चर्चित कथाकार। दस कविता संग्रह और ‘कवि का आलोचक’, ‘कविता की प्रार्थना सभा’, ‘कविता का धागा’ तथा ‘शब्द के रफूगर’ (आलोचना) प्रकाशित। संप्रति, बिहार विधान परिषद के प्रकाशन विभाग में।
वह एक भुतहा रात थी, भुतहे रहस्यों के अधीन चांद का चक्कर लगाती हुई…
जिस स्टेशन पर हम बाप-बेटे किसी रेलगाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे, वह स्टेशन भी कम भुतहा नहीं था- यहां न कोई पैसेंजर दिखाई देता था, न कोई रेलवे स्टाफ, न कोई जानवर… कोई काले कपड़े में लिपटा चोर भी नहीं। बस हम बाप-बेटे थे और हमारी निगाहों के सामने प्रेतलोक का आभास देता हुआ स्टेशन था और झींगुर की झीं-झीं थी, हमारे अस्तित्व को सिहराने वाली।
घंटे-आध घंटे पर रेलगाड़ी आती-जाती हुई दिखाई देती जरूर, लेकिन सभी आती-जाती गाड़ियां इस स्टेशन पर रुके बगैर पटरियों का खटर-पटर सुनाती हुई तेजी से गुजर जाती थीं।
‘अब्बा, अब क्या होगा, हम घर कैसे पहुंचेंगे?’
‘मैं क्या कोई पीर-फकीर हूँ या कोई भविष्यद्रष्टा हूँ, जो तुमको बताऊं कि घर कैसे पहुंचेंगे? तुम्हें ही बड़ा शौक था न, उस अनजानी लड़की के पीछे-पीछे, यहां तक आने का। अब भुगतो, इस डराने वाले स्टेशन को और इस डराने वाली रात को।’
अब्बा मेरी बात पर एकदम से गुस्सा हो गए थे। उनका गुस्सा होना एक तरह से वाजिब ही था। मेरे अब्बा मुझे जिस अनजानी लड़की का ताना दे रहे थे, मेरे लिए वह, कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं थी, बल्कि सच्चे किस्से-कहानियों वाली परी थी।
वह परी लड़की अचानक एक रोज मेरे घर तक, घर के बाहर बंधी, अपनी मां का दूध पीते मेरे खूबसूरत दिखने वाले मेमने के पीछे भागती हुई चली आई थी। मेरा मेमना उस लड़की से घबराकर सीधे घर के भीतर की तरफ ‘में-में’ करता भागा चला आया था। मैं भी उसी वक्त घर से अपनी दुकान के लिए निकल रहा था। मेमना मेरे दोनों पांव के बीच से भागता हुआ घर में जा घुसा था, मगर वह लड़की सीधे मुझसे आ टकराई थी। सिर्फ टकराई ही नहीं, मुझे लिए-दिए जमीन पर आ गिरी थी। कमाल की बात यह थी कि जिस तेजी से वह मुझे लिए-दिए जमीन पर गिरी थी, उससे कहीं ज्यादा तेजी से उठकर घर से बाहर की तरफ भाग खड़ी हुई थी।
उसके इस तरह से आने और जाने के बाद उसके बदन की मदहोश कर देने वाली खुशबू मेरे घर के वातावरण में तैरती हुई जरूर रह गई थी। इतना ही नहीं, उसके दोनों जवान सीने की गर्मी, मेरे सीने को उस वक्त भी महसूस हो रही थी। उसका यौवन करिश्माई था। इतना करिश्माई कि मैं जैसे उसी का होकर रह गया था।
उस दिन घर की जमीन पर से हड़बड़ाता-सा उठकर लालबुझक्कड़ बना अपनी दुकान जाकर चुपचाप बैठ गया था। दुकान जाते वक्त रास्ते में मैं इधर-उधर उसे ही ढूंढ़ता रहा था, जो कहीं दिखाई नहीं दे रही थी।
क्या वह लड़की सचमुच की परी थी, जो चाहे जहां-तहां आ-जा सकती थी और जरूरत पड़ने पर अदृश्य भी हो सकती थी?
दिन भर उसी की याद में खोया और यही सब सोचता दुकान पर बैठा रहा। अचानक ख्याल आया कि वह मेरे मेमने के पीछे भागती हुई मेरे घर तक आई थी। अब मेरा मेमना ही उसे फिर से मुझ तक ला सकता था।
अगले दिन दुकान के लिए घर से चला तो मेरी गोद में मेरा मेमना भी था। मेमने को मैंने नहला-धुलाकर साफ-झक कर दिया था। उसके बदन पर इत्र भी मल दिया था। घर वाले मेरी इस हरकत पर बस हँसकर रह गए थे। मुझे पूरा विश्वास था कि जब वह लड़की घर तक आ सकती थी तो मेरी दुकान तक भी जरूर आएगी।
उस दिन मैंने दुकान खोली जरूर थी, लेकिन किसी ग्राहक को अपनी दुकान पर चढ़ने नहीं दिया था। ग्राहक मेरे इस रवैये से नाखुश होते और अगली दुकान के लिए बढ़ जाते। मुझे इस बात का कोई दुख या मलाल न था। बस इस बात का ख़ौफ़ था कि अगर अब्बा को यह बात मालूम पड़ गई कि उनके ग्राहकों को मैंने दुकान पर चढ़ने नहीं दिया है तो मेरे अब्बा छड़ी से मारकर मेरा चूतड़ जरूर सूजा देंगे।
अपने खूबसूरत मेमने को मैंने रस्सी से दुकान के बाहर बांध दिया था और उसके खाने के लिए घास भी दे दी थी। मेमना घास खाने के लिए अपनी गर्दन ऊपर-नीचे करता तो उसके गले में बंधी घंटी टुन-टुनकर बज उठती। टुन-टुन की यह आवाज मुझे काफ़ी पसंद थी।
‘क्या वह लड़की सच में मेरे मेमने के लिए यहां तक आएगी? क्या उसे मेरे मेमने से इश्क हो गया है? अगर वह लड़की सचमुच की परी होगी तो उसको जादू भी तो आता होगा? अगर ऐसा है तो वह अपने जादू से मेरे मेमने को कोई खूबसूरत राजकुमार बनाकर उससे ब्याह तो नहीं कर लेगी?’
इसी सब उधेड़बुन में मुझे दुकान पर बैठे-बैठे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला। मेरी नींद तब जाती रही, जब अब्बा की डांट से भरी आवाज सुनाई दी, ‘नालायक़ कहीं के, क्या दुकानदारी ऐसे की जाती है!’
