कवि तथा कहानीकार।विभिन्न पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। एक कविता संग्रह ‘यहां से इस तरह’।
‘फिस्स….!’
ऐसे ही हँस देता था दुलीचंद।यही उसकी फितरत थी।उस दिन भी वह जिला कचहरी में ऐसे ही हँस पड़ा, जब सफेद कमीज पहने एक नौजवान के कंधे पर किसी पंछी ने बीट कर दिया।नौजवान ने गुस्से में कहा, ‘बड़ा मजा आ गया आपको?’
वह जिला कचहरी में अपने साले के काम से गया था और काम निपटने के इंतजार में बरगद के नीचे बेंच पर बैठा था।यह बेंच चाय वाले की थी, लेकिन साझा जगह थी।समय गुजारने के लिए कोई भी वहां आकर बैठ जाता था।सफेद कमीज वाला नौजवान हैंडपंप पर जाकर अपनी कमीज साफ करने लगा।
दुलीचंद उसके पास पहुंचकर हैंडपंप चलाने लगा।लेकिन सफेद कमीज साफ होने के बजाय और गंदी होने लगी तो दुलीचंद ने कहा, ‘भैयाजी, कमीज उतार कर मुझे दे दो।बिना उतारे नहीं साफ होगी।’
‘यहां?’ नौजवान ने कहा।पढ़ा-लिखा नौजवान था, उसे सबके सामने कमीज उतारने में शर्म आ रही थी।
‘भैयाजी’, दुलीचंद ने कहा, ‘यहां किसी को भी किसी दूसरे की नहीं पड़ी है।आप पेड़ की आड़ में चले जाओ।मैं लाकर दे दूंगा।’
हैंडपंप पर पानी पीने और हाथ धोने वालों का तांता लगा हुआ था।एक लड़के ने हैंडपंप चलाया, दुलीचंद ने पानी की धार के नीचे नौजवान की कमीज पल भर में हाथ से रगड़ कर साफ की, और झटकार कर उसे दे दिया।नौजवान ने फीकी-सी मुस्कान के साथ अत्यंत धीमी आवाज में उसे धन्यवाद कहा।दुलीचंद ने जैसे गाते हुए कहा, ‘भइया जी, हँस दिया करो।बस, हँस दिया करो भइया जी! जो होना है, वह तो होगा।वह तो होगा, जो होना है!’ अकसर वह अपनी बात इसी तरह लय में कहता था।उसके गाने से नौजवान के चेहरे पर कोई फर्क नहीं पड़ा तो दुलीचंद ने फिर कहा, ‘हँसने से सब आसान हो जाता है।’ एक फीकी-सी मुस्कान फिर से नौजवान के चेहरे पर आई और मुंह नीचे किए हुए वह अपनी कमीज की बटन बंद करने लगा।
यही दुलीचंद है, हर जरा–सी बात पर फिस्स से हँस देने वाला।ठिंगने कद का इनसान, हरदम चलता–फिरता, कभी खाली न बैठने वाला, जो भी सामने है उसे खुशी–खुशी स्वीकार करने वाला।आज भी वह सुबह–सुबह अपने बारह साल के बेटे को उसका हाथ पकड़ कर टहलाने के लिए लेकर गया, लौटकर उसे अपनी घरवाली को सौंपा कि वह उसे स्कूल के लिए तैयार कर दे, फिर नहाने–धोने लग गया।
उसकी बड़ी बेटी अब अठारह बरस की है।कालेज जाने के लिए वह तैयार खड़ी थी।दुलीचंद ने अपने बटुए से बेटी को बस का किराया दिया, और साइकिल निकाल कर बेटे को लेने अंदर गया।
