दो-तीन दिनों से काम करने वाली मुन्नी मुझसे कुछ कहना चाह रही है, पर कह नहीं पा रही थी। कहे भी कैसे, सुबह में मुन्नी के आने के पहले तो मैं स्कूल चली जाती हूँ, शाम को जब मुन्नी आती है, तब मैं थकी-हारी सोई रहती हूँ। इस समय मैं किसी का सुनना नहीं चाहती।

 एक रविवार ही होता है जब मुन्नी से भेंट होती है। आपस में बातचीत हो पाती है। सुबह का काम खत्म करने के बाद मुन्नी ने पास आकर धीमे स्वर में कहा, ‘दीदी, हम कह रहे थे, इस महीने हमको दस हजार रुपये एडवांस चाहिए।’

‘क्यों, इतने रुपये की क्या जरूरत आ पड़ी?’

‘इतने में कहां होने वाला, एक जगह पांच हजार के लिए कहे हैं।’

‘मुन्नी, तुमको इतने रुपये किसलिए चाहिए?’ एक अभिभावक की तरह मैं पूछ बैठी। इतने वर्षों से काम कर रही है कि परिवार की एक सदस्य ही हो गई है। मेरे सवाल पर उसने कहा, ‘मेरा बेटा सोनू है न, उसका स्कूल में नाम लिखाना है।’

‘तो तुम्हारे घर के बगल में ही तो अच्छा सरकारी स्कूल है, वहां फीस भी नहीं लगेगी।’

‘दीदी, हम चाहते हैं कि वह अंग्रेजी मीडियम में पढ़े। अच्छा पढ़-लिख जाए तो हमारी जिंदगी सुधरे।’

मुन्नी की चमकती आंखों में मेरा पराजित मौन था।

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