इतना कहते हुए अब्बा ने मुझे लगभग खींचते हुए दुकान से बाहर कर दिया था और खुद दुकान पर आ बैठे थे। यह तो अच्छा हुआ कि उन्हें अपनी पतली छड़ी की याद नहीं आई। याद आ जाती तो आज मुझे मार खाने से कोई भी बचा नहीं सकता था।
अब्बा की झिड़क से नाराज जब मैं घर के लिए एक गली से दूसरी गली पहुंचा, तब ख्याल आया, मेरा मेमना तो दुकान के बाहर था ही नहीं। फिर ख्याल आया शायद वह लड़की सचमुच की परी ही थी, जो मेरी दुकान तक आई और अपने उड़ने वाले पंखों के सहारे मेरे मेमने को उठा ले गई और इस बात की भनक तक मुझे नहीं लगने दी।
मेरे मेमने के गायब होने का नतीजा यह निकला कि बकरी अपने बच्चे को न पाकर बस भें-भें करती रहती। अब्बा उसकी भें-भें का ग़ुस्सा मुझ पर डांट-फटकारकर निकालते रहते। घर के बाकी मेंबर इस बाबत कुछ भी कहने से परहेज करते। उन्हें पता था कि इससे मेरे अब्बा को शह मिलेगी। वे मुझे और डांट-फटकार लगाएंगे।
मेमने के गायब होने के दिन से मैंने दुकान जाना लगभग छोड़ दिया था। दुकान जाने का जी ही नहीं करता था। अब्बा ही दुकान पर आते-जाते। बकरी की भें-भें अब कम हो गई थी। मगर अब्बा की चिल्लपों कम होने का नाम ही नहीं लेती थी। वे मेरे दुकान न जाने से ख़फ़ा रहते। कहते, ‘लड़की न हुई, जी का जंजाल हो गई। पता नहीं, यह लड़का, कब उस जादूगरनी के जादू से बाहर निकलेगा।’
अम्मी उनसे कहतीं, ‘जवान-जहान लड़का है। ज्यादा मत डांटा करिए। अनाप-शनाप कुछ कर बैठा तो आप ही पछताएंगे।’
अब्बा पर अम्मी की इन बातों का असर यह हुआ था कि उन्होंने मुझे डांटने के बजाय प्यार से समझाना शुरू कर दिया था, ‘तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारा मेमना वही लड़की उठा ले गई है, कोई बकरी चोर भी तो ले जा सकता है? हमारी बस्ती इस मामले में कैसी है, तुमको तो पता ही है। अभी कुछ दिन पहले ही तो तुम्हारी खाला का खस्सी चोरी हुआ है।’
‘नहीं अब्बा, उस लड़की को मेरे मेमने से प्यार हो गया था। तभी वह मेरे मेमने को इस तरह ले गई। वह उसको अपनी जादुई छड़ी से खूबसूरत राजकुमार बना देगी, फिर राजकुमार बने मेमने से शादी कर लेगी। उसके सिवा मेरे मेमने को और कोई ले ही नहीं जा सकता।’ मैंने जोर देकर कहा था।
‘क्या पागलों जैसी बातें करते हो। सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें उस लड़की से इश्क हो गया है?’ अब्बा ने बहुत दिनों बाद मुझसे उस लड़की को लेकर मजाक किया था।
अब्बा की बातों ने मेरे शरीर के बहते हुए लहू में एकाध किलो लहू का और इजाफा कर दिया था।
मेरे अब्बा की उम्र साठ की होने वाली थी। लेकिन दिखने में पैंतालीस-पचास साल से ज्यादा के नहीं लगते थे। अब्बा कसरती बदन के मालिक थे। हालांकि अपने अब्बा को मैंने कभी कसरत करते नहीं देखा था। अब्बा को देखकर मेरे मन में बार-बार यह भी ख्याल आता था कि उनकी तरह अच्छी सेहत का मालिक मैं क्यों नहीं हुआ?
‘कल बस्ती में मेला है। दुकान में भीड़ होगी। आज की रात खा-पीकर सवेरे सो जाओ। कल से तुम्हें पहले की तरह दुकान पर जाना है। अब बहुत हो गया परी और राजकुमार वाला किस्सा।’ अब्बा ने यह बात काफी गंभीर स्वर में कही थी।
मैं उनकी हां में हां मिलाते हुए सीधे अपने कमरे में चला गया था। पीछे मुड़कर मैंने यह नहीं देखा कि मेरे अब्बा के चेहरे का भाव कैसा था।
मेरी बस्ती अमीर और गरीब लोगों की मिली-जुली बस्ती थी। इसमें फर्क इतना-भर था कि अमीर लोग शहर के शॉपिंग मॉल जाकर अपनी जरूरत का सामान खरीद लाते थे और गरीब लोग हर महीने की आखिरी जुमेरात को बस्ती में लगने वाले मेले से अपनी जरूरत का सामान ले लेते थे।
हमारी खाद्य-सामग्री की दुकान मेरे दादा के जमाने से थी। दादा के इहलोक से निकलकर परलोक जाने के बाद मेरे अब्बा की जिम्मेदारी दुकान को संभालने की थी। फिर मेरे ग्रेजुएट होने के बाद अब्बा ने जिद पकड़ ली कि मैं बजाय सरकारी नौकरी ढूंढ़ने में वक्त जाया करने के, वही खानदानी दुकान संभाल लूं। आटा, दाल, तेल, नमक आदि की हमारी दुकान माशाअल्लाह खूब चलती थी। मैं मर्द में अब्बा के बाद अकेला था यानी मुझे कोई दूसरा भाई नहीं था। एक बहन थी, जो दुकान पर बैठ नहीं सकती थी, सो अब्बा से ज्यादा दुकान को संभाले रखने की जिम्मेदारी मेरी भी हो गई थी।
दूसरे छोटे शहरों की रवायत के बारे में मुझे जानकारी नहीं थी कि वहां अब भी साप्ताहिक या मासिक मेला-ठेला लगता है या नहीं। मेरे शहर ने पुरानी रवायत को अब भी बचाकर रखा हुआ था। यहां लगने वाले मेले में खूब भीड़ होती। आप जो भी चीज चाहें, खरीद सकते थे। बाईस्कोप देख सकते थे। मुर्गे लड़ा सकते थे। पतंगबाजी कर सकते थे। हाथी, ऊंट और घोड़े की सवारी कर सकते थे। चाहें तो बन-ठनकर आईं लड़कियों से नैन भी लड़ा सकते थे। अगर लड़कियों ने, आपकी छेड़-छाड़ का विरोध कर दिया, तब आपकी खैर नहीं। आपकी धुनाई तय थी। यही वजह है, हमारी बस्ती में लड़कियों को परेशान करने वाली घटनाएं कम हुआ करती थीं।
आज की जुमेरात का मेला कुछ अलग तरह की खूबसूरती बिखेर रहा था। कलाबाजी दिखाकर अपनी आजीविका चलाने वाली नट बिरादरी की औरतें कई तरह का जोखिम उठाने वाले करतब दिखा रही थीं। वे औरतें पास की एक छोटी बस्ती से आया करती थीं। मैंने सुन रखा था कि उनकी बस्ती तक सरकारी सुविधाएं नहीं के बराबर पहुंची हैं। तभी वे खुद मेहनत करतीं और अपने घर का ख्याल रखतीं। उनकी बस्ती में आने–जाने का बस एक ही साधन था, उनके सामानों को ढोने वाली गाड़ियां। उनके मर्द लोग जड़ी–बूटियां बेचते थे और वे खुद कई तरह के करतब दिखाकर पैसे कमाती थीं।
मुझे इस मेले वाले दिन से इतना-सा लेना-देना था कि दुकान की बिक्री बढ़ जाती थी। बिक्री बढ़ जाने से मुनाफा भी बढ़ जाता था। मुनाफा बढ़ जाता था तो हम भाई-बहनों को अब्बा के दिए तोहफे बढ़ जाते थे।
‘चलो, आज मेला घूम आते हैं। खाना-कमाना तो रोज ही होता रहता है।’ यह मेरे अब्बा की आवाज थी। अब्बा की आवाज में आज डांट-डपट नहीं थी, दुलार था।
‘तो क्या दुकान बंद कर दें अब्बा?’ भौचक्का होकर मैंने उनसे यह सवाल पूछ लिया था।
‘यार, तुम्हें किस मुंह से बताएं कि आज मेला-तमाशा देख आते हैं’ अब्बा की आवाज में वही दुलार था, ‘अभी से कल तक के लिए दुकान बंद।’
मैंने भी आनन-फानन में दुकान का शटर गिरा दिया था। मौसम बढ़िया था – न गर्मी, न जाड़ा। बीच का मौसम।
आज मौसम अपना तमाशा दिखा रहा था और मेरे अब्बा हुजूर अपने मन का तमाशा दिखा रहे थे, ‘क्या कहते हो, चलें नट औरतों के करतब देखने?’
