कवि और पत्रकार।सीएसडीएस की पत्रिका प्रतिमानसे संबद्ध।

कुल छप्पन कहानियों के लेखक शेखर जोशी नई कहानी के दौर के महत्वपूर्ण कथाकार थे।वे नैसर्गिक प्रतिभा के धनी थे।अमरकांत के साथ वे नई कहानी के प्रचारित धड़े का प्रतिमुख माने जाते थे।१९५१ से वे कहानियां लिखने लगे थे।पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’, दूसरी कहानी ‘आदमी और कीड़े’, तीसरी कहानी ‘दाज्यू’ ने एक कहानीकार के रूप में उन्हें अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया।कल्पना में प्रकाशित ‘कोसी का घटवार’ तो ‘उसने कहा था’ की तरह क्लासिक है।कहानी पत्रिका के १९५६ के विशेषांक पर एक पाठकीय प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने संपादक को चिट्ठी लिखी कि हिंदी का कहानीकार हर क्षेत्र की कहानियां लिख रहा है, यहां तक कि वेश्यालयों की भी, लेकिन एक वर्ग को लगातार उपेक्षित कर रखा है और वह है कामगारों-कारखानों की दुनिया।यह पत्र पाते ही अपने समय के खुर्राट संपादक भैरव प्रसाद गुप्त ने उन्हें लिखा कि बड़ी सीख दे रहे हो! तुम क्यों नहीं लिखते, तुम तो कारखाने में श्रमिकों के साथ काम करते हो? भैरव जी के पत्र का प्रभाव पड़ा कि उन्होंने पहले ‘उस्ताद’ लिखी।अमृत राय के प्रोत्साहन का नतीजा था कि ‘बदबू’ कहानी लिखी गई। ‘बदबू’ को आलोचकों ने बहुत सराहा।उस कहानी से प्रभावित हो बालकृष्ण राव ने ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में एक लेख लिखा।फिर उसी कड़ी में वे ‘मेंटल’, ‘जी हजूरिया’, ‘गलता लोहा’ जैसी श्रमिक और शिल्प के रिश्तों, संघर्षों और जिजीविषा की कहानियां लिखने लगे।उसी दौर के आसपास ‘कोसी का घटवार’कहानी लिखी गई।पहला प्रकाशित संग्रह का नाम भी ‘कोसी का घटवार’ ही था।

वे पहाड़ी क्षेत्र में जन्मे, पले और बढ़े थे, इस कारण उनकी कहानियों में वहां की स्मृतियां दर्ज हैं।ये स्मृतियाँ, भावुकता और रोमान से मुक्त हैं।पहाड़ से उन्हें इतना लगाव था कि एक अखबार में ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ की बैठक की सूचना छपी देखी तो वहां साइकिल से जा पहुंचे।वहीं पी.सी. जोशी से उनकी मुलाकात हुई।नंद किशोर नौटियाल से भी वहीं मिलना हुआ।समिति की पत्रिका ‘पर्वतीय जन’ का संपादन नौटियाल किया करते थे।शेखर जोशी उससे जुड़े और चंद्रकांत नाम से टिप्पणियां लिखने लगे।एक वार्षिकांक की योजना बनाते हुए नौटियाल ने कहा कि तुम कहानी लिखते हो, होटल वर्कर पर एक कहानी लिखो।तब उन्होंने ‘दाज्यू’ कहानी लिखी जो ‘पर्वत जन’ के वार्षिकांक में प्रकाशित हुई थी।इस कहानी की प्रशंसा पी.सी. जोशी ने की थी।१९५५ में वे चार साल का प्रशिक्षण प्राप्त कर हिंदी साहित्य के गढ़ इलाहाबाद पहुंचे।उसी शहर में उन्हें सैन्य कारखाने में नौकरी मिली।पी. सी. जोशी के प्रभाव के कारण वे प्रगतिशील मूल्यों में विश्वास करने लगे।

१९९७ में ‘पहल’ सम्मान लेने के अवसर पर इलाहाबाद में उन्होंने अपने बारे में कहा था कि ‘मेरा यह परिवेश जहां एक ओर अपार प्राकृतिक सौंदर्य, गीत-संगीत और सांस्कृतिक गतिविधियों से समृद्ध था, वहीं मेरे चारों ओर निपट गरीबी, दैन्य और मानवीय शोषण का जाल फैला हुआ था, जिसे कोई संवेदनशील व्यक्ति अनदेखा नहीं कर सकता…।मैं कामना करता हूँ कि मेरे पात्र अपने वास्तविक यथार्थ संदर्भों में ही स्वीकार किए जाएं।मेरे लेखन का आधार मेरे चारों ओर बिखरा हुआ यथार्थ जीवन रहा है।’

आजीवन वे अपनी राह से कभी भटके नहीं…।इस परिचर्चा की परिकल्पना उनके जीवनकाल में की गई थी।पिछले साल सितंबर माह में तेजी से उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और ४ अक्तूबर को वे अपनी जीवनयात्रा समाप्त कर हमलोंगों से विदा हो गए।

सवाल

() नई कहानी के दौर की ‘दाज्यू’ कहानी के लेखक (नब्बे वर्ष का हो चुका है) की कहानियों का आकलन किस तरह करेंगे?

() उनके पास कहानियां कम हैं, उपन्यास नहीं हैं, संस्मरणात्मक लेखन काफ़ी है, फिर भी वे हिंदी कथा जगत में लगातार महत्वपूर्ण बने रहे तो इसके क्या कारण हैं?

() पहाड़ के कथाकार शेखर जोशी पहाड़ नहीं लौटे, लेकिन उनके लेखन में पहाड़ बचा रह गया है।इस पर बातें होनी चाहिए कि हमारा भूगोल इतना फैला हुआ है, लेकिन हिंदी के लेखक क्यों अपनी जड़ों से दूर रह जाते हैं? नई कहानी की आधुनिकतावादी धारा से शेखर जोशी कितने भिन्न और अभिन्न हैं?

() शेखर जोशी के लेखन को देखें और आज के किसी भी नए कहानीकार की कहानी को देखें तो एक फर्क समय की संभावनाओं की तलाश के स्तर पर साफ-साफ दिखता है।वह फर्क क्या है?

() कामगारों को लेकर जितना सचेत लेखन शेखर जोशी का है, उसके आधार पर उन्हें जन कथाकार कहा जाता है।शेखर जोशी को यथार्थवादी कथा परंपरा में कहां विशिष्ट कहा जाए?

() उनकी कौन सी रचना आपको सबसे ज्यादा पसंद है और क्यों?

रविभूषण
रांची विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर।वरिष्ठ आलोचक और टिप्पणीकार।प्रमुख कृतियां :‘रामविलास शर्मा का महत्व’, ‘वैकल्पिक भारत की तलाश

शेखर जोशी के भीतर पहाड़ सदैव मौजूद रहा है

() शेखर जोशी (१० सितंबर १९३२ – ४ अक्टूबर २०२२) अब हमारे बीच नहीं हैं।पचीस वर्ष पहले जिन्हें मैंने नई कहानी की ‘जेनुइन त्रयी’ कहा था, उनमें से अब कोई भी जीवित नहीं रहे।शेखर जोशी की कहानियों का आकलन किसी एक प्रचलित, मान्य-बहुमान्य कथा-दृष्टि के तहत नहीं किया जा सकता।१९५० के दशक की नई कहानी के प्रायः सभी कहानीकार उसी दशक में चर्चित प्रतिष्ठित हुए थे।लगभग सबके कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके थे और सबकी कोई न कोई कहानी चर्चित-प्रशंसित हो चुकी थी, जिसका महत्व आज भी कायम है।

नई कहानी के अन्य कहानीकारों की तुलना में शेखर जोशी की कहानियों का स्वर नितांत भिन्न है।युवा फौजियों को विदा करने और परिवार की महिलाओं का उनके बस पर सवार होने के बाद की फूटती रुलाई के प्रभाव में उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ लिखी थी। ‘कोसी का घटवार’ (१९५७), ‘साथ के लोग’ (१९७८), ‘हलवाहा’(१९८१), ‘नौरंगी बीमार है’ (१९९०), ‘मेरा पहाड़’(१९८९), ‘डागरी वाला’ (१९९४) जैसे कथा-संग्रहों में उनकी जो गहरी मानवीय संवेदना है, वह उन्हें अपने अन्य समकालीन कहानीकारों से अलग कर उन्हें विशिष्ट बनाती है।पहाड़ के होने के बाद भी उनकी कहानियों में पहाड़ का सौंदर्य और प्राकृतिक सुषमा नहीं है।

‘पहल’ सम्मान (१९९७) में इलाहाबाद में दिए अपने वक्तव्य में उन्होंने अपने उस परिवेश की चर्चा की थी, जहां ‘निपट गरीबी, दैन्य और मानवीय शोषण का जाल’ फैला हुआ था।उनके जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए उसकी अनदेखी असंभव थी।उनकी कहानियों के पात्र वास्तविक यथार्थ के हैं।उनके लेखन का आधार ‘जैसा कि उन्होंने कहा भी है, उनके चारों ओर बिखरा हुआ यथार्थ जीवन रहा है।’ नई कहानी के कई कहानीकारों के यहां भी यह यथार्थ जीवन मौजूद है, पर उसे देखने, चित्रित करने और उसे कहानी में प्रस्तुत करने का कथा-कौशल सबका भिन्न है।शेखर जोशी की ‘कोसी के घटवार’ कहानी की जितनी चर्चा-प्रशंसा हुई, उतनी ‘दाज्यू’ की नहीं।इसी से उनकी कहानियों के आकलन की दृष्टि का पता चलता है।

यथार्थ के अहसास के बाद किस प्रकार मदन का किशोर-मन विवेकपूर्ण हो जाता है, यह हम ‘दाज्यू’ कहानी में देख सकते हैं।एक साथ भावुकता और विवेकशीलता की कहानी है ‘दाज्यू’।शेखर जोशी की कहानियों में यथार्थ का चित्र और चित्रण अन्य कहानीकारों से अलग है।वहां एक अद्भुत किस्म का कलात्मक संयम है।वर्णन और विस्तार अधिक नहीं है।

१९५१ से १९५५ तक दिल्ली में शेखर जोशी ने सेना की ईएमई ट्रेनिंग के लिए दिल्ली केंद्र में प्रशिक्षण प्राप्त किया था और यहीं उन्होंने ‘दाज्यू’ जैसी कहानी लिखी।इस कहानी के नायक मदन को उन्होंने अपना ‘प्रतिरूप’ कहा है, जो अपने परिवेश से विस्थापित होकर अपरिचितों की भीड़ में किसी आत्मीय को खोज रहा था, लेकिन सामाजिक यथार्थ ने इसे अहसास करा दिया था कि आत्मीय संबंधों के मूल में भी वर्ग-स्वार्थ होते हैं, जो मानवीय संबंधों में दरार डाल देते हैं।’ स्वाधीन भारत का सामाजिक यथार्थ बदल रहा था।उनकी कहानियों का आकलन करते समय इस बदलते सामाजिक यथार्थ पर हमें ध्यान देना होगा।

