वरिष्ठ लेखक और संस्कृति कर्मी।ईश्वर का हिंदू’, ‘आस्था की परती परऔर स्वाद भर शब्दकविता संग्रह।सहयोगपत्रिका के प्रधान संपादक।

मातृभाषा

जब जब मां की याद आती है
भाषा का बसंत
लोरी बनकर मेरे सिरहाने बैठ जाता है

रंग बिरंगे फूलों पर
धूप सी काया खिल उठती है
जब जब मां की याद आती है

द्वार पर रखे दीपक की लौ
भीतर जल उठती है
काली अंधेरी रात में
सहज ही शहनाई सी बज उठती है

जब जब मां की याद आती है
एक दरख्त
सांसों में उग आता है

तपती धरती पर
मनुष्यता का ग्लेशियर पिघल उठता है
तब दिल के दरवाजे पर
मां दस्तक देती है
जब जब मां की याद आती है
उसके कोमल एहसास
भाषा बनकर फूट पड़ते हैं

धीरे धीरे हम खड़े होकर
चलने लगते हैं
उड़ान भरने लगते हैं
विचारों के संग साथ रहकर
अपनी अपनी मातृभाषा में

जीवन जीने की कला में
हम निपुण हो जाते हैं
दरअसल मां की याद आते ही
जिज्ञासा की कलम पकड़कर
लोकगीत की तरह
हम मयूर बनकर नाच उठते हैं

जब-जब मां की याद आती है
प्रेम गीत गाने लगते हैं
स्वतंत्रता का मातृत्व बन
मेरे भीतर बह उठती है मातृभाषा।

संपर्क : रामबांध, नियर सुकांत भवन, बर्नपुर-७१३३२५, पश्चिम बंगाल।मो. ८६१७६२९५५३