बेटे को वह अपने साथ लेकर मंदबुद्धि शिशु विद्यालय में छोड़ता है, उसके बाद अपने काम की ओर बढ़ जाता है।यही उसकी दिनचर्या है।आजकल वह महावीर मार्ग पर डायमंड टावर्स की सोसाइटी की बनने वाली सड़क में मेट का काम करता है।सोसाइटी के चार ब्लाकों के चारों तरफ की बीस फुटी सड़क सीमेंट-कांक्रीट से बनाने के लिए पाठक ठेकेदार ने काम लिया है।दुलीचंद पाठक ठेकेदार का बहुत पुराना आदमी है।बीते दस साल से वह मेट का जिम्मा संभाल रहा है।डायमंड टावर्स की सड़क के काम के लिए भी दिहाड़ी मजदूर, राजमिस्त्री, लोहे-सरिये का काम करने वाले, टाइल्स बिछाने वाले, प्लंबर, जिसकी भी जरूरत हो, वह हाजिर कर देता है।उसी के भरोसे पर पाठक ठेकेदार दिनभर इधर-उधर दूसरे कामों के लिए निकल पाते हैं।
वह जब डायमंड टावर्स पहुंचा तो देखा, सोसाइटी के गेट के बाहर भीड़ जमा हुई थी।सोसाइटी के अंदर जाकर उसने अपनी साइकिल खड़ी की और बाहर आ गया देखने के लिए।महावीर मार्ग के सर्विस रोड से जब सोसाइटी के लिए अंदर को मुड़ते हैं, तो वहीं मोड़ पर एक नाला बहता है।वह नाला महावीर मार्ग, और उससे लगे सर्विस रोड के नीचे से निकलकर डायमंड टावर्स के गेट के बाजू से नीचे की ओर जाता है।नाले के गेट के पास वाला हिस्सा खुला है और इसके आगे नाला अंडर-ग्राउंड है।सर्विस रोड के किनारे कोई पैरापेट न होने से अंदेशा रहता है कि कोई नाले में गिर न जाए।उसी नाले में आज एक दूध वाला अपनी साइकिल और दूध के कंटेनरों सहित गिर गया था और दो लोग नाले में उतर कर उसे निकालने की कोशिश कर रहे थे।
‘आइए भइया जी लोग, भइया जी लोग आइए! जो भी भाई लोग मदद करना चाहें, आगे बढ़िए! हाथ बढ़ाइए! आगे बढ़िए हाथ बढ़ाइए!’ कहते हुए दुलीचंद भी मदद करने के लिए आगे बढ़ा।उसके कहने का अपना ही अंदाज था, जैसे गाना गा रहा हो।
संयोग से नाला लगभग सूखा हुआ था, दुलीचंद के बचाव अभियान में कठिनाई नहीं हुई।उसका साथ देने के लिए दो और लोग आगे बढ़े और उन्होंने फटाफट दूध के कंटेनर उठा लिए।कंटेनरों के ढक्कन खुले नहीं थे।दुलीचंद गाते हुए बोल पड़ा, ‘लो भाई, गवाले साहब, अरे भाई, गवाले साहब! आपका दूध तो नुकसान होने से बच गया!’
वहां से निपट कर अपने हाथ झाड़ते हुए दुलीचंद ने अपने साथी मजदूरों को आवाज लगाई और सोसाइटी की नई सड़क के काम में जुट गया।
सर्विस रोड के नीचे से गुजरते उस नाले पर, जिसमें दूध वाला गिर गया था, पैरापेट बना ही नहीं था, ऐसा नहीं है।नगर निगम ने वहां कई साल पहले पैरापेट बनाया था।महावीर मार्ग के दूसरी ओर इमेराल्ड सिटी है और वह नाला इमेराल्ड सिटी के बगल से होकर आता है।इमेराल्ड सिटी वाले छोर पर भी नगर निगम ने पैरापेट बनाया था।दोनों पैरापेट पहली ही बरसात में ढेर हो गए थे।इमेराल्ड सिटी वालों ने अपनी तरफ से वहां एक साफ-सुथरा, चार फुट ऊंचा सीमेंटेड पैरापेट बनवा लिया था।