() शेखर जोशी ‘नई कहानी’ के ऐसे अकेले महत्वपूर्ण कथाकार हैं, जिन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा है।उनके यहां विस्तार का, विविध घटनाओं और पात्रों का अभाव है।वे ‘बूंद’ से ‘समुद्र’ का और ‘क्षण’ विशेष से एक बड़े समय की झांकी दिखा देनेवाले कथाकार हैं।महत्व कहानियों की संख्या का न होकर कहानीकार की कथा-संवेदना और उस कथा-दृष्टि का है, जिससे कोई कहानी बड़ी और महान बनती है।गुलेरी जी केवल एक कहानी ‘उसने कहा था’ के बल पर सौ वर्ष बाद भी हिंदी कहानी में शीर्ष पर हैं।शेखर जी की एक संस्मरण-पुस्तक है- ‘स्मृति में रहे वे’।

‘मेरा ओलिया गांव’ उनके अपने बचपन का आत्मवृत्त है जो छूट गया है, व्यतीत है, उसे वे संजोते हैं।कथा-जगत में उनके महत्वपूर्ण बने रहने का एक कारण उनकी रचनाशीलता भी रही।उन्होंने कभी विराम नहीं लिया, संस्मरण लिखे, आत्मवृत्ति लिखी।उनके अब तक महत्वपूर्ण  बने रहने का एक बड़ा कारण इस समय मनुष्य से गायब होती मनुष्यता और संवेदनशीलता भी है, जो जोशी जी की कहानियों मेें कहीं अधिक सघनता से मौजूद है।गहरी संवेदना, सम्यक विचार-दृष्टि और अद्भुत कलात्मक संयम के कारण उनकी कहानियां आज कहीं अधिक अर्थवान और प्रासंगिक हैं।मनुष्य एक-दूसरे से सबसे पहले भाव और संवेदना के स्तर पर ही जुड़ता है, जिसका क्रमशः ह्रास होता गया है।शेखर जोशी की संवेदना में विचार-पक्ष और भावतत्व पूरी तरह घुला-मिला है।वहां कोरी भावुकता नहीं है।वे कथालोचकों से अधिक पाठकों के कारण महत्वपूर्ण बने रहे हैं।हिंदी के मान्य कथालोचकों ने उनपर नहीं लिखा है।बाद में विजयमोहन सिंह ने उनके एक कहानी-संग्रह की मूल्यवान समीक्षा की।उनके महत्वपूर्ण बने रहने में एक बड़ा कारण उनका अपना व्यक्तित्व भी है। ‘मित्र त्रयी’ (राकेश, यादव, कमलेश्वर) से ‘जेन्युइन त्रयी’ के व्यक्तित्व  की तुलना से अमरकांत और शेखर जोशी का व्यक्तित्व कहीं अधिक चमक से भरा दिखाई देता है।

() शेखर जोशी के लेखन में ही नहीं, उनके भीतर भी पहाड़ सदैव मौजूद रहा।पहाड़ का कथाकार होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि कथाकार हमेशा पहाड़ में ही वास करे।शारीरिक रूप से अनुपस्थित होकर भी पहाड़ में रहा जा सकता है।शेखर जोशी इलाहाबाद, लखनऊ, नोएडा और अन्य स्थलों पर रहकर भी कभी पहाड़ से अलग नहीं रहे।पहाड़ उनके साथ नहीं था, पर वे पहाड़ के साथ थे।पहाड़ उनके भीतर सदैव मौजूद रहा है।अपनी ‘वसीयत’ में उत्तराखंड सरकार से उन्होंने जिन तीन मांगों के लिए आग्रह करने की बात लिखी है, वे सब पहाड़ से जुड़ी मांगे हैं।- ‘सुनामी दड़मिया से लेकर विनायक थल गगनाथ की सड़क का नामकरण पंडित हरेकृष्ण पांडे मार्ग किया जाए’, सरकार हमारे ओलिया गांव को हर्बल विलेज बना दे’ और ‘पूर्व दिशा में नमणतोई से सपकोट जानेवाले मार्ग तक एक दीवार उठाकर एक विस्तृत जलाशय का निर्माण किया जाए।उनकी अंतिम पुस्तक है- मेरा ओलिया गांव।यह गांव अल्मोड़ा जिले में है।अल्मोड़ा जिले के कुल ४२८ गांवों में से एक है ‘ओलिया गांव’।सोमेश्वर अल्मोड़ा जिले की एक तहसील है, जिसमें कुल १५० गांव हैं। ‘ओलिया गांव’ इसी तहसील में है।शेखर जोशी न अपना गांव कभी भूले, न पहाड़।उन्होंने ‘मूल कुमाउँनी’ में भी लिखा है।वे अपने गांव को वीरान होते देख रहे थे।दर्द से लिख रहे थे- ‘मेरा गांव वीरान हो चुका है’।

पहाड़ शेखर जोशी की नई कहानियों के केंद्र में है। ‘मेरा पहाड़’, उनका एक कहानी संग्रह है, जिसकी सभी कहानियाँ पहाड़ से संबंधित हैं। ‘मेरा ओलिया गांव’ भी पहाड़ का है।उनके लेखन में पहाड़ का होना श्रम और संघर्ष का होना है। ‘कोसी का घटवार’, ‘गलता लोहा’, ‘कथा-व्यथा’, ‘तर्पण’, ‘सिनारियो’, ‘ जोउली कुकु’, ‘रंगरूट’, ‘हलवाहा’, ‘व्यतीत’ आदि कहानियां देखी जानी चाहिए।उनकी अनेक कहानियों में पहाड़ का जीवन, वहां के लोग, उनके सुख-दुख, संघर्ष, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, गरीबी, पलायन-विस्थापन है।

नई कहानी की आधुनिकतावादी धारा जड़ों से विच्छिन्न है।उनकी कहानियां परिवार और नगर केंद्रित हैं। ‘मित्र त्रयी’ की कहानियां इसी कोटि की हैं, जहां मध्यवर्गीय जीवन है, दाम्पत्य जीवन है।शेखर जोशी का कथा-संसार इससे अलग है।गांव, शहर, पहाड़ के यथार्थ में अंतर है।यथार्थ को देखने-समझने में भी अंतर है।आधुनिकतावादी धारा से शेखर जोशी की अभिन्नता का कोई प्रश्न नहीं है।वे उस धारा से भिन्न हैं।शेखर जोशी का परिवार ‘छोटे भू-स्वामियों का परिवार’ था, जिसे उन्होंने ‘पराये श्रम से समृद्ध’ और वर्ण दृष्टि के लिए पूरी तरह समर्पित, कहा है। ‘व्यतीत’ कहानी का वृद्ध पिता शहर में अपने बेटे-बहू के साथ रहने को विवश है।गर्मियों में उनकी इच्छा पहाड़ जाने की होती है।पोती से खेलकर वह अपने बचपन में लौटता है।पहाड़ से जुड़ी कई कहानियों में स्मृति की प्रमुखता है।नई कहानी की आधुनिकतावादी धारा में वर्तमान, मध्यवर्ग, दाम्पत्य जीवन, प्रेम-विवाह आदि प्रमुख हैं।शेखर जोशी की कहानियाँ इस धारा के विपरीत हैं।

() शेखर जोशी के कथा-लेखन और आज के कथा-लेखन में साम्य देखना उचित नहीं है।आज के लेखन से क्या अभिप्राय है! विगत तीस वर्ष का लेखन, जो भूमंडलीकरण और नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद का है या इक्कीसवीं सदी का लेखन? ‘समय की संभावनाए’ या समय की सही पहचान? आकांक्षित समय की बात हो सकती है, जिसकी तलाश इधर की कहानियों में की जा सकती है, की जानी चाहिए।आज सबकुछ बदल चुका है।इस समय ‘कोसी का घटवार’, ‘दाज्यू’ और ‘बदबू’ जैसी कहानी नहीं लिखी जा सकती।

प्रत्येक कहानीकार अपने ढंग से समय को देखता है, उसकी पहचान करता है, उसके संकट को समझता है और समय को अन्वेषित भी करता है।समय का अन्वेषण समय की पहचान से जुड़ा है।शेखर जोशी की कथा-रचना का आरंभ पचास के दशक से हुआ।स्वाधीन हुए मुश्किल से दस साल बीते थे।संसदीय लोकतंत्र और कल्याणकारी राज्य का समय था वह।आज के नए कहानीकार का समय रुग्ण लोकतंत्र और कॉरपोरेट राज्य का है।जहां तक ‘समय की संभावनाओं की तलाश’ का सवाल है, यह उस समय आज की तरह प्रमुख नहीं था।आज का भारत उस समय के भारत से सर्वथा भिन्न है।शेखर जोशी ने अपने समय के यथार्थ के वास्तविक रूप और पक्ष को जिस कुशलता से हमारे सामने रखा, उतनी कुशलता से आज रखा नहीं जा रहा है।आज की कहानियों में वर्णन-विस्तार अधिक है।आज का समय पहले की तुलना मे कहीं अधिक जटिल और परतदार है।इसके लिए जिस कला-कौशल, कथा-कौशल की अपेक्षा है, वह बहुत कम कहानियों में है।

() शेखर जोशी ने श्रमिकों और कामगारों को नजदीक से देखा-समझा था।वे स्वयं नैनी के कारखाने में कार्यरत थे। ‘जन कथाकार’ के स्थान पर उन्हें श्रमिकों का कथाकार कहना उचित होगा।उनकी कहानियों के पहले हिंदी कहानी में श्रमिक, कारीगर, मशीनें, भट्ठियां और श्रमिकों के आपसी संबंध आदि दिखाई नहीं देते।श्रमिकों एवं कारीगरों के जीवनादि की ओर उन्हें उन्मुख करने का श्रेय ‘कहानी’ के संपादक भैरव प्रसाद गुप्त को जाता है।

१९५६ के ‘कहानी’ वार्षिकांक पर भैरव जी ने उनसे लिखित प्रतिक्रिया मांगी थी।अपनी प्रतिक्रिया में शेखर जोशी ने प्रकाशित कहानियों की प्रशंसा के साथ श्रमिकों, कामगारों और कारखानों पर न लिखी गई कहानियों की भी बात कही थी।वे जहाँ कार्यरत थे, वहाँ के जीवन पर, मजदूरों पर उन्होंने विशेषांक में कोई कहानी नहीं देखी थी।भैरव जी ने तब उनसे  इस अभाव की पूर्ति करने को कहा था कि जब वे स्वयं श्रमिकों के साथ कार्यरत हैं, तो वे उनपर कहानियां क्यों नहीं लिखते? भैरव जी के इस कथन के बाद ही उनकी कलम इस ओर मुड़ी।उन्होंने कारखाने के जीवन और वहां कार्यरत मजदूरों पर कहानियां लिखीं। ‘उस्ताद’ इस प्रकार की उनकी पहली कहानी है।वे इलाहाबाद में थे और अमृत राय, भैरव प्रसाद गुप्त भी इलाहाबाद में थे।भैरव जी ‘कहानी’ के संपादक थे और अमृत राय ‘हंस’ कथा-संकलन के।अमृत राय ने उनसे ‘उस्ताद’ से कहीं अच्छी कहानी की मांग की और ‘बदबू’ प्रकाशित हुई।इसके पीछे भैरव जी और अमृत राय की प्रेरणा भी थी।

