सुप्रतिष्ठित कथाकार और ‘परिकथा’ पत्रिका के संपादक। अद्यतन किताबें ‘सड़क पर मोमबत्तियां’, ‘यह समय’ (संपादकीय टिप्पणियां, लेख, संवाद)।
यही यहां का दस्तूर और सिलसिला था। यहां के बच्चों की जिंदगी गुजरती तो थी इसी नक्शे के एक मुकाम पर, लेकिन किसी न किसी दिन उन्हें यहां से विदा लेकर बाहर फैली हुई दुनिया में खड़ा होने और टिकने की जगह ढूंढ़ने के लिए निकलना होता था। अब ऐसा ही कोई दिन इक्कीस साल की उम्र को छू रहे जेवियर के भी सामने था। ऐसा ही दिन उससे पहले के हर बच्चे के सामने भी आया होगा।
इतना बड़ा शहर जहां चौड़ी-चौड़ी सड़कें थीं, सड़कों की दोनों तरफ ऊंची-ऊंची इमारतें थीं, सड़कों पर छाया बिखेरते पेड़ थे, चमकती हुई दुकानें थीं, आती-जाती दौड़ती हुई गाड़ियां थीं, शाम के बाद रोशनी की जगमगाहट थी, जिधर-तिधर करीने से बसी हुई दुनिया थी, जेवियर के लिए अब एक नया ठिकाना था। जिस तरह से उससे पहले के बच्चों ने भी यहां से निकल कर अपनी-अपनी दुनिया रची होगी, उसी तरह से यहीं उसे भी अब एक नई जिंदगी ढूंढ़नी थी, यहीं उसे अपनी दुनिया रचनी थी।
जेवियर जितना ही समझने की कोशिश कर रहा था, उसके सामने इस शहर के नए-नए मायने खुल रहे थे। ताजमहल जैसी इमारत, म्युजियम, नेशनल लाईब्रेरी, साइंस सिटी, आर्ट गैलरी, थियेटर, प्लेनेटेरियम, पार्क, अनगिनत महलनुमा बाड़ियां, चर्च, नामी-नामी मंदिर, मस्जिद, बड़ी-बड़ी शख्सियतों के जन्मस्थल, नदी, थोड़ी ही दूरी पर समुद्र, देशभर में जाना जाने वाला नदी के ऊपर बना हुआ पुल, धीरे-धीरे बल खाकर चलती हुई ट्राम गाड़ियां, इतना सारा कुछ तो शायद ही हो किसी शहर में। यूं ही तो नहीं देश भर से टूरिस्ट इस शहर को देखने आते हैं। किताबों में दर्ज यह शहर खींचता है अपनी तरफ हर किसी को। ठीक है कि जिंदगी की अपनी परेशानियां हैं, अपनी अनिश्चितताएं हैं, अपनी जद्दोजहद है और कभी-कभी बेमानी लग सकता है यह शहर। लेकिन ये परेशानियां, ये अनिश्चितताएं, ये जद्दोजहद तो हर जगह मिलेगी। कहां होगी कोई ऐसी जगह जहां परेशानियां न हों, अनिश्चितताएं नहीं हों, जद्दोजहद नहीं हो।
जेवियर सवालों में डूब-उतरा रहा था। ऐसे ही क्षणों में उसके दिल से छोटी-सी आवाज उठी, जब अपनों के साथ, अपनों के बीच रहा जा रहा हो, तब परेशानियां और अनिश्चितताएं शायद झेल ली जाती होंगी। सब कुछ अच्छा लगने लगता होगा। इस शहर का मायने तब कुछ और होता होगा।
ऐसे सवाल अब तक जेवियर के दिल दिमाग में आए भी नहीं थे। अनाथालय में एक बंधी-बंधाई जिंदगी थी, अपना रोजमर्रा था। चौबीस-पचीस बच्चों का साथ-साथ रहना था, सभी एक-दूसरे के अपने थे। सुबह उठकर साथ-साथ प्रेयर करना, फिर किचन में जाकर आया के हाथ से चाय-ब्रेड लेना, फिर स्कूल या कॉलेज चले जाना, स्कूल से आकर अपने अपने प्लेट में खाना लेना, फिर कुछ देर पढ़ाई करना, शाम को बाहर खेल-कूद आना, शाम को दुबारा प्रेयर, रात को पढ़ना-लिखना, फिर रात को अपने-अपने प्लेट में खाना खा लेना। फिर अपनी-अपनी चौकी पर सो जाना। यह पांच दिनों की दिनचर्या थी। सटरडे और संडे को छुट्टी होती थी। इन दिनों बैंड की रिहर्सल होती थी। यह एक भरा-पूरा कार्यक्रम होता था। शाम को बच्चे दो-चार के समूह में जहां चाहें, वहां घूम लेते थे। कभी-कभी कहीं किसी कल्चरल प्रोग्राम में भाग भी ले लेते थे या देख आते थे।
