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के. वी. तिरुमलेश (जन्म :1940) आधुनिक कन्नड़ कवि, कहानीकार और समीक्षक। प्राध्यापन से सेवा निवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन। |
डी. एन. श्रीनाथ कन्नड़-हिंदी में परस्पर अनुवाद। 105 अनूदित पुस्तकें प्रकाशित। साहित्य अकादेमी का अनुवाद पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सौहार्द सम्मान, केंद्रीय हिंदी निदेशालय का अनुवाद पुरस्कार आदि। |
मैं इस शहर में हाल ही में आया हूँ, ज्यादा दिन नहीं हुए। अभी शहर से परिचय नहीं हुआ है। कैसे-कैसे लोग हैं, कौन-सी गली कहां जाती है, अच्छे होटल कौन-कौन से हैं, यहां के नेता कौन हैं- ये सारी बातें अभी तक मुझे मालूम नहीं हुई हैं। इन्हें समझने का इरादा भी नहीं है। किराए का एक छोटा कमरा लिया और चुपचाप रहने लगा।
मुझे सिर्फ मेरे और अपने ऑफिस के काम से मतलब था। क्योंकि मैं पहले जिस शहर में रहता था, काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। भलाई करने जाता तो सब बुराई में बदल जाता। इससे मेरी बेइज्जती हुई। मेरी बदनामी हुई। मैंने जिनकी मदद की थी, वे मुझसे दूरी बनाने लगे थे। कुछ पूरी तरह से ईर्ष्या करते थे। ऑफिस में भी मेरे साथी मुझे संदेह भरी नजरों से देखने लगे। मेरा चेहरा उन्हें पसंद नहीं आता था या कोई और कारण था, मुझे समझ नहीं आया; सच है, मैं अंतर्मुखी हो गया था।
मेरी अपनी ही समस्याएं थीं। इसका यह मतलब नहीं था कि मैं समाज से विमुख हो गया। कुछ लोगों से दोस्ती कर ली थी। उनके दुख-दर्द में काम आता था। कभी-कभी लोगों को ढूंढ़ कर उनकी मदद किया करता। फिर भी पता नहीं मेरी किस्मत अच्छी नहीं थी या पूर्व जन्म का कोई पाप-कार्य था या किसी का शाप मेरे पीछे पड़ा था।
मैं परेशान हो गया। अनजाने में गलतियां करने लगा। कभी व्यग्र होकर लोगों को जवाब देता। काम-काज में मेरा उत्साह कम हुआ। इससे अपने आला अफसरों के क्रोध का निमित्त बना। मैं जो कुछ बनना चाहता था, नहीं बन पाया और जो बनना नहीं चाहता था, बनने लगा। सोचा कि अब शहर छोड़ना ही बेहतर है। फिर दूसरी जगह तबादला करने की अर्जी दी।
लगता है कि अफसर भी यही चाहते थे। उन्होंने मुझे इस शहर से उठाकर वहां फेंक दिया, जहां कोई आना नहीं चाहता था। मैंने नई जिंदगी शुरू कर दी। सोचा कि पिछली बार मैंने जो गड़बड़ी की थी, करना नहीं चाहिए। ठीक वक्त पर या उससे पहले ही ऑफिस जाना, अपने काम में कोताही न बरतना, सभी के साथ जरूरत भर का संपर्क रखना आदि आदि। यह बात नहीं है कि इससे मुझे सुख मिलता था, मगर मैं क्या करूं? कुछ कमियां जिनको मैं जानता तक नहीं था, उन सबने मुझे इस दिशा में धकेल दिया था। इंसान जो चुनना चाहता है, वह सीमित होता है।
एक घटना याद आती है। जब मैं छोटा था, साइकिल चलाना सीख रहा था, मैं सावधान था कि नाली में न गिरूं, मगर मैं नाली में गिर पड़ा! न जाने क्यों जब भी कुछ नया करता हूँ, ऐसा होता है।
मैंने किसी बात की चाह नहीं की।
मैंने ज्यादा अनुशासन से जीने की कोशिश की। अपना काम खुद कर लेता, अनाज और सब्जियां खरीदना, खाना बनाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना, झाड़ू लगाना आदि सब कुछ।
कामचोर होने से बचने के लिए यह सब करता था। मैं जहां रहता था, टीवी नहीं था। एक टेलिफोन था। उसका बजना मैंने कभी सुना नहीं था। अवकाश के वक्त कुछ न कुछ पढ़ता था या खिड़की से बाहर देखता था। उस पार सड़क थी। सड़क की दूसरी ओर छोटी-छोटी झोंपड़ियां और कीचड़ भरे गड्ढे। कुछ दूर जाने पर पेड़-पौधों का जंगल। उसके पार पहाड़। चाहे तो उधर घूमने के लिए जा सकते थे। मगर मैंने घूमने की आदत नहीं डाली। इंसान से रिश्ता कम कर लिया था, सोचा कि जमीन से क्यों रिश्ता बनाए रखूं!
