मकान मालिक के घर पर… और वे भाग कर जाते हां ना कर के जान छुड़ाते। इस प्रकार सर्विस के अंतिम कुछ वर्षों में जान आफ़त में रही। वह टीचर न होकर एक किरानी की तरह जोड़-घटाव करते परेशान रहे।
हमदर्द ने कई चुनावों में ड्यूटी की थी। उस दौरान उन्हें कष्ट और खतरों से गुजरना पड़ता। कई तरह के तनाव में रहते। कभी-कभी झुंझला जाते। फिर वे सोचते- यह क्या कष्ट है, मुश्किल है…? अरे! यह मास्टरी नहीं मिली होती तो आज गमछा ही बेचते-बेचते मर गए होते। पेंशन की उम्मीद, सुंदर पत्नी, तीन-तीन बेटे, मान-सम्मान, समाज में इज्जत सब उसी से ही तो है। जिस जुलैखा से अपमानित हुए, आज वह मेरी बीवी है, इसी मास्टरी पर…!
दंभ और दुख व्यक्त करते ही उन्हें बुरे दिन याद आते। चढ़ी हुई त्योरी नीचे आ जाती। उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘मनुष्य को अपनी खुशियों के तंबू में अपने बुरे दिनों के कुछ पैवंद लगाए रखना चाहिए…!’
उनके कई मित्र अभी सर्विस में थे। वे बताते, ‘हमदर्द साहब अच्छा हुआ आप लोग इज्जत-व-आबरू से रिटायर हो गए, नहीं तो अब प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक झाड़ूदारों से भी बदतर हो गए हैं। लॉकडाउन में सरकारी शिक्षकों से कई तरह के काम करवाए जा रहे हैं। अब हम लोग मास्टर नहीं, क्लर्क, प्यून, चपरासी, स्वीपर हो गए हैं। पढ़ा आपने – बिहार में प्राथमिक शिक्षकों को मिड-डे मील के बोरों को बेचने के सरकारी फरमान के तहत जब एक हेडमास्टर सर पर बोरे लेकर भरे बाजार में हांक लगा कर बेच रहे थे, तो यह सरकार को बुरा लगा और उसको गिरफ्तार कर लिया गया…!’
-देखिए कल रात के बारह बजे इंस्पेक्टर का फोन आ गया, ‘स्कूल को कायदे से बंद करके आइए। इलेक्ट्रिक स्वीच ठीक से ऑफ़ कर सारी खिड़कियां और दरवाज़े ठीक से बंद कर, दो ताले लगा आइए, क्योंकि मौसम विभाग की सूचना के अनुसार कल बहुत तेज झड़-तूफान आने वाला है।’ सो जा रहा हूँ। मैं ही चार्ज में हूँ, नौकरी बचानी है…।
ऐसे बेढब, बेरौनक़ व्यक्ति को जुलैखा सरीखी सोने के बदन वाली बीवी मिली थी। जो तीन-तीन बच्चे जनने के बाद भी बूढ़ी और बेरौनक़ नहीं हुई थी, जबकि मास्टर जी मर्दानगी से खारिज होने लगे थे।
गांव छूट गया था। लेकिन गांव के घर, खेत, बाग, बगीचे, बचपन के मित्र याद आते…
बच्चे शहरी हो गए थे। उनमें गांव के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। गांव के लोगों को वे पिछड़े, आउटडेटेड और उजड़ समझते थे। यह सब सुनकर हमदर्द कभी-कभी उखड़ जाते और घर का माहौल बिगड़ जाता।
