वरिष्ठ आलोचक, कविकहानीकार एवं शिक्षाविद। अद्यतन आलोचना पुस्तक भाषिक प्रसंग और हिंदी का विश्वरंग। पूर्वप्रोफेसर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय।

इंसान हुआ जुलाहा

मेरी बेटी!
मैं भी कभी तुम्हारी तरह
खेलती-कूदती, हँसती थी खिल-खिल
पूजा की घंटियों की तरह चित्ताकर्षक
और निर्मल हो जाता था वायुमंडल

आगंतुकों से खुश हो जाती
नहीं कहती थी ‘खुशी हुई’
उदास होती जाने पर
नहीं लेती थी ‘चैन की सांस’
जो भी लाड़ करता, उसी की हो जाती
लगाए बग़ैर कोई बैरियर

मगर, जवानी में आता है चुनौतियों का अंधड़
संभलना-संभालना होता है दुष्कर
जिम्मेदारियों के कनात लगने से
बिलाती है निजता पाताल में
और बिखर जाती है हँसी होकर चिंदी-चिंदी

तब चमत्कृत होती थी इंद्रधनुषी रंगों में खोकर
अब विस्मय होता है रंगे सियारों को देखकर
घुस आई है राजनीति अब घरों के भीतर
मुखौटा लगाए दैत्य देता है सदा देवता का भ्रम
इंसान हुआ है जुलाहा
स्वार्थ के ताने-बानों से बुनता है हर चादर
शतरंज का खिलाड़ी बन बिछाए रखता है बिसात
और ईजाद करता है नए-नए मोहरे
धर्म और भाषा के जरिए बदलता है मानचित्र तक

मेरी बेटी!
डरती हूँ तुम्हारे लिए बहुत-बहुत ज्यादा
नींद में चिहुंक उठती हूँ
और पसीने से होती हूँ तरबतर
कहीं छिन न जाए तुम्हारी भी हँसी भविष्य में
जीवन हुआ है जटिल
मकड़ी के खूबसूरत जाल-सा।

 

सृजन, बी ३१/४१, एस, भोगाबीर, संकटमोचन, लंका, वाराणसी२२१००५ मो.९९३६४३९९६३