इस तरफ डायमंड टावर्स से ठीक पहले एक डाक्टर साहब का क्लिनिक और साथ ही उनका मेडिकल स्टोर था।उन्होंने अपने मरीजों की चिंता करते हुए नाले पर पत्थरों से एक दीवार चुनवा दी थी, जिससे उनकी तरफ से नाले की गंदगी भी न दिखती थी और किसी के गिरने का भी डर नहीं था।लेकिन सर्विस रोड से गुजरने वालों और खास तौर से सर्विस रोड से डायमंड टावर्स की ओर आने वालों के लिए खतरा बना हुआ था।
डायमंड टावर्स की सोसाइटी की तरफ से पिछले पांच वर्षोर्ं से नगर निगम को लगातार चिट्ठियां भेजी जा रही थीं और नगर निगम आराम से उन चिट्ठियों को हजम करता जा रहा था।निगम के अधिकारियों से जब भी संपर्क साधा गया, उन्होंने कभी काम के लिए मना नहीं किया।वे हर साल पैरापेट के लिए एस्टीमेट बनवाते रहे और हर साल उसका एस्टीमेट एक लाख रुपये से कम का ही बन पाता।वे इंतजार में थे कि जैसे ही एस्टीमेट एक लाख का होगा, वे उस काम का टेंडर निकाल देंगे।एक लाख से कम के काम का टेंडर निकालने का नियम नहीं था और निगम के कर्मचारी अपनी तरफ से पैरापेट का इतनी बार मरम्मत करा चुके थे, कागजों में, कि उसे नए सिरे से बनाने का जिम्मा जो भी उठाता, उसकी तो फिर छुट्टी ही हो जाती।
डायमंड टावर्स के रहवासी बड़ी-बड़ी कारों से निकलते थे और नाले पर पैरापेट होने या न होने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था।लेकिन जब उनकी सोसाइटी की बैठक होती और नगर निगम से जुड़े मुद्दों पर बात उठती तो पैरापेट वाला मुद्दा भी सामने आता और एक और नई चिट्ठी नगर निगम को लिख दी जाती।
कभी–कभी सोसाइटी की ओर से सॉलिड वेस्ट डिस्पोजल, सीवेज लाइन और फ्रेश वाटर सप्लाई के सिलसिले में नगर निगम के दफ्तर का चक्कर लगाना पड़ता था।सोसाइटी ने हिसाब–किताब और दूसरे दीगर कामों के लिए रिटायर्ड एकाउंटेंट सक्सेना जी को लगा रखा था, उन्हीं की ड्यूटी थी निगम के दफ्तर का चक्कर लगाने की और वही कभी–कभार पैरापेट के बारे में कोई न कोई खबर लाकर दे दिया करते थे।
जब सक्सेना जी कोई खबर लाकर देते तब उनकी बात यों सुन ली जाती, जैसे ‘ठीक है, बंदे को तनख्वाह दे रहे हैं तो बदले में कुछ सूचना तो लाकर देता है, कुछ काम तो कर रहा है!’ उस वक्त पैरापेट कितना जरूरी है, यह बात भुला दी जाती।फिर जब किसी बैठक में कोई रहवासी इस मुद्दे को उठाता कि किस तरह किसी की बेटी या बेटा साइकिल चलाते-चलाते या मोटरसाइकिल अचानक मोड़ते वक्त नाले में गिरते-गिरते बच गया, तब यों इस मुद्दे पर बहस छिड़ जाती, मानो इस बार तो कुछ न कुछ परिणाम जरूर निकल कर आएगा।
