लेखक : |
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(1908-1984) पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रो़फेसर और फिर विभागाध्यक्ष बने। अपने बहुमुखी रचनात्मक अवदान से मैथिली साहित्य की श्री–वृद्धि करनेवाले विशिष्ट लेखक। ‘खट्टर काका’ जैसी बहुचर्चित व्यंग्यकृति विशेष उल्लेखनीय। मैथिली में क़रीब 20 पुस्तकें प्रकाशित। प्रमुख कृतियाँ: ‘कन्यादान’, ‘द्विरागमन’ (उपन्यास); ‘प्रणम्य देवता’, ‘रंगशाला’ (हास्य कथाएँ); ‘खट्टर काका’ (व्यंग्य–कृति); ‘चरचरी’ (विधा–विविधा) आदि। |
अनुवादक :
मैथिली, हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी के अनुवादक एवं लेखक। कई मौलिक और अनूदित कृतियां प्रकाशित। संप्रति भारत गणराज्य का प्रतिनिधित्व करते हुए विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस मेंउप महासचिव के पद पर कार्यरत।
गाड़ी द्रुत गति से चल रही थी। एयर कंडीशन डिब्बे के तीनों बर्थ पर तीन दंपति विराजमान थे, बंगाल, पंजाब और केरल – किसी त्रिभुज के तीन बिंदु की तरह। रात के यही कोई साढ़े दस बज रहे थे। तीनों पति पढ़ने में मशगूल थे। पत्नियां अपने-अपने ‘टिफिन-केरियर’ से भोजन निकालकर परोस रही थीं।
बंगाली महोदय ‘आनंद बाजार पत्रिका’ की आड़ से देख रहे थे। केरल कन्या पतली-छरहरी, सुंदरी लगभग 19 वर्ष की होगी। वह बालों में फूलों का गजरा खोंसे, किसी राजकुमारी की तरह लग रही थी। कत्थई साड़ी पर उसकी बैगनी रंग की चोली मानो नीलकमल से स्पर्धा कर रही थी। वह इडली, डोसा, रसम, सांबर परोस रही थी।
बंगाली मोशाय के मुंह में पानी भर आया। वे आंखों से भोज्य सामग्री के साथ परोसने वाली का रस ले रहे थे। आखिर उनसे रहा नहीं गया। वे बोल उठे, ‘दोखिनी भोजन ठो बोहुत आच्छा होता है।’
केरल किशोरी चौंक कर, अपने आंचल ठीक करने लगी। तब तक, केरल युवक ‘फिल्म फेयर’ की आड़ से उस पंजाबी युवती का सौंदर्य पान कर रहे थे, जो तश्तरी में लाल रंग का रसदार आलू-छोला, कीमा-मटर और गूलर-कबाब सजा रही थी। पंजाबी युवती एक कसे शरीर वाली छरहरी बदन की युवती थी। उम्र यही कोई छब्बीस से छत्तीस के बीच रही होगी। रेशमी सलवार पर किशमिश रंग की कुर्ती और प्याजी रंग की ओढ़नी उसके गुलाबी सौंदर्य में मानो चार चांद लगा रही थी। उसके होंठों की लाली देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे उसके होंठों से तुरंत ताज़ा खून छलक आएगा। केरल युवक चुपके-चुपके उसके गदराए सौंदर्य का स्वाद ले रहा था।
बंगाली मोशाय की बात सुनकर अचानक केरल का युवक चौंक उठा। मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो। सकपकाते हुए बोला – ‘यू लाइक साउथ इंडियन फूड, बट आई लव पंजाबी डिशेज!