यह एक चैरिटेबल सोसायटी द्वारा ‘ऐंजिल्स होम’ नाम से चलाया जा रहा अनाथालय था। यहां सभी तरह के लड़के थे। हिंदू भी, क्रिश्चियन भी, आदिवासी भी, दलित भी, कभी-कभी कोई मुस्लिम भी। इस सोसायटी को कुछ व्यक्तियों या प्रतिष्ठानों से आर्थिक अनुदान मिल रहा था। कई अवसरों पर खासकर संपन्न घरों के लोग अपने परिवार के किसी बच्चे के जन्मदिन पर यहां आते थे, सभी बच्चों को केक देते थे, उनके साथ थोड़ा समय गुजारते थे, फिर लौटने के समय हर बच्चे को पचास या सौ रुपये का एक नोट गिफ्ट में दे जाते थे। छोटे बच्चे खुशी-खुशी, लेकिन थोड़ा बड़ा हो रहे बच्चे सकुचाते हुए यह ले लेते थे। वे इन नोटों को अपने छोटे से बक्से या कापियों-किताबों के कवर में रख लेते थे।
यहां हर बच्चा किसी न किसी बहुत बड़ी मुसीबत और बदकिस्मती की मार खाकर आया हुआ बच्चा था। लेकिन उनका यह घर ऐसी किसी उदासी या मायूसी का घर नहीं था। हर शनिवार और रविवार यहां उनके बैंड प्रोग्राम होते थे जिसे सुनने, जिसमें शामिल होने आस-पास से गुजरते लोग भी आ जाते थे। समय-समय पर इनका यह बैंड दस्ता सड़कों पर निकलता था और लंबी-लंबी दूरियां तय करके लौटता था। नया साल, छब्बीस जनवरी, पंद्रह अगस्त, दुर्गा पूजा, दीवाली पर ये बच्चे सड़कों पर झूमते हुए निकलते थे और लोग इन्हें रुक-रुक कर देखते थे। महीने में एक बार ये बच्चे एंजल्स होम के लिए साधन जुटाने के खयाल से भी अलग-अलग इलाकों में निकलते थे।
हर बच्चे की बर्थडे पार्टी भी ऐजल्स होम की दीवारों के बीच जिंदगी की सरगर्मियां बिखेरती थीं। क्या हुआ जो सिर्फ एक बड़े केक के छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते थे, कागज के प्लेट पर एक छोटा पेटिस होता था, एक कोल्ड्रिंक रहता था। इनके बीच इनके जो कहकहे उठते थे, इनके गाए गीतों की जो आवाजें उठती थीं, वे शहर के कोने-कोने तक गूंजती थीं, आसमान की ऊंचाइयों तक जाती थीं।
ऐसा ही कोई दिन था जब अनाथालय के मैनेजर ने जेवियर को सामने की कुर्सी पर बिठाकर कुछ रुकते-रुकते बताया था, ‘बेटा, अगले महीने तुम इक्कीस साल के हो जाओगे। अनाथालय का नियम है कि कोई बच्चा यहां इक्कीस साल की उम्र तक तो रहे, फिर वह बाहर की दुनिया में निकले और अपना ठिकाना बनाए।
‘आप मुझे निकाल देंगे, अंकल?’ जेवियर की आवाज भर्रा रही थी।
‘नहीं बेटे, मैं सिर्फ नियम की जानकारी दे रहा हूँ। यह होम एक घोंसला है। ये बच्चे छोटे-छोटे चिड़िया हैं। ये यहां पलते-बढ़ते हैं, लेकिन कभी न कभी तो इन्हें आसमान की तरफ उड़ना ही होता है। लेकिन मैंने यह भी देखा है, ये जहां भी रहें, इस होम से जुड़े रहते हैं, लौट-लौट कर आते हैं। अमेरिका गया हुआ बच्चा हर साल होम को डोनेशन भेजता है, होम देखने की इच्छा बताता है। दूसरे-दूसरे बच्चे भी अपनी-अपनी जगह से डोनेशन भेजते हैं। तुमने देखा ही होगा, ये बीच-बीच में होम के बच्चों से मिलने-जुलने आते रहते हैं। तुमको कोई नहीं रोकेगा। तुमको कोई नहीं निकालेगा।’ मैनेजर ने सिसकते हुए जेवियर को बांहो में भर लिया था।
अब जेवियर की जिंदगी में एक नया और अलग दौर था। उसे इस होम को छोड़कर अलग तो नहीं हो जाना था, लेकिन बाहर की दुनिया में अपना एक ठिकाना बनाना था और जितना आगे बढ़ा जा सकता था, उतना आगे बढ़ना था। शाम को वह अकेले बाहर घूमने निकला। पार्क की बेंच पर सोचते-सोचते वह रोया। मैनेजर ने लौट आए जेवियर को परेशान सा देखा तो उसने सोचा, वह पूछ ले लेकिन वह जेवियर से पूछे, इसके पहले ही जेवियर ने उससे पूछ लिया, ‘अंकल, आप तो जानते होंगे, कौन हैं और कहां हैं मेरे माता-पिता?’