ज़करिया स्ट्रीट के नाखुदा मस्जिद के पास खड़े होकर उस समय के तमाम गाज़ीपुरिए मिलते। घर-बार की खबर लेते-देते। तब संचार क्रांति देश में नहीं आई थी। इस तरह की बैठकों, मेल-मिलाप, मीटिंग से ही परदेसी लोग अपने घर बार की खोज खबर लेते थे। हमदर्द अंदर से फिल्म ‘काबुलीवाला’ के नायक बलराज साहनी की भांति चुप-चुप यह गीत गाना चाहते- ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन।’ हर इतवार को ज़करिया स्ट्रीट की व्यस्त सड़क पर लोग शाम को इकट्ठे होते। फिरनी, चाय खाते-पीते। टोस खाते-खिलाते। पुलिस वाले, व्यापारी, किरानी, अफसर सब खड़े-खड़े एक दूसरे से मिलते। मगर उस गोष्ठी में हमदर्द नहीं जाते। हां, किसी न किसी मा़र्फत उन्हें गांव में होने वाले कार्यकलापों की सूचना मिल जाती।
उन्हें मालूम हुआ कि गांव की पुरानी जुमा मस्जिद बड़ी आलीशान बनने जा रही है। उस मस्जिद से हमदर्द की कई यादें जुड़ी हुई थीं– उन दिनों मस्जिद के सेहन के फ़र्श पर मोज़ैक लगा था, जिसके मसाले को रगड़ कर साफ़ करने के लिए रात में गांव की औरतें अपने–अपने घर से लोढ़ा ले कर आतीं और अपने अपने हिस्से का पत्थर रगड़कर सवाब, पुण्य कमा कर जातीं। हमदर्द भी मां के साथ जाते। बच्चे वाली औरतें अपने बच्चों को भी साथ लिए जाती थीं…।
उन्हें बचपन का वह दृश्य अभी तक याद है- लोढ़ों के घर्षण की घड़-घड़ की आवाज़ से चांदनी रात के सन्नाटे में मस्जिद का परिसर एक प्रकार की काव्यात्मक ध्वनि में गूंज उठता था….। ताक़ भरती युवतियां… भोर रात में लालटेन की मध्यम रोशनी में गीत गाती औरतें… घूंघट ताने नव विवाहिताएं….।
उन्हें आज भी याद है जमीला भाभी का रूप सिंगार। कई बार वह चुपके से बालक वज़ीर से टूटी-फूटी उर्दू में अपने शौहर को खत लिखवातीं, जो कलकत्ता में पुलिस में थे। बालक वज़ीर से उन्हें खत लिखवाने में कई तरह की लोक राज की सुरक्षा थी। हमदर्द को जमीला के जिस्म की लहक की ताप आज तक महसूस होती रहती है, यद्यपि अब वह अगर ज़िंदा होंगी तो कहीं कोने में पड़ी बुढ़ापा काट रही होंगी…। मौलवी अमजद खान की कर्कश अज़ान और सुबह हाफ़िज़ कमरूद्दीन की दिलफरेब अज़ान! ये हाफ़िज़ कमरूद्दीन देखने में तो देव की भांति थे और उनकी आवाज़ बड़ी डरावनी थी। मुग़ल-ए-आज़म में अगर उन्हें अकबर का रोल मिला गया होता तो पृथ्वीराज कपूर से वे बेहतर सिद्ध होते। रूप और वाणी से भी वे बेहतर सूट करते। शायद के. आसिफ़ का दुर्भाग्य था कि वे कमरूद्दीन को नहीं खोज पाए…!
हुआ ये कि एक दिन सुबह की अज़ान देने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति ने ठान ली। फिर क्या था…? कमरूद्दीन और उस शख्स में मार पीट हो गई। हाफ़िज़ कमरूद्दीन वज़ू बना रहे थे, पानी भरे मिट्टी के लोटे को उन्होंने उस व्यक्ति के सिर पर दे मारा! अलसुबह हलचल मच गई।
हमदर्द के वालिद मुसबत खां भी गुज़र चुके थे। कई दिनों तक हमदर्द उदास रहे। मालूम हुआ था कि पिता बहुत कष्ट झेल कर मरे थे। हमदर्द पिता के दुख में चुपके-चुपके बहुत रोए थे। यह दुख वह अपनी पत्नी और बच्चों से भी साझा नहीं कर सकते थे। उनके इस दुख को कौन समझता…?