तो वह दूध वाला जिस दिन नाले में गिर पड़ा था अपनी साइकिल और दूध के कंटेनरों सहित, उसके अगले रविवार को सोसाइटी की बैठक बुलाई गई थी।अभी तक तो सोसाइटी के रहवासियों के बच्चे केवल गिरते-गिरते बचे थे, लेकिन दूध वाले के गिरने के कारण अब बात यह हो रही थी कि यह तो दूध वाला गिरा था नाले में, अगर उसकी जगह अपनों में से किसी का बच्चा गिर गया होता तो? अब यह ‘अगर उसकी जगह’ वाला मामला वाकई गंभीर था।
उस दिन चिलचिलाती धूप निकली थी और उमस भी भयंकर थी।आमतौर पर चंगा दिखने वाले, हँसते रहने वाले दुलीचंद को बहुत तेज सिरदर्द हो रहा था।वह क्रोसीन की गोली खाकर बेसमेंट के एक कोने में रखे हुए टाइल्स के पैकेज और सीमेंट की बोरियों की ओट में लेटा हुआ था।बेसमेट के उस सिरे पर लॉबी जैसी एक खुली, साफ-सुथरी, हवादार जगह थी जहां सोसाइटी के बच्चे अपनी साइकिलें खड़ी करते थे।त्योहार आदि आने पर सजावट करके उसी जगह पर सोसाइटी के लोग मिलने-जुलने का कार्यक्रम भी किया करते थे।सोसाइटी की बैठक उसी जगह पर हो रही थी और दुलीचंद को उनकी बातें सुनाई पड़ रही थीं, जिन्हें अनसुना करने के लिए उसने अपनी कुहनी मोड़कर कान पर रख ली थी।लेकिन जब उसे लगा कि उनकी बातचीत नाले पर पैरापेट न बन पाने के बारे में हो रही है, कुछ लोग तो काफी जोश और उतावलेपन से बहस कर रहे हैं, तो उत्सुकतावश उसने कुहनी हटाई और अपने कान उधर ही दे दिए।
एक सज्जन कह रहे थे, ‘अरे, नागरकर साहब का ट्रांस्फर हो गया, वरना उन्होंने बात काफी आगे बढ़ाई थी।उनकी नगर उपायुक्त से अच्छी जान–पहचान थी।बी–ब्लाक वाले खान साहब भी एक–दो बार उनके साथ मिलने गए थे।खान साहब आए हैं क्या? हैं तो यहां! खान साहब, आप कुछ बता सकते हैं इस बारे में?’
इतने अमीर, बड़े-बड़े लोग इस समस्या से कैसे निजात पाते हैं, यह कुतूहल दुलीचंद के मन में था।अब यह खान साहब ही बोल रहे होंगे, दुलीचंद ध्यान से उनकी बात सुनने लगा।उन्होंने कहना शुरू किया, ‘हां, मैं भी गया था नागरकर साहब के साथ एक दफा।नगर उपायुक्त ने बड़े इत्मीनान से हमारी बातें सुनी थीं और फाइल भी बुलाकर देखी थी।भले आदमी हैं वह।नागरकर साहब के उनके साथ पुराने ताल्लुकात थे।उन्होंने ढंग से बात की, चाय-वाय भी पिलाई थी।उन्होंने बताया था कि उनके पास पैरापेट का एस्टीमेट भी आ गया है, शायद सत्तर या अस्सी हजार का बताया था।’
‘फिर दोबारा आपकी उनसे कभी बातचीत हुई?’
‘हां, मैंने कोशिश की थी मिलने की।फोन पर बात भी हुई।मैंने पूछा कि हमारी सोसाइटी के गेट से लगे नाले के पैरापेट के बारे में बात करने आना चाहता हूँ, आपसे कब मिलूं।उन्होंने कहा कि आप क्यों तकलीफ करते हैं, मैं उधर ही राउंड पर आने वाला हूँ, मैं खुद मिलूंगा आपसे।’
‘फिर बात हुई? आए वो?’