जी हां, मैं खिड़की पर मुंह रखकर बाहर देखा करता था- सवारियां, लोग, बाजार जानेवाले, वहां से आनेवाले, मजदूर लोग… पेड़पर आकर ठहरनेवाले पक्षी… आसमान में बादल के टुकड़े… कभी-कभी बारिश… बारिश मुझे दुख दे रही थी… क्योंकि वह यादों को लाती थी, थैली भर यादें!
भीख मांगनेवाले आकर गेट थपथपा रहे थे। अम्मा-बापू कहकर पुकारते थे। कभी-कभी उन्हें सिक्के दे भी देता था। कभी खामोश रहता था। वे गेट थपथापते और थक कर चले जाते। उन्हें बुलाकर कुछ कहने को मन होता-
‘जिंदगी माने यही है। मुझे किसी से भेद-भाव नहीं है। कुछ लोगों को मिलता है, कुछ लोगों को नहीं मिलता, सिर्फ चांस!’
पड़ोसी के घर की दिशा में एक और खिड़की थी। अब तक वह बंद थी। एक दिन उसने खिड़की खोल दी। क्योंकि उसमें धूल भरी थी। दरवाजे, खिड़कियां और फर्नीचर पर जो धूल जमती थी, उसे साफ करना मैंने अपने रूटीन काम में शामिल कर लिया था। क्योंकि ये सब मुझे काफी व्यस्त रखते थे।
खिड़की खोल कर धूल साफ करने लगा। वह एक तरह की झालर–खिड़की थी। उसमें से धूल साफ करना आसान काम नहीं था। झालर का हर भाग अलग–अलग साफ किया। कौतूहलवश उधर देखा, जिधर एक घर था। उसकी खिड़की खुली हुई थी। झालर पर चेहरा रख देने से उस घर का बरामदा मुझे साफ दिखाई पड़ता था। वह मेरे कमरे के फर्श से कुछ नीचे था।
शाम ढल रही थी। मैंने गौर किया कि उस घर में बिजली नहीं थी। एक औरत किरासन तेल की लालटेन साफ कर रही थी। फिर उसने दियासलाई जलाकर लालटेन जलाई और उस पर कांच रखा। इस प्रकार की लालटेन बचपन में हमारे घर में इस्तेमाल हुआ करती थी। उस समय गांव में बिजली नहीं आई थी। इधर लगभग हर जगह बिजली है। इसलिए ऐसी लालटेन का इस्तेमाल कम हो गया है। हम जिस शहर में रहते हैं, लोग इलेक्ट्रिक बल्ब का इस्तेमाल करते हैं। सड़कों पर भी बल्ब हैं। मगर उनकी देखरेख ठीक से नहीं होती है।
यह औरत न जाने क्यों लालटेन का इस्तेमाल कर रही है? शायद घर का फ्यूज कट गया होगा। या और कुछ। रात को सोने के वक्त जब मैं अपना सारा काम निपटा कर लौटा, तो देखा वह औरत लालटेन के सामने बैठकर कुछ कर रही थी। लगा, बाल गूंथ रही है या शायद पढ़ रही है। फिर मैंने खिड़की बंद नहीं की, खुला ही रहने दिया।
बाद के दिनों में कभी-कभी मैं खिड़की से उसे देखा करता था। शायद उसे यह आभास नहीं था कि मैं उसे चोरी-छुपे देखता हूँ। वरना वह अपनी खिड़की बंद कर लेती।
मगर उसने मेरी इस हरकत पर ध्यान नहीं दिया था। घर के बाहर कहीं भी मैंने उसे नहीं देखा था। शायद मेरे लिए उसकी पहचान करना असंभव था, क्योंकि बरामदे में लालटेन की रोशनी में वह बहुत अस्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती थी। फिर भी मुझे लगा था कि उसकी उम्र शायद तीस की होगी, वह ज्यादा लंबी नहीं थी और ज्यादा छोटी भी नहीं। शरीर का गठन भी लंबे के बराबर था। उसके बाल लंबे थे और उसने एक चोटी बना ली थी। चेहरा शायद खूबसूरत ही होगा।