ग़ाज़ीपुर निवासी कलकत्ता-प्रवासी हमदर्द अब प्रवासी नहीं थे। यहां के स्थायी बासिंदा थे। आस-पास के लोग इज्जत करते थे। ‘मास्टर साहब’ संबोधन उन्हें मिल गया था।
वे गर्मियों में खिड़की पर पानी भरा कटोरा रख दिया करते थे, जो धूप में गर्म होकर भांप छोड़ने लगता…। मगर कोई चिड़िया उनके कटोरे से पानी नहीं पीती। हां, कर्कश काले शरीर वाले कौवे कटोरे को चोंच मार कर गिरा देते। जब वे देखते कि गौरैये नीचे नाली की झंझरी में गिरता नल का पानी अपनी चोंच में भर-भर कर पी रही हैं, तो हमदर्द को गुस्सा आ जाता। फिर वे सोचते- मनुष्यों ने अपने आदि जीवन से लेकर आज तक पशु-पक्षियों पर इतना अत्याचार किया है कि यदि वे चिड़ियों के साथ स्नेह दिखलाना चाहे तो भी उन्हें विश्वास नहीं होता। वे मनुष्य की आहट से ही सतर्क हो जाती हैं। पक्षियों के बीच मनुष्य अपना विश्वास खो चुका है।
अब तो उनके समय का वह गांव भी नहीं रहा… अब प्रायः गांव के घर भी अटैच बाथरूम वाले बनने लगे हैं। घर-घर बिजली की रोशनी चमक रही है। इनवर्टर घर-घर लग गए हैं। हैंड पंप बैठ गए हैं। नलके का पानी भी आ रहा है। जब चाहो पानी, जब चाहो बाथरूम… उस समय घर में पायखाना केवल औरतों के लिए होता था, जिसे सप्ताह-दस दिन में हलखोरिन बांस की खांची में राख से ढंक कर उठा ले जाती और एक मैला खोर पोखरे में डाल आती। कितना अजीब लगता था, उस समय घर की औरतें दरवाजे बंद कर कमरों में जा छुपतीं। केवल राख देने वाली औरत मुंह को दुपट्टे से ढंके बाहर रहती। अब वह ज़माना कहां कि अरहर की दाल गलाने के लिए मां-भाभियां बच्चों से लोटे में नदी का पानी मंगवातीं…! कोई बतला रहा था कि गांव में बगीचे नहीं रहे। वह घना बगीचा जहां दिन के समय भी डर लगता था।
गांव में अब औरतें भी सुबह-सबेरे चहल कदमी, मॉर्निंगवॉक करने लगी हैं! हमदर्द के जमाने में औरतें शाम ढले अंधेरे में किसी के घर मिलने मिलाने जाती थीं तो दरवाज़े पर बैठे खां साहब औरतों की आहट पाते ही गरज कर पूछते- ‘कौन हौव रे ई रात में कहां जात बाडू जा?..भागजा ना ही तअ टांग तोड़ देबे के…!’ और कभी-कभी अंधेरे में उनकी लाठी चल जाती। लालटेन के शीशे टूट जाते।
कुछ ऐसी ख्याति नाम शख्सियतें दिवंगत हुईं जिनकी अर्थी में चार से पांच लोग बस दूर खड़े प्लास्टिक में लिपटे एक अनजान से शव को देख विलाप और बिलख कर घर लौट जा रहे हैं। अगर सामान्य दिनों में उनकी मृत्यु हुई होती तो हज़ारों लोग उनकी अर्थी में जुटे होते…!