‘अब्बा, इस उम्र में आप औरतों के करतब देखेंगे तो अम्मी आपसे कुछ कहेंगी नहीं?’ मैंने अब्बा से शरारत करने वाले सवाल किए।
‘इसमें तुम्हारी अम्मी को क्यों बुरा लगेगा?’
‘बुरा तो लगेगा न अब्बा, आपकी उम्र जमीन पर मुर्गे लड़ाने की है और आप हैं कि आसमान की पतंग से अपनी पतंग लड़ाना चाहते हैं।’
अब्बा ने मेरे कहने का सही मतलब निकाला था, ‘तुम कहां की बात कहां लिए जा रहे हो मियां, मैं तुम्हारी अम्मी से बहुत प्यार करता हूँ।’
‘सॉरी अब्बा, मैंने तो बस मजाक में…’
‘आइंदा इस तरह का मजाक मत करियो, वरना मारकर-मारकर तुम्हारा भुरता बना देंगे।’
अब्बा सीरियस हो गए थे। मुझे सच में नहीं पता था कि मेरे अब्बा मेरी अम्मी से इस कदर प्यार करते थे।
‘सॉरी अब्बा, फिर से सॉरी!’
‘चलो माफ़ किया।’ अब्बा का छोटा-सा जवाब मिला।
जब हम मेला पहुंचे तो हर तरफ खुशियां बिखरी दिखाई दे रही थीं।
हर तरफ चहल-पहल थी। चेहरे से बुर्का उठाए हुए नई उम्र वाली लड़कियां कुछ ज्यादा ही हसीन नजर आ रही थीं। वहीं लड़कियों की अम्माएं और खालाएं अपने चेहरे तक पूरा बुर्का पहने हुए थीं, जैसे कोई इनके चेहरे को देख लेगा तो बड़ी-सी आफत आ धमकेगी। उनको इस बात की खबर ही न थी कि उनके घरों की नई उम्र वाली लड़कियां हम नौजवानों के लिए मेले में इधर-उधर आफत बनीं हवा पर उड़ती फिर रही थीं।
मेरे अब्बा को इन सबसे कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें तो बस नट औरतों के करतब देखने थे। और वे मुझे लगभग घसीटते हुए उन्हीं औरतों के तंबू की तरफ लिए चले जा रहे थे।
‘अब्बा, आप इतने उतावले क्यों हुए जा रहे हैं? मेला खत्म होने में अभी काफी वक्त है।’
अब्बा ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया। वे बस मुस्कराकर रह गए।
अब्बा को मैंने इतना शांत और इतना प्रसन्न इससे पहले कभी नहीं देखा था। मेला पहले भी लगा था। नट औरतों ने पहले भी अपने करतब दिखाए थे। अब्बा को कभी इन सब चीजों से कोई मतलब नहीं रहा था। बस उन्हें इस बात से मतलब था कि उनको मेले के दिन मुनाफा कितना हुआ। आज तो उन्होंने मुनाफे की फिक्र भी छोड़ रखी थी।
‘क्या अब्बा को किसी नट औरत से प्यार हो गया है! नट औरतें बला की सुंदर जो होती हैं, अपने ब्लैक एंड व्हाइट हुस्न वाले रंगों की जादूगरनी? न-न, अब्बा भला अम्मी को छोड़कर किसी दूसरी औरत के चक्कर में क्यों पड़ने लगे?’
मैं इन्हीं सब ख्यालों में खोया हुआ अब्बा के साथ घसीटा चला जा रहा था। मेरा घसीटा जाना जब रुका तो मैंने खुद को नट औरतों के तंबू के पीछे वाले हिस्से में पाया।
हमारी बस्ती रेलवे लाइन से सटकर बसी हुई थी। रोज ट्रेनें आतीं-जातीं। ट्रेनों के आने-जाने से एक हलचल-सी होती और फिर शांत हो जाती।
यहीं पर रेलवे का एक बड़ा-सा जमीन का खाली टुकड़ा था। वह इतना बड़ा था कि बस्ती का हर छोटा-बड़ा काम पूरा हो जाता। बस्ती के क्रिकेटर बच्चे यहीं क्रिकेट खेलते। बस्ती के फुटबॉलर बच्चे यहीं परफुटबॉल खेलते। बस्ती की बच्चियां तक यहीं आकर इक्कट-दुक्कट खेलतीं। बस मेले वाले दिन मेला लगाने वालों का कब्जा होता।
पटरी से दूर हटकर तंबू लगाए जाते। तंबू मेले में सामान बेचने वालों का अपना घर भी हो जाता और दुकान भी। मेले वाले रोज बस्ती के सारे लोगबाग एक अलग ही सजधज में दिखते।
मेला लगाने वाले अपना तंबू साथ लाते और जुमे की सुबह तक सारे तंबू खाली कर जाते। फिर महीने की आखिरी जुमेरात आने तक क्रिकेटर, फुटबॉलर और इक्कट-दुक्कट वालियों का कब्जा होता।
अब्बा ने उस दिन एक अजीब हरकत की थी। वे नट वालियों के करतब न देखकर उनके तंबू के पीछे आकर खड़े हो गए थे और एक तंबू में चाकू से छेद करते हुए हुलास मारते हुए कहा था, ‘देख लो अपनी पसंद की लड़की को।’
मैं अब्बा की कही हुई बात पर चौंक-सा गया था, ‘मेरी पसंद की लड़की! मेरी पसंद की लड़की तो वह परी थी, जो एक झलक दिखलाकर कहां-न-कहां गायब हो गई थी।’
‘बरखुरदार, देख लो अपनी परी को, बाद में मुझे मत कहना कि मैंने अच्छे बाप होने का फर्ज नहीं निभाया!’