पीसी जोशी के संपर्क में शेखर जोशी दिल्ली में ही आ चुके थे।उनकी वर्गीय चेतना के निर्माण और विकास में दिल्ली और इलाहाबाद के साथ प्रगतिशील लेखक संघ की भी विशेष भूमिका है। ‘डांगरीवाले’ (१९९४) कहानी-संग्रह की भूमिका में उन्होंने ‘कल और कालिख से सने कपड़ों में’, ‘छिपी विभूतियां’ की बात कही है और यह लिखा है कि इसने मेरे जीवन को एक नया अर्थ दिया।उनका  एक ‘आत्मीय संसार’ बना। ‘उस्ताद’, ‘बदबू’, ‘मेटल’, ‘जी हुजूरिया’, ‘नौरंगी मिस्त्री’, ‘आशीर्वाद’ जैसी कहानियां इसी कारण हिंदी संसार को प्राप्त हुईं।कारखाना बाहर ही नहीं, उनके भीतर भी था।उन्होंने ‘लकड़ी के चिरान’ में ‘सौंधी गंध’ देखी, जो उन्हें तवे में सेंकी जाती रोटियों की खुशबू की तरह लगती थी।वे आरा मशीन में बजती संगीत-ध्वनियां सुनते थे- ‘किसी पहाड़ी झरने की झिर्र-झिर्र सा।’ क्या उनके पहले किसी हिंदी कहानीकार ने या बाद में भी मशीन में संगीत सुना।उनके अनुसार ‘हर धातु का अपना सरगम होता है।’ शेखर जोशी की ऐसी कहानियों पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है।उन्होंने श्रमिकों का नेतृत्व भी किया था।

हिंदी में यथार्थवादी कथा-परंपरा सुदीर्घ है।वे इस कथा परंपरा में विशिष्ट स्थान रखते हैं।इस पर- ‘यथार्थवादी कथा-परंपरा में शेखर जोशी की कहानियां’ पर विस्तार से विचार की जरूरत है।

() शेखर जोशी की कहानियों में कई कहानियां मुझे प्रिय हैं, पर यहां केवल तीन कहानियों-‘दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार’ और ‘बदबू’ का ही संक्षेप में जिक्र करना चाहूंगा।पीसी जोशी ने ‘पर्वतीय जन विकास समिति’ का गठन उन पहाड़ी लड़कों में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के विकास के लिए किया था, जो होटलों-ढाबों में काम करते थे।इन लड़कों को मजाक और व्यंग्य में आईसीएस (इंडियन कुकिंग सर्विस) और पीसीएस (पॉट क्लीनिंग सर्विस) कहा जाता था।पर्वतीय जन विकास समिति में शेखर जोशी भी थे।इस समिति ने ‘पर्वतीय जन’ नामक एक बुलेटिन भी प्रकाशित किया था।बुलेटिन के प्रकाशन के एक वर्ष होने पर ‘पर्वतीय जन’ का विशेषांक निकालने की योजना बनी।नंद किशोर नौटियाल ने शेखर जोशी से कहानी-विशेषांक के लिए एक ऐसी कहानी लिखने को कहा, जिसका कहानी-नायक कियी होटल का कर्मचारी हो।शेखर जोशी ने ‘पर्वतीय जन’ के लिए ‘दाज्यू’ कहानी लिखी।१९५४ में लिखी गई यह कहानी ‘पर्वतीय जन’ (१९५६) में प्रकाशित हुई थी।

‘दाज्यू’ एक मैच्योर कहानी है।यह ‘भावुकता से ग्रस्त न होकर वर्ग-भेद को रेखांकित करनेवाली कहानी है।इस कहानी की विशेष चर्चा नहीं होती, जबकि इसपर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए।पहाड़ का लड़का मदन काम करने शहर के एक होटल में आता है।गांव से नगर में एक लड़के का रोजगार की तलाश में आना उसका विस्थापन है।कहानी में जगदीश बाबू खाने-पीने उसी होटल में आते हैं।दोनों अल्मोड़ा के हैं।दोनों के गांवों में अधिक दूरी नहीं है।मदन यह जानकर प्रसन्न हो उठता है कि जगदीश बाबू उसके गांव के बगल के गांव के हैं।वह उन्हें ‘दाज्यू’ (बड़ा भाई) कह कर पुकारता है। ‘दाज्यू’ एक शब्द भर नहीं है।वह एक संबंध है, जिसके ह्रास की पहचान शेखर जोशी ने स्वाधीन भारत के आरंभिक वर्षों में कर ली थी।होटल में मदन द्वारा बार-बार ‘दाज्यू’ कहे जाने पर जगदीश बाबू का मध्यवर्गीय संस्कार एक दिन जाग उठता है- ‘यह दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो रात-दिन, किसी की प्रेस्टीज का खयाल भी नहीं है तुम्हें’।इस कहानी पर विचार करते हुए ‘प्रेस्टीज’ शब्द पर भी विचार करने की जरूरत है।मदन का यथार्थ-बोध कहानी में महत्वपूर्ण है।वह बदल जाता है।कहानी में एक ओर जगदीश बाबू के व्यवहार में परिवर्तन है, दूसरी ओर यह परिर्वतन मदन में भी है।यहां ग्रामीण यथार्थ पर शहरी यथार्थ प्रभावी होता है।मदन का जगदीश बाबू के प्रति आत्मीय-प्रदर्शन स्वाभाविक है, जिसका संबंध गांव, परिवेश एवं ग्रामीण संस्कार से है।जगदीश बाबू के सहपाठी द्वारा नाम पूछने पर मदन का उत्तर है- ‘बॉय कहते हैं शा’ब मुझे’।कहानी की अंतिम पंक्ति है- ‘आवेश में उसका चेहरा लाल होकर भी अधिक सुंदर हो गया था।

‘कोसी का घटवार’ शेखर जोशी की सर्वाधिक चर्चित-प्रशंसित कहानी है।इस कहानी में गोसाई और लछमा का प्रेम विवाह में परिणत नहीं होता।गोसाई के अकेले होने और फौज में नौकरी के कारण लछमा का पिता उससे शादी न कराकर उसकी शादी रामसिंह से कर देता है।लछमा विधवा हो जाती है और गोसाई विवाह नहीं करता। ‘कोसी का घटवार’ केवल प्रेम-कथा नहीं है।फौज में जवानों की भरती की ओर भी कहानी ध्यान दिलाती है।फौज में भर्ती के लिए जवान बड़ी संख्या में पहाड़ से जाते हैं।कहानी में एक साथ आसक्ति और विरक्ति है।विरक्त आसक्ति। ‘कोसी का घटवार’ एक महान प्रेम-कथा है, जिसे पढ़कर गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ की याद स्वाभाविक है।यह साधारण व्यक्तियों की असाधारण प्रेम-कथा है।

शेखर जोशी की ‘बदबू’ कहानी ‘कोसी का घटवार’ के बाद सर्वाधिक चर्चित कहानी है।वे ‘हाथों की बदबू में जिजीविषा की तलाश’ करने वाले कथाकार हैं। ‘बदबू’ कहानी केवल मजदूरों तथा मालिकों के रिश्तों की नहीं है। ‘बदबू’ प्रतीक भी है।कहानी में प्रतिरोध है।कहानी में एक युवा कामगार अपने हाथ में केरोसिन की गंध महसूस करता है।बदबू की अपनी खुशबू है।रगड़-रगड़ कर धोने पर भी जब सभी कामगारों की हथेलियों से एक ही ‘बदबू’ आ रही है तो यह बदबू सबको एक भी एक रही है।वे सब ‘बदबू’ के कारण एक हैं।विजयमोहन सिंह को इसी कारण इस कहानी ने अपनी तरह से ‘मार्क्सवादी घोषणा-पत्र’ समझा दिया था कि क्यों दुनिया के मजदूरों को एक होना चाहिए।इसी बिंदु पर यह कहानी वर्गीय एकता और संघर्ष की कहानी भी बन जाती है।

२०४, रामेश्वरम साउथ ऑफिस पाड़ा, डोरंडा, रांची८३४००२ (झारखंड) मो.९४३११०३९६०

वीरेंद्र यादव
वरिष्ठ प्रगतिशील आलोचक।उपन्यास और देस’, ‘विवाद नहीं हस्तक्षेप’ , ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ताचर्चित पुस्तकें।

इन्होंने नई कहानी आंदोलन की परिभाषा को विस्तार दिया

() शेखर जोशी हिंदी कहानी में कथ्य और संवेदना दोनों धरातल पर नएपन के साथ आए थे।उनकी पहली कहानी ‘दाज्यू’ में ही इसके संकेत मिलते हैं।उनकी कहानियां मानसिक धरातल पर कल्पित न होकर जीवन-स्थितियों में रची-बसी हुई थीं।उनकी कहानियां अपने समय के साहित्यिक चलन से बेपरवाह उस अछूते यथार्थ व जीवन-स्थितियों को रचनात्मक बनाती थीं, जो साधारण होते हुए भी गहरी अर्थवत्ता से युक्त होती थीं।पहाड़ उनकी सोच में रचा-बसा था, लेकिन वे पहाड़ के सौंदर्योपासक न होकर पहाड़ के श्रमशील जीवन के कथाकार थे।इसी श्रम चेतना का विस्तार वे अपनी उन कहानियों में करते हैं जो सीधे-सीधे श्रमिक जीवन पर आधारित हैं।

शेखर जोशी के कथाकार की विशेषता यह भी है कि वे पक्षधर कथाकार होते हुए भी अपनी सोच को मुखरता से चस्पा न कर पाठक के अपने विवेक पर छोड़ देते हैं।इसीलिए उनकी कहानियां पाठकों के मन-मष्तिष्क पर देर तक असर करने वाली हैं। ‘नई कहानी’ आंदोलन के कहन और विषयवस्तु से आक्रांत हुए बिना उन्होंने अपने जीवनानुभवों को जिस संवेदनशीलता से कथात्मक विश्वसनीयता प्रदान की, वह उनकी मौलिकता है।जिन दिनों ‘प्रेम’ की थीम पर  नगरीय यथार्थ की बाड़ेबंदी की जा रही थी, शेखर जोशी ने मित-मुहावरे में ‘कोसी का घटवार’ सरीखी कहानी लिखकर प्रेम का देशज प्रतिपक्ष प्रस्तुत किया था। ‘दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार’, ‘बदबू’ और ‘मेंटल’ सरीखी कहानियां इसलिए उनकी यादगार कहानियां बन सकीं, क्योंकि इन कहानियों की कथाभूमि और कहन सर्वथा नया था।

() शेखर जोशी अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में ही संकोची थे, अपने अन्य समकालीन लेखकों से होड़ न लेकर वे अपनी गति व प्रकृति के अनुकूल लेखन में ही अपनी सार्थकता का एहसास कराते रहे।हर लेखक की अपनी एक विधागत सिद्धि होती है, बृहत्तर यथार्थ उनका चुनाव नहीं था।वे टुकड़े-टुकड़े यथार्थ के माध्यम से सामाजिक विडंबना को संवेदना में रच-पग कर अभिव्यक्त करने के कायल थे।कहानी इसके लिए अनुकूल विधा थी।यह भी संभव है कि उनके द्वारा उपन्यास न लिख सकने के पीछे उनकी अनुभव संपदा की सीमा हो।सच है कि पहाड़ उनकी संवेदना और धड़कनों में रचा-बसा था, लेकिन पहाड़ उनके सक्रिय लेखकीय जीवन में कम शामिल रहा, उपन्यास के लिए जिस बृहत्तर जीवन यथार्थ से प्रत्यक्ष रिश्ता बनना चाहिए था, उसके लिए वे खुद को तैयार न कर पाए।इसकी क्षतिपूर्ति उन्होंने संस्मरणात्मक लेखन द्वारा की।शेखर जोशी की शक्ति उनके लेखन की सादगी और अलंकरण मुक्त मुहावरा था।अपने समय के चलन से उनकी बेपरवाही ही उनकी मौलिकता थी।इसी के चलते वे अपनी अमिट छाप हिंदी कहानी पर बनाए रखने में सफल रहे।

