फकीर मास्टर मुहल्ले के प्रसिद्ध लोगों में थे। एक हकीकत यह है कि वे अंत तक हाई स्कूल पास नहीं कर पाए थे। जब भी बेवजह वे पीठ पर कूबड़ बनाते हुए बातें करते, उन्हें देख कर हँसी आ जाती और वे गंभीर हो जाते। बच्चे उनसे खुश रहते और अभिभावक संतुष्ट। बच्चों को प्यार से सिखाना, एक-एक शब्द चिबा-चिबा कर बताना। गरचे वे किसी स्कूल में न थे, फिर भी ट्यूशन से उनकी आमदनी और रोब-दाब कम न थी।
ट्यूशनिया फकीरा का एक बेटा पांच-छह वर्षों का था, वह एक सरकारी स्कूल में पढ़ता था।
एक दिन पत्नी ने उनसे आग्रह किया, ‘अजी, अपने मुन्ने को भी थोड़ा समय निकाल कर कुछ बता दिया कीजिए न। पता नहीं अपने-आप वह कितना पढ़ा-लिखा करता है!’
मास्टर जल्दी में थे, फिर भी उन्हें पत्नी की बात ठीक लगी। उन्होंने बेटे का आवाज दी, ‘मुन्ना! पुस्तक लेकर आओ तो बेटा।’
‘जी पापा, आया।’
‘हां, फटाफट पूछो- तुम्हें क्या नहीं आता। अच्छा छोड़ो, यह प्रश्न हल कर लो!’
मुन्ना चुप-चाप खड़ा रहा। उसने उस अध्याय को देखा भी न था।
‘उल्लू के बच्चे, मेरा मुंह क्या देख रहा है, यह प्रश्न तुझे नहीं आता?’
फकीरा मास्टर लाल-पीला हो गए और दो-तीन तमाचे बेटे को जड़ दिए। कॉपी-किताब उठाकर फेंक दिया और यह बड़बड़ाते हुए ट्यूशन के लिए निकल गए, ‘कमबख्त-बेअक्ल, तुझे कुछ भी नहीं आएगा। इसके चक्कर में आज ट्यूशन में भी देर हो गई!’
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चिराग तले अंधेरा