मैंने अब्बा के चाकू से छेद की हुई जगह से तंबू के अंदर झांककर देखा- वाकई में वही लड़की थी, जो मेरे मेमने के पीछे मेरे घर तक आई थी और मुझे अपना दीवाना बनाकर गायब हो गई थी। लड़की तंबू में आराम से मेरे मेमने को चारा खिला रही थी।
मैं खुशी में अब्बा से इस तरह लिपट गया, जैसे वे मेरे पिता न होकर कोई दोस्त हों।
‘ये क्या करते हो, मैं तुम्हारा बाप हूँ, तुम्हारा कोई दोस्त नहीं!’
अब्बा के मुंह से यह बात थोड़ी जोर से निकल गई थी। अब्बा की आवाज ने लड़की का ध्यान हमारी तरफ खींच लिया था।
‘अरे!’ परी लड़की ने हमारी तरफ़ पलटकर देखते हुए बस इतना कहा और मेमने को गोद में उठाकर आगे की तरफ से हमारी आंखों से फिर ओझल हो गई।
हम अभी कुछ समझ पाते कि तंबू की उस तरफ से अचानक ‘चोर-चोर’ की आवाजें सुनाई देने लगीं। हम समझ गए थे कि लड़की ने हमको चोर जानकर हमारे बारे में अपने लोगों से कह दिया होगा।
‘अब्बा, अब क्या होगा?’
‘होगा क्या, वही होगा, जो चोरों के साथ होता आया है।’
‘लेकिन चोर तो वह लड़की ठहरी न, जिसने मेरे मेमने को चुरा लिया है और मेरे दिल को भी चुरा लिया है?’
ये बातें मैंने मासूमियत से कही थीं, सो अब्बा चुप रहे। अब ‘चोर-चोर’ की आवाजें उस तंबू के करीब होती दिखाई दे रही थीं। इससे कबल कि मैं कुछ और कहता, अब्बा ने मुझे जोर से घसीटकर, पटरियों के उस पार वाली बस्ती में ले लिया था।
दूसरे दिन जब हम अपने घर के करीब पहुंचे तो मस्जिदों से फजर यानी सुबह के समय पढ़ी जाने वाली नमाज की अजान दी जा रही थी। रात भर हम एक परिचित के यहां पड़े रहे थे, बस इस खौफ से कि तंबू के पास किसी ने देख लिया हो तो वे हमें पहचान न लें और यह न पूछ लें कि हम बाप-बेटे नट औरतों के तंबू के पास कर क्या रहे थे?
घर पहुंचे तो घर का दरवाजा अम्मी जान ने खोला था। उस वक्त अम्मी का चेहरा चमक रहा था। अम्मी वुजू की हालत में थीं। उनके चेहरे के चमकने की वजह उनका बावुजू होना था।
‘आप बाप-बेटे रात भर कहां रहे, हम सब आप दोनों को फोन कर-करके थक गए। मैं अब तक इस उम्मीद में जागी हुई थी कि आप दोनों कब घर आ जाएं। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। कहां से आ रहे हैं आप बाप-बेटे?’
हमने बस एक-दूसरे का मुंह देखा और घर के अंदर दाखिल हो गए। यह सच बात थी कि घर वालों के कई-कई फोन हमको आते रहे थे, लेकिन हमने फोन को साइलेंट मोड में कर रखा था। दरअसल मूड इतना ख़राब था कि हम किसी का फोन उठाना ही नहीं चाहते थे।
उस दिन मैं सोया तो कितनी देर तक सोता रहा, इस बात की खबर तब लगी, जब मेरी बहन ने मेरे मुंह पर पानी का छींटा मारकर उठाया।
‘भाई जान, आप और कितना सोते रहेंगे, दोपहर की नमाज का वक्त भी हो चला है।’
मैं हड़बड़ा–सा गया था। मेरे मुंह से बस इतना निकला, ‘अब्बा उठे कि नहीं?’
‘अब्बा उठे भी और तैयार होकर दुकान भी जा चुके।’ बहन ने शरारत भरी मुस्कान के साथ जवाब दिया।
‘अब्बा दुकान क्यों चले गए, मुझे उठा दिया होता।’
उन्होंने ही इस बात की ताकीद की थी कि जब तक आप खुद न उठें, आपको उठाया न जाए। अब्बा यह भी बता रहे थे कि आपके दिल को ठेस लगी है। किस बात की ठेस लगी है भाई आपको?’
मेरी बहन के सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था।
‘भाई, एक मुहावरा है ठेस लगे बुद्धि बढ़े।’
मैंने बहन की बात पूरी ही नहीं होने दी थी। उसे डांटकर भगा दिया था। कल रात वाली घटना से मुझे गहरा सदमा लगा था। वह लड़की मेरी बस्ती में आती-जाती रही और मैं था कि बस उसे अपने ख्वाबों में ढूंढ़ता मारा-मारा फिरता रहा था।
‘अल्लाह भी कैसे-कैसे करामात दिखाता है’ यही सब बात सोचते हुए मैं सीधे बाथरूम जा घुसा। फिर बाथरूम में झरने के पानी के साथ अपने सदमे को झटकारते हुए हैदर अली आतिश का शे’र गुनगुनाते हुए बाहर निकल आया :
ऐ सनम, जिसने तुझे चांद-सी सूरत दी है,
उसी अल्लाह ने मुझको भी मोहब्बत दी है।
मेरी बहन मुझे इस तरह खुश देखकर खुद भी खुश हो गई थी। मैंने उससे कुछ कहना जरूरी नहीं समझा था। उसको टोकने का मतलब था कि फिर उसी मुहावरे को दुहरा-दुहराकर वह मुझे फिर से तंग करती। वैसे उसने अच्छा मुहावरा सुनाया था, ‘ठेस लगे बुद्धि बढ़े।’
मेरी दुकान मेरे घर से दूर थी, सो आज मैंने अपनी साइकिल निकाली और दुकान की तरफ चल पड़ा। वैसे अमूमन मैं पैदल ही अपनी दुकान जाना पसंद करता था।
आज मेरी साइकिल की रफ्तार इतनी ज्यादा थी कि मेरे सिर पर की नमाजी टोपी उड़कर बस्ती की एक छुईमुई-सी लड़की के सिर पर जा अटकी। अचानक उसके सिर पर टोपी आ जाने से उसके मुंह से निकला, ‘हाय अल्लाह, ई निगोड़ी टोपी मेरे सिर कहां से आ बैठी!’