‘नहीं, न तो वे आए और न ही उसके बाद फोन पर बात हो पाई उनसे।’
दुलीचंद उठकर बैठ गया उनकी बातें सुनने के लिए।वह सोचने लगा, एक पैरापेट बनाने में सत्तर-अस्सी हजार का खर्च कैसे आएगा? दस-पंद्रह हजार से अधिक तो किसी भी हालत में खर्च नहीं होने वाला।है ही कितना काम? तभी किसी और सज्जन की तेज आवाज सुनाई पड़ी- ‘मैं तो कहता हूँ, मामला गंभीर है और कुछ न कुछ लीपा-पोती कर रहे हैं नगर निगम वाले।हमें आर.टी.आई. का एक अप्लीकेशन डालना चाहिए यह पूछने के लिए कि नगर निगम ने पैरापेट के मेंटीनेंस के लिए कब-कब और कितना फंड खर्च किया है।’
किसी ने कहा, ‘सक्सेना जी, आप कल ही जाकर आर.टी.आई. की दरख्वास्त लगाकर आइए।’
‘नहीं, किसी सदस्य द्वारा सक्सेना जी को इस तरह सीधे निर्देश देना उचित नहीं है।पहले इस बैठक में चर्चा करके यह निर्णय हो जाए कि आर.टी.आई. की दरख्वास्त लगाई जाए या नहीं, उसके बाद ही सक्सेना जी को निर्देशित किया जाना उचित होगा।’
इस प्रस्ताव पर कई लोगों ने हामी भर दी और फिर चर्चा होने लगी।चर्चा के बीच में किसी ने सुझाव दिया कि सक्सेना जी का भी विचार सुन लेना चाहिए, उनका नगर निगम वालों से वास्ता पड़ता रहता है।
इतना सुनते ही दुलीचंद की उत्सुकता बढ़ गई।उसका सिरदर्द उड़न–छू हो गया।इतनी लंबी बहस, इतने छोटे–से काम के लिए? ये इतनी बड़ी बिल्डिंग में रहने वाले लोग, जो सोसाइटी की सड़क के लिए बीस–तीस लाख रुपये खर्च कर सकते हैं, क्यों नहीं बीस हजार खर्च करके खुद ही एक पैरापेट बनवा लेते?
वह उठकर धीरे-धीरे टाइल्स के पैकेज की ओट में जाकर खड़ा हो गया।भूरे-सफेद चारखाने की बुश्शार्ट पहने एक सज्जन ने खड़े होकर बोलना शुरू किया, ‘श्रीमान, विचार यह हो रहा है कि आर.टी.आई. के तहत दरख्वास्त लगाई जाए या नहीं।अगर मेरी मानें, तो नगर निगम से हम लोगों को नियमित कुछ न कुछ काम लगा रहता है।हमारे रिक्वेस्ट पर वे लोग यहीं आकर कैम्प लगाकर सम्पत्ति कर, जल कर आदि जमा कर लेते हैं और ऐसे कई काम हैं जिनके लिए उनसे अच्छे संबंध का फायदा हम उठाते हैं।’
ये सज्जन रुक-रुक कर बोल रहे थे।दुलीचंद ने अनुमान लगाया, यही होंगे सक्सेना जी।उन्होंने कहना जारी रखा- ‘हमारा काम निचले स्तर पर ही संबंध रखकर बन जाता है।आर.टी.आई. की दरख्वास्त से कोई विशेष फर्क पड़ना नहीं चाहिए।हां, उससे निगम आयुक्त और उपायुक्त और इंजीनियरिंग शाखा के लोगों से हमारे संबंध खराब हो सकते हैंं।बस उसी का डर है।मेरे खयाल से, एक बार नए सिरे से एक और कोशिश कर ली जाए तो बेहतर होगा।आर.टी.आई. की दरख्वास्त तो ब्रह्मास्त्र है।उसका उपयोग सबसे बाद में किया जाना ठीक होगा।’
सक्सेना जी का विचार सुनकर बैठक में आम सहमति का समवेत स्वर आ गया- ‘हां-हां’, ‘सही है’, ‘बिलकुल ठीक!’ और ‘आपने सही फरमाया!’ आदि आदि।फिर एक कमेटी बनाई गई जिसे यह जिम्मा दिया गया कि पुरानी चिट्ठियों का हवाला देते हुए एक ऐसा कड़ा पत्र नगर निगम को भेजा जाए कि इस बार काम हो ही जाए।इसे अब और नहीं टाला जा सकता है।
उधर बैठक खत्म हुई और इधर दुलीचंद पीछे मुड़ा और हँस पड़ा – ‘फिस्स …!’ और उसके बाद जाकर अपने काम में लग गया।अब उसका सिरदर्द भी फिस्स हो गया था।
थोड़ी ही देर में मजदूरों के दोपहर के खाने का समय हो गया।अपनी अपनी साइकिलों पर टंगे टिफिन के डिब्बे लेकर उसके मजदूर साथी इकट्ठे हो गए।कुछ ने अपने टिफिन के डिब्बे बेसमेंट में बने शेल्फ से उठाए और उठाते ही चिल्लाने लगे, ‘अरे बाप रे, इत्ती चींटियां! लाल चींटियां! छी: छी:!’