यकायक मुझे एक इश्तहार की याद आई जिसमें हथकरघा साड़ी का जिक्र था। उसमें जो सुंदर युवती थी, बहुत समय से मेरे मन में पैठ गई थी। उसने जो साड़ी पहन रखी थी, नीली चौक की थी। उसपर नीले रंग की चोली थी। यह तस्वीर मुझे बड़ी अच्छा लगी। मैंने उस तस्वीर की कतरन ले रखी थी। वह कुछ समय तक मेरे पास ही थी। न जाने क्यों मुझे वह तस्वीर स्त्री-सौंदर्य का एक बढ़िया नमूना लगी थी- सरल, सहज, सौम्य, स्निग्ध, मधुर, मंदस्मित… वह फिर से याद आई और उसके साथ और कुछ यादें भी भागकर आईं, जैसे एक पूरा संसार वापिस आया हो, जो नष्ट हुआ था।
एक दिन ऑफिस में रामचंद्र नामक एक साथी ने मेरे पास आकर पूछा- ‘सर, स्वास्थ्य ठीक नहीं है क्या?’ सिर्फ रामचंद्र से ही मेरा मेलजोल था।
‘क्यों, ठीक है?’
‘आपकी आंखें लाल हैं। कभी-कभी खांसते हैं, इसलिए पूछा।’
‘खांसी है। शायद मौसम बदलने से हुआ है। हां, कुछ कमजोरी है।’
‘सर, आप इस शहर के लिए नए हैं। इसलिए कहता हूँ, यहां संगम गली में परमेश्वर नामक एक डॉक्टर हैं। जेनरल फिजीशियन हैं। अच्छे डॉक्टर हैं। कहीं भी बुलाएं तो आते हैं। उनका क्लीनिक भी है। क्लीनिक का नाम है- धन्वंतरि। आप यह नंबर रख लीजिए। कभी शाम के वक्त घूमते हुए वहां जाइए और उनसे भेंट कर लीजिए।’
रामचंद्र ने कागज के एक टुकड़े पर डॉक्टर का नाम, पता और फोन नंबर लिख कर मुझे दिया।
उस रात मुझे बुखार हुआ। खांसी भी आती रही। खांसी बहुत दिनों से मुझसे चिपक गई थी। हवा बदलते ही खांसी आती थी। एक जमाने में ज्यादा सिगरेट पीता था, शायद यही कारण हो। मैं संगम गली में जहां डॉक्टर थे, ढूंढ़ते हुए नहीं गया। वह गली किधर है, यह भी मुझे नहीं मालूम। मैं जहां रहता था, उसका नाम था ‘कुदुरे हाला’। यह नाम अनोखा था। किसी ने कहा था कि पेशवा के जमाने में वहां पर घोड़ों का एक पड़ाव था। आगे वही नाम पड़ गया। यह अपभ्रंश शब्द होगा। कुदुरे हाला में ऑटो कम आते थे। कुदुरे हाला नाम सुनकर वे नाक-भौं सिकोड़ते थे। यहां कुछ निचले दर्जे के लोग रहते हैं, ऐसा समझा जाता था।
‘ओय, आपने वहां घर क्यों लिया है? वहां शराबी, पागल और चोर-उचक्के रहते हैं।’ कुछ लोगों ने मुझे बताया था। मुझे इनसे कोई मतलब नहीं है, यह उन्हें मालूम नहीं था। उन्हें मालूम कराने की कोशिश भी मैंने नहीं की। आज मैंने ऑफिस के काम से छुट्टी ले ली और घर में लेटा रहा।
एक रात किसी ने आकर दरवाजा थपथपाया। दरवाजे पर कुंडी नहीं लगाई गई थी, इसलिए वे सीधा अंदर आ गया। सामने एक महिला खड़ी थी। सोचा पड़ोसी ही है। वही परिचित आकार। मैंने बत्ती नहीं जलाई थी, इसलिए उसका चेहरा स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दिया। वह कुर्सी को मेरे पलंग के पास खींच कर बैठ गई।
‘पता चला कि आप बीमार हैं। मुझसे कोई मदद चाहिए?’ उसने पूछा।
मैंने कुछ कहना चाहा। मगर ताज्जुब की बात है कि मेरे गले से बात नहीं उतरी। शायद मैं कुछ बड़बड़ा रहा होगा। वह अंदर गई और एक छोटा-सा कपड़ा लाई। उसे पानी में डुबोकर मरोड़ा और उससे पानी बाहर निकाल दिया। फिर उसे दोहराकर माथे पर रख दिया। फिर अंदर गई, चाय बनाकर लाई और मुझे पिलाया।
फिर मेरे शरीर पर हाथ रखकर पूछा, ‘बुखार है, डॉक्टर को बुलाऊं?’
