युवा लेखक। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
आदिवासी समाज की लड़ाई जल, जंगल, जमीन की लड़ाई है। इनको बचाने के लिए आदिवासी समाज लगातार संघर्ष कर रहा है। यह लड़ाई सिर्फ औद्योगिक विकास के साथ नहीं शुरू हुई, बल्कि इसका एक लंबा इतिहास है। राज्य द्वारा जंगलों पर आधिपत्य कायम करने से होने वाले लाभ पर रोमिला थापर और अमित भादुड़ी ने अपने एक संयुक्त लेख में लिखा है, ‘विभिन्न राजवंशों के जंगलों में विस्तार से जो हित जुड़े थे, वे स्पष्ट हैं। जंगलों से सेना के लिए हाथी मिलते थे, लोहा समेत दूसरी खनिज संपदा वहां थी, मकान के लिए लकड़ी मिलती थी, जंगलों की सफाई से खेती की जमीन में इजाफा होता था और परिणामस्वरूप ज्यादा जमीन पर खेती से राजस्व में बढ़ोतरी होती थी।’ (हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया)
औपनिवेशिक शासन से पहले के शासकों का आदिवासियों के जीवन तथा जंगलों पर कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं था। वे अपनी जरूरतों के लिए जंगल का उपयोग करते थे। औपनिवेशिक दौर में जंगलों को एक व्यापारिक मुनाफे के रूप में देखा गया और उनका व्यापक दोहन शुरू हुआ। इसके लिए 1864 में वन विभाग की स्थापना हुई 1865 में वन अधिनियम पारित किया गया। मेटकॉफ के अनुसार, ‘रेलवे विकास की जरूरतों और 1857 की बगावत के बाद भारत में उपस्थित वित्तीय संकट ने भारतीय वन अधिनियम के बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, अंग्रेज भारत का उपयोग अपने साम्राज्यवादी हितों को बढ़ावा देने के लिए करना चाहते थे। वे यहां से अपना राजस्व ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना चाहते थे।’ (कमल नयन चौबे, जंगल की हकदारी)
वनों पर आदिवासियों का प्रभाव कम करने के लिए 1878 में एक नया वन अधिनियम कानून लाया गया। इसमें जंगलों की जमीन पर अधिकार करने वाले लोगों से लिखित दस्तावेज की मांग की गई। इस तरह अंगे्रजों ने जंगलों को राज्य के अधीन कर दिया। जंगलों में निवास करने वाले आदिवासी अपनी ही जमीन पर अतिक्रमण करने वाले माने गए। 1927 में भारतीय वन कानून अधिनियम के तहत वन कानून को फिर एक नया स्वरूप प्रदान किया गया। इसमें चौकीदार से लेकर वनों के रेंज ऑफिसर तक की नियुक्ति की गई। इन अधिकारियों को तमाम अधिकार प्रदान किए गए और कानून-सम्मत तरीके से आदिवासियों के शोषण का प्रबंध ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया। वन अधिनियम की धाराओं में वन विभाग को असीम शक्ति प्रदान की गई।
बकौल नदीम हसनैन, ‘भारतीय वन अधिनियम की धारा 64 में कहा गया है कि कोई भी फॉरेस्ट अफसर बिना वारंट के किसी भी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, जिसपर वन कानून तोड़ने के जुर्म का तर्कसंगत संदेह हो और वह जुर्म एक महीने या उससे ज्यादा अवधि की सजा के लायक हो। 68 धारा जुर्म के समन संबंधी अधिकार के बारे में है। 70 धारा में बताया गया है कि 1871 का पशुओं का अतिचार संबंधी कानून लागू रहेगा। यह प्रशासन को अतिचारी पशुओं को पकड़ने और जब्त करने का अधिकार देता है।’ (नदीम हसनैन, जनजातीय भारत)
