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1984 से जर्मन भाषा की शिक्षक। जर्मन साहित्य के कई रचनाकारों का हिंदी में अनुवाद। एक निजी इंस्टीट्यूट में जर्मन भाषा का अध्यापन कर रही हैं। मैक्समूलर भवन के केंद्रीय विद्यालय प्रोजेक्ट के लखनऊ क्षेत्र की समन्वयक। |
फ्रांत्स काफ्का
(3 जुलाई 1883 – 3 जून 1924) प्राग के जर्मन भाषी यहूदी परिवार में जन्म। 20वीं सदी के प्रभावशाली अस्तित्ववादी जर्मन लेखक। उनकी रचनाएं आधुनिक समाज में विलगाव को चित्रित करती हैं। 41 वर्ष की उम्र में टीबी रोग से ग्रसित होने के कारण मृत्यु। उनके लेखन को ‘काफ्काएस्क शैली’ के नाम से जाना जाता है।
जोज़फ़ ‘क’ सपना देखता है।
एक सुंदर दिन था और ‘क’ टहलने जाना चाहता था पर दो कदम भर ही चला था कि वह कब्रिस्तान पहुंच गया। वहां बेहद बनावटी, आपस में उलझे हुए जटिल रास्ते थे, लेकिन उनमें से एक रास्ते पर वह ऐसे निकल गया मानो प्रबल प्रवाहित जल पर स्थिर मुद्रा में बह रहा हो। उसकी निगाह दूर से ही हाल ही में निर्मित एक कब्र के टीले पर पड़ी, जिसपर वह रुकना चाहता था। इस कब्र के टीले ने उसे एक प्रकार से सम्मोहित कर दिया था और उसे लग रहा था कि वह वहां जल्दी नहीं पहुंच सकेगा। लेकिन कभी-कभी उसे वह टीला बमुश्किल दिख पाता था, वह झंडों से ढका था जिनके कपड़े पीछे की ओर लहरा रहे थे और जोर से एक दूसरे से टकरा भी रहे थे। झंडों के वाहक नहीं दिख रहे थे पर ऐसा लग रहा था कि वहां जबरदस्त उत्सवी माहौल था।
उसकी दृष्टि जबकि अब भी दूर टिकी हुई थी, अचानक वही कब्र का टीला उसे रास्ते पर अपने बगल में दिखाई दिया, लगभग अपने पीछे। वह फुर्ती से घास में कूद गया। चूंकि उसकी कूदने की जगह का रास्ता आगे खिसक गया था तो वह कुछ लड़खड़ाया और कब्र के टीले के सामने घुटनों के बल जा गिरा। कब्र के पीछे दो व्यक्ति खड़े थे और हवा में अपने बीच कब्र का एक पत्थर पकड़े हुए थे।
‘क’ दिखा ही था कि उन्होंने पत्थर जमीन पर पटक दिया और वह मजबूती से चिनी हुई दीवार की तरह खड़ा हो गया। तुरंत ही झाड़ियों में से एक तीसरा व्यक्ति बाहर निकला जिसे ‘क’ तुरंत पहचान गया कि वह एक कलाकार है। वह सिर्फ एक पैंट और बेतरतीब बटन लगी हुई कमीज पहने था। सिरपर मखमल की टोपी थी। हाथ में एक साधारण पेंसिल थी जिससे वह नजदीक आती हुई आकृतियों का विवरण हवा में लिख रहा था।
उस पेंसिल को लिए हुए वह एक पत्थर पर लिखने की तैयारी करने लगा। पत्थर काफी ऊंचा था। उसे बिलकुल भी नहीं झुकना पड़ा। पर शायद आगे को झुकना पड़ा, क्योंकि वह कब्र का टीला जिसपर वह नहीं चढ़ना चाहता था, उसे पत्थर से अलग कर रहा था। सो वह पंजों के बल खड़ा हो गया और बाएं हाथ को पत्थर पर टिकाया। एक विशिष्ट जोड़-तोड़ के बाद वह साधारण पेंसिल से सुनहरे अक्षर लिखने में सफल हो सका। उसने लिखा : यह कब्र… की है। प्रत्येक अक्षर साफ और सुंदर था, गहराई में सटीक रूप से, स्वर्णाक्षरों से लिखा हुआ। जब वह इन अक्षरों को लिख चुका तो उसने ‘क’ को मुड़कर देखा। ‘क’ ने, जो यह देखने के लिए बेहद उत्सुक था कि आगे क्या लिखा जाने वाला है, इस आदमी पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया, बल्कि सिर्फ पत्थर को देखता रहा। वस्तुतः उस व्यक्ति ने फिर लिखना शुरू किया पर वह ऐसा कर नहीं पाया, कोई अड़चन आ गई। उसने पेंसिल गिरा दी और फिर से ‘क’ की ओर मुड़ा। अब ‘क’ ने भी कलाकार को देखा और ध्यान दिया कि वह बड़ी उलझन में था पर उसका कारण नहीं बता सका। उसकी पहले की स्फूर्ति गायब हो गई थी।
इससे ‘क’ भी उलझन में पड़ गया। उन्होंने असहाय दृष्टि से एक-दूसरे को देखा। एक अजीब गलतफहमी छाई हुई थी, जिसे कोई हल नहीं कर सका था। गिरजाघर की घंटी भी बेमौके बजने लगी, पर कलाकार ने हाथ उठाकर इधर-उधर घुमाया और वह बंद हो गई। कुछ देर बाद वह फिर से शुरू हो गई। इस बार बहुत धीरे और बिना किसी आदेश के तुरंत रुक गई। ऐसा लगा मानो वह सिर्फ अपनी आवाज को जांचना चाहती हो।
कलाकार की दशा से ‘क’ बहुत दुखी था। आगे बढ़े हुए दोनों हाथों में वह मुंह रखकर रोने लगा और बड़ी देर तक सुबकता रहा। कलाकार ने ‘क’ के संभलने तक इंतज़ार किया। चूंकि उसे कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने आगे लिखने का निश्चय किया। पहली छोटी लकीर जिसे उसने बनाया, ‘क’ के लिए एक राहत थी, जो कलाकार ने उसे दी। पर लगता था कि वह सिर्फ एकदम अनिच्छा से ही यह कर पाया था। लिखावट भी इतनी सुंदर नहीं थी। सबसे बड़ी बात सोने की कमी महसूस हो रही थी, फीकी और अस्पष्ट लकीर को उसने आगे खींचा, बस अक्षर बहुत बड़ा हो गया। यह ‘ज’ था, यह खत्म हुआ ही था कि कलाकार ने पैर से कब्र के टीले पर गुस्से से ऐसी ठोकर मारी कि मिट्टी की एक हल्की परत ऊपर उड़ी।
आखिर ‘क’ उसे समझ गया, उसे ऐसा करने से रोकने का अनुरोध करने के लिए समय नहीं था। उसने मिट्टी खोदने के लिए उंगलियां गड़ा दीं। उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। सब तैयार-सा लग रहा था। लगता था, सिर्फ दिखावे भर के लिये एक पतली सतह खड़ी कर दी। ठीक उसके पीछे खड़ी ढलान वाली दीवारों के बीच एक बड़ा छेद खुल गया जिसमें ‘क’ पीठ के बल एक कोमल धारा में डूब गया, लेकिन जब उसका सिर अब भी गर्दन से ऊपर उठा हुआ था, घनघोर गहराई ने उसे अपने अंदर समा लिया। बस, उसका नाम तेजी से पत्थर पर जबरदस्त अलंकृत रूप से उभर आया।
इस दृश्य से आह्लादित और चकित होकर वह जाग गया।
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