मैंनेजर ने जेवियर के सिर को अपने सीने पर रख लिया और बालों को सहलाया, ‘बेटा, यह सवाल यहां के बच्चों के लिए नहीं है। बेटा, तुम इन सवालों में मत उलझो, इस होम के सभी बच्चे तुम्हारा परिवार हैं। बाहर एक बहुत बड़ी दुनिया है। तुम अब इस दुनिया में आगे बढ़ो। काम ढूंढ़ो और ठिकाना बनाओ… दूसरों के दुखदर्द को समझते रहना और एक अच्छा इंसान बनना। मेरे ब्लेसिंग्स हमेशा तुम्हारे साथ हैं…।’
जेवियर जब सामान्य हुआ तो उसे सबसे पहले जो बात समझ में आई, वह यही थी कि वह कोई जॉब ढूंढ़े, अपना एक ठिकाना बनाए। जिंदगी उसे यहां से हटा नहीं रही है, वह अब उसे एक नए रास्ते पर बढ़ा रही है।
अगली सुबह जेवियर जब सोकर उठा तो उसने पाया, उसका दिल-दिमाग नए हौसलों से भरा-पूरा है। उसने दिल को कड़ा किया और आने वाले जिंदगी की चुनौती कबूल कर ली।जेवियर ने होम से निकलकर एक नई सोच के साथ बाहर की दुनिया में कदम रखा, शहर के कई कई हिस्सों के चक्कर लगाने का निर्णय लिया।
पहले कूरियर के ऑफिस में पैकेट और चिट्ठियां पहुंचाने वाले ब्वाय का काम ढूंढ़ने गया। फिर कई रेस्टोरेंट में बिल बनाने का काम ढूढ़ने गया। फिर केक–पेस्ट्री के शॉप पर काउंटर ब्वाय बनने के मौके ढूंढ़े। नर्सिंग होम में भी गया। फिर स्टेशनरी–गिफ्ट की दुकान में भी काम की पूछताछ की। फिर बड़े से माल के ऑफिस में जानकारी ली कि क्या उसे कोई काम मिल सकता है। इसी क्रम में ड्राईक्लीनिंग की दुकान पर पूछा। एक बड़े से बुकशॉप पर तो उसकी आंखें इस तरह टिकीं कि वे हटने का नाम नहीं ले रही थीं– काश, यहां कोई काम मिल जाए।
ये दिन कड़ी मशक्कत और हौसलों के दिन थे। दिल में ख्याल था, जो भी काम मिल जाए, वह उसे छोड़ेगा नहीं। फिलहाल थाम लेगा, बाद में कोई दूसरा काम ढूंढ़ता रहेगा।
जेवियर चौड़ी-सी सड़क से जुड़ी स्ट्रीट के कोने के पास कुछ सोचता हुआ सा खड़ा था। तभी स्ट्रीट में दीवार से सटकर खड़े दो आदमियों ने उसे उंगली से इशारा करके बुलाया। वह उत्सुकता में उधर बढ़ गया।
‘तुम कोई जॉब ढूढ़ रहे हो?’ उनमें से एक आदमी ने उसपर नजरें गड़ाए हुए पूछा।
‘हां’ उसका साफ सा जवाब था।
‘तो फिर हम तुम्हें एक काम देते हैं। यह लेदर बैग लो। लगभग दस किलोमीटर आगे इस सड़क के खत्म होने के बाद जो एक पुराना-सा ब्रिज आएगा, वहां एक उजली एंबेसडर कार बिगड़ी हुई हालत में खड़ी मिलेगी जिसका एक चक्का बाहर जमीन पर लुढ़का हुआ होगा। इसके नंबर प्लेट के आखिरी के दो नम्बर होंगे 63। तुम चुपचाप बिना कुछ बोले वह लेदर बैग गाड़ी में बैठे ड्राइवर को देना और फिर जिधर चाहो, उधर चले जाना। यह लेदर बैग मिलते ही ड्राइवर झटपट गाड़ी भगा लेगा। यह सौ-दो सौ रुपये का काम है लेकिन तुम ये पकड़ो, पांच-पांच सौ के पांच नोट। लेदर बैग पकड़ो और सरक लो…’ दूसरे आदमी ने पीछे की तरफ छिपाकर लटकाए बैग को आगे कर दिया।
‘देखूं, क्या है इस बैग में?’ जेवियर ने भी दुविधा में अपनी आंखें आदमी पर टिकाए रखीं।
‘इसमें क्या है, तुमको इससे क्या?’ यह आदमी की ठस्स आवाज थी।
‘दो…’ जेवियर ने बैग लेकर उनकी मनाही के बावजूद बैग का मुंह खोल दिया।
‘ब्लडी क्रिमिनल… मैं अभी पुलिस बुलाकर लाता हूँ…।’ बैग को जमीन पर रखकर जेवियर चौराहे की तरफ दौड़ा। लेकिन पुलिस पोस्ट पहुंचते हुए उसने एक बार स्ट्रीट की तरफ मुड़कर देखा तो वे आदमी नदारद और गुम दिखाई पड़े। उन्होंने गली के पीछे से निकलकर भाग निकलने का मौका बना लिया था।
जेवियर की जिंदगी का अब कोई बंधा-बंधाया ढांचा नहीं था। सामने दूर तक फैली हुई दुनिया थी। इसमें उसे एक जगह बनानी थी। वह सुबह से शाम तक जिधर-तिधर दौड़ रहा था। उसे जरूरत थी किसी भी तरह के जॉब की जिसमें कम या ज्यादा जो भी मिले, बस महीने के जरूरी खर्च निकल जाएं। वह दौड़ रहा था, भाग रहा था। एक उम्मीद दिल में पल रही थी, कुछ न कुछ जरूर मिलेगा।
ऐसी ही भाग-दौड़ की कोई शाम थी। वह स्ट्रीट के कोने पर एक उम्रदराज औरत के सामने पड़ गया था। वह उसे एकटक निहार रही थी और उसके चेहरे पर कुछ ढूंढ़ रही थी। वह असहज हो रहा था और आगे बढ़ जाना चाह रहा था कि तभी औरत ने उसे रोक लिया।
‘केक खाओगे…?’ औरत ने बहुत मुलायम स्वर में पूछा।
‘लेकिन आंटी, मेरे पास पैसे नहीं हैं…।’ उसने लाचारगी बताई।
‘आओ…’ औरत हाथों से उसको बुलाते हुए गली में घुस गई।
एक मामूली से घर के पास रुककर औरत ने मुड़कर पूछा, ‘तुम एंजिल्स होम में रहते हो न?’