दुलीचंद ने गाते हुए कहा, ‘चींटियां भाई चींटियां! क्या चिल्ला रहे, भाइंयों! चींटी झाड़ो वींटी झाड़ो! डब्बा उठाकर आ जाओ!’
उसके बुलाने पर कोई नहीं आया।वहां खड़े मजदूर बोल पड़े, ‘नहीं उठा सकते जनाब! चींटियों का रेला तो देखो!’
दुलीचंद उनके टिफिन देखने पहुंचा तो चींटियों का रेला देखकर उसे भी घोर आश्चर्य हुआ।उसने कहा, ‘न! न! कोई नहीं खा सकता ये टिफिन।जो भी खाएगा, बीमार पड़ जाएगा।छोड़ दो इसे।किसका-किसका है टिफिन यहां?’
कुल छह मजदूरों का टिफिन खराब हो गया था।दुलीचंद ने पाठक ठेकेदार से मोबाइल पर बात करके उनके लिए पास के रेस्तरां से कचौड़ी और ब्रेड पकौड़े मंगवा लिए।जिन दूसरे मजदूरों के टिफिन साइकिलों पर रखे हुए थे, उनके लिए भी उसने एक–एक ब्रेड पकौड़ा मंगवा लिया।
उसके प्रेमी व्यवहार के कारण पाठक ठेकेदार उसकी बात मान लिया करते थे।इसी हक से उसने मजदूरों के लिए खाने का सामान मंगवाया था और शाम को जब दिन के खर्च का हिसाब करने लगा, तभी उसने उनके सामने यह विचार रखा कि अगर वे इजाजत दें तो वह बिना कोई एक्स्ट्रा खर्च किए ही पैरापेट बना कर छोड़ देना चाहेगा।
दोपहर के खाने की छुट्टी के बाद दुलीचंद ने दो मजदूरों को नाले में उतारकर वहां की स्थिति देख ली थी।मजदूरों ने थोड़ा ही खोदा कि उसे पुराने पैरापेट की नींव नीचे दिखाई पड़ गई।उस नींव के ऊपर आसानी से पैरापेट खड़ा किया जा सकता था।
पाठक ठेकेदार को इस पैरापेट की कहानी मालूम थी और उनका पहला जवाब यही था कि हमेंं ऐसा कोई झंझट नहीं करना है।दुलीचंद पीछे पड़ा रहा।उसने डायमंड टावर्स की सोसाइटी की आज की बैठक का हवाला दिया और कहने लगा- ‘हम तो सेठजी, यही समझ लीजिए कि आपकी ओर से सोसाइटी वालों को एक गिफ्ट दे रहे हैं।चार दिन का काम है।दो आदमी आधे-आधे दिन लग जाएंगे, चार-छह बोरी सीमेंट दे दीजिए मुझे, कुछ ईंटें, और जरूरत पड़ी तो थोड़ी गिट्टी-सरिया भी, बस इतना ही।किसी को जब तक समझ में आएगा कि वहां क्या हो रहा है, तब तक हम पैरापेट बनाकर खड़ा कर देंगे।’
‘चलो, कल बात कर लेते हैं साहब लोगों से।’
‘नहीं सेठजी, आप उनसे बात करेंगे तो वे कभी इसके लिए हां नहीं कहेंगे।’
‘और बनता हुआ देखेंगे तो वे लोग गुस्सा नहीं होंगे?’
‘सेठजी, बनता हुआ देखेंगे तब न! जब तक उनकी नजर उधर जाएगी तब तक हम अपना काम खतम कर चुके होंगे।और यह भी तो सोचिए, आप उनसे कोई फंड भी नहीं मांग रहे हैंं।’
पाठक ठेकेदार ने कहा, ‘चलो कल बताऊंगा।’
दुलीचंद ने कहा, ‘कहीं आप उनसे बात मत कर लेना!’