() यह स्वीकार करना होगा कि स्वाधीनता-बाद के वर्षों का हिंदी कथा साहित्य रेणु, मार्कंडेय और शिवप्रसाद सिंह सरीखे अपवादों को छोड़कर प्रायः नगरीय बोध से युक्त रहा है, आधुनिकता के आवरण में देशज यथार्थ की अनदेखी हुई।निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंंदे’ को नामवर सिंह द्वारा  ‘नई कहानी’ की पहली कृति कहा जाना इसी प्रवृत्ति का परिणाम था।मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर ने ‘नई कहानी’ को आंदोलनात्मक तेवर प्रदान करते हुए इसे भारतीय सामाज के नए बनते मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ तक विस्तृत किया।लेकिन इस यथार्थ को प्रगतिशील जीवन दृष्टि देने का काम अमरकांत, भीष्म साहनी और शेखर जोशी ने किया।पहाड़ की पृष्ठभूमि को संवेदनात्मक बनाते हुए जिस तरह शेखर जोशी ने ‘कोसी का घटवार’ सरीखी अमर कहानी लिखी, वह ‘नई कहानी’ आंदोलन की परिभाषा को विस्तार देने वाला था।उनकी कहानियों ने एक काम यह भी किया कि बाह्य यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए  संवेदना के धरातल पर कथ्य को नई अर्थवत्ता प्रदान की।

यद्यपि यह स्वीकार करना चाहिए कि पाठकों में व्याप्ति के बावजूद ‘परिंदे’ के महिमागान के चलते शेखर जोशी की कहानियों पर उतनी आलोचनात्मक चर्चा उस दौर में न हो सकी जितनी अपेक्षित थी।डॉ. नामवर सिंह ने यत्र-तत्र इन कहानियों का नामोल्लेख तो किया, लेकिन ‘मनुष्य की गहन आंतरिक समस्या’ की तलाश के लिए उन्हें ‘परिंदे’ ही याद आई।इस तरह ‘नई कहानी’ आंदोलन के दौर के रचनाकार होते हुए भी उन्हें इसकी परिधि पर ही रखा गया।

()  शेखर जोशी प्रेमचंदोत्तर पीढ़ी के उन कथाकारों में थे जिनमें प्रेमचंद की दृष्टि या कथा संवेदना को लेकर कोई संकोच न होकर एक संबद्धता का ही भाव था।इन अर्थों में वे व्यापक सामाजिक सच को अपने समय के यथार्थ में पुनर्परिभषित कर रहे थे।यहां न विगत के साथ पार्थक्य था और न ही आगत के साथ अतिरिक्त उछाह।इसे समाज में गहरे अवस्थित हुए बिना नहीं संभव किया जा सकता था।मुझे लगता है कि आज की युवा कहानी को अधिक रूटेड होने की जरूरत है।शेखर जोशी की कहानियां अधिक आत्मीय इसलिए बन पड़ीं, क्योंकि वे आंतरिक दृष्टा की निगाहों से लिखी गई थीं, न कि बाह्य नैरेटर की दूरी से।आज की कहानियों में यह संलग्नता वांछित है।

()  सच है कि शेखर जोशी की कहानियों में कामगार जीवन अधिक प्रामाणिकता से उपस्थित है।इसके मूल में यह संयोग संबद्ध है कि नौकरी के चलते उन्होंने खुद कामगार का प्रशिक्षण प्राप्त किया था और कामगारों के साथ कामगार जीवन के आंतरिक दृष्टा बनकर रहे।यही कारण है कि वे उन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सके जहां प्रायः लेखकीय निगाह नहीं टिकती है।कामगार जीवन उनके अनुभव संसार में रचा-बसा था।इसलिए वे  ‘उस्ताद’, ‘बदबू’, ‘सीढ़ियां’, ‘मेंटल’, ‘नौरंगी बीमार है’ सरीखी कहानियां लिख सके थे।श्रमिकों के साथ रोजमर्रा का जीवन बिताते हुए उनकी जीवन-दृष्टि भी बदली। ‘दाज्यू’ तथा ‘बोझ’ सरीखी कहानियां वर्ग दृष्टि से संपन्न हुए बिना नहीं लिखी जा सकती थीं।शेखर जोशी ने बिना कोई परचम लहराए जिस मौन के साथ यथार्थ का अपना मुहावरा अर्जित किया वह उनकी मौलिकता थी।कहा जा सकता है कि प्रगतिशील धारा की उस दौर की अमरकांत-शेखर जोशी-भीष्म साहनी की त्रयी की सशक्त कड़ी थे शेखर जोशी।उस दौर की प्रगतिशील कहानी की कोई चर्चा उनके बिना पूरी नहीं होती।

()    शेखर जोशी की ‘बदबू’, ‘दाज्यू’ तथा ‘कोसी का घटवार’ सहज ही स्मृति में स्थाई रूप से टिकी रह जाने वाली कहानियां हैं।लेकिन मुझे ‘बदबू’ कहानी बार-बार इसलिए याद आती है कि संभवतः मुकम्मल वर्गीय दृष्टि से लिखी जाने वाली यह उस दौर की पहली नहीं तो अग्रणी कहानियों में थी।श्रमिक चेतना की कई परतों का खुलासा करती यह कहानी बिना किसी अतिरिक्त उत्तेजना के गहरी अर्थवत्ता से युक्त है।बार-बार हाथ धोने के बावजूद  बदबू के बरकरार रहने से उपजी श्रमिक की खुशी,  प्रदत्त स्थितियों से उसके असंतोष का परिचायक है।कहानी का यह अंत पूरे कथानक को जिस  अर्थदीप्ति से युक्त करता है वह शेखर जोशी के कथाकार की नायाब उपलब्धि है।

सी८५५, इंदिरा नगर, लखनऊ२२६०१६ मो.९४१५३७१८७२

संजीव कुमार
प्रोफेसर, हिंदी विभाग, देशबंधु कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय)आलोचनाऔर नया पथके संपादन से संबद्ध।

यथार्थ की कड़वाहट से ज्यादा संभावनाओं के कथाकार

अपने उपन्यास न लिखने के बारे में शेखर जोशी ने कहीं कुछ लिखा-कहा है या नहीं, मैं नहीं जानता।अलबत्ता, एक बार मुझसे अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने एक वाक्य कहा था जिसे मैं रिकार्ड पर लाना चाहता हूँ। ‘आपने कोई उपन्यास क्यों नहीं लिखा?’ इसके जवाब में वे बोले, ‘असल में, मैं कभी डायरी मेंटेन नहीं कर पाया।’

बस, इतना ही! कोई विस्तृत टिप्पणी या स्पष्टीकरण नहीं।

यह उनका खास अंदाज था।बिना लाम-काफ़ और आडंबर के किसी बात को अचूक ढंग से कह डालना।वे जिस तरह की पारखी निगाह और सूक्ष्म संवेदना के व्यक्ति थे, उसे देखते हुए यह मानना असंगत नहीं लगता कि अगर वे अपने लेखक होने को लेकर बहुत सजग होते और मन में पॉप-अप होते विचारों को सहेजने की किसी पद्धति (मसलन, डायरी लेखन) पर अमल कर पाते तो हमारी भाषा को कुछ और यादगार उपन्यास मिल सकते थे।

पर इस वाक्य का कथ्य अगर एक कारण की ओर इशारा करता है, तो अंदाज़े-बयां एक दूसरे कारण की ओर भी इशारा करता है।वे कम शब्दों में अपनी बात कहने की कला के उस्ताद थे, और यह विशेषता शायद जाने-अनजाने उन्हें उपन्यास लेखन की ओर जाने से रोकती रही होगी।बहुत पहले उनकी कहानियों पर लिखते हुए मैंने उन्हें ‘दबे पांव चलने वाली कहानियां’ कहा था। ‘ये कम बोलने और आहिस्ता बोलने वाली कहानियां हैं।’

ऐसी कहानियां जो अपने पाठक का सम्मान करती हैं, ज़्यादा समझा कर उसकी समझ और संवेदनशीलता के प्रति अविश्वास प्रकट नहीं करतीं, साथ ही, दिखनेवाली कलात्मकता से अछूती हैं, जो कि अंतर्वस्तु की गुणवत्ता के प्रति उनके पुख्ता आत्मविश्वास का सूचक है।’ कम बोलने और आहिस्ता बोलने वाले इस कला-विवेक ने भी संभवतः उन्हें ऐसा स्व-भाव दिया जो कहानीकार (और कवि) की भूमिका में ही सबसे सहज था।गरज कि वे ‘स्वाभाविक’ रूप से कहानीकार थे, उपन्यासकार नहीं।

इस कला-विवेक के साथ दो और कारकों को जोड़ दें तो कहानीकार के रूप में शेखर जोशी के महत्व की बुनियाद पर शायद उंगली रखी जा सकती है।वे हैं, दुर्लभ संवेदनशीलता और वर्गीय सरोकार।ये तीन चीजें जहां मिलती हैं, वहां ‘बदबू’, ‘दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार’, ‘मेंटल’, ‘निर्णायक’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘सिनारियो’, ‘दाज्यू’, ‘गलता लोहा’, ‘बच्चे का सपना’, ‘बोझ’, ‘जीहुज़ूरिया’ जैसी कहानियों का जन्म होता है।इन सभी कहानियों में (१) निम्न या निम्न-मध्यवर्ग से आनेवाले (अक्सर औद्योगिक कामगार) पात्र हैं, (२) उनके जीवन का कोई ऐसा क्षण/प्रसंग/संकट/द्वंद्व/फैसला/सपना है जिस तक असाधारण रूप से संवेदनशील कथाकार की ही पहुंच हो सकती है और जिसमें आप दूर तक गूंजता हुआ ध्वन्यर्थ पढ़ पाते हैं, और (३) पद्धति कहन-प्रधान हो चाहे अंकन-प्रधान, ढब कम बोलने और आहिस्ता बोलने वाला है जिसमें पाठक की परिपक्वता पर भरोसा ही प्रतिबिंबित नहीं होता, उसे सक्रिय पाठक बनाने की स्पष्ट कला-सजगता भी दिखती है।इन तीन चीजों के संयोग ने शेखर जोशी की कहानियों को एक अलहदा पहचान दी।

जिसे मैं दुर्लभ संवेदनशीलता कह रहा हूँ, उसे शायद थोड़ा स्पष्ट करने की जरूरत है।अक्सर देखा गया है कि निम्नवर्गीय पात्रों की कहानियां उनकी आंतरिकता के चित्रण से किसी हद तक रिक्त होती हैं, वहां कथाकार का ध्यान शोषण की उन प्रणालियों के चित्रण पर ज्यादा होता है जो व्यवस्थागत हैं और जिनके संजाल में निम्नवर्गीय पात्र ‘शिकार’ की जगह पर अवस्थित होता है।