इस तरह की तमाम धाराएँ आदिवासियों के शोषण का हथियार बनीं। इन कानूनों का जबरन प्रयोग करके आदिवासियों को जंगल से अलग-थलग कर दिया गया। ब्रिटिश शासन के दौर में जंगलों का दोहन और आदिवासी हितों के साथ खिलवाड़ साम्राज्यवादी हित में किया जा रहा था, लेकिन आजादी के बाद वे ही वन नीतियां भारत में जारी रहीं। राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय विकास के नाम पर आदिवासियों और जंगलों का दोहन होता रहा। 1952 की वन नीति इस बात की पुष्टि करती है। इस वन नीति में कहा गया है, ‘किसी जंगल के फायदे से संपूर्ण राष्ट्र को सिर्फ इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता है कि संयोगवश कोई गांव एक जंगल के नजदीक बसा है।’ (कमल नयन चौबे, जंगल की हकदारी)।
आज विकास के घटाटोप ने आदिवासी समाज की लड़ाई को पेचीदा बना दिया है। यह लड़ाई जल, जंगल, जमीन के वृहत्तर अर्थ में लड़ी जा रही है। औद्योगिक विकास के नाम पर आदिवासी समाज को विस्थापन, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, अशिक्षा, ॠणग्रस्तता, वेश्यावृत्ति आदि चीजें प्राप्त हो रही हैं। वह अपना स्वतंत्र जीवन छोड़कर मजदूरी का जीवन जीने को अभिशप्त हैं। बकौल रमणिका गुप्ता ‘आदिवासी और जनजातीय लोग, जिनकी आबादी सात करोड़ से ऊपर है, क्रूर पूँजीवादी और अर्ध-सामंती शोषण के शिकार हैं। जमीनें उनके हाथ से निकल गई हैं, जंगल के अधिकार छीन गए हैं। वे ठेकेदारों तथा भूस्वामियों के लिए सस्ती और बंधुआ मजदूरी के स्रोत बनकर रह गए हैं। पूंजीवादी-भूस्वामी-ठेकेदार गठजोड़, उनके नेतृत्व को कुछ रियायतें देकर, उनकी परंपरागत एकजुटता को भंग करने की कोशिश करके उनके जायज अधिकारों से न केवल उन्हें वंचित करता है बल्कि उन्हें बर्बर ताकत के साथ कुचलता भी है।’ (आदिवासी : विकास से विस्थापन)
आजादी के बाद विकास के नाम पर शुरू हुई पंचवर्षीय योजनाओं में आदिवासियों को विस्थापन मिला। विकास के नाम पर सिर्फ झारखंड में करोड़ो लोग विस्थापित हुए हैं। प्रभाकर तिर्की ने लिखा है, ‘जमशेदपुर में टिस्को औद्योगिक इकाई की स्थापना की गई, जिसमें 3564 एकड़ आदिवासी जमीन का अधिग्रहण किया गया। 1958 में राँची में भारी अभियंत्रण निगम (एच.ई.सी.) की स्थापना हुई, जिसमें 9200 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया। इस परियोजना में 25 गांव और 12,990 आदिवासी परिवार पूरी तरह विस्थापित हो गए और उनमें से मात्र 10 प्रतिशत लोगों की चतुर्थवर्गीय पदों पर नियुक्ति की गई। इसी तरह बोकारो स्टील प्लांट बनने से 46 गांव और 12,487 आदिवासी परिवार विस्थापित हुए। 1981-85 के बीच झारखंड क्षेत्र में जो कोयला उत्खनन का काम शुरू हुआ, उसमें 32,709 आदिवासी परिवार विस्थापित हुए तथा सी.सी.एल. और बी.सी.सी.एल. द्वारा 1,50,300 एकड़ भूमि अधिकृत की गई।’ (वही)
आदिवासियों के विस्थापन की त्रासदी का कारण सिर्फ औद्योगिक विकास नहीं है। ऐसी तमाम सरकारी नीतियां भी हैं, जो जंगल, जंगली जीव–जंतु और पर्यावरण को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। भारतीय शासक अभी उस औपनिवेशिक मानसिकता से उबर नहीं सके हैं, जिसमें आदिवासियों को जंगल की क्षति पहुंचाने वाले लोगों के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