यह दुर्दिन, ऐसा मृत्यु का अपमान पहले कभी नहीं देखा था मनुष्य जाति ने… क्या जनाजे की नमाज़, क्या मुखाग्नि…? मृत व्यक्ति बस एक मुर्दा था। अमीर हो या गरीब…! ये अंतिम संस्कार तो बस रस्म अदायगी भर रह गई है…! पशु–पक्षी भी अपनी जाति की मृत्यु पर मृत देह को घेरे शोक मनाते हैं। चिटियां, मधुमक्खियां और बर्रे तो अपनी जाति के जीवों को आहत पहुंचाने वालों पर झुंड के झुंड हमला करते हैं। कौव्वे तो अपने साथी की मृत्यु पर गिरोह बनाकर शोक मनाते हुए सारी बस्ती क्या, पूरी प्रकृति से अपना दुख व्यक्त करते हैं…!
समय बदल गया है। कई तरह की परेशानियों से देश गुज़र रहा है। कोई पृथकवास में है तो कोई सेनेटाइज़ कर रहा है। कोई मुंह पर रूमाल बांधे घूम रहा है। एक आदमी मुंह हाथ सर को ऐसे कपड़ों, रूमाल और दास्तानों से छुपा रखा है कि देख कर डर लग रहा है। साथ में औरत भी उसी तरह निकाब, मोजे और दास्तानें में अपने को छुपाए हुए है। कोई मास्क लगाए हुए है तो कोई डबल ट्रिबल मास्क लगाए घूम रहा है।
सड़कों पर अजीब दृश्य है। आस-पास के मुहल्लों में युवा, बूढ़े आलू-प्याज़ बेच रहे हैं। घर-घर बेकारी पसर गई है। दुकान, बाज़ार, हाट, मार्केट सब बंद हैं। हर ओर एक दहशत का आलम है। हरेक के चेहरे पर परेशानी झांक रही है। अब एक दूसरा रूप बदल कर विपत्ति आई है। लोग आधी-आधी रात से लाइन लगाए हुए हैं। लाइन में लगे लोगों की अजब-गजब बातें हैं। कोई कह रहा है कि आज पहला डोज़ नहीं लगेगा। आज दूसरा डोज़ ही लगेगा। यह देखिए यहां लिखा है। एक गब्बर सिंह जैसा दिखने वाला व्यक्ति बोल रहा है कि यह सब तमाशा है। सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है तो इसी में अवाम को फंसा कर रख रही है। अरे! भाई ज़रा बताइए कि जब इस वैक्सीन से कोई बचाव ही नहीं है फिर जनता को क्यों हल्कान कर रही सरकार…? एक दूसरा सर सैय्यद खां की तरह दाढ़ी टोपी वाला व्यक्ति बोला- ‘कुछ नहीं यह वैक्सीनेशन का तमाशा अगले लोकसभा चुनाव तक चलेगा… तीसरी चौथी लहर के लिए भी अलग से वैक्सीन लेना होगा!’
लोग धूप में खड़े हैं, टीका लेने के लिए। हवा है कि बिना टीका के कार्य स्थल, बैंक, पोस्ट आफिस, ट्रेन, हवाई जहाज़ आदि जगहों पर नहीं जाने दिया जाएगा।
सुन रहे हैं कि यह टीका लेकर कई लोग बीमार हो गए हैं। कुछेक लोग मर भी गए हैं। अपनी उम्र और मौत को सोच कर वे परेशान हैं।
हमदर्द का एक साथी हिंदी टीचर उन्हें फोन पर तुलसी जयंती की बधाई देता है…! तो कुछ क्षण के लिए उन्हें अजीब लगता है। उन्हें याद आया कि ग़ालिब के जन्म दिन पर उन्होंने एक शेर लिख भेजा था- ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किससे हो जुज़ मर्ग-ए-इलाज/शम्मा हर हाल में जलती है सहर होने तक।’
हमदर्द चिंता में हैं कि वह क्या करे…? हिंदी टीचर केशव ने नज़ीर बनारसी की ये पंक्ति लिख भेजी थी, ‘जिस राम को वनवास दिया दशरथ ने/ उस राम को पहुंचा दिया घर-घर तुम ने।’ हमदर्द पहली बार नज़ीर और तुलसी पर गंभीरता से सोचने को बाध्य हुए थे, ‘क्या शायरी है! तुलसी की इतनी व्यापक व्याख्या बस दो पंक्तियों में! यह कितना समन्वय है भारतीय संस्कृति में। मुहब्बत है, सचाई है ..हम जो आपस में लड़ते हैं। कुछ वर्षों में इतनी नफ़रत कैसे घुल गई कि हम अपनी सांझी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं!