पाठक ठेकेदार को हँसी आ गई।हँसते हुए उन्होंने कहा, ‘ऐसा! चल दुलीचंद, पूरा कर ले अपना खिलंदड़पन! अब जो होगा, देखेंगे।’
अगले दिन दो आदमियों को लेकर दुलीचंद ने पहले वहां पुराने पैरापेट की नींव तक मिट्टी निकलवाई और बाहर सड़क की तरफ, जहां तक मिट्टी की ढेर लगाई, वहां लाल रंग के चौड़े फीते से घेरा बना दिया जिससे कोई हादसा न हो जाए।उसके अगले दिन उसने ईंट जुड़ाई का काम शुरू करा दिया।
अपने साथ वाले कारीगरों से बातचीत करके दुलीचंद ने तय किया कि फिर से नींव डालने की जरूरत नहीं है, सीमेंट की जुड़ाई से दो ईंट चौड़ी दीवार खड़ी कर देंगे, काम पक्का हो जाएगा।तीन दिन में ही पैरापेट सड़क से ढाई फुट ऊंचाई तक बन कर तैयार हो गया।मेडिकल स्टोर की तरफ से जो पैरापेट पत्थरों से बना था, वह भी ढाई फुट ऊंंचा था।उसी के साथ जोड़ लगाकर दुलीचंद ने इधर से पैरापेट खड़ा किया और ऊंचाई भी मिला दी।
दो दिन उसने पानी से सिंचाई-तराई कराकर अगले दिन सड़क पर डली मिट्टी वापस पटवा दी और काम खत्म करके पाठक ठेेकेदार को बुलाकर दिखा दिया।
पाठक ठेकेदार ने कहा, ‘चलो अब सोसाइटी वाले किसी न किसी दिन बुलाएंगे पूछताछ करने के लिए।दुलीचंद, तुम भी साथ चलना।वे बवाल जरूर करेंगे इसे लेकर।’
दुलीचंद फिस्स से हँस पड़ा, बोला कुछ नहीं।सोसाइटी का रोड का काम चलता रहा।महीना भर भी नहीं हुआ, पाठक ठेकेदार को सोसाइटी के सचिव का बुलावा आ गया।
रविवार की सुबह ग्यारह बजे पाठक ठेकेदार सोसाइटी के सचिव अग्निहोत्री जी के ग्यारहवें तल्ले वाले फ्लैट पर पहुंच गए।पहुंचकर उन्होंने अग्निहोत्री जी को नमस्ते किया और हँसते हुए कहा, ‘सर जी, लिखित में नोटिस देकर आपने हमें बुलवा भेजा।आप तो गार्ड से ही कहलवा देते, जब कहते, मैं हाजिर हो जाता।’
‘मिस्टर पाठक!’ अग्निहोत्री जी ने बड़ी रूखाई से कहा, ‘आपने जो किया है, वह कितना गलत है, आप नहीं समझ पाएंगे।कितने सालों से हमारी सोसाइटी की नगर निगम से ठनी हुई है।आपको किसने कहा वहां पैरापेट खड़ा करने के लिए? आप बता सकते हैं?’
