युवा कवि. दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययन.

मैं चाहता हूँ अपने लिए
शहर में एक कोना
जहां किसी की आवाजाही न हो
उस कोने में पड़े हों बस दो स्टूल
और एक टेबल
जिसमें हमने रख दिए हों
एक दूसरे के लिखे पत्र
और कुछ किताबें
जिन्हें हम पढ़ सकें
बातों बातों में
थाम लूं मैं उसका हाथ
जैसे कोई थामता है चादर
किसी सर्द अंधेरी रात में
ठिठुरन से बचने के लिए
जमा कर लूं
थोड़ी सी उष्मा
जो शहर के बदलने की वजह से
रिश्तों की जमावट को पिघला सके
कैलोरीमिति के सिद्धांत की तरह
मैं थामे रहूं उसका हाथ तब तक
जब तक हम दोनों के हाथों का
तापमान एक न हो जाए
वे बोले
इतने भीड़ भरे शहर में
इतने एकांत की कामना करना
ऐसा है
जैसे बिना मशक्कत किए
नौकरी पाने का अल्हड़ सपना देखना
मैं कहूँ
कि तुम चुप रहो
एक दिन के लिए ही सही
अपने यथार्थ से निकलो
मेरी कविता की कल्पनाओं में प्रवेश करो
अगर नहीं है दुनिया में ऐसी जगह
तो आकरदेख लो
मेरे इस शहर में
इस कोने में
टेबल पर सिर्फ तुम्हारा नाम है
वह कभी हिम्मत नहीं कर पाई
मैं उसके शहर जा नहीं पाया
मेरे शहर के इस कोने में
किसी बेरोजगार ने लगा ली चाय की टपरी
भर गया यहां शोर
उसमें खो गई हमारी आवाजें
मिट गए हमारे नाम
चाय के दागों को पोछते हुए!

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