मैंने ठीक क्या कहा, मालूम नहीं। इस प्रकार लालटेन वाली स्त्री द्वारा उपचार जारी रहा। मैंने किसी से इतनी अपेक्षा नहीं की थी। उससे भी नहीं की थी। मैं यह बात उससे कहना चाहता था, मगर अब मुझसे ठीक से बोला नहीं जा रहा था। अरे! मेरे स्वर को क्या हो गया?
यह भी अच्छा हुआ। अगर स्वर होता तो उससे कुछ सवाल पूछता : ‘तुम कौन हो? लालटेन के आगे क्यों बैठी रहती हो? क्या करती हो? अकेली क्यों हो? बाहर क्यों नहीं दिखती?’ आदि–आदि। ये सवाल ऐसे थे कि वह जवाब देने के लिए मजबूर होती। अगर ये सवाल उसे पसंद नहीं आते, तो? उसने सिर्फ मेरी खांसी सुनी थी और पड़ोसी समझकर मदद के लिए आई थी। इससे ज्यादा कुछ नहीं।
ये बातें मेरी समझ में आती हैं। यह सोच कर मैंने आगे बोलने की कोशिश नहीं की। मुझे लगा कि हम दोनों के बीच खामोशी ही अच्छी है। वह पलंग के पीछे बैठी रही और मेरा बुखार बढ़ता गया। यह कोशिश कितनी देर तक, कितने दिनों तक ऐसे ही चलती गई, मुझे नहीं मालूम। लगता है, वह शायद रोज आती-जाती थी।
वह बगल में होती तो मुझे खुशी होती। यह देख कर मुझे ताज्जुब हुआ। ऐसी भावना क्यों, सोचकर मैंने खुद अपनी निंदा की। मैं किसी से मेलजोल नहीं करता, फिर इस पड़ोसी से इतना मेलजोल क्यों? क्या इंसान कभी मुक्त नहीं रह सकता? क्या कहानी है? ये कौन है? हथकरघा के विज्ञापन से यकायक उठ कर आई है? यह सब जानने की इच्छा मुझे क्यों हो रही है?
जब मुझे होश आया, तुरंत समझ नहीं सका कि मैं कहां था। मगर मेरी आंखें किसी को ढूंढ़ रही थीं। एक नर्स मेरे सामने आई। उसने वरदी पहन रखी थी। उसने मेरे पास आकर पूछा, ‘हाउ आर यू सर?’ मेरे जवाब देने के पहले ही उसने मेरे मुंह में थर्मामीटर रख दी और नब्ज परखने के लिए मेरी कलाई पकड़ ली।
थर्मामीटर बाहर निकालकर, उसे देखा और झाड़ दिया। फिर रीडिंग केस-शीट में लिखने के बाद कहा, ‘यू आर ओके।’ और मुस्कुराती चली गई। मेरे आसपास दूसरा पलंग न था। पता चला कि यह एक अस्पताल है, और मैं स्पेशल रूम में था। दरवाजे के परदे के पार जनरल वॉर्ड था। वहां कुछ बिस्तरों पर बीमार लोग दिखाई पड़े।
मैं धन्वंतरि क्लीनिक में था।
थोड़ी देर बाद रामचंद्र आया। सर, आज आप तंदुरुस्त हैं! मैं बहुत डर गया था। जब मैं ढूंढ़ते हुए आपके घर आया था, आप होश में ही नहीं थे। अगर पहले दिन डॉक्टर के पास आ जाते तो इतना डर नहीं होता।
‘थैंक्स। रामचंद्र, अब मुझे घर जाना है। ऐसा मुझे लग रहा है। डॉक्टर से कहकर डिस्चार्ज करा देंगे न?’