‘हां, आंटी’।
आंटी ने घर से लाकर एक छोटा सा मफिन केक दिया तो पहले तो वह लेने में हिचकिचाया। लेकिन आंटी ने केक जबर्दस्ती उसकी हथेली में रख दिया तो उसने ले लिया, ‘आंटी, मैं कोई छोटा-सा जॉब ढूंढ रहा हूँ ताकि कोई ठिकाना बना सकूं…।’
‘बेटा, में अपने घर में केक बना लेती हूँ और जहां से आर्डर मिलता है, वहां मैं डेम डिलेवरी कर आती हूँ। मेरे पास तो ज्यादा काम नहीं है।’ आंटी को तभी जैसे कुछ याद आया हो, ‘हां हां, तुम काफी आगे क्रासिंग तक जाओगे तो तुम्हें एक नर्सरी मिलेगी-विश्वजीत दास नर्सरी। विश्वजीत उम्रदराज हो गए हैं। फूल-पौधों के प्लांट सैंपल दिखाना, सैंपल उठाकर लाना, फिर कस्टमर जहां कहे, वहां तक पहुंचाना, बिल बनाना, पैसे लेना, इतने सारे काम उनसे हो नहीं रहे हैं। उनको तुम जैसे लड़के की जरूरत है। तुम जाओ, लक आजमाओ… मुझे लगता है, चांस मिल जाएगा। मेरी ओर से तुमको द बेस्ट ऑफ लक…।’
जेवियर तो वहां से लौट रहा था, लेकिन उम्रदराज महिला पुरानी यादों में डूब-उतरा रही थीं… इस बच्चे का चेहरा तो शरदिंदु बाबू के चेहरे जैसा है। उफ, शरदिंदु घरवालों की बेरूखी से स्टेला को ब्याह नहीं कर पाने पर पागल हो गए और स्टेला… पेट में पल रहे शरदिंदु के बच्चे को चर्च में छोड़कर न जाने कहां चली गई। कितनी बड़ी ट्रैजेडी की निशानी है यह बच्चा? इनसोनेंट बच्चा अपनी जगह बनाने के लिए स्ट्रगल कर रहा है। ‘क्राइस्ट, इस बच्चे का ख्याल रखिए, इसे अपनी बांहों में छुपा लीजिए।’
मेन सड़क पर जेवियर कुछ सोचते हुए खड़ा था कि तभी उसे उसी उम्रदराज औरत की पुकार सुनाई पड़ी। वह हांफती हुई आई थीं और बता रही थीं, ‘बेटा, एक और मौका है। बर्दवान में एक बहुत बड़ी बाड़ी है जिसमें सिर्फ बूढ़ी मालकिन रहती हैं। वे बड़े लोग हैं। उनके घर के सभी यूरोप-अमेरिका में जाकर बस गए हैं। मालकिन अकेली रहती हैं। वे चाहती हैं कि कोई नौजवान घर में उनका केयर करे। हो सकता है, उसको वे अपनी बाड़ी दे दें। तुम यह जिम्मेवारी सम्हाल लो, बेटा। एक नई जिंदगी की शुरुआत हो जाएगी।’
‘आंटी, मुझे माफ कर दीजिये, प्लीज। वह जिंदगी मैं नहीं जी पाऊंगा। इस जगह के बिना मैं आधा-अधूरा हो जाऊंगा, आंटी।’ जेवियर के हाथ जुड़े हुए थे।
दो ही दिनों बाद जेवियर ने नर्सरी में काम पाने की कोशिश की तो नौकरी उसे मिल गई। विश्वजीत दास को ऐसे ही जिम्मेदार लड़के की जरूरत थी। उन्हें लग रहा था, उनके कंधों से भारी बोझ उतर गया है। जेवियर ने सारी जिम्मेवारियां सम्हाल लीं।
यह नर्सरी एक पुरानी सी बिल्डिंग के किनारे खाली पड़ी जमीन पर चारों ओर से खींची गई बाउंड्री के भीतर थी। जमीन खाली पड़ी थी, फिर भी इसका अच्छा खासा किराया था। जमीन मालिक का तर्क था, बाउंड्री लग जाने और सामने गेट बन जाने से जमीन खाली कहां रही, इस पर कारोबार तो हो ही रहा है।
विश्वजीत दास की अपनी छोटी सी पुरानी बाड़ी नर्सरी से छह–सात किलोमीटर दूर एक गली में थी। बाड़ी का आउटहाउस जेवियर को मिल गया था। बाड़ी में विश्वजीत दास और उनकी पत्नी का रहवास था। आउटहाउस में जेवियर ने फोल्डिंग बेड डाल ली। एक स्टोव खरीद लिया था। छोटे–छोटे बर्तन और स्टील के गिलास खरीद लिए। अब उसका भी अपना एक ठिकाना था।
जेवियर को एंजिल्स होम से अपने आउटहाउस में शिफ्ट होना था। शाम को होम के मैनेजर और बच्चों ने मिलकर पार्टी दी। प्लेट में पेटिस, बर्गर, एक रसगुल्ला और साथ में कोल्डड्रिंक का मेन्यू था। बैंड की आवाजें उठती रहीं। बीच-बीच में बच्चों के गाने गूंजते रहे। हँसी, ठिठोली, कहकहे माहौल को खुशनुमा बनाए हुए थे। बीच-बीच में बच्चों की आवजें उठती रहीं, बिग ब्रदर जेवियर… बिग ब्रदर जेवियर… तुम हमारे साथ ही… हम तुम्हारे साथ रहेंगे। हमारा गाइड जेवियर… हमारा एंजिल्स जेवियर… लौंग लिंव जेवियर… लौंग लिंव जेवियर… हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा…।
तभी नाचने की मुद्रा में ऊपर हाथ उठाए जेवियर ने घोषणा की… होम के हर बच्चे की बर्थडे पार्टी मेरी पार्टी… मैं दूंगा पार्टी। सब की बर्थडे पार्टी मेरा।
कमिटमेंट… मेरा वायदा…।
सुबह अपना छोटा-सा बक्सा लेकर निकलते हुए जेवियर ने मैनेजर अंकल के पैर छुए। मैनेजर ने जेवियर को गले लगाया, ‘गॉड ब्लेसेज यू, माई सन’।
