युवा कवि।अब तक तीन कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’, ‘पदचाप के साथ’ और ‘इंकार की भाषा’।संप्रति-अध्यापन।
भुट्टे के दानों के बीच
पत्तों का हरा जब
धीरे-धीरे पीला पड़ता जाता है
तब पता चलता है कि
अब फसल पक कर तैयार हो गई है
भुट्टे के दानों के बीच जो
बह रही थी दूध की नदी
वह अब इतनी पुष्ट और ठोस हो गई है कि
भूख मिटा सकती है अकाल में
अब जबकि हर दरवाजे पर
ढेर लगा है भुट्टे का
वहीं कहीं कतार में ट्रक भी खड़ा है
दानों को बहुत दूर ले जाने के लिए
ऐसा ही होता है अक्सर
खरीददार की ताकत हैं उसकी आंखें जो
भादों की बारिश में
अकाल का अनुमान लगा लेती हैं
आज जिसे वे सबसे कम कीमत में
खरीद रहे हैं
कल वही सबसे ऊंची बोली लगाएंगे
बेचने के लिए
उगाने वाले दानों को
कुछ नहीं कर पाएंगे
भुट्टे के दानों के बीच
सिर्फ मिठास नहीं रहती
वह साजिश भी रहती है
जो मुनाफे का पूरा गणित पलट देती है
फसल कोई बुनता है
काट कर कोई और निकल जाता है।
निशानी
आज पिता मेरे पास नहीं हैं तो
उनकी बहुत सी चीजें
ठोस रूप में हमारे साथ सांस लेती हैं
मुझे चीजों में मन नहीं लगता
चीजों के बीच पिता को खोजने लगता हूं मैं
उनकी आवाज सुनने का मन होता है
वह कहीं सुरक्षित नहीं है कि
बजा दिया जाए
जब मन करे
जैसे पुकार लिया करते थे वे कई बार मेरा नाम
उनकी हँसी पहले खूब गूंजती थी
अब लेकिन कम हो गई है उसकी छाप
उनके स्पर्श की गंध भी धीरे धीरे उड़ गई
जैसे कोई फूल सुबह खिल कर नया रहता है
चार दिन बाद वही इतना सूख जाता है कि
मानने का मन नहीं होता यह वही फूल था
किसी का होना ही उसकी छाप है
जब तक वह रहता है
उसकी छाप चमकती है
उसके जाने के बाद उड़ने लगती है उसकी रंगत
जैसे धूप में लगातार सूखने के बाद
नई कमीज भी जर्जर हो जाती है।
दियारे की धूल
नदी के पानी को देखो
वहां रेत नहीं दिखाई देगी
जहां रेत दिखाई देगी
वहां से जा चुका होगा पानी
फिर कभी न कभी वह
लौट कर आएगा वहां
एक नदी सिर्फ बहते हुए पानी का नाम नहीं है
वह प्यास और पानी की एक खूबसूरत दुनिया है
जिसके किनारे उड़ती है धूल तो
आग लेकर साथ उड़ती है
वहां बंजर में पैदल चलने पर बैशाख में
जलते कोयले पर चलने जितनी होती है जलन
छन से जल जाती हैं उंगलियां
वहीं कहीं पानी की एक दुनिया हरे पत्तों के बीच
खिलखिलाती है तरबूज की शक्ल रंग में
खीरे की शक्ल में जीभ पर फैलता है पानी
सबके रूप अलग आकार अलग बेढंग
रेत पर फैलती पलती और बढ़ती हुई मिठास
दूर तक धरती छेंक लेती है
यह कितना अजीब है कि बीज की असंख्य दुनिया
खोलती हैं आंखें रोज
दियारे की धूल में
वहां सिर्फ रेत नहीं होती
रेत की नस नस में दौड़ती है एक नदी!
गिरने की आवाज
इस पृथ्वी पर जो कुछ होता है
उसके होने के निशान भी छूट ही जाते हैं
उसके विदा होने के बाद
जैसे दीवार से गिर जाती है तस्वीर
कील वहीं गड़ी रहती है उदास
जैसे काटे गए पेड़ की जगह का खालीपन
एक दिन पूरी कहानी कह देता है
पेड़ के बड़े होने और पत्तों से भरने की
फूलने और फलने की तमाम तस्वीरें
बीते दिनों की
एकाएक कौंध जाती है
जो पेड़ काटता है
वह आखिर क्या सोचता है कि
इतना मगन होता है जड़ काटते हुए
उसके गुनगुनाने की आवाज सुनकर
डर जाता हूं मैं
कैसे कोई हरे भरे पेड़ को काटने का काम भी
इतने मजे से कर सकता है
फिर मुझे लगता है कि
यह जो पेड़ काट रहा है मजे में
कोई इसकी भी जड़
इतनी ही सावधानी से काट रहा है
गिरने की आवाज का गूंजना अभी बाकी है।
रात में बदली तस्वीर
विस्मृत होने के लिए
न जाने कितनी चीजें अभिशप्त हैं
फिर भी रोज कुछ नया घटता है
रोज सूखती है मन की टहनी और
फिर नमी सोख कर हो जाती है ताजी हरी
दो दिन बाद
एक एक पल जो लगता है
सांस की तरह जरूरी
कुछ ही दिनों में उसकी याद
धुंधली पड़ जाती है धब्बे में बदल
जैसे साल भर पहले की भादों वाली रात या
पिछली बारिश में जूतों में पानी फैलने की ठंड
कुछ याद नहीं इस बीहड़ में
कबाड़ जितनी जगह शेष बचती है अंत में
सब कुछ वैसा ही उलझा हुआ
एक में गुंथा दूसरा तीसरे से उलझा हुआ
जिसके एक स्पर्श से कांप गया था बुखार
पिछली बार
तस्वीर जो बच गई उस चेहरे की आंखों में
वह भी धुंधली पड़ती हुई एक दिन
रात में बदल जाती है
फिर भी नहीं छूटता जीना।
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