यह चाटुकारिता देख पंजाबी युवती का गुलाबी गाल कुछ और गुलाबी हो उठा। वह किसी तले जा रहे मालपुए की तरह खिल गई थी।
अब पंजाबी सज्जन को अपना मनोभाव प्रकट करने का अवसर मिल गया था। वे बोल उठे – ‘आपको पंजाबी खाना पसंद है, लेकिन मुझे तो बंगाली चीज़ें अट्रैक्ट करती हैं।’
उनका यह कहना अकारण नहीं था, क्योंकि बंगवधू जो चर्चरी, मिक्स-सब्जी और मछली की प्लेट सजा रही थी, उसकी सुगंध, उस रेल के पूरे डब्बे में फैली थी। फिर स्वयं बंग बाला का आकर्षण साधारण नहीं था। वह दीप-शिखा की तरह चमक रही थी। श्वेत कमल जैसी शुभ्र नायलॉन में ‘तुषारहार-धवला सरस्वती’ की तरह प्रतीत हो रही थी। उसकी चंपकवर्णी आभा ‘गिनी-गोल्ड’ के रंग को भी पछाड़ रही थी। उसके माथे पर कुमकुम की बिंदी जैसे सौंदर्य पर मोहर की छाप लगा रही थी। पंजाबी सज्जन की खुशामदी बातें सुनकर, वह संपुटित अधर से मुस्करा उठी और अपने पति की तरफ देखने लगी। बंगाली मोशाय ने प्रस्ताव रखा- ‘फिर आइए न! आज रहे बंगाली खाना।’
केरल का युवक बंगाली मोशाय को निमंत्रित करते कह उठे- ‘देन यू ओलसो कम हियर। यू लाइक साउथ इंडियन फूड’।
अब बारी पंजाबी सज्जन की थी। वे केरल के युवक की तरफ़ देखते हुए बोले- ‘तब आप मेरी जगह ले लीजिए। बस हिसाब से बैठ जाइए।
क्षण भर में ही दृश्य बदल गया। इंदीवर–दल–श्यामा केरल कन्या अपने पास बैठे बंगाली मोशाय को डोसा का रसास्वादन करा रही थी। नवनीत–कोमला बंग–सुकुमारी छेने की मुलायम कचौरी, पंजाबी सज्जन को प्रदान कर रही थी और तीसरे बर्थ पर बैठी विशाल–यौवना, पंजाबी युवती दाक्षिणात्य को कीमा, मटर–तंदूरी रोटी खिला रही थी।
तीनों व्यक्ति आनंद से भोजन का रस लेते हुए वार्तालाप कर रहे थे। बंगाली मोशाय नारियल की चटनी जीभ पर रखते हुए बोले- ‘इशी माफिक कोभी-कोभी स्वाद बोदलना ज़रूरी होता है।’ पंजाबी सज्जन चर्चरी का रसास्वादन करते हुए अनुमोदन के स्वर में बोले- ‘इसमें क्या शक! रोज वही रोटी-सालन मिले तो फिर ज़िंदगी में मज़ा क्या?’
केरल के युवक काबुली कीमा-मटर का स्वाद लेते हुए समर्थन के अंदाज़ में बोले- ‘लाइफ मीन्स चेंज। वी मस्ट हैव सम डेविएशंस फ्रॉम डेली रूटीन
बंगाली मोशाय सहमति के स्वर में बोल उठे- ‘आजकल कल्चरल इंटरमिक्सचर का ज़माना है। शोबसे-शोबका शोम्बंध होने की ज़रूरत है।’
पंजाबी सज्जन आगे बोले- ‘यह तभी हो सकता है, जब हम प्रांतीयता की दीवारें लांघकर एक हो जाएं।’
केरल के युवक ने इस पर हामी भरते हुए कहा- ‘इंटरनेशनल मैरिज कैन सॉल्व द प्रॉब्लम ऑफ़ वर्ल्ड यूनिटी। द स्लोगन ऑफ़ ब्रदरहुड हैज बिकम रादर ओल्ड। इट शुड नाउ बी रिप्लेसड बाइ यूनिवर्सल ब्रदर इन-लॉ हुड!’ उदार चरितानां तु संसार: श्वशुरालय:- उदार चरितों के लिए संपूर्ण संसार ही ससुराल है।