जेवियर ने मैनेजर से रजिस्टर लेकर हर बच्चे का बर्थडे कागज पर नोट किया ‘लेकिन अंकल, रजिस्टर में बच्चे के एडमिशन की तारीख और बर्थ की तारीख तो एक ही है।’
‘बेटे, यहां जो बच्चे आते हैं, उनके कागजात बगैरह नहीं होते हैं। ऐंजिल्स होम में उनके एडमिशन की तारीख ही उनके जन्म की तारीख है। आखिर यहीं से तो उनके जीवन की शुरुआत हुई।’ मैनेजर की आवाज ठंडी सी थी।
जेवियर के जाते समय जेवियर के लिए बच्चों के कई हाथ हिले। जवाब में जेवियर का हाथ भी हवा में उठकर हिलता रहा।
जेवियर के लिए ये व्यस्तताओं और नए अनुभवों के दिन थे। दिन भर वह नर्सरी में फूल-पौधे लेने आए ग्राहकों में व्यस्त रह रहा था। जब तब बड़ा आर्डर पूरा करने के लिए पौधों को उसे वैन से ले जाकर पहुंचाना होता था। विश्वजीत दास को आराम मिल गया था। नर्सरी में होने वाली चल-फिर, प्लांटों की उठा-पठक से उन्हें छुटकारा मिल गया था। कुर्सी पर बैठे-बैठे बिल काटना और पैसे लेकर बक्से में रखना, इन दोनों कामों में उन्हें कोई परेशानी महसूस नहीं हो रही थी। परेशानी देने वाले सारे कामों को तो जेवियर ने अपने जिम्मे कर लिया था।
इन दिनों जेवियर को बस एक ही मुश्किल आ रही थी। वह रोज होम के दोस्तों से मिलने नहीं जा पा रहा था। नर्सरी से आउटहाउस लौटते लौटते रात हो जा रही थी।
जेवियर को एक बात और चुभ रही थी। हर जगह छुट्टी का दिन संडे था, लेकिन विश्वजीत दास अपनी नर्सरी बुधवार को बंद रख रहे थे। यह दिन जेवियर के लिए बेकार में बर्बाद होता था। वह ज्यादा से ज्यादा शाम को ही होम में जा पा रहा था। यदि यह छुट्टी संडे को हो रही होती तो वह अपना पूरा दिन वहां लड़कों के साथ बिता सकता था।
नर्सरी बंद होने का समय हो रहा था। अब विश्वजीत दास घर लौटने वाले थे। जेवियर ने अपनी हिचक तोड़ते हुए आखिरकार पूछ ही लिया, ‘सभी कामों में छुट्टी संडे को होती है। आप वेडनेस डे को क्यों रखते हैं, अंकल?’
‘मैं वेडनेस डे को पैदा हुआ था, बच्चू…!’ विश्वजीत दास ने इस मौके को ठिठोली में बदल दिया। लेकिन जेवियर को चुप देख उन्होंने पूछ ही लिया, ‘क्यों तुमको कोई दिक्कत हो रही है?’
‘अंकल, संडे को होम में सभी बच्चे पूरा दिन छुट्टी मनाते हैं। उस दिन बैंड सेरेमनी होती है, बैंड का प्रोगाम होता है। बाहर से लोग उसे सुनने, देखने जुटते हैं। संडे स्पेशल होता है, अंकल।’ जेवियर उम्मीद-भरी नजरों से अंकल को देख रहा था।
‘अच्छा तो एक काम हो। तुम बुधवार के साथ-साथ संडे को भी छुट्टी मनाओ। संडे को पूरा दिन मैं नर्सरी सम्हालूंगा। मैं अभी भी पूरा दिन काम कर सकता हूँ, बच्चू…।’ विश्वजीत दास अभी भी ठिठोली के ही मूड में थे।
जेवियर अब पूरा संडे होम में बच्चों के साथ गुजार रहा था। वह उनमें बड़ा था और सभी उसे बड़े का आदर दे रहे थे। कैरम, म्युजिक बैंड, कोरस तरह के कार्यक्रम थे और वह उनका हिस्सा रह रहा था।
शहर के सबसे बड़े मैदान में पुष्प-प्रदर्शनी का आयोजन था। एक स्टाल विश्वजीत दास नर्सरी का भी लगा। सभी स्टालों की तरह इस स्टाल पर भी तरह-तरह के फूल और उनके प्लांट सजे हुए थे। लेकिन उस स्टाल पर एक और भी आकर्षण था। यहां जेवियर के दोस्तों की बैंड टोली जमी थी। तरह-तरह की धुनें हवा में तैर रही थीं। विश्वजीत दास अपनी नर्सरी में एक अलग तरह के उल्लास में तल्लीन थे। वे थिरक रहे थे और झूम रहे थे।
जेवियर के लिए ये निश्चतताओं और खुशियों के दिन था। विश्वजीत दास भी इत्मिनान में थे कि तभी एक अप्रत्याशित उलटफेर-सा हुआ। विश्वजीत दास को जमीन मालिक ने सूचना दी कि यह जमीन एक बड़े आदमी ने मॉल खोलने के लिए खरीद ली है और इसे छह महीने में खाली किया जाना है, ताकि बिल्डिंग का काम शुरू हो सके। विश्वजीत दास ने एडवोकेट से राय मशविरा लिया। राय मिली, किराए के एग्रीमेंट के मुताबिक जमीन मालिक जब भी कहेगा, एक वाजिब समय लेकर जमीन छोड़ देनी होगी। यदि वे उतनी रकम देने को तैयार हों जितनी रकम मॉल बनाने वाला दे रहा है तो वे इसे खुद खरीदने का दावा ठोक सकते हैं और जमीन मालिक जमीन उन्हें ही बेचने के लिए बाध्य होगा।