‘आपको कब डिस्चार्ज करना है, यह डॉक्टर ही बताएंगे। फिलहाल आप अब उनके पेशेंट हैं।’
रामचंद्र ने कहा था कि परमेश्वर अच्छे डॉक्टर हैं। वे सचमुच अच्छे डॉक्टर ही थे। उन्होंने मेरी जांच की, दो दिन और ठहराया, फिर दवा लिख दी और डिस्चार्ज कर दिया। एक सप्ताह के बाद फिर आने के लिए कहा था। मैंने उनके फीस के पैसे रामचंद्र से ही ले लिए और डॉक्टर को दिया। घर आने पर रामचंद्र को चेक दिया।
रामचंद्र ने मुझे घर तक छोड़ दिया। आते समय ब्रेड, दूध, फल औषधि सब कुछ ले लिया गया। मुझे घर के अंदर छोड़कर उसने सारी व्यवस्था की और कल आने की बात कहते हुए चला गया।
मैं घर आ गया था, मगर मुझे तसल्ली नहीं हुई। क्योंकि जब मैं घर के आहाते के पास आया तो मैंने देखा- उस पार के घर को पूरी तरह से गिरा दिया गया था! घर क्यों गिरा दिया गया? किसने गिराया? वहां जो लालटेन वाली स्त्री थी, वह कहां गई?
घर में धूल जमी थी। पड़ोसी घर को गिराया गया था, उसकी धूल भी घर में आकर जम गई थी। यह सब मेरे लिए अहम बात नहीं थी।
जहां घर गिराया गया था, वहां एक पहरेदार घूम रहा था। मैंने उसके पास जाकर पूछा, ‘यहां क्या हो रहा है?’
‘पुराना घर गिराकर अटारी के नए घर का निर्माण कार्य हो रहा है।’ उसने कहा।
‘घर कौन बना रहा है?’
पहरेदार ने एक बोर्ड की ओर इशारा किया जो गेट के आगे टांग दिया गया था। उसपर किसी डेवेलपर का नाम था।
‘इस घर में रहनेवाले कहां गए?’ मैंने उससे पूछा।
‘पता नहीं, जब मैं यहां आया था, कोई नहीं था।’
धीरे-धीरे उस जगह एक बहुमंजिली इमारत का निर्माण हुआ। पता चला कि यह इमारत दुबई में रहनेवाले एक व्यक्ति की है। उसने जमीन को डेवेलपर के हाथों बेच दिया था। डेवेलपर अपार्टमेंट्स का निर्माण कर उन्हें बेच रहे थे। नए परिवार आकर बस रहे थे। पहले इस जमीन को पूछनेवाला कोई नहीं था। यकायक जमीन की कीमत बढ़ गई, ऐसा लग रहा था। पहले लोग कुदुरे हाला नाम सुनकर नाक-भौं सिकोड़ते थे, अब वही लोग यहां साइट खरीदने के लिए लालायित होने लगे थे। रामचंद्र ने कहा था, ‘सर, आप भी एक फ्लैट खरीद लीजिए, पास ही है न!’ मगर मैंने कुछ नहीं कहा।
अब मेरी झालर-खिड़की का कोई मतलब नहीं था। मैंने उसे बंद कर दिया।
के.वी.तिरुमलेश
501, सी-ब्लॉक, उमा सिग्नेचर टावर्स, 12-13-893, हनुमान नगर, एसटीनं 12,
तार्नका, सिकंदराबाद-500017 आंध्र प्रदेश फोन: 040-60606061
डी. एन. श्रीनाथ
‘नवनीत’ दूसरा क्रॉस, अन्नाजी राव लेआउट, प्रथम स्टेज, विनोबानगर, शिवमोग्गा-577204कर्नाटक मो.9611873310.