आर. शांता सुंदरी
(1947-2020) पिछले तीन दशकों तक तेलुगु से हिंदी और हिंदी से तेलुगु में परस्पर अनुवाद में संलग्न रहीं। पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशन के अतिरिक्त अनुवाद की हुई 50 से ज़्यादा पुस्तकें प्रकाशित। अनुवाद के लिए भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग सहित कई अन्य संस्थाओं से पुरस्कृत।
एन. गोपि तेलुगु के मूर्धन्य कवि और गद्यकार। 21 कविता-संग्रहों के साथ 50 पुस्तकें प्रकाशित। तेलुगु कविता में नए सौंदर्यबोध और चेतना के प्रमुख प्रवर्तक। ‘कालान्नि निद्रा पो निव्वानु’ और ‘ननीलु’ काव्य कृतियों के लिए विशेष रूप से चर्चित। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। तेलुगु विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। |
असमय बरसात
मां की आंखों में
तैयार रहते हैं आंसू हमेशा
बात-बात पर हो जाती है भावुक
जबसे हुए हम पैदा
शायद ऐसी ही रही हो तब से
कुछ समय
जूझती रही हमारी बीमारियों से
पिता के गुजर जाने से आ पड़ी मुसीबतों में
हमारे संदिग्ध भविष्य को
सुधारने की अनवरत कोशिशों से
अब सब पार लग गए
अब अपने लिए क्या चाहती है
वह खुद नहीं जानती
बारहों महीने वर्षा ॠतु की तरह
बरसती ही रहती हैं माँ की आंखें
हम जी रहे हैं बसंत में
तो बरसात से लगते हैं ऊबने।
बचपन के मेरे अध्यापक
वे सचमुच हैं
हमारे अध्यापक जैसे
प्लेटफार्म पर
तख्ते पढ़ते चल रहे हैं
चाहे कितनी भी उम्र हो गई हो
वे कितने भी बदल गए हों
पहचाने बिना कैसे रह सकता मैं!
पांच दशकों के पुल के
उस छोर पर भले ही खड़े हों
फिर भी छठी कक्षा के अपने हीरो को
कैसे भुला सकता हूँ!
हाथ में खड़िया ले लेते
तो बरसते थे ब्लैकबोर्ड पर मोती
बिना किताब देखे
पढ़ाते थे जब सबक
आंखें चौड़ी हो जाती थीं हैरानी से
कभी पीठ ठोंककर शाबाशी देते
तो रात भर
नींद में बरसते रहते कनेर के फूल
पास जाकर कहा मैंने ‘नमस्ते सर!’
पहचाना नहीं उन्होंने मुझे
परिचय दिया अपना मैंने
तब बोले, ‘अरे तू!
तू तो कवि बन गया है न?’
पतली सी अश्रुरेखा उभरी
उनकी आंखों में
और लेने लगी कई आकार
‘मैं?
अच्छा हूँ, इसका क्या मतलब!
बुढ़ापा आ गया
बुढ़िया चल बसी
अपनी अपनी राह चल दिए बच्चे
पुरानी पेंशन से चल रही है गाड़ी’
इतने में आ गई रेलगाड़ी
डिब्बे में चढ़ गए वे
भीड़ को हटाते हुए
गाड़ी चल पड़ी बोझिल गति से
आखिरी डिब्बा ओझल होने तक
हाथ हिलाता रहा मैं
बेचारे मास्टर जी
चुक गई जिंदगी की तरह
ओझल हो गए नजरों से
बचपन में
उन्होंने खर्च किया था जिन सांसों को
उन सांसों के प्रतिरूप सा
प्लेटफार्म पर जगमग करता रहा मैं!
शिलांग में सूर्योदय
शिलांग में
सूरज से हाथ मिलाना
एहसास नहीं देता गरमाहट का
आसमान छूने को
पहाड़ और पेड़
लगाते रहते हैं होड़
बादल लगते हैं ऐसे
जैसे जोड़कर सी दिया गया हो
कई संदेश-काव्यों को
कोहरा दिखता है परदे जैसा
ब्रह्मज्ञान को ढकनेवाला
मोटर गाड़ी से भी आगे
दौड़ पड़ता है मन
बड़ा सरोवर लगता है रिश्तेदार
हमारे गांव के तालाब का
उसके किनारे-किनारे चलते जाने पर दूर तक
छोटी होती ही नहीं है राह
आती है कोई पुरानी याद
महसूस होता है
जैसे घर लौट आया हो गुमशुम बच्चा कोई
अत्यधिक बारिश देखने गए थे
चेरापुंजी तक
झरने नहीं दिखे
जेसे हम पहुंच गए हों आंसू बन!
आईना
बिना लहरों के तालाब-सा
सुंदर आईना
छीन चुका है कितने सारे दृश्य
और वापस नहीं देता
खासकर
मेरा सुंदर चेहरा
वापस नहीं लौटाया अब तक
मैंने उसके आगे बिखेरे थे
जो अनगिनत भाव
भेज दिया था उसने उन्हें
न जाने किन अमूर्त लोकों में
नक्काशीदार था उसका
हाथीदांत का ढांचा
इतने सालों बाद भी वैसे का वैसा
समय के विपरीत तैरती उसकी झिलमिल चमक
कम नहीं हुई जरा भी
जमी हुई महीन धूल की परत को
पोंछने के बाद
परदा उठाकर तैयार रहता है वह
अगले अंक के लिए
कुछ भी हो
आज कहूंगा
मेरे दादा का चेहरा दिखाने को
आईने ने प्रार्थना सुनी मेरी
पर मुझे खुद मेरा दादा बनाकर
दिखा दिया उसने
आज की मेरी उम्र को
टांग दिया मेरे सम्मुख
समय का नहीं है कोई रूप
फिर भी मालूम हुआ
वह दिख जाता है आईने में।
एन. गोपि, हाउस नं. 13-1/5बी, श्रीनिवासपुरम, रमंथपुर, हैदराबाद–500013 (तेलंगाना) मो.9391028496