हमदर्द को याद आया कि वे कई बार भाषा, संस्कृति और धर्म को लेकर केशव से उलझ चुके थे। बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर केशव से बड़ी तीखी नोंकझोंक हुई थी। कई महीनों तक बात-चीत नहीं हुई, जिसको लेकर हमदर्द शर्मिंदा थे। वे देर रात तक परेशान रहे। इधर-उधर पुस्तकों में तुलसी को ढ़ूंढते रहे। वे केशव से ही पूछ लेते, मगर इसमें हतक महसूस कर रहे थे।
इतवार का दिन था। शहरों में यह दिन उत्सव की तरह होता है। हमदर्द नानवेज से परहेज़ करते थे। मगर परिवार के लोग कहां मानते थे। वे जहां रहते थे, वह एक प्रकार से पशुओं, मुर्गियों, भेड़ों, बकरियों, भैंस, बैल, गाय का क़त्लगाह था। एक तरफ बकरियां कटती थीं, जिसमें भेड़ें भी काट छील कर कसाई मुजम्मिल बकरी के भाव में ही बेच देता था। शरीर से चमड़ी सरकते ही, क्या बकरी बकरा बोका भेड़ा भेड़ी, सब मटन हो जाता है!
शफीक बहुत ही शरीफ स्वभाव का व्यक्ति था। वह खानदानी क़साई नहीं था। पहले चापड़ चलाने में परेशानी होती थी। कई बार उंगलियों में चोट आई। पहले खून पसीने देख कर घबराहट होती थी। लेकिन धीरे-धीरे वह आदी हो गया। वह ग्रेजुएट था। बस कहीं कोई काम नहीं मिला तो यह काम शुरू कर दिया। अब शफीक़ को याद ही नहीं कि उसने किन विषयों के साथ ग्रेजुएशन किया है!
हमदर्द कसाइयों के मुहल्ले से निकलना चाहे थे। पर कई तरह की दुश्वारियां थीं। आस–पास अत्यंत गरीब लोगों की बस्तियां थीं। गाली गलौज वाला मुहल्ला था। लेकिन उस मुस्लिम–बहुल मुहल्ले में प्रतिदिन देश में बढ़ते जा रहे सांप्रदायिक माहौल में सुरक्षा की ज़मानत थी। शफीक़ से हमदर्द की बनती थी। वह मास्टर साहब की इज़्ज़त करता था। वह ग्रेजुएट होकर भी मात्र दस कक्षा पास हमदर्द को बड़े सम्मान से देखता था। हमदर्द दस क्लास पास होकर भी सरकारी पेंशनभोगी थे। मास्टर पुकारे जाते थे।
शफीक के पास कई तरह की मुर्गियां थीं। महीने भर के चूज़े भी थे, जिनका कुछ लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए सूप बना कर पीते थे। यह सोच कर हमदर्द का मन भिन्ना जाता, ‘किसी की जान पीकर कोई सेहतमंद हो सकता है क्या?’