उसके इस डायलॉग पर मुझे हँसी आ गई। मैंने अपनी टोपी के लिए वहां पर रुकना ठीक नहीं समझा। बस साइकिल के पेडल पर पांव मारता हुआ उस लड़की की बगल से गुजर गया। टोपी के बगैर मेरे सिर के बाल हवा में गेहूं की बालियों की तरह मस्त लहरा रहे थे। आज साइकिल के पीछे अब्बा हुजूर बैठे होते तो मुझे इतनी तेज साइकिल कभी चलाने नहीं देते, क्योंकि अब्बा ने मुझे अभी तक इस खौफ से मोटरसाइकिल नहीं दिलाई थी कि आजकल के लड़के मोटरसाइकिल तेज रफ्तार चलाते हैं और अक्सर एक्सीडेंट कर जाते हैं।
मैं जब दुकान पहुंचा, कई बुर्के वालियां दुकान से सामान लेकर लौट रही थीं। उन बुर्के वालियों में से एक ने मुझे बुर्के के अंदर से ध्यानपूर्वक देखा और बाकी बुर्के वालियों की निगाहों से बचते हुए मेरे गाल छू लिए। मैं सकपका गया था। लेकिन अब्बा ने उस बुर्के वाली की इस हरकत को देख लिया था और शर्म से मेरे लाल हुए गाल को भी।
‘कमबख्त की मारियां, कभी मेरे गालों को भी छूकर देख लेतीं। क्या मेरे लौंडे से मेरे गाल कम लुभावने हैं।’
अब्बा को लगा था कि मैंने उनकी कही हुई बातों को नहीं सुना। जभी तो अब्बा ने मुझसे कहा, ‘तब शमशाद मियाँ, नींद पूरी हुई कि नहीं?’
अब्बा, आपने तो मुझे गुनहगार बना दिया। जवान बेटा घर में सोया रहे और बूढ़ा बाप दुकान संभाले।’
अभी मैंने इतना ही कहा था कि अब्बा हत्थे से उखड़ गए, ‘लानत हो तुम पर! अपने जवान बाप को बूढ़ा कहते हुए शर्म नहीं आई तुम्हें!’
मैं सीधे अब्बा के सीने से जा चिपका, ‘माफ करें अब्बा, मेरे मुंह से बस यूं ही बूढ़ा शब्द निकल गया। आप जैसा जवान आदमी तो इस पूरी बस्ती में नहीं होगा।’
‘हां, अब सही कहा लौंडे तुमने!’
‘अब्बा, देखिए, आप भी तो मुझे लौंडा कह रहे हैं?’
‘तुमसे इसीलिए कहता था कि ऑनर्स में उर्दू साहित्य रख लो बरखुरदार, लेकिन तुम माने ही नहीं। लौंडे का मतलब बेटा भी होता है। उर्दू पढ़े-लिखे होते तो आज अपने बाप से मुंहजोरी न करते!’
माफ करें अब्बा, मैंने खुद को शादी-ब्याह में नाचने वाला लौंडा समझ लिया था।’
‘चलो माफ किया बरखुरदार।’
इतना कहकर अब्बा साइकिल से चले गए थे। उनके जाने के बाद मैंने फिर से उस लड़की तक पहुंचने की खातिर अपने ख्यालों की पतंग उड़ानी शुरू कर दी थी। यही कि उस परी लड़की से ब्याह करेंगे तो हमीं करेंगे। दिल ने पूछा, ‘यह कैसे मुमकिन है?’
मेरे दिल ने सही पूछा था। अब्बा की सख़्त हिदायत जो थी कि अब मैं उस लड़की का ख्वाब देखना छोड़ दूं। लेकिन ख्वाब इतना खूबसूरत था कि हर रात उसी परी लड़की की आरजू लिए मैं बिस्तर पर करवटें बदलता रहता।
एक रात घर में इतने मेहमान की आमद हो गई कि अब्बा को मेरे कमरे में सोना पड़ा था। मेरी बेवकूफी देखिए कि अब्बा के साथ सोते हुए भी मैंने उस परी लड़की को अपने ख्वाब में आने दिया। इतना ही नहीं, नींद में ‘परी-परी’ बड़बड़ाने से, मेरी उस लड़की से बेपनाह प्यार वाली बात का राज अब्बा पर एक बार फिर से जाहिर हो गया और मेरे ऊपर जैसे आफत आ पड़ी। जो अब्बा दोस्त सरीखे हो गए थे, वही अब्बा आज फिर कमरे में पड़ी छड़ी से मेरे चूतड़ों को लाल करने से बाज नहीं आए।
‘यार, ये अब्बा कब सचमुच के अब्बा बनेंगे। मैं कोई आठ-नौ साल का बच्चा अब थोड़े ही रहा। अब जवान हो चुका हूँ। छोटा था, तब नमाज न पढ़ने की वजह से वे मेरे चूतड़ों को लाल किया करते थे। अब बड़ा हो गया हूँ तो किसी से मुहब्बत न करने की कसम देकर मेरे चूतड़ों को इस तरह…’
अब्बा ने जैसे मेरे दिल का हाल जान लिया था। उन्होंने समझाया, ‘शमशाद मियां, मैं अपने शौक को पूरा करने के लिए तुम्हें नहीं मारा करता। तुम्हारी जिद ही ऐसी होती है कि ऐसा-वैसा करने के लिए मैं मजबूर हो जाता हूँ। तुम्हारी वजह से उस रोज हम चोर समझकर पकड़ लिए जाते तो जात-बिरादरी में हमारी क्या इज्जत रह जाती?’