आदिवासियों की तमाम बस्तियां जंगलों में हैं, आजाद भारत में औद्योगिक विकास के इतर आदिवासियों का विस्थापन राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, पार्क आदि के निर्माण के दौराण हुआ है। विकास का चौमुखी दावा करने वाली सरकारें आज भी विस्थापितों को आवश्यक आवासीय सुविधा उपलब्ध नहीं करा सकी है। के. कुमार अप्पन का कहना है, ‘देश के सभी वनों में 75 राष्ट्रीय पार्कों और 421 वन्यजीव अभयारण्यों के निर्माण के कारण आदिवासियों को अपनी जमीन से विस्थापित होना पड़ा है। कुल छह लाख विस्थापित लोगों में से पांच लाख से अधिक आदिवासी हैं, जो राष्ट्रीय पार्कों और वन्यजीव अभयारण्यों के निर्माण के कारण विस्थापित हुए हैं।’ (वही)।
औद्योगीकरण और विकास के नाम पर विस्थापित कई आदिवासियों को आज तक पुनर्वास नहीं मिल सका है। इस संबंध में स्वामीनाथन द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के तथ्य बेहद अचंभित करने वाले हैं, ‘आजादी से वर्ष 1990 तक की अवधि में जो आदिवासी विस्थापित हुए उनका पूरी तरह पुनर्वास नहीं हुआ। विस्थापित आदिवासियों की कुल संख्या 85.39 लाख रही जो कुल विस्थापितों का 55.16 प्रतिशत थी। विस्थापित आदिवासियों में 64.23 प्रतिशत अब भी पुनर्वास से वंचित हैं। निश्चित रूप से अपनी जड़ और जमीन से उखड़ी यह अपुनर्वासित मानवता झोपड़-पट्टियों में और फुटपाथों पर रहती है या फिर शरणार्थियों अथवा डेराबंद घुमक्कड़ी जीवन जीने को विवश है।’ (हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया)।
आदिवासियों ने विस्थापन के खिलाफ लगातार आवाज उठाई है। औद्योगिक विकास के अश्वमेधी रथ के खिलाफ उनकी आवाज को कई बार एक बगावत के रूप में चिह्नित किया गया है। उन्हें विकास-विरोधी तथा उग्रवादी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की कोई ठीक व्यवस्था नहीं है। ग्रामीण अंचल और दूरदराज के क्षेत्रों में निवास करने वाले आदिवासी या तो अशिक्षित हैं या फिर महज साक्षर। आदिवासी इलाकों में विद्यालय बहुत दूर-दूर हैं। शिक्षकों की संख्या कम है। तमाम जगहों पर स्कूल महज रजिस्टरों पर खानापूर्ति के पर्याय हैं। आदिवासी क्षेत्रों में छात्रवृत्ति, पुस्तक, सहायता सामग्री, प्रोत्साहन आदि सीमित मात्रा में है जो बच्चों को शिक्षा की तरफ आकर्षित करने में असफल है। ज्यादातर संस्थान तथा स्कूल भवनविहीन हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में बहुतायत मात्रा में गैर-आदिवासी क्षेत्रों के शिक्षकों की नियुक्तियां हुई हैं। इन गैर-आदिवासी शिक्षकों को आदिवासी संस्कृति का ज्ञान नगण्य है। वे एक खास तरह के श्रेष्ठताबोध के दंभ से ग्रस्त रहते हैं। रामशरण जोशी ने अपने बस्तर के अध्ययन के दौरान पाया है कि ‘प्रशासक से लेकर सवर्ण अध्यापक तक प्राय: इस विश्वास के थे कि आदिवासी लोग जाहिल, काहिल, जंगली होते हैं और कभी सभ्य नहीं बन सकते। इनकी शिक्षा पर सरकार जो खर्च कर रही है, वह सब व्यर्थ है।’ (वही)। आदिवासियों की शिक्षा में सबसे बड़ा रोड़ा भाषा है। आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम उन्हें मातृभाषा में शिक्षा उपलब्ध नहीं करा सके हैं। आदिवासी बच्चों के लिए बने पाठ्यक्रमों में आदिवासी संस्कृति का अभाव है। उन्हें गैर-आदिवासी भाषा और संस्कृतियों को पढ़ने और समझने के लिए बाध्य किया गया है। उनकी किताबों में उनका समाज तथा उनकी संस्कृति के उदाहरण अत्यल्प हैं। इसके कारण साधारण आदिवासियों की रुचि शिक्षा की तरफ बहुत विकसित नहीं हो पा रही है।
आधुनिक शिक्षा के नाम पर आदिवासी हितों के साथ हो रहे खिलवाड़ पर वेरियर एल्विन ने कहा था ‘इन उत्पीड़ित वन-संतानों की आधुनिक सभ्यता के कथित प्रतिनिधियों से सुरक्षा की दृष्टि से यह आवश्यक है कि शिक्षा और शालाओं को आदिवासी संस्कृति, परंपरा तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ जोड़ा जाए। इन स्कूलों में हिंदू, मुसलमान या ईसाइयों के जो पर्वोत्सव मनाए जाते हैं, उन्हें रोका जाए।’ (वही)।
आदिवासी भाषाओं और लिपियों को बचाना बेहद जरूरी है। भाषायी साम्राज्यवाद ने आदिवासी भाषाओं के सामने संकट पैदा कर दिया है। राष्ट्रीय भाषा और व्यापार भाषा के नाम पर कुछ चुनिंदा भाषाओं के प्रचार-प्रसार की छाया में तमाम स्थानीय भाषाओं को नजरअंदाज किया जा रहा है। भाषाओं के प्रति यह उपेक्षा भाव सिर्फ भाषा ही नहीं, बल्कि आदिवासी संस्कृति के लिए भी घातक है, क्योंकि भाषाओं और संस्कृतियों का अन्योन्याश्रित संबंध है।
पिछले कई वर्षों से कई मिशनरियां शिक्षा के प्रसार तथा आदिवासियों की मदद के नाम पर आदिवासी इलाकों में अपनी संस्कृति और धर्म का प्रचार कर रही हैं तथा आदिवासियों को लालच देकर उनका धर्म परिवर्तन करा रही हैं। शिक्षा और सहयोग के नाम पर मिशनरियां आदिवासियों का कल्याण कम, अपने धर्म-संस्कृति का प्रचार-प्रसार ज्यादा कर रही हैं। इनके चलते आदिवासियों के भीतर हीनताबोध घर कर गया है।
आदिवासियों का मूल धर्म जिसे वे ‘सरना’ कहते हैं, सरकारी तौर पर अभी रेखांकित नहीं हो सका है। इस समस्या की वजह से अक्सर जनगणना करने वाले लोग इस विकल्प की अनुपस्थित में अपनी समझ से उन्हें किसी भी बड़े धर्म में शामिल कर लेते हैं। अरुंधति रॉय ने लिखा है ‘रामकृष्ण मिशन ने अबूझमाड़ के दूरस्थ वनों में ग्रामीण विद्यालय खोलने शुरू किए थे।’ उत्तरी बस्तर में बाबा बिहारी दास ने ‘आदिवासियों को वापस हिंदुओं के पंथ में लाने के लिए’ एक आक्रामक अभियान शुरू कर दिया था, जिसमें आदिवासी संस्कृति की निंदा-भर्त्सना करने, आत्म-घृणा के लिए उकसाने और हिंदुत्व के वरदान जाति व्यवस्था से परिचित कराने का अभियान शामिल था।’ (आहत देश)।
मुख्य बात है, सरकार आदिवासियों का विश्वास जीतने में असफल रही है। हमने उन्हें अपनाया कम, डराया अधिक है। औद्योगिक विकास के नाम पर अपनी सुविधाओं के लिए हमने उन्हें विस्थापन और उत्पीड़न के सिवाय कुछ नहीं दिया है। हमने उन्हें नागरिक कम, रिसोर्स अधिक समझा है, जिससे अविश्वास और आपसी दूरी बढ़ी है। ये ऐसी समस्याएं हैं, जिनपर ध्यान देने की जरूरत है।
म.नं.-15, चौथा तल, कोणार्क रेजिडेन्सी, नम्बरदार कॉलोनी, बुराड़ी, दिल्ली-110084मो. 9473930135