पाठक ठेकेदार ने पल भर में मामले को सूंघ लिया।अग्निहोत्री जी ने बैठने को भी नहीं कहा है और जुबान भी सख्त है, इसका मतलब कि इस बीच सोसाइटी के पदाधिकारियों की बैठक हो चुकी होगी और इन लोगों के लिए जो खिलंदड़पन दुलीचंद ने किया है, वह असल में निहायत ही गंभीर मामला है, इतनी आसानी से नहीं सलटेगा।फिर भी अपनी ओर से थोड़ी-बहुत सफाई तो देनी होगी सोचकर पाठक ठेकेदार ने बात आगे बढ़ाई।
लेकिन वहां अधिक बहस की गुंजाइश नहीं रही।जो भी किया गया था, उससे सोसाइटी के लोगों को ही लाभ मिलना था जैसी कोई दलील देने का अवसर ही नहीं मिला पाठक ठेेकेदार को और पांच मिनट में उन्हें फैसला सुना दिया गया कि तीन दिन के अंदर पैरापैट गिराकर जो पहले की स्थिति थी, उस जगह को उसी स्थिति में लाकर छोड़ा जाए।पाठक ठेकेदार ने कहा, ‘जी, सर जी।मेरा आदमी बाहर ही खड़ा है, मैं आपके सामने ही उसे ताकीद करता हूँ।चौथे दिन आपको पुरानी स्थिति बहाल मिलेगी।’
इतना कहकर पाठक ठेकेदार ने फ्लैट के दरवाजे पर खड़े दुलीचंद को भीतर बुला लिया और डांटने वाले लहजे में कहा, ‘तुम लोग अपनी मनमानी कर रहे थे, अब सुन तो लिए ही होगे।बस, तीन दिन का समय है।तीन दिन बाद पैरापेट का नामोनिशान नहीं दिखना चाहिए।’
इस बार दुलीचंद फिस्स से नहीं हँसा।उसने पाठक ठेकेदार की ओर बेचारगी भरी नजरों से देखा, हल्के-से सिर हिलाया, चेहरा झुकाया और बाहर निकल गया।
दुलीचंद का चेहरा देखकर पाठक ठेकेदार पशोपेश में पड़ गए।अब क्या किया जा सकता है ऐसे मौके पर? किया भी क्या जा सकता है? तुरंत ही एक उपाय सूझ गया।
पाठक ठेकेदार ने कहा, ‘सर जी, एक विनती करूं? पैरापेट जो बना है, किसी कारीगर का काम नहीं है।मजदूरों ने मिलकर खाली समय में लपड़-झपड़ बना दिया, बचा-खुचा माल लेकर।कितने दिन टिकेगा? बरसात आने वाली है।किसी दिन जोर का पानी आएगा नाले में और बह जाएगा पैरापेट।हम तोड़कर गिराएंगे तो बनी हुई चीज है, और गलत हो जाएगा।बड़े लोगों की सोसाइटी है, चार जगह चार बातें होंगी, अच्छा नहीं लगेगा।’
अग्निहोत्री जी ने थोड़ा विचारा, फिर कहा, ‘ठीक है।आपकी यह बात भी सही है।लेकिन बरसात में अगर बहा नहीं तो आपको गिराना तो पड़ेगा।हर हालत में।’
‘जी, सर जी!’ कहकर पाठक ठेकेदार बाहर निकल आए।दुलीचंद ने उनकी ओर बड़े सुकून से देखा।सारी बातें वह सुन चुका था।उसके दिमाग में पैरापेट की ताजा तस्वीर घूम गई। ‘हमारा अपना शहर’ नाम की एक संस्था शहर के सुंदरीकरण का काम अपने जुटाए संसाधनों से करती थी।पिछले सप्ताह उस संस्था की ओर से पूरे पैरापेट पर खूबसूरत आदिवासी चित्रकारी कर दी गई थी।अब इस पैरापेट को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि यह दो हिस्से में बना है, एक हिस्सा पत्थरों से और दूसरा ईंटों से।चित्रकारी ने पूरे पैरापेट को एक इकाई बना दिया था।आते-जाते हुए दुलीचंद नए रंगभरे पैरापेट को नजर भरकर देख लेता था।
लिफ्ट में जब वे पहुंचे तो वहां उनके अलावा और कोई नहीं था।दुलीचंद ने कहा, ‘सेठ जी, पैरापेट पाठक सेठ के चेलों ने बनाया है।पाठक सेठ के चेलों का काम पक्का होता है।ये पैरापेट कम से कम दस साल टिकेगा!’ और अब दुलीचंद फिस्स से हँस पड़ा।
उसकी बात सुनकर पाठक ठेकेदार भी फिस्स से हँस पड़े और दुलीचंद की पीठ पर धौल जमाकर कहा, ‘चल यार, फिलहाल तो यह बला टली!’
संपर्क : फ्लैट नं. 607 ब्लॉक ए-2, शालीमार फोर्टलिजा, आशिमा मॉल के पास, होशंगाबाद रोड, भोपाल-462026 मो. 989792778