शेखर जोशी के कहानीकार को इन पात्रों की आंतरिकता अधिक आकर्षित करती है और वे अक्सर हमें किसी ऐसे नुक्त की ओर ले जाते हैं जो विचित्र होने के अर्थ में नहीं, लेकिन अचिह्नित रह जाने के अर्थ में अनोखा और नया होता है।इसी आकर्षण के कारण उनके यहां निम्नवर्गीय जीवन का सौंदर्य और स्वाभिमान एक विरल प्रभावोत्पादकता के साथ उभरता है।उनका कथा-संसार हमें अहसास कराता है कि पहाड़ों की चोटियों पर सूर्य की किरणों का खेल तो निस्संदेह सुंदर है, पर उससे ज्यादा सुंदर है तुषार पर गिरे हुए अंगारों को बचाते हुए फूंक-फूंककर जलाए गए चूल्हे की लौ और उसमें प्रकाशित अकिंचन आतिथेय के चेहरे (सिनारियो), कि मज़दूर के लिए सबसे बड़ा बोझ श्रम के बाजार में आत्मसम्मान को ताक पर रखकर अपनी श्रम-शक्ति की कीमत लगवाना है और कीमत लगाए जाने से इनकार करके वह सबसे अधिक हल्का महसूस करता है (बोझ), कि वर्गीय सीमाओं से परे उपजा आत्मिक लगाव और अपनी जगह दिखा दिए जाने के अपमान का प्रतिकार करता हुआ अलगाव, दोनों कितने सुंदर हैं (दाज्यू), कि स्थापित शक्ति संबंधों से इनकार करने वाला कामगार अपनी खुद्दारी के कारण किस कदर ‘मिसफिट’ होता है (निर्णायक) और अगर यह खुद्दारी का करैला ईमानदारी के नीम पर चढ़ा हो तो उसे विक्षिप्त न मान पाना सामान्य बोध के स्तर पर कितना मुश्किल होता है (मेंटल), कि जातिवादी एकजुटता के छद्म का शिकार व्यक्ति कितने सहज भाव से वर्गीय एकजुटता के खरेपन को महसूस कर लेता है (गलता लोहा), कि शोषक तंत्र को ‘नॉर्मल’ न मान लेना, उसका अभ्यस्त होने से खुद को बचाए रखना पूंजीवाद के नर्क से लड़ने के लिए कितना जरूरी है (बदबू)।

शेखर जोशी की बहुतेरी कहानियां ऐसे किसी अहसास की गहराई में ले जाती हैं।गौर करें तो इन तमाम कहानियों में वे यथार्थ की कड़वाहट से ज्यादा उसकी संभावनाओं के कथाकार ठहरते हैं और संभावनाओं का यह संसार न तो स्थूल है, न ही कृत्रिम, जैसा वह कई ‘क्रांतिकारी’ कहानियों में दिखता है।मुझे लगता है कि हकीकत में इन संभावनाओं के कमतर या/और बेमानी होते जाने के साथ शेखर जी का कहानी लिखना कम होता गया और अंततः बंद हो गया।वे न तो हताशा के लेखक बन सकते थे, न ही झूठी आशा के।

वैसे झूठी आशा की मासूमियत और कोमलता पर उन्होंने ‘बच्चे का सपना’ जैसे असाधारण कहानी लिखी है, पर वहां कहानीकार स्वयं किसी खोखले आशावाद का शिकार नहीं है।वाचक अपनी बच्ची की उम्मीद को बचाए रखने के लिए एक झूठ बोलता है, क्योंकि उस उम्मीद में, जिसे वह सपना कहता है, एक ऐसी कोमलता है जिसे आहत होने से बचाना जरूरी है।वह इतनी मूल्यवान इसलिए है कि अपराध की प्रचलित धारणा और उससे पैदा होनेवाली नफरत उस सपने को छू भी नहीं गई है।

‘बच्चे का सपना’ मेरी सबसे पसंदीदा कहानियों में से एक है।अलबत्ता, एक कहानी ही चुननी हो तो मैं ‘बदबू’ का नाम लूंगा, जहां बदबू को महसूस करने की क्षमता का सुरक्षित रहना इस बात का व्यंजक बनकर आता है कि मुख्य पात्र का संघर्षशील मिजाज कारखाने के संघर्षविरोधी माहौल का अभ्यस्त नहीं बना है।बुरे की बुराई का बोध खत्म हो जाना मानवविरोधी व्यवस्था के दीर्घजीवी होने का सबसे मजबूत आधार है।अभ्यस्तता व्यवस्था को यही आधार मुहैया कराती है।वह निर्मितियों को प्राकृतिक का दर्जा देकर स्थायित्व प्रदान करती है।इस लिहाज से ‘बदबू’ उन मानवीय संभावनाओं के बचे रहने की कहानी है जिनसे पूंजीवादी नर्क के खिलाफ चलनेवाले संघर्ष का गहरा संबंध है।मैं दो अलग-अलग प्रसंगों में इस कहानी की प्रस्तुति संबंधी विशेषताओं पर थोड़े विस्तार में लिख चुका हूँ, इसलिए दुहराव से बचते हुए सिर्फ इतना कहूंगा कि मितकथन और बहुत कम शब्दों में दृश्यों को सजीव कर देने की कला का भी यह दुर्लभ उदाहरण है।एक नमूना देख सकते हैं।जब सर्वनाम-सूचित नायक (‘वह’) को साहब बुला कर कहते हैं कि पता चला है, उसके घर पर मजदूरों की बैठकें होती हैं जिसमें स्कीमें बनती हैं, तब कहानीकार उसके उत्तर देने की अदा का जो चित्र पेश करता है, वह कितना अद्भुत है :

‘साहब, लोगों को मकान की परेशानी है, छुट्टियों का ठीक हिसाब नहीं, छोटी-छोटी बातों पर जुर्माना हो जाता है।यही बातें आपसे अर्ज करनी थीं।यही वहां भी सोच रहे थे।स्वर में दीनता थी, परंतु साहब के चेहरे पर टिकी हुई उसकी तीखी दृष्टि अनजाने में ही जैसे इस अभिनय को झुठला रही थी।

मैं कौन होता हूँ जो तुम लोग मुझसे कहने के लिए आते हो? मैं भी तो भाई, तुम्हीं लोगों की तरह एक छोटा-मोटा नौकर हॅूं, अपनी दोनों हथेलियों को मेज़ पर फैला कर साहब ने कृत्रिम मुस्कान का ऋण लौटा दिया और अपनी कुर्सी पर अधिक आश्वस्त होकर बैठ गए।उनके सामने बैठे हुए व्यक्ति को यह समझौता स्वीकार न हुआ।कृत्रिमता के आवरण को पूरी तरह उतार कर दृढ़ स्वर में वह बोला, तो जो हमारी बात सुनेगा उसी से कहेंगे साहब! ’

इस अंश में भंगिमाओं का विनिमय देखने लायक है।नायक ‘स्वर में दीनता’ लाता है, पर उसकी निगाह उसके ‘अभिनय को झुठला’ देती है, साहब एक घटिया बहाना पेश करता हुआ उसके जैसी ही ‘कृत्रिम मुस्कान’ उसकी ओर फेंक कर ‘आश्वस्त’ हो जाता है कि यह तरीका संकट से निपटने में कामयाब रहेगा।तब नायक ‘कृत्रिमता के आवरण को उतार कर दृढ़ स्वर में’ अपनी बात कहता है, जहां स्वर में दृढ़ता होने के साथ-साथ बात में भी एक स्पष्ट ऐंठ है।बनावटी भंगिमा की जगह उसकी यह असली खुद्दारी ज्यों ही सामने आती है, उसका भूचाल जैसा असर होता है। ‘एकाएक साहब बौखला कर कुर्सी पर उछल पड़े…।’

पूरी कहानी इसी तरह के चर्बी-रहित विवरणों में चलती है।भेदिए की कारस्तानी, बॉस के साथ मुखामुखम, नायक के खिलाफ उसे चोर साबित करने की साजिश ये सारे प्रसंग कुछ इस तरह से बताए गए हैं कि आपकी निगाहों के सामने सिर्फ निर्णायक और बेहद जरूरी दृश्य ही आते हैं और उनमें छिपे संकेतों से आपको पकड़ना होता है कि पीछे का घटना-विकास क्या है।

ऐसी कई विशेषताएं ‘बदबू’ के कथ्य की बेहद प्रभावशाली प्रस्तुति के पीछे हैं।कोई आश्चर्य नहीं कि कहानी के आखिरी हिस्से में कैरोसीन की बदबू न मिलने से नायक द्वारा महसूस किया गया ‘आतंक’ और बदबू मिलने पर अनुभव किया गया ‘हर्ष’ एक पाठक के रूप में हमारे अंदर भी बारी-बारी से वही एहसास जगाते हैं।हम आश्वस्त होते हैं कि तमाम साजिशों के बावजूद संघर्ष मरणासन्न नहीं है।

शेखर जी की कई और कहानियां अलग-अलग कारणों से ‘बदबू’ के ही समकक्ष ठहरती हैं, पर उनकी चर्चा करने का यहां अवकाश नहीं।

सी ३५, विदिशा अपार्टमेंट, ७९, इंद्रप्रस्थ विस्तार, दिल्ली११००९२ मो.९८१८५७७८३३

देवेंद्र चौबे
सुपरिचित आलोचक, कहानीकार और कवि।कुछ समय बाद’ (कहानीसंग्रह), ‘दस्तक’ (काव्यसंकलन), ‘सुराज’ (नाटक) सहित करीब पंद्रह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर।

इनकी कहानियों में प्रगतिशीलता भीतर से स्वतः उभरती है

() शेखर जोशी! हिंदी कहानी की दुनिया के प्रभावशाली व्यक्तित्व में से एक! जब उनसे पहली बार १९८९ में मई की एक दुपहरिया में इलाहाबाद में मिला था, तब नहीं पता था कि वे इतने बड़े कथाकार हैं।उनकी कुछ कहानियां पढ़ रखी थीं, पर हम छात्रों के लिए उन दिनों  फणीश्वर नाथ रेणु, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, मार्कण्डेय, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, शानी, कमलेश्वर आदि कहानी की दुनिया के स्टार थे।पर, इलाहाबाद में जब शेखर जोशी से मिला तो वे बहुत अच्छे लगे।देर तक उनसे बातें होती रहीं, फिर हमसब साथ में लोकभारती प्रकाशन आए थे।उनका संग्रह ‘मेरा पहाड़’ मैंने वहीं से लिया।उन्होंने उसपर हस्ताक्षर यह लिखते हुए किया : बस, यूं ही!

मैं तब रांची विश्वविद्यालय से एम. ए. करके आया था और अपने बैच का टॉपर था।कहानियां और कविताएं लिखता था और अपने को खूब पढ़ाकू मानता था।मन था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय या जेएनयू से शोधकार्य करूं।पर इलाहाबाद का माहौल रास नहीं आया।दिल्ली आया, साथ में शेखर जोशी से मिलने की स्मृतियां भी लेता आया।जेएनयू में नामांकन के  बाद ‘मेरा पहाड़’ कई साथियों को दिखाया।सबने सिर्फ दो कहानी की चर्चा की – ‘कोसी का घटवार’ और ‘दाज्यू’!