‘नहीं अब्बा, अब हम यह सब नहीं सहेंगे। अब मैं बड़ा हो गया हूँ। पूरी दुकान संभालने लगा हूँ। जहां तक उस रोज की बात है तो आप ही ले गए थे न मुझे मेरी परी को दिखाने।’
मैं और भी न जाने क्या-क्या अब्बा से कहता चला गया। अब्बा ने मेरी जबानदराजी पर फिर से पीटना चाहा कि अचानक से मेरे सारे रिश्तेदार मेरे कमरे में इकट्ठा हो गए थे और मैं छड़ी की मार खाने से बच गया था।
उस रोज अब्बा की पिटाई से मैं बच क्या गया था, उसका नतीजा यह निकला कि हम बाप-बेटे इस भूत-प्रेत वाली रात को स्टेशन पर किसी डरी आत्मा की तरह एक-दूसरे को देखे जा रहे थे। सच में, हमारी इस कदर पिटाई हुई थी कि हमारे बदन पर पड़े हमारे कपड़ों तक के चिथड़े-भर दिखाई दे रहे थे।
हुआ यूं कि उस परी लड़की की जिद न छोड़ने की वजह से अब्बा ने नट समाज के ठिकाने पर चलने का फैसला ले लिया था। अब्बा ने किसी तरह उन लोगों के रहने के ठिकाने का पता कर लिया था, क्योंकि नट लोगों का कोई एक ठिकाना कभी हुआ कहां है। उन्हें अपनी आजीविका के लिए यहां-वहां भटकते रहना होता है।
अब्बा को यह पता चला कि हमारी बस्ती से दस-पंद्रह किलोमीटर दूर एक गैर-आबाद इलाके में उनका बसेरा था। वहां आने-जाने के लिए कोई सवारी नहीं थी। नट लोग भी मेले के दिन आते तो भाड़ा पर लिए माल-असबाब लादने वाली गाड़ियों से आते और फिर उन्हीं गाड़ियों से लौट भी जाते।
अब्बा ने तय किया कि हम अपनी साइकिल से वहां चलेंगे।
और सचमुच अब्बा ने साइकिल के पीछे लगे कैरियर पर मुझे बैठाया था और निकल पड़े थे मेरी परी की खोज में। रास्ते में अब्बा थके दिखाई देते तो मैं उन्हें कैरियर पर बैठाकर साइकिल चलाता। हम दोनों के लिए यह अनजानी जगह थी। रास्ते में कोई बड़ी आबादी नहीं मिली। बस इक्का-दुक्का किसान के घर मिलते, उनके मवेशी मिलते और बाकी बस घना जंगल-सा दिखाई देता। एक बात मैंने यह जरूर नोट की थी कि रेल की पटरियां इस जगह से होकर गुजरी हुई थीं। एक के बाद एक करके रेलगाड़ी गुज़रती हुई दिखाई भी दी थी, मगर काफी देर-देर पर।
‘मालूम नहीं, मेरी परी के घर वालों को ऐसी जगह से प्यार क्यों है, जहां दूसरे लोगों का आना-जाना नहीं होता।’ मैंने मन ही मन सोचा।
तभी अब्बा ने कहा, ‘मेरे हिसाब से उन तक पहुंचने के लिए एकाध किलोमीटर और बचा होगा।’
अब्बा की इस बात से मेरे भीतर एक अलग तरह की गुदगुदी-सी महसूस हुई। इस गुदगुदी ने मेरे पूरे शरीर को जैसे झनझना दिया था।
और सच में, थोड़ी दूर चलने के बाद नट समाज के लोग दिखाई देने लगे थे। उनके बच्चे, उनके बड़े, उनकी औरतें सब कुछ-न-कुछ करते दिखाई दे रहे थे। बच्चे छोटे-छोटे बरतनों में कहीं से पानी भरकर ला रहे थे। मर्द लोग प्लास्टिक के बने फूलों को प्लास्टिक के फूलदान में सजा रहे थे। यानी मेले के दिन बिकने वाले सामानों को बिकने लायक बनाने में लगे थे। औरतें भी इन कामों में अपने मरदों का साथ दे रही थीं। वे सब हमें एक नजर देखतीं और अनजान मुसाफिर जानकर कुछ भी टोकने से गुरेज करतीं।
हमें यहां तक आने में लगभग शाम हो गई थी, लेकिन आदमियों का शोर हर तरफ था। नटों की बस्ती को हम जिंदा आदमियों की बस्ती कह सकते थे, लेकिन इन जिंदा आदमियों में मेरी परी कहां और कैसे मिलेगी, यही सोचकर मैं परेशान हुआ जा रहा था।
तभी अब्बा ने एक अधेड़ नट के करीब अपनी साइकिल रोक दी। अब्बा के ऐसा करने से मैं कैरियर से नीचे उतरकर खड़ा हो गया। अब्बा ने अपने सिर पर पहनी नमाजी टोपी ठीक की, फिर उस आदमी से पूछा, ‘भाई, हमको एक मेमना चाहिए था, घर में पालने के लिए। क्या आपके पास है?’
‘नहीं जी, मेरे पास बकरी नहीं है तो मेमना कहां से होगा?’ उस आदमी ने चौंकते हुए कहा था।
मैं खुद भी परेशान हुआ जा रहा था कि अब्बा मेरी परी के बारे में पता करने के बजाय मेमना खरीदने की बात यहां आकर क्यों करने लगे। मैंने अब्बा का कुरता खींचा, जो रास्ते की धूल–मिट्टी से भरा था, लेकिन अब्बा ने मेरे ऐसा करने पर कोई ध्यान नहीं दिया।
‘मुझसे तो यही कहा गया था कि आपके पास मेमना है और आप उसे बेचना चाहते हैं?’ अब्बा ने उस आदमी के पास फिर उसी सवाल को दोहराया।
‘नहीं जी, किसी ने आपको बुरबक बनाया है।’ उस आदमी ने बेरुखी से जवाब दिया, ‘मुर्गा-मुर्गी चाहिए तो मेरे पास है बेचने के लिए।’
‘लेकिन मैं तो मेमने की खोज में आपकी बस्ती में आया था।’ अब्बा ने फिर से वही बात की।
‘आप उस दनिश्वा के यहां जाकर पूछिए। उसकी बेटी के पास कई दिनों से बकरी का एक बच्चा मैं देख रहा हूँ। अच्छा दाम मिलने पर शायद दनिश्वा बकरी का वह बच्चा आपको बेच दे। उसको अपनी बेटी की शादी जो करनी है।’
‘यहां तो आप सबके रहने के लिए बना हुआ घर लगभग एक जैसा है। ऐसे में मैं दानिश के घर तक कैसे पहुंचूंगा… क्या आप हम बाप-बेटे की मदद कर देंगे, वहां तक पहुंचने में?’
‘हां जी, चलिए, मैं उसके घर तक ले चलता हूँ आप दोनों को।’
अब्बा की चालाकी से मैं दंग रह गया। उन्होंने मेरी परी को ढूंढ़ने के लिए क्या कमाल का रास्ता अपनाया था। अब्बा जानते थे कि मेरा मेमना उस अजनबी लड़की की कमजोरी है।
उस आदमी ने हमें एक घर के पास ले जाकर खड़ा छोड़ दिया था, यह कहते हुए कि दानिश का घर यही है, फिर वह वापस लौट गया था।
दानिश का घर कैसा था, घर के नाम पर बस एक छोटा-सा कमरा था। बाहर दरवाजे पर मेरा मेमना एक खूंटे से बंधा आराम से घास खा रहा था। हमारे आने के एहसास में मेमने ने सिर उठाकर हमें देखा। फिर हमें पहचानकर जोर-जोर से मिमियाने लगा।
उसके मिमियाने की आवाज पर अचानक एक आदमी बाहर निकला। उसकी कद-काठी और उम्र मेरे अब्बा के जैसी ही थी। लेकिन उसके चेहरे से मायूसी झलक रही थी। उसके चेहरे से यूं लग रहा था कि उसका अपना कोई उससे बिछड़ गया हो।
‘आप लोग कौन हैं जी?’ उसने पहला सवाल यही किया।
‘हम आपके इस मेमने को खरीदना चाहते हैं।’ अब्बा ने सीधे-सीधे कहा।
‘जी, मगर हम इसको बेचना नहीं चाहते।’
‘आपकी बस्ती के एक आदमी ने हमको यही बताया था कि आप अपना मेमना बेचना चाहते हैं, क्योंकि आपको अपनी बेटी की शादी के लिए पैसे की जरूरत है।’
‘मगर मेरी बेटी जब मेरे पास होगी तब न उसकी शादी करेंगे।’ दानिश ने मरियल-सी आवाज़ में कहा, ‘मेरी बेटी को तो…’
‘क्या हुआ आपकी बेटी को?’ अब्बा ने चौंककर पूछा।
मैं तो उस आदमी के ऐसा कहने से जैसे अधमरा हुआ जा रहा था।
‘होगा क्या, ऊ कमीना इदरीसवा उठा ले गया मेरी बच्ची को!’ उसने रोनी-सी सूरत बनाकर कहा। घर के दरवाजे पर लगे पर्दे के पीछे से किसी औरत के रोने की आवाज भी अब आने लगी थी। यह जरूर मेरी परी की मां रही होगी।
‘आप जाइए जी, हम बकरी के इस बच्चे को नै बेचेंगे। यह मेरी बच्ची की जान है।’
‘लेकिन चच्चा, आपकी बेटी को कोई उठाकर ले गया और आपने कुछ भी नहीं किया?’