विश्वजीत दास मॉल बनाने वाले के अकूत पैसे से हार चुके थे। बहुत मुश्किल से यह समझौता हुआ कि विश्वजीत दास छह महीने में जमीन खाली कर दें, इसके एवज में ढाई-तीन सालों में मॉल बन जाएगा तो उसके गेट के पास एक छोटी जगह मिल जायेगी जिसमें वे चुनिंदा फूलों और प्लांटों की छोटी सी नर्सरी लगा सकेंगे।
विश्वजीत दास ने एक शाम जेवियर को साफ–साफ बता दिया, ‘बेटा, यह नर्सरी अब छह महीने के बाद नहीं रहेगी। ढाई–तीन सालों में मॉल बनेगा तो नर्सरी के लिए एक छोटी जगह मिलेगी, मैं अब नर्सरी खोलूंगा या आसनसोल में बिटिया के पास चला जाऊंगा, अभी कुछ भी ठीक नहीं है। यह आउटहाउस तुम्हारा घर रहेगा। तुम जितने दिन चाहो, रहो, लेकिन तुम कोई काम ढूढ़ो। इतने दिन कैसे बेरोजगार रह पाओगे? तुम सीनसियर और ईमानदार हो, जरूर कामयाब होगे।’
विश्वजीत दास ने उसके कंधे थपथपाए थे और उसका हौसला बढ़ाया था।
जेवियर जिन मुश्किलों के अंधड़ से निकल चुका था, वह अब एक बार फिर उन्हीं अंधड़ों में था। उसे बस आउटहाउस में जब तक चाहे, तब तक रहने की गुंजाइश मिल गई थी। लेकिन कोई जॉब हो, तभी तो टिका जा सकता था।
अब वह एक बार फिर उन्हीं जगहों के चक्कर लगा रहा था जहां उसने पहले जॉब पाने की उम्मीदें की थीं। कूरियर के ऑफिस, रेस्टूरेंट, केक पेस्ट्री के शॉप, नर्सिंग होम, स्टेशनरी-गिफ्ट की दुकानें, मॉल, ड्राई-क्लीनिंग, बुकशॉप, टूरिस्ट एजेंसी का ऑफिस, कंप्यूटर शॉप, ऐसी ही जगहों से कोई जॉब मिलने की उम्मीद हो सकती थी। वह इन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रहा था। कभी सुबह, कभी दोपहर, कभी शाम।
इन्हीं कोशिशों में उसे एक बहुत छोटी और मामूली सी गुंजाइश हासिल हुई थी। एरिया के सबसे बड़े जेनरल स्टोर ने उसे होमडिलवरी का काम दिया था, यानी ग्राहकों से मिले आर्डर के सामानों को उनके घर तक पहुंचा देना था। इस काम के लिए कई लड़के थे जिनमें एक वह भी था। दिन भर में ऐसे आर्डर मिलते रहते थे, लेकिन यहां कोई माहवारी तय नहीं थी। हर आर्डर पर डिलेवरी-चार्ज मिल रहा होता था। स्टोर उसे डिलेवरी-ब्वाय को दे देता था। बड़े आर्डर पर थोड़ा ज्यादा चार्ज, ज्यादा दूरी के बिल में भी थोड़ा ज्यादा चार्ज। छोटे आर्डर और आसपास के आर्डर पर थोड़ा-सा चार्ज। दिन भर में कोई ब्वाय कितना पाएगा, कोई ठीक नहीं। कुछ पाएगा कि नहीं पाएगा, यह भी तय नहीं। जेवियर लग गया था कि फिलहाल काम चलाया जाए, आगे कोई दूसरा जॉब ढूंढ़ते रहा जाए।
जेवियर का लंबा-लंबा समय जेनेरल स्टोर के आस-पास घूमने भटकने में लग जा रहा था। तब कहीं कुछ-कुछ काम मिल रहा था। स्थिति बहुत साफ थी कि इस काम के भरोसे नहीं रहा जा सकता था। दूसरा जॉब ढूंढ़ना हर हाल में जरूरी था।
मुश्किल के इन्हीं दिनों में ऐंजल्स होम के दो-दो बच्चों के जन्म दिन पड़े थे। जेवियर के पास जो थोड़े बहुत पैसे थे, उसने उन अवसरों को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभा लिया था। उसकी चिंता यह जरूर थी कि अब आगे किसी बच्चे का जन्मदिन आए, तब तक वह कुछ पैसे हासिल कर ले।
यह सुबह-सुबह का समय था। जेवियर चौंका, अंकल पीछे की खिड़की से उसे पुकार रहे थे, जेवियर… जेवियर। वह तेजी से अंकल के बरामदे में पहुंचा।
‘जेवियर… यहां से दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर एक प्राइवेट स्कूल है। तुम उसमें काम करोगे? दूरी थोड़ी ज्यादा है? पैसे नर्सरी में मिलने वाले पैसे से थोड़े ज्यादा होंगे और मैनेजर की तरह रहोगे। बस से एक-डेढ़ घंटा जाने में लगेगा, एक-डेढ़ घंटा आने में’ अंकल उससे पूछ रहे थे।
‘करूंगा, अंकल…।’
‘मैंने वहां बात की है। अगले दो हफ्ते के बाद तुम्हें वहां ज्वाइन करना है… तब तक जो भी छिटपुट काम मिले, करते रहो।’ अंकल ने आज उससे हाथ मिलाया।
अगले दिन जेवियर तैयार होकर निकला था। बस के स्टॉप पर वह खड़ा था कि तभी उसका मोबाइल बजा, ‘भैया, दो दिनों का एक प्रोग्राम है… ऐंजल्स होम के लड़के बैंड गु्रप के साथ सड़कों पर चंदा जुटाने निकलेंगे… वो जो दो पुरानी इमारतें गिर गई हैं, उनमें घायल मजदूर परिवार और गरीब बच्चों को मदद देने के लिए। आज ग्यारह बजे निकलेंगे। देख लो, आना संभव है या नहीं?’