‘कोसी का घटवार’ और उनकी कुछ अन्य कहानियां पढ़ रखी थीं, ‘दाज्यू’ जेएनयू आकार पहली बार पढ़ी।बाद में यह कहानी मेरे शोध का हिस्सा भी बनी और मेरी किताब ‘समकालीन कहानी का समाजशास्त्र’ में शामिल है।

कहना न होगा कि शेखर जोशी हिंदी के प्रभावशाली कहानीकारों में से एक हैं, सर्वाधिक! उनकी कहानियां भी प्रभावित करती हैं और व्यक्तित्व भी! आदमी तो ऐसे कि घंटों बात करते रहे, कोई जल्दबाजी नहीं! लेखन और जीवन को जी भरकर जीनेवाला एक कथाकार पिछले सात दशकों से हमारे बीच मौजूद है।इससे बड़ी बात हमारे लिए और क्या हो सकती है?

आज के समय में ऐसे लेखक कहां मिलते हैं जो लेखक भी बड़े हों और आदमी भी।भीष्म साहनी भी इसी तरह थे।एक बड़े लेखक और बड़े आदमी।उनसे भी मिलकर लगता था, जीवन में कोई जल्दबाजी नहीं है।खूब बातें करते थे शेखर जोशी भी।कई बार लगता है कि ये दोनों कथाकार किताबें कम पढ़ते थे, मनुष्य और उसकी सामाजिक गतिशीलता को अधिक!

() वे एक प्रभावशाली कहानीकार हैं; इसलिए कि वह शब्दों के जरिए जो संसार रचते हैं, उसमें कल्पना और यथार्थ का बारीक समन्वय है।विचार ऐसे आता है जैसे पथरीली पहाड़ियों के बीच बहता हुआ नदी का जल; एकदम अभिन्न! हम सब यह भी कह सकते हैं कि उनकी कहानियों के नायक और वर्णन में आए चित्र उनकी वैचारिक दुनिया का सृजन करते हैं।वे किसी व्यक्ति अथवा स्थान का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, बल्कि समूह और राष्ट्रीय संरचनाओं को रचते हैं।उनके पात्र सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शब्दों के जरिए जो चित्र रचते हैं, वे स्थानीयता को बृहत्तर संदर्भों से जोड़ने में मदद करते हैं। ‘हलवाहा’,  ‘दाज्यू’, ‘गोपुली बुबु’ आदि कहानियां इसका बड़ा उदाहरण है।

() शेखर जोशी पहाड़ लौटकर वापस नहीं जाते हैं, बल्कि जहां भी गए और रहे, पहाड़ की दुनिया उनके साथ रचती और बसती गई। ‘मेरा पहाड़’ संग्रह इसका एक बड़ा उदाहरण है।वे पहाड़ की उस दुनिया और श्रमिक संस्कृति को लेकर हिंदी कहानी की दुनिया में आते हैं जो अन्य कहानीकारों से कई बार छूट जाता है।शैलेश मटियानी भी ऐसे ही हैं, एक हद तक मृणाल पांडेय भी, पर शेखर जोशी के यहां किसी तरह का विचलन नहीं दिखता है।पंकज बिष्ट को उनकी परंपरा का कथाकार कहा जा सकता है, यद्यपि पंकज बिष्ट की सोच भारत की आधुनिकता और राजनीतिक जटिलता से टकराती है।

शेखर जोशी के पहाड़ की दुनिया ही अलग है।यहां प्रकृति, पहाड़ के जीवन दर्शन और श्रमिक चेतना का गहरा यथार्थ बोध है। ‘कोसी का घटवार’, ‘बोझ’, ‘गोपुली बुबु’, ‘दाज्यू’ आदि कहानियों को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।

(५) शेखर जोशी अपनी रचनाओं में प्रगतिशील आंदोलन या मार्क्सवाद को अलग से परिभाषित नहीं करते हैं।वह इनके यहां स्थितियों के चित्रण और पात्रों के समूह के रूप में आता है।हलवाहे, श्रमिक, होटल में काम करनेवाले बच्चें, मशीन से जुड़े पात्र आदि सभी उनके कथा में यथार्थवाद के रूप को प्रभावशाली बनाते है।

कह सकते हैं कि उनकी कहानियों में वर्ग संघर्ष जैसी चीज नहीं दिखाई देती है, पर वहां उसकी एक लंबी तैयारी दिखती है।लगता है कि उनके पात्र धीरे-धीरे उस जगह पर जा रहे हैं, जहां  सर्वहारा समाज का निर्माण हो रहा है, नेतृत्व उनके हाथों में देने की तैयारी हो रही है। ‘दाज्यू’ कहानी के नायक का यह कहना कि ‘बॉय कहते हैं, शा’ब मुझे।’ यह एक नए सर्वहारा समाज के निर्माण की तरफ ही संकेत है।

()‘दाज्यू’ कहानी अद्भुत है।इसमें पहाड़ की जिंदगी भी है और आधुनिक प्रगतिशील विचारधाराओं के दर्शन भी।भविष्य का सर्वहारा समाज भी है और जड़ होता मध्यवर्ग भी! महानगर बनते छोटे शहर का बाजार भी और धीरे-धीरे दूर जाती हुई सामाजिक संस्कृति भी!

बी/५५५, मल्टीस्टोरी, जे एन यू, नई दिल्ली११००६७ मो.८३८३८४२८१२

वेंकटेश कुमार
युवा आलोचक।हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं  में १०० से ज्यादा लेख, समीक्षा और साक्षात्कार प्रकाशित।

शेखर जोशी जिंदगी की व्यापक गूंज और अर्थवत्ता के कथाकार हैं

()‘मूल्यांकन’ अपने आप में भारी-भरकम और जिम्मेदारी का एहसास कराने वाला शब्द है।किसी भी रचनाकार का मूल्यांकन करने के लिए यह जरूरी है कि मूल्यांकनकर्ता उसकी समग्र या अधिकांश रचनाओं का पारायण करे।शेखर जोशी की कहानियों का मूल्यांकन करने की पहली शर्त यह है कि हम उनकी समग्र कहानियों को पढ़ें।दो-चार कहानियों का नाम लेकर, उसे महान बताकर हम कहानीकार शेखर जोशी का मूल्यांकन नहीं कर सकते। ‘कहानी नई कहानी’ के लेखक नामवर सिंह ने कहीं लिखा है कि इतिहास को जहां कालखंडों में तोड़ा जाता है, वहां उसकी धारा नहीं टूटती, बल्कि इस टूटने की क्रिया में बहुत कुछ छूट भी जाता है।सामान्य जनता को भक्तिकाल, रीतिकाल या छायावाद से क्या मतलब! वह तो तुलसी, बिहारी या निराला को पढ़ेगा और आंनद लेगा।कहना यह है कि शेखर जोशी की कहानियों को इतिहास के तोड़े गए कालखंड पर खड़ा होकर देखा-समझा नहीं जा सकता।कुंठा, संत्रास, अजनबीपन, सेक्स, तलाक, गांव, शहर जैसी कसौटियों पर कसकर हम शेखर जोशी की कहानियों का मूल्यांकन करेंगे तो औंधे मुंह गिरेंगे।शेखर जोशी की कहानियों का मूल्यांकन करने के लिए एक बच्चा सा, प्यारा सा, पहाड़ी सा दिल की जरूरत है।

()  शेखर जोशी के पास कहानियां कम नहीं हैं।मुझे उनकी समग्र कहानियां उपलब्ध करने में अभी तक सफलता नहीं मिली है।फिर भी उनकी समग्र कहानियों का पहला खंड ‘अंतत: तथा अन्य कहानियां’ (इसमें उनकी इकतीस कहानियां संकलित हैं) और ‘दस प्रतिनिधि कहानियां’ को मिलाकर पिछले सप्ताह भर में मैं इनकी लगभग ५० कहानियों से गुजर चुका हूँ।सवाल उठता है कि शेखर जोशी हिंदी जगत में महत्वपूर्ण बने रहे तो इसकी क्या वजह है? तथाकथित नई कहानी के तीन तिलंगों (मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव) ने खुद को कहानी के केंद्र में लाने के लिए जो कुछ भी किया, उससे हिंदी का अध्येता बहुत अच्छे से परिचित हैं।

विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है कि शेखर जोशी को नौकरी, पुरस्कार, सम्मान के लिए जुगाड़ करते किसी ने नहीं देखा।उन्होंने एक चतुष्टयी (भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कंडेय, शेखर जोशी और अमरकांत) बनाई और इसे हिंदी कहानी का इतिहास रचने का श्रेय दिया है।लेकिन सवाल उठता है कि विश्वनाथ त्रिपाठी की इस स्थापना से कितने लोग सहमत होंगे।शेखर जोशी अपने समय में संभवत: सबसे ज्यादा जोखिम लेने वाले, धारा के विरुद्ध चलने वाले कहानीकार थे।कविता में केदारनाथ अग्रवाल और कहानी में शेखर जोशी दांपत्य-जीवन के अद्भुत चितेरे थे।जिस समय तलाक, त्रिकोणात्मक प्रेम संबंध और अवैध संबंध को कहानी के लिए एक जरूरी चीज मान लिया गया था, उस समय शेखर जोशी पति-पत्नी प्रेम की मार्मिक कहानियां लिख रहे थे। ‘हंसा’, ‘यामिनी’, ‘सुनंदा’, ‘एक पारमिता’ और ‘अस्मिता’ जैसी कहानी लिखने का जोखिम शेखर जोशी ही ले सकते थे।शेखर जोशी की कहानियों में सेक्स का स्वीकार है, दिखावा नहीं।उनकी एक कहानी ‘गंधर्व-गाथा’ की पात्र मणियन अपने पुरुष-दोस्त से कहती है ‘क्या यह सच नहीं कि तुम पुरुष हो और सेक्स भी एक भूख है… मैं कुछ नहीं जानती।कुछ देर तुमसे बातें करूंगी।तुम्हारे पास बैठूंगी और आवश्यकता अनुभव हुई तो…।’

शेखर जोशी की कहानियों में स्त्री-विमर्श के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए मणियन की एक पंक्ति ही पर्याप्त है- ‘स्त्री उसी पुरुष को पसंद करती है, जो स्त्री को पसंद करता है- समझो।’ नामवर सिंह ने शेखर जोशी की कहानियों के बारे में ठीक ही लिखा है, ‘वे केवल चरित्र देकर संतुष्ट रहने वाले आदमी नहीं थे, बल्कि उन चरित्रों के साथ जो घटता है, उस अनुभव के बीच से जिंदगी की एक सच्चाई जो कहानी के अंदर छोटी, किंतु जिसकी गूंज और अर्थवत्ता ज्यादा व्यापक और बड़ी हो, उनकी दिलचस्पी इसमें थी।’ तो शेखर जोशी इसलिए महत्वपूर्ण बने रहे, क्योंकि वे जिंदगी की व्यापक गूंज और व्यापक अर्थवत्ता के कहानीकार थे।