अचानक से मैं इस बातचीत में कूद पड़ा था, उस हवा की तरह, जो दिखाई नहीं देती, लेकिन जब अपने पर आ जाती है, तब बड़े से बड़े मजबूत पेड़ तक को उखाड़ फेंकती है।
अब मैं वही हवा हुआ जा रहा था। मेरी परी को ले जाने वाला इदरीस अगर अभी मेरे सामने आ जाता तो मैं उसकी ऐसी हालत कर देता कि वह आदमी माफी मांगने के काबिल भी नहीं रहता।
‘इदरीसवा हमारी बस्ती का खतरनाक गुंडा-मवाली है। वह कमीना मेरी फूल-सी बच्ची को जबरदस्ती उठाकर ले गया। उसके खिलाफ बस्ती का कोई आदमी कुछ भी नहीं कहता है तो मैं अपने घर का अकेला आदमी उसके आगे गिड़गिड़ाने के अलावा क्या करता। उसने मुझे और मेरी बीवी को अपने लोगों से मारपीटकर एक तरफ डाल दिया और उसे उठा ले गया।
परी के अब्बा जब यह सबकुछ हमको बता रहे थे, तब घर के अंदर से परी की मां की रोने की आवाजें और ज्यादा तेज आने लगी थीं।
मेरे अब्बा ने इदरीस के ठिकाने के बारे में पूछा तो परी के अब्बा की जैसे घिग्घी बंध गई थी। उन्होंने बेखटक कहा, ‘हम इदरीसवा का पता नै बतावेंगे। उसको इस बात का पता लग गया, तो ऊ हमको जान से मार डालेगा।’
अब मेरा ग़ुस्सा सातवें आसमान पर जा बैठा था, यह सोचकर कि यह कैसा बाप है, जो अपनी ही बेटी को, उस गुंडे से बचाना नहीं चाहता?’
अभी मैं कुछ कह पाता कि घर के अंदर से परी की मां की आंसुओं से सराबोर आवाज़ आई, ‘ई डरपोक मरद आप सबको कुच्छो नहीं बताएगा। ऊ इदरीस यहां से कुछ दूर पश्चिम की तरफ अपने अड्डा पर मेरी रुखसाना को ले गया है, यह कहता हुआ कि वह मेरी बेटी से ब्याह करेगा।’
‘ऐ अब्बा, उस इदरीस की मैं जान ले लूंगा, उसने मेरी परी के साथ ऐसा-वैसा कुछ किया तो!’
अब्बा ने मुझे प्यार से समझाया, ‘जब रुखसाना का बाप कुछ नहीं कर पाया, इस बस्ती वाले उस इदरीस का कुछ न कर सके तो हम गैर लोग रुखसाना को उस गुंडे आदमी से कैसे बचा सकेंगे?’
रुखसाना के अब्बा हम बाप-बेटे की बातचीत से आश्चर्यचकित हुआ जा रहा था। मैंने अपने अब्बा को कोई जवाब नहीं देते हुए उन्हें साइकिल की कैरियर पर बैठने का इशारा किया। अब्बा ने एक निगाह रुखसाना के घर के बाहर बंधे मेमने पर डाली, फिर उसके अब्बा को और उचककर साइकिल के पीछे बैठ गए।
मुहब्बत आदमी की जिंदगी को बे-मजा भी करती है और ताकतवर भी बनाती है। यह मैं जान गया था। रुखसाना से मेरा प्यार एकतरफा जरूर था, लेकिन इस प्यार के कारण मेरी जिंदगी में कई घटनाएं घटती चली जा रही थीं। इन घटनाओं से यह भी सिद्ध होता था कि मेरी परी भी मुझसे मुहब्बत करती थी।
अब्बा को साइकिल के पीछे बैठाए, मैं यही सब सोचे जा रहा था, तभी पीछे से अब्बा की आवाज ने चौंका दिया, ‘यार, किस तरह पहुंचेंगे उस इदरीस के अड्डे तक?’
‘अब्बा, आप बस बैठे रहिए, मैं सब संभाल लूंगा।’
अब्बा सचमुच चुप बैठ गए थे। मैं यह भी जान गया था कि इदरीस कोई ढीठ टाइप का गुंडा-मवाली होगा, जिसने मेरी नेक रुखसाना को उठा लिया था, लेकिन मुझे तो मेरी परी चाहिए थी, हर कीमत पर।
अचानक अब्बा की आवाज ने मुझे फिर से चौंकने पर मजबूर कर दिया था, ‘शमशाद मियां, मुझे तो उस तरफ इदरीस का अड्डा लगता है…’
‘कहां है इदरीस का अड्डा?’ मैं हड़बड़ा-सा गया था।
फिर इस हड़बड़ी में अब्बा को साइकिल से लिए-दिए नीचे गिर पड़ा था। अभी हम उठ पाते कि चार-पांच लोगों ने अचानक से घेर लिया, जिस तरह शत्रु अपने शत्रु को घेरते हैं। ये लोग हमारे साथ बड़ी बेइज्जती से पेश आ रहे थे। जाहिर है, ये लोग शरीफ लोग नहीं थे, जिस तरह इदरीस शरीफ आदमी नहीं था।
परिस्थिति की गंभीरता को भांपकर मेरे तो हाथ-पांव जैसे फूलने लगे थे। अब्बा निडर आदमी थे। जमीन पर साइकिल के साथ गिरे अब्बा खुद भी उठे थे और मुझे भी उठाया था। मेरे कपड़ों पर लगी धूल भी साफ की थी।
जाहिर है, हमारे आसपास अंधेरा था और इस अंधेरे में हमारे शत्रुओं की चमकती हुई आंखें थीं, जो हम दोनों बाप–बेटे को खा जाना चाहती थीं। लेकिन अब्बा कहां डरने वाले थे, उन्होंने शत्रुओं से पंगा ले ही लिया। अब्बा उन सबसे अकेले ही किसी लड़ाके की तरह भिड़ गए। वे अपने गांधी बाबा कह गए हैं न कि बंदूक का भय गोली छूटने के साथ ही समाप्त हो जाता है, सो यह भी जाहिर था कि अब्बा को लड़ते हुए देखकर मैं भला चुप कैसे रह सकता था। अब्बा के साथ मैं भी इदरीस के गुंडों से गुत्थमगुत्था हो गया था।
एक सचाई यह भी थी कि हम बाप-बेटे कोई फिल्मी एंग्री यंग मैन नहीं थे। आम आदमी थे। हम उन लुच्चों से कितनी देर लड़ते। सो एक अच्छे आम आदमी की तरह अंधेरे का फायदा उठाकर वहां से भाग निकले। इस अफरातफरी और भागमभाग में साइकिल भी वहीं गिरी रह गई थी।
वहां से भागते-भागते हम जहां पर रुके, वह इलाका सुनसान था, जहां पर वीरानी बरस रही थी। थोड़ा आगे बढ़े तो यही एक पुराना बंद पड़ा स्टेशन मिला, जहां रेलगाड़ियां रुका करती होंगी, यही सोचकर हम यहीं के होकर रह गए, यह सोचकर कि इदरीस के इलाके में वापस लौटना जान को जोखिम में डालने जैसा होगा।
मगर हम यही नहीं समझ पाए कि यह स्टेशन, इतना वीरान क्यों था?