मोबाइल कट गया, यह ऐंजल्स होम के देवाशीष की आवाज थी।
जेवियर ने बिना देर किए रास्ता बदल लिया। अभी वह होम की तरफ जा रहा था।
बैंड के लड़के दो-दो की कतार में सजे खड़े थे। अब उनके शहर की सड़कों पर निकल पड़ने का समय था। बैंड की एक तेज धुन उभरी। दोनों कतारें बढ़ने लगीं। आगे-आगे जेवियर और चार-पांच लड़के हाथ में छोटे-छोटे बाक्स लिए यह अपील करते हुए बढ़ने लगे… कि मजदूरों ओर गरीब बच्चों के लिए जिन्हें जो मदद करनी है, वे बाक्स में डालते जाएं। जरूरतमंद बच्चों और उनके घर के लोगों की मदद में आगे आएं। थैंक यू… थैंक यू… मदद करें। यह हमारी ड्यूटी है।
यह कोई दिन था और शाम का समय था। ऐंजिल्स होम के मैनेजर ने गौर किया, कोई लड़का गेट खोलकर होम ही तरफ आ रहा है, अरे, यह तो परेश मंडल है, पांच-छह साल पहले होम छोड़कर गया था, दार्जिलिंग के किसी होटल में मैनेजर की नौकरी लगी भी इसकी। लड़के ने पास आकर नमस्कार किया, ‘मैनेजर अंकल, मेरी नौकरी छूट गई है। मैं इस शहर में नौकरी ढूंढ़ने आया हूँ।’
तब तक होम में रह चुके पुराने लड़के की खबर पाकर कई सारे बच्चे आ गए।
‘भैया, तब तक रहिए हमारे होम में। हम आपके लिए कहीं जगह बना लेंगे।’ इन्हीं में से एक बच्चा कह गया। बाकी सारे बच्चों ने ‘हां, हां’ की आवाजें लगाईं।
‘नहीं, मैं बस इस होम को देखने आ गया था। ब्रदर्स, आप मुझे शुभकामनाएं दें। मैं जल्द ही ठिकाना बना लूंगा। फिर आप सबके साथ हूँ…।’ आगंतुक लड़के ने हाथ हिलाते हुए मैंनेजर और बच्चों को धन्यवाद दिया और निकल पड़ा। लड़के भी हाथ हिलाते रहे।
जेवियर आज आउटहाउस से निकलने को हुआ तो रोज की ही तरह उसकी नजर कैलेंडर पर गई। आज की तारीख को घेरा हुआ था। नीचे स्याही से लिखा हुआ था- समीरचंद्र का बर्थडे। वाह, उसका दिल उछला लेकिन तुरंत ठंडा पड़ गया। घर में या पैंट के पाकिट में पैसे नहीं थे। लेकिन उसने फिक्र को एक तरफ फेंका, कोई बात नहीं। दिन भर का समय है, पैसे हो जाएंगे।
बदकिस्मती ही थी कि दोपहर तक डिलेवरी का कोई काम नहीं मिला। जेवियर स्टोर्स के मैनेजर के पास जा खड़ा हुआ, ‘प्लीज, आज मुझे ढाई सौ रुपये एडवांस दे दें। अगले कामों से काट लीजिएगा इसे।’
मैनेजर ने गरदन उचकाई, ‘ब्वाय, एडवांस माहवारी में से मिलता है, ऐसे छिटपुट कामों में मिलने वाले सर्विस चार्ज से नहीं, सॉरी… सॉरी…।’
जेवियर को आज केक वाली आंटी याद आई, वह केक ही उधार पर ले लेगा। पैसे हफ्ते दिन में चुका देगा। उसने बस पकड़ी और आंटी की तरफ निकल पड़ा। किंतु वहां एक दूसरी बुरी खबर मौजूद थी। बिल्डिंग वाले ने किराया समय पर नहीं मिलने के आधार पर आंटी का कमरा खाली करा लिया था। आंटी अब कहीं दूसरी जगह चली गई थीं और कमरा बंद पड़ा था।
जेवियर लौटते हुए दुबारा स्टोर पर उतरा। वह मैनिजर के सामने जाकर खड़ा हुआ। लेकिन मैनेजर अपने कामों में गुम था। उसने जेवियर की कोई नोटिस नहीं ली।
जेवियर जिस समय सड़क के किनारे खड़े-खड़े अपनी फिक्र में उलझा हुआ था, तभी उसे विश्वजीत दास अंकल की याद आई।
विश्वजीत दास भी जेवियर को अपने बरामदे में खड़ा देख चौंक गये ‘क्या बात है, जेवियर बच्चू?’