पंजाबी सज्जन ठहाके लगाते बोले- ‘यह भी आपने खूब कही। रूस-अमेरिका में ससुराली रिश्ता कायम हो जाए तो फिर झगड़ा किस बात का? बल्कि मैं कहता हूँ कि सभी मुल्कों की औरतें आपस में बहन-बहन का रिश्ता जोड़ लें। फिर चीनी-जापानी-हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी सभी साढ़ू बनकर मौज़ के साथ होली का रंग-गुलाल उड़ाएं। यही आनंद मार्ग है।’ तीनों महिलाएं अपनी तिरछी नज़रों से एक दूसरे को देखने लगीं। उनके होठों पर एक मुस्कान बिखरती चली गई थी। बंगाली मोशाय बोले- ‘जोरू लोग खाता क्यों नहीं है? आप लोग भी शुरू कीजिए ना।’
महिलाएं हालांकि आधुनिक थीं, पर क्षण भर के लिए मानो ठिठक-सी गईं। पराए पतियों के साथ भला वे भोजन कैसे करतीं। परंतु आंखों ही आंखों में अपने पति का संकेत पाकर उनके बीच संकोच की यह दीवार ढह गई।
अब मनोरंजन का एक और दृश्य उपस्थित हो उठा था। बंगाली मोशाय केरल युवती के साथ रसम पी रहे थे। केरल के युवक, पंजाबी महिला के साथ रोगन जोश उड़ा रहे थे और पंजाबी सज्जन बंग-सुंदरी के साथ तली हुई मछली का स्वाद ले रहे थे। वार्तालाप में अब और प्रगति आ गई- सह-अस्तित्व, सहिष्णुता और उदार दृष्टिकोण की भावना का ज़ोर-शोर से समर्थन होने लगा। ऐसा लग रहा था, मानो विशाल हृदय ये सहयात्रीगण विश्व में व्याप्त समस्त भेद-विभेद को मिटाकर, आज की ही रात्रि, पूर्ण एकता स्थापित कर लेंगे। केरल के युवक बोल उठे- ‘वी मस्ट कास्ट असाइड आल नैरो प्रिज्युडिसेज़, बुर्जुआ मोरालिटी हैज टू बी बरीड नाउ।’
बंगाली बाबू सहमति की मुद्रा में बोले- ‘चेस्टिटी (सतीत्व) को ही लीजिए। यह मिडल एज की मोरालिटी है। ट्वेन्टीएथ सेंचुरी में ये चोल नहीं शोकता।’
पंजाबी सज्जन हामी के स्वर में बोले- ‘अजी, इन चीज़ों में क्या रखा है! ये पोंगापंथी ख़्यालात न नीचे वालों में है, न ऊपर वालों में। कुछ बीच वाले लोग ही इन्हें ढोए फिर रहे हैं, वह भी दिखावे के लिए। यह बिलकुल ढकोसला है।’
केरल के युवक अपनी सिगरेट सुलगाते हुए बोले- ‘इन दिस स्पूतनिक एज, सेक्स कैन नॉट रिमेन कन्फाइंड टू मैरिज़। द मोनोपली ऑफ़ द हस्बैंड मस्ट गो।’
पंजाबी सज्जन सिगार के धुएं को उड़ाते बोले- ‘अजी, ये सब बातें, अब आप-से-आप मिटती जा रही हैं। जो कुछ बची-खुची बेवकूफियां हैं, उन्हें ज़माना धो-बहा ले जाएगा।’
बंगाली मोशाय केरल की कन्या के हाथ से पान का बीड़ा लेते बोले- ‘मोरल रिवॉल्यूशन को तोड़ना ही होगा। हम एजुकेटेड लोग लीड नहीं लेगा तो फिर कौन लेने शकेगा?’
इस पर पंजाबी सज्जन गर्वपूर्वक बोले- ‘सिद्धांत बघारना तो आसान है लेकिन प्रेक्टिस में भी इसे लाया जाए, तब तो! भई, मैं तो थ्योरी और प्रैक्टिस में कोई फ़र्क नहीं करता।’
केरल के युवक इसपर तैश में आ गए- ‘आइ टू नेवर प्रीच, व्हाट आइ डू नॉट प्रैक्टिस।
बंगाली मोशाय मंद-मंद मुस्काते बोले- ‘बाबा, हाम भी किसी से कोम प्रगतिशील नहीं है। सर्वोदय का सिद्धांत स्वीकार करता है।’
तीनों के तीनों व्यक्ति एक–दूसरे को देखने लगे। सहसा बिजली चमक उठी। आंखों ही आंखों में, मानो एक मूक–संधि हो गई हो। रेल की बत्ती अकस्मात बुझ गई। घुप्प–अंधकार में सब कुछ एकाकार हो गया– किसी भैरवी चक्र की तरह। जो जहां बैठे थे