‘अब्बा, अब क्या होगा, हम घर कैसे पहुंचेंगे?’ इस वक्त हम बाप-बेटे की हालत ऐसी हो रही थी कि मेरे अब्बा और मैं बस एक-दूसरे को बेबस देखभर रहे थे। स्टेशन अब भी उदास था और हमारी उदासी को ज्यादा बढ़ाने में लगा हुआ था।
तभी अचानक जैसे करिश्मा-सा हुआ। एक मालगाड़ी के आने की आवाज आई और वह इस भुतहे स्टेशन पर आकर एकदम से धीमी हो गई। हम बाप-बेटे ने एक-दूसरे की आंखों में देखा और बिना मौका गंवाए लपककर चलती हुई मालगाड़ी के एक बोगी में जा बैठे।
मालगाड़ी पर चढ़ते हुए हमने यह भी नहीं सोचा कि यह हमें कहां और किस दिशा में ले जाएगी। बस हम बैठ गए थे। हमारे साथ मजबूरी थी कि हम इदरीस के गुंडों से लड़ नहीं सकते थे। यह पूरा इलाका जैसे उन सबके लिए आखेटस्थल था। तभी मेरी परी के बस्ती वाले और उसके मां-बाप उस इदरीस के खिलाफ कुछ भी नहीं कर पाए थे।
मालगाड़ी के जिस हिस्से में हम चढ़े थे, उस पर कोयला लदा था। इस कोयले ने हम दोनों बाप-बेटे को अपने काले रंग से रंगकर अपने जैसा बना दिया था- कालाकलूटा, काला भुजंग या जो भी आप उचित समझें, हमें कह लें।
मालगाड़ी पर बैठ जाने के बाद मैंने झिझकते हुए अपने अब्बा की तरफ चोर निगाह से देखा और मुझे बेसाख़्ता हँसी आ गई। अब्बा इस वक्त कोई अफ्रीकी आदमी लग रहे थे, बिलकुल बदरंग।
‘कमबख्ती के मारे, तुम्हें शरम-वरम आती है कि नहीं? एक तो हम मुश्किल में हैं और तुम हो कि इस मुश्किल वक्त में भी मुझ पर हँसने से बाज नहीं आ रहे?’
‘नहीं अब्बा, मैं आप पर नहीं हँसा। मैं तो बस इसलिए हँसा कि दुर्बलता हमको छू नहीं पाए यानी हमारी आत्मशक्ति बची रहे। आप ही ने एक बार समझाया था कि जब हम किसी मुश्किल में हों तो हमें हँसना चाहिए। हमें हँसता देखकर कोई हँसे, तब भी हमको हँसना चाहिए। क्योंकि हँसी दुख को भुला देती है।’
अब्बा मेरी दार्शनिक बातों में उलझकर मेरी हँसी वाली बातों को भुलाकर कहने लगे, ‘मालूम नहीं, यह मालगाड़ी भी कमबख्त, हमें कहां तक ले जाएगी?’
‘अब्बा, क्यों नहीं इस मुश्किल वक्त में हम दोनों साथ-साथ हँसें यहां पर कोई मजाक उड़ाने के लिए है भी तो नहीं?’
अब्बा ने मेरी बातों का कोई जवाब नहीं दिया था। बस, जोर-जोर से हँसने लगे थे। अब्बा के साथ मैं भी हँस रहा था। बिना झिझके। बिना लजाए। बिना झेंपे।
हमारी हँसी ने सचमुच हमारी परेशानी को कम कर दिया था और मालगाड़ी अंधेरे रास्तों को चीरती हुई अपनी मंजिल की तरफ बढ़ती चली जा रही थी। मैंने महसूस किया कि सुबह का उजाला भी अंधेरे को चीरकर बाहर निकलने को बेताब था। अब्बा के मुंह से बच्चे की-सी किलकारीनुमा चीख निकली, ‘शमशाद मियां, अपनी बस्ती आने वाली है!’
मैंने देखा, सचमुच में हमारी बस्ती आने वाली थी। मगर कठिनाई यह थी कि मालगाड़ी के चलने की गति को देखकर यह नहीं लगता था कि इसकी रफ्तार इतनी कम होगी कि हम बाप-बेटे बाआसानी नीचे उतर पाएंगे।
लेकिन आज अब्बा कहां मानने वाले थे।
उन्होंने किसी सर्कस में अपनी कला का कौशल दिखाने वाले आदमी की तरह चलती हुई मालगाड़ी से बस्ती के मैदान की तरफ़ पहले खुद कूद पड़े और कूदने के बाद मालगाड़ी के साथ दौड़ते हुए मुझे भी अपनी नकल करते हुए कूद जाने का इशारा किया।
मैं भी अब कहां मानने वाला था। अपने सपनों को बचाने की उम्मीद में मैंने भी अब्बा की नकल करते हुए मालगाड़ी से बाहर की ओर छलांग लगा दी थी।
संपर्क :हुसैन कॉलोनी, नोहसा बागीचा, नोहसा रोड, पूरब वाले पेट्रोल पाइप लेन के नजदीक, फुलवारीशरीफ, पटना-801505, बिहार मो. 9835417537
कल्पना और यथार्थ का प्रभावी चित्रण
कहानी में कहीं भी रिदम नहीं टूटा
बेहतरीन और रोचक कहानी
बधाई