‘अंकल आज मेरा बर्थ र्ड है…।’ जेवियर ने बस छोटा-सा वाक्य सामने रखा।
‘हां, हां,’ अंकल ने भी बेतकल्लुफी दिखाई।
विश्वजीत दास ने भीतर कमरे में जाकर आलमारी से पांच-पांच सौ के नोट निकाले लेकिन डायरी खुली पड़ी थी तो उत्सुकता में उलट-पुलट लिया। वे चौंके, अरे, जेवियर का बर्थडे तो आज नहीं, तीन महीने बाद हैं। वे रुके लेकिन फिर आगे बढ़ आए।
विश्वजीत दास ने जेवियर की तरपफ पाँच सौ का नोट बढ़ाया ‘शाबास बेटा’ यह लो अपना बर्थ डे मनाने के लिए। आज तुम्हारे अलावे तुम्हारे किसी दोस्त का भी बर्थडे है न?’ विश्वजीत दास की आवाज में गहरी मासूमियत थी।
‘हां, अंकल, आज समीर चंद्र का भी बर्थडे है।’ यह जेवियर की खामोश सी आवाज थी। उससे यह छुपाया नहीं गया था।
‘तो बेटा, उसके लिए भी यह रखो’ विश्वजीत दास क हाथ में पाँच सौ का एक और नोट था।
‘नहीं, नहीं अंकल, बस पहले वाले नोट से काम चल जाएगा।’ जेवियर दो कदम पीछे हटा।
‘बेटा, इसे भी रखो।’ विश्वजीत दास अड़े हुए थे।
‘तो फिर पहले वाला यह नोट वापस ले लीजिए, अंकल। बाद वाले नोट से काम चल जाएगा।’ जेवियर पांच सौ का पहले वाला नोट लौटा रहा था।
‘रखो, जेवियर, रखो…।’ अंकल जर्बदस्ती पर उतारू थे।
‘नहीं, अंकल, नहीं। मैं बादवाला यह नोट ही रखूंगा…।’ जेवियर ने पहले वाला नोट लौटा दिया था और बाद वाला नोट रख लिया।
जेवियर बरामदे से बाहर आकर गेट खोल रहा था और सड़क को पार कर दूसरी तरफ जा रहा था। उसे एंजिल्स होम समीरचंद्र की बर्थडे पार्टी का इंतजाम करने की जिम्मेवारी पूरा करने के लिए पहुंचना था।
विश्वजीत दास बरामदे में खड़े-खड़े, पीठ पर छोटा-सा बैग लटकाए चले जा रहे उस लड़के को गौर से देख रहे थे जिसने अपने बर्थडे की बात सामने रखी थी ताकि मिले हुए पैसे से दोस्त के बर्थ डे पार्टी का इंतजाम कर सके, जिसे दो-दो पार्टियों के पैसे मिल गए थे, लेकिन उसने एक पार्टी का पैसा लौटा दिया था और एक ही पार्टी का पैसा रखा था। वह लड़का सड़क पार करके छोटे रास्ते के लिए पीछे की गली में घुस गया था लेकिन विश्वजीत दास उसी जगह पर खड़े-खड़े देखे जा रहे थे जैसे कि वह दिख रहा हो।
ये दिन परिवारों में, स्कूलों में नए-नए अवसर मनाने के भी दिन थे। एंजिल्स होम का मैनेजर थोड़ा चौंका, होम के बच्चों ने स्कूल से लौटकर ऐलान कर दिया, कल हम मदर्स डे मनाएंगे। मैनेजर को पहले तो थोड़ा अच्छा भी लगा, बच्चे अपनी उन मांओं को याद कर लेंगे जिन्हें उन्होंने देखा भी नहीं है या जिनके साथ उन्होंने समय भी नहीं गुजारा है, लेकिन तुरंत ही इस सवाल ने उसे परेशान भी किया, यह अवसर मनाने के लिए कम से कम कोई एक मां तो चाहिए, कहां से लाएंगे ये बच्चे अपनी मां। इसका जवाब भी बच्चों ने ही निकाल लिया, ‘अंकल, हम क्रासिंग पर टोकरी में केला बेचने वाली बूढ़ी आंटी को ले आएंगे। हम उन्हें ही विश करेंगे। उनसे ही ब्लेसिंग लेंगे।’
सभी बच्चे जुट आए थे। जेवियर को और कई दूसरे लड़कों को भी मोबाइल से खबर गई थी। वे भी जुट आए थे। पहले बैंड की धुन उभरी। आंटी अपने हाथ में केलों का गुच्छा लिए कुर्सी पर बैठी थीं। बच्चे ‘ग्रेट मदर, स्वीट मदर, माई मदर’ गाते हुए आंटी की चारों तरफ गोल-गोल घूम रहे थे। आंटी हर बच्चे को पास बुला बुलाकर चूम रही थीं, बालों को सहला रही थीं और हर बच्चे को गुच्छे से तोड़कर एक एक केला दे रही थीं। यह आंटी के जीवन का भी एक अद्भुत दिन था। वे यहां एक साथ कई बच्चों की मां थीं।
लगभग दो-ढाई घंटे तक यह कार्यक्रम चला। कार्यक्रम खत्म हुआ तो लड़कों ने कोल्डड्रिंक चाय की प्याली में ढाल-ढाल कर पी। एक प्याली आंटी को भी मिली, लेकिन आंटी ने वह प्याली पास के बच्चे को पीने के लिए दे दी।
सभी बच्चे कार्यक्रम खत्म होने पर आंटी को एंजिल्स होम से बाहर लाकर क्रासिंग तक छोड़ने के लिए निकले।
शाम उतर आई थी और बत्तियां जल रही थीं।
अभी परिद़ृश्य में सड़क के किनारे-किनारे मां को घेर कर धीरे-धीरे चल रही फरिश्तों की टोली थी।
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