चिकन पर किसी को एतराज़ नहीं था। हर क़ौम-जाति के लोग खाते और उत्सव मनाते। मुर्गियों की सुरक्षा के लिए कोई नहीं था, जैसे वे पशु-पक्षियों के समाज में महादलित हों। हर ज़श्न में उनकी मौत थी।
इसे लेकर घर में भी बीवी-बच्चों से तकरार हो जाती, ‘ख़ंज़र कहीं चले तो तड़पता है दिल ‘अमीर’/ सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है।
हमदर्द को किसी भी रूप में दर्द, अत्याचार, दूसरे पर हो रहा जुर्म बर्दाश्त नहीं होता था। यह तो हमदर्द की बेचैनी और अहिंसक सोच थी जो मुर्गियां कटते देखकर वे परेशान हो जाते और बोलते, ‘देखो शफीक, इसी तड़प को फारसी में ‘मुर्गे दिल, मुर्गे बिस्मिल’ कहते हैं। बड़ी लापरवाही से शफीक जवाब देता, ‘क्या पता सर, अब कुछ भी याद नहीं, क्या फारसी क्या अरबी और उर्दू कुरआन हदीस! सब इस पेशे में लथपथ हैं!’
उस रोज़ हमदर्द चिकन लेने आए तो देखा कि पिंजड़े में औंघती सहज हलाल को तैयार मुर्गियों पर एक सफेद छरहरा उत्पाती मुर्गा उछल-कूद कर रहा है। वह बारी-बारी से औंघती मुर्गियों पर जोश से चढ़ता फिर निराश होकर उतर जाता। जैसे उसे उन मुर्दा दिल हमज़ात से लुत्फ – क्रीडा में मज़ा न आ रहा हो! हमदर्द कुछ देर तक गौर से पिंजड़े को देखते रहे।
शफीक ने हमदर्द को जब उधर देखकर मायूस होते देखा, तो कहा, ‘जहां कोई विरोध नहीं, फिर क्या मज़ा…?’ बस हँस दिया।
शफीक पिंजड़े में हाथ डाल कर एक मुर्गे को पकड़ने लगा। पिंजड़े में जैसे भूचाल आ गया था। वह उछल-कूद करता इस कोने से उस कोने तक भागता-दौड़ता रहा। इस हंगामे में अन्य मुर्गियां दबी-सहमी कुचली जातियों की भांति कुड़कुड़ करती रहीं…! बहुत मुश्किल के बाद हाथ आया लाल टकटक चोंच… सिर पर पताके की भांति लहराती रक्तिम कलगी… पैर पंजे खिले खिले…।
मुर्गा क्या पकड़ा जैसे किसी शत्रु देश का कोई कर्मठ करारा सैनिक ज़िंदा पकड़ा गया हो…!
वह रह-रह कर चोंच मार रहा था। शफीक बोला, ‘ठहर जा बेटा, तेरा खरीदार आ गया है…, तेरी सब मस्ती निकल जाएगी।
इसी बीच एक युवक बाइक लिए आया और खड़े-खड़े चिकन का दाम पूछने लगा। हमदर्द ने देखा कि उसके बाइक के पिछले चक्के के गार्ड पर एक नोटिस चिपकी थी, ‘गर्ल्स, प्लीज़ नो, नाउ माई वाइफ़ इज सो इस्ट्रिक्ट!’ हमदर्द कुछ और गौर करते कि वह फुर्र से उड़ गया।
शफीक पसीना पोंछते हए बोला, ‘यह देखिए सर, तीन किलो दो सौ ग्राम है, दे दें?’
‘हां, चलो दे दो…।’
शफीक उस मुर्गे का गला पकड़ कर ममोड़ते हुए जैसे ही छुरी चलाने जा रहा था, हमदर्द चीख पड़े, ‘नहीं… नहीं रहने दो भाई। मुझसे इसका गला कटा तड़पना देखा नहीं जाएगा। मैं इसे घर ले जाऊंगा, पालूंगा!’
शफीक स्तब्ध था। उसकी छुरी नीचे गिर पड़ी थी!
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