() यह एक तथ्य है कि शेखर जोशी पहाड़ के कथाकार थे।लेकिन यह भी एक तथ्य है कि उन्हें बचपन में ही मां के गुजरने के बाद राजस्थान की रेतीली दुनिया में विस्थापित होना पड़ा था। ‘दस प्रतिनिधि कहानियां’ की भूमिका में शेखर जोशी ने लिखा है, ‘जीवन की परिस्थितियों ने छोटी उम्र में ही मुझे विभिन्न भौगोलिक और सामाजिक परिवेशों में जीने के लिए विवश किया है।छोटी उम्र में ही मातृविहीन हो जाने के बाद पर्वतीय अंचल के प्राकृतिक सौंदर्य से वनस्पतिविहीन राजस्थान में विस्थापित कर दिए जाने का दुखद अनुभव और परिचित परिवेश से कट जाने की कष्टप्रद अनुभूतियों ने मेरी संवेदना की धार तेज कर दी।’ शेखर जोशी के इस कथन को हम उनकी कहानियों की रचना-प्रक्रिया कह सकते हैं।इनकी प्रसिद्ध कहानी ‘दाज्यू’ का नायक और कोई नहीं स्वयं लेखक ही है।यह सच है कि शेखर जोशी की कई कहानियों में पहाड़ी-जीवन का दारुण दुख बड़ी मार्मिकता के साथ व्यक्त हुआ है।इनकी एक कहानी है ‘वापसी’।लोग पहाड़ को ऐश-मौज करने वाली जगह मानते हैं।ऐसे लोग पहाड़ के बारे में कुछ भी नहीं जानते।

पहाड़ को जानने के लिए ‘वापसी’ की इन पंक्तियों से गुजर भर जाना पर्याप्त होगा – ‘उदास गूंगी पहाड़ियां, उदास सूनी घाटियां, उदास बिखरी बस्तियां।मेरे लिए इससे बड़े निर्वासन की सजा और हो ही क्या सकती थी!.. एक बूढ़ा मरा था कुछ दिन पहले।औरतें अपने कंधों पर उठाकर किसी तरह लाश श्मशान तक घसीटकर ले गईं।पुरुष कोई भी नहीं है उस गांव में।सारे के सारे लाम पर चले गए हैं।’ ‘कोशी का घटवार’ के नायक की नौकरी फौज में लग जाती है।इस वजह से उसकी शादी नहीं हो पाती।

हिंदी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, जाहिर है उसके साहित्य का भूगोल भी विस्तृत है।पहले जब आवागमन के साधन आज की तरह विकसित नहीं थे, लेखक खूब यात्राएं करते थे।यात्राएं लेखक और पाठक दोनों को समृद्ध करती हैं।मैं निर्मल वर्मा का उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ समझ नहीं पाता था।लेकिन पहाड़ के एक गांव में मेरे लंबे-प्रवास ने मेरे लिए ‘अंतिम अरण्य’ का दरवाजा एक झटके में खोल दिया।इस प्रवास से पहाड़ी साहित्य को समझने में मुझे बहुत मदद मिली।केदारनाथ सिंह ने त्रिलोचन के बारे में लिखा है कि वे आधुनिकता के सारे प्रचलित सांचों को अस्वीकर करते हुए भी आधुनिक हैं।यही बात हम शेखर जोशी की कहानियों के बारे में भी कह सकते हैं।

() हम किसे नया कहानीकार कहें और किसे पुराना- यह एक उलझा हुआ सवाल है।१९८० में एक गोष्ठी में भाषण देने जाने से पहले नामवर सिंह ने केदारनाथ सिंह से पूछा कि आज के सबसे महत्वपूर्ण युवा कवि कौन-से हैं? केदारनाथ सिंह ने कहा- नागार्जुन और त्रिलोचन- यही दो वृद्ध कवि सबसे युवा दिखते हैं।शेखर जोशी का निधन तो अभी पिछले ही साल हुआ है।इसलिए वे नए कहानीकार ही कहे जाएंगे।नया-नया लिखना शुरू करने वाले लेखकों को शेखर जोशी से एक बात सीखनी चाहिए- आत्मप्रशंसा से बचना।

कहा जाता है कि एक बार युधिष्ठिर से कोई अपराध हो गया जिसकी सजा सिर्फ मौत थी।युधिष्ठिर के चारों भाई भागे-भागे कृष्ण के पास पहुंचें।कृष्ण ने कहा कि मौत की सजा से बचने का एक ही रास्ता है- युधिष्ठिर को अपने मुंह से अपनी बड़ाई करनी होगी।युधिष्ठिर को जानने वाले लोग जानते हैं कि उनके लिए यह मौत से भी बड़ी सजा थी।शेखर जोशी युधिष्ठिर की परंपरा के घोर नैतिकतावादी व्यक्ति थे।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहा करते थे कि पुस्तक का बड़प्पन उसके लेखक के बड़प्पन के अनुपात में ही होता है।मुझे नहीं लगता कि शेखर जोशी आचार्य द्विवेदी की इस बात से असहमत होंगे।मैं तो यहां तक कहना चाहूंगा कि जो आचार्य द्विवेदी की इस बात से सहमत है वह नया लेखक है और जो असहमत है वह पुराना लेखक है, अ-लेखक है।

()भैरवप्रसाद गुप्त के बिना कोई शेखर जोशी की कल्पना कैसे कर सकता है।यह भैरवप्रसाद गुप्त ही थे, जिन्होंने शेखर जोशी से कहा कि आप नौकरी करते हैं, मजदूरों के बीच रहते हैं तो इस परिवेश की कहानियां लिखिए! और शेखर जोशी ने फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों पर कई बेहतरीन कहानियां लिखीं।इस द़ृष्टि से ‘आखिरी टुकड़ा’, ‘बदबू’ और ‘नौरंगी बीमार है’ जैसी कहानियों का नाम लिया जा सकता है। ‘बदबू’ की तो खूब चर्चा होती है, लेकिन ‘आखिरी टुकड़ा’ की विशिष्टता की ओर बहुत कम पाठकों का ध्यान गया है।इस कहानी के केंद्र में वर्ग-संघर्ष है- ‘मंगरू (पिता) के लिए सूरजा अफसर ही था- आठ-दस कारीगरों का इंचार्ज लीडिंग हैंड सूरजा।आज तक उसके खानदान में किसी ने दो बैलों को छोड़कर और किसी पर चाबुक नहीं चलाया था।पर सूरजा अपनी कमान के आठ-दस आदमियों पर हर घड़ी चाबुक चलाता था- सट-सट।जुबान की चाबुक।’ तो यह है शेखर जोशी की कहानियों का सौंदर्य।इस सौंदर्य में हिंदी के लेखकों की भी भूमिका रही है।बकौल शेखर जोशी- ‘सामंती और रूढ़िवादी मान्यताओं से मुक्ति पाना मेरे लिए संभव न होता यदि मेरा परिचय गोर्की, राहुल, प्रेमचंद, यशपाल आदि लेखकों की रचनाओं से न हुआ होता।’ दरअसल शेखर जोशी नारे-तराने वाले जनकथाकार नहीं थे, बल्कि सच्चे अर्थों में और समग्रता में जन कथाकार थे।

()‘कोसी का घटवार’ मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है।कई-कई बार पढ़ता रहता हूँ।निराशा, दुख और अकेलेपन में भी कैसे मनुष्य बने रहना है, यह हम ‘कोसी का घटवार’ से सीखते हैं।संस्कृत के किसी विद्वान ने कितनी अच्छी बात कही है- ‘तुम्हें यह गुप्त रहस्य बताए जाता हूँ, मनुष्य से बड़ा कुछ भी नहीं है।’

द्वारा अरविंद कुमार गौतम रोड नं. ४ई, बरगद ताड़ पेड़ के करीब, श्री कृष्ण विहार कॉलोनी, पोस्टबेउर, अनीसाबाद पटना८००००२ मो.९०१५४६७५९५

अवनीश मिश्र
युवा आलोचकअनुवादक।श्याम लाल कॉलेज, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर।

यथार्थ की चोट से टूटता है आधुनिकतावाद का जादू

उपन्यास के बारे में कहा जाता है कि उपन्यास में कथा बस कही नहीं जाती, प्रस्तुत की जाती है।नई कहानी भी कथा को सिर्फ कहने की जगह उसे प्रस्तुत करती है।यहां पूर्ववर्ती कहानियों की तरह कहानी-कला ‘प्रस्तुत होकर भी अप्रस्तुत’ नहीं रहती।यहां प्रस्तुति-प्रजेंटेशन पर जोर है।कई दफा यह बस अपनी प्रस्तुति के कारण पाठक को हैरत में डाल देती है।उसे चमत्कृत कर देती है।यह अकारण नहीं है कि ‘चौंकाना’, ‘चमत्कृत करना’, ‘प्रभाव छोड़ना’ आदि नई कहानी की आलोचना के दौरान बार-बार प्रयोग में आनेवाले शब्द हैं।शेखर जोशी की कहानियों में चौंकानेवाला, चमत्कृत करनेवाला तत्व कम है।यहां कहानी का नयापन, अलग से झलकने वाली चीज नहीं है।इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी कहानियां नई नहीं हैं।वे नई हैं, नई कहानी भले न हों।

शेखर जोशी को नई कहानी का प्रतिनिधि नहीं माना गया, तो इसकी वजह नई कहानी की अपनी प्रस्तुति संबंधी कसौटियां थीं।एक आलोचक ने शेखर जोशी (साथ में अमरकांत और ज्ञानरंजन भी) के लेखन को लेकर अपनी निराशा प्रकट करते हुए लिखा था, इनकी ‘कहानियों में कुछ नए और अछूते प्रसंग अवश्य उकेरे गए हैं, पर उनका रचाव परंपरागत पद्धति पर ही चलता है।’ जाहिर है नए और अछूते प्रसंग उकेरने के बावजूद ‘परंपरागत पद्धति’ में लिखी जाने के कारण उनकी कहानियां उल्लेखनीय नहीं मानी गईं।स्पष्ट है कि नई कहानी पर जोर नई पद्धति-पैटर्न पर है।इसे ही एक आलोचक ने कहानी माध्यम को ‘नए सिरे से तोड़कर बनाने का यत्न’ कहा है।शेखर जोशी में तोड़ने और बनाने का यह यत्न अलग से नहीं दिखाई देता।

नई कहानी के दौर में रचनाशील, लेकिन नई कहानी की मंडली से बाहर रहनेवाले शेखर जोशी नई कहानी की वस्तुगत और शिल्पगत रूढ़ियों, मानकों का पालन-अनुसरण नहीं करते हैं।उनकी कहानियां नई कहानी के नए प्रतिमानों से व्याख्यायित नहीं होती हैं।कह सकते हैं कि वे उन प्रतिमानों के खिलाफ एक विनम्र विद्रोह करते हैं और एक तरह से ‘नई कहानी’ का विकल्प रचते हैं।जो विषय-वस्तु और रूप दोनों दृष्टियों से नई कहानियों से अलग हैं।नई कहानी के ‘कलात्मक यत्न’ वाले परिदृश्य में शेखर जोशी ‘सहज’ की लाठी टेके हुए आते हैं।यह कहन की सहजता है।इसे सादगी का शिल्प कहा जा सकता है।इस सादे शिल्प के कारण नई कहानी के दौर में उनकी ज्यादातर कहानियां सराहे जाने के बावजूद लगभग उपेक्षित ही रहीं, क्योंकि वे नई कहानी की प्रतिनिधि कहानियां नहीं थीं।इस मामले में एकमात्र अपवाद ‘कोसी का घटवार’ है।नामवर सिंह ने इस कहानी की प्रशंसा नई कहानी वाली बिंबात्मकता के लिए की है।बिंबात्मकता को नई कहानी का प्रमुख गुण माना गया है।कोसी का घटवार को आंचलिक कहानियों में शामिल करते हुए वे कहते हैं : ‘कोसी की सूखी नदी की सूखी धार घटवार के अकेलपन का बिंब है, तो कठफोड़वा की किट-किट तथा पनचक्की की मथानी छच्छिट-छच्छिट सूने हृदय की निरर्थक धड़कन का नादमय चित्र है।’ लेकिन नई कहानी से इसका साम्य सिर्फ ऊपरी है।यहां वातावरण ही कहानी नहीं है।न ही यह सिर्फ एक प्रेम कहानी है।कोसी का घटवार वास्तव में एक प्रेम कहानी के साथ-साथ एक यथार्थवादी कहानी है और जैसा कि किसी ने कहा है ‘रोमानी संस्कारों से मुक्त’ है।प्रेम, स्मृति, अकेलापन आदि नई कहानी की तमाम विशेषताएं मानो इस कहानी में प्रकट होने के लिए बेताब दिखाई देती हैं।लेकिन शेखर जोशी बेहद सचेत तरीके से स्मृति को, प्रेम को मानसिक अंतर्द्वंद्व या दार्शनिक चिंतन की तरफ न ले जाकर यथार्थ के धरातल पर लाकर पटक देते हैं।कहानी जो निर्मलीय जादू रचती हुई दिखाई दे रही थी, वह जादू यथार्थ की चोट से टूट जाता है।

इस कहानी में निर्मलीय कहानी बन जाने के सारे अवसर थे।लेकिन यह उस तरफ रुख करने की जगह वास्तव में निर्मलीय कहानी की सीमाओं को उजागर करते हुए ठोस, निर्मम यथार्थ की दुनिया में दाखिल हो जाती है।जहां सवाल प्रेम और स्मृति का नहीं है।सवाल है, दो वक्त की रोटी का।सवाल है एक कठोर दुनिया में जीवित रहने का।यहां वर्तमान के सामने अतीत की स्मृतियां बेमानी हो जाती हैं।शिकायतें धरी रह जाती हैं।कठोर यथार्थ अतीत को कुरेदने का अवसर नहीं देता।यह वास्तव में नई कहानी के तत्वों से युक्त जनवादी परंपरा की कहानी है।

शेखर जोशी ने अपनी कहानियों में वस्तु और शिल्प का एक न्यायपूर्ण संतुलन बनाए रखा।ऐसा नहीं है कि शेखर जोशी के यहां कहानी कला के नाम पर कुछ नया या विशिष्ट नहीं है।उनके यहां कला है, लेकिन कलात्मक कलाबाजी नहीं है।अपनी पहली ही कहानी ‘दाज्यू’ में उन्होंने दाज्यू शब्द की रचनात्मक आवृत्ति से एक नाद बिंब रचा है।कहानी खत्म होने के बाद भी दाज्यू, दाज्यू, दाज्यू की प्रतिध्वनि कानों में गूंजती रहती है।इसी तरह से अपनी बेहद महत्वपूर्ण कहानी में उन्होंने ‘बदबू’ का घ्राण बिंब रचा है।ऐसे में अगर बिंबात्मकता नई कहानी की एक विशेषता है, तो शेखर जोशी के यहां दृश्य, श्रव्य और घ्राण बिंब, सभी के सफल प्रयोग दिखाई देते हैं।लेकिन एक बात यहां ध्यान देनेवाली है कि उनके यहां प्रयोग महत्वपूर्ण नहीं है।कहानी महत्वपूर्ण है।प्रयोग साध्य नहीं है, साधन है।उनके यहां नई कहानी का प्रयोगवाद नहीं है।अपने ढंग की नई कहानी है, जो कहानी कहने के परंपरागत तरीकों को सायास छोड़ती नहीं है, बल्कि उसे ही कहानी की आवश्यकता के हिसाब से पुनर्नवा करती है।

ऐसे में सवाल उठता है कि शेखर जोशी की कहानियों का आकलन कैसे किया जाए? शेखर जोशी की कहानियां ‘नई कहानी’ भले न हों, लेकिन उनकी कहानियां नई हैं।वे नए मानव का चित्रण करनेवाली कहानियां हैं।नई कहानी की संकुचित परिभाषा को विस्तार देनेवाली कहानियां हैं।वे अब तक अनदेखे पात्रों और जीवन स्थितियों को अपनी कहानियों का विषय बनाते हैं और इस तरह से कथा-भूगोल का विस्तार करते हैं।

उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता वर्गीय चेतना से संपन्न होना है।और इसका प्रदर्शन उन्होंने अपनी पहली कहानी दाज्यू में किया था।दाज्यू प्राथमिक तौर पर वर्गीय मनोविज्ञान, वर्गीय नियति की कहानी है।जिस शहरी अजनबीपन, अकेलापन को नई कहानी ने अपना विषय बनाया, अपने छोटे कलेवर में दाज्यू उसी अजनबीपन और अकेलेपन के कारणों पर हाथ रखती है और बताती है कि नए मनुष्य का अकेलापन एक स्तर पर उसका अपना चुनाव भी है।अपनी ग्रामीण पहचान से पीछा छुड़ाने की कोशिश और तमाम कोशिशों के बावजूद नई पहचान अर्जित करके अपना कायांतरण कर पाने की नाकामी, उसके अजनबीपन और बेगानेपन का कारण है।जगदीश बाबू अपनी वर्गीय कुंठा के कारण स्वजन की आत्मीयता- जिसने उनके अकेलेपन को दूर कर दिया था- का अपमान करते हैं।स्वजन की वर्गीय हैसियत कमतर होने के नाते यह आत्मीयता उन्हें उनकी ‘प्रेस्टीज’ पर बट्टा लगाती हुई मालूम पड़ती है।आत्मीयता स्वीकार करने की जगह वे अकेलेपन और अजनबीपन की दुनिया में वापस लौट जाना पसंद करते हैं।

शेखर जोशी की कहानियों की दो धाराएं साफ दिखाई देती हैं।एक धारा का संबंध उनकी पहाड़ी पृष्ठभूमि से है।पहाड़, वहां से होनेवाला विस्थापन, पलायन, पहाड़ का कठोर जीवन, पहाड़ की स्मृति आदि परिचित थीम उनकी कहानियों का विषय बने हैं।इस दृष्टि से कोसी का घटवार, सीनारियो, तर्पण, हलवाहा आदि कहानियों को याद किया जा सकता है।इन और पहाड़ से संबंध रखनेवाली दूसरी कहानियों का हिंदी कथा साहित्य में अपना स्थान है।लेकिन जिस चीज के लिए शेखर जोशी को खासतौर पर याद किया जाता है, जो हिंदी कथा साहित्य में उनकी सतत प्रासंगिकता का कारण बनी रही है और आगे भी रहेगी, वह है फैक्टरी के जीवन से संबंधित उनकी कहानियां।हिंदी कथा साहित्य में फैक्टरी के जीवन को इतने नजदीक और रागात्मकता के साथ किसी और कहानीकार ने नहीं देखा है।इस हिसाब से शेखर जोशी मिलों और मजदूरों के जीवन को उकेरनेवाले हिंदी के एकमात्र कहानीकार ठहरते हैं।उन्होंने नई कहानी और ग्राम्य कहानी से इतर औद्योगिक कहानी की एक नई धारा की भी शुरुआत की।इन कहानियों की विशेषता मजदूर आंदोलनों वाले फॉर्मूले के अनुरूप नहीं होना है।उस्ताद, बदबू, जी हजूरिया, मेंटल आदि का ध्यान इस संदर्भ में विशेष तौर पर आता है।

शेखर जोशी ने भले कम कहानियां लिखी हों, लेकिन ये यादगार कहानियां हैं।नई कहानी में ‘रिकॉल क्षमता’ का अभाव है।पाठक निर्मल वर्मा की कहानियों को पढ़ते वक्त या कुछ समय बाद तक उन कहानियों के प्रभाव में रहता है।लेकिन वह प्रभाव, हर प्रभाव की तरह छीज जाता है।इसके उलट शेखर जोशी की कहानियां याद रह जाती हैं।कानों में गूंजता हुआ दाज्यू शब्द याद रह जाता है।फैक्टरी में काम करने से हाथों में रह जानेवाली बदबू याद रह जाती है।ज्ञान बांटनेवाले उस्ताद याद रह जाते हैं।डिस्क्रेडिट हो गया जी हजूरिया याद रह जाता है।प्रश्नांकित ईमानदारी वाला नौरंगी याद रह जाता है।सामाजिक-धार्मिक वर्जनाओं की बंजर जमीन पर हल चलाता जीवानंद ‘हलवाहा’ याद रह जाता है।ऐसी ही याद रह जाती है, तर्पण की भाभी।सीनारियो में अंगारों को अपनी नन्ही उंगलियों से चुनकर कलछुल में रखती सिरुली और उन बुझ चुके अंगारों को बारी-बारी से फूंक मारती आमां और सिरुली और चूल्हे की आंच का सुनहरा आलोक याद रह जाता है।वास्तव में शेखर जोशी की लगभग सारी कहानियां याद रह जाने के गुण से युक्त हैं।यही उनकी और उनकी कहानियों के प्रासंगिक बने रहने का कारण है।

परिंदे कहानी-संग्रह पर बात करते हुए नामवर सिंह निर्मल वर्मा की कहानियों की विशेषता प्रभाव डालना बताते हैं।नामवर सिंह की ही बात को आगे बढ़ाते हुए अब कहा जा सकता है कि अगर नई कहानी की प्रतिनिधि रचना परिंदे प्रभाव डालती है, और शेखर जोशी की कहानियां याद रह जाती हैं।स्मृति, प्रभाव से प्रबल होती है।निर्मल वर्मा की कहानियों की विशेषता बताते हुए नामवर सिंह  ने कहा था कि ‘यह सही है कि निर्मल वर्मा की कहानियां प्रभाव छोड़ती हैं।यहां तक कि तमाम कहानियां लगभग एक सा प्रभाव छोड़ती हैं और यह भी सही है कि इस प्रभाव के आगे न चरित्र याद रहते हैं और न घटनाएं।’ आगे वे कहते हैं कि चरित्र वहीं याद रहते हैं जहां भाव कमजोर होता है और शिल्प प्रबल; दूसरे शब्दों में, जहां कहानी के ढांचे में दरार रहती है।जाहिर है जब परिंदे को नई कहानी की पहली कृति कहा जाएगा, तब शेखर जोशी की कहानियां नई कहानी में शामिल नहीं हो सकेंगी।शेखर जोशी की कहानियों की विशेषता यही है कि उसमें यादगार पात्रों का एक पूरा जमघट है।ये अनदेखे पात्र हैं।ऐसे पात्र जिन्हें पहली बार कहानी में अपनी बात कहने का मौका मिला है।

ये नए मनुष्य के साथ पूरी करुणा के साथ खड़ी होनेवाली कहानियां हैं।स्वातंत्र्योत्तर भारत के गांवों से पलायन करनेवाले, फैक्टरियों में काम करनेवाले, सामाजिक वर्जनाओं से लड़ने के लिए मजबूर होते मनुष्य की सच्ची कहानियां शेखर जोशी ने कही हैं।

१३०२, गौड़ गंगा, वैशाली, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश२०१०१०, मो.९९५३१०३१४६

संपर्क प्रस्तुतिकर्ता :​ एलपी-६१/बी,पीतमपुरा, दिल्ली-११००३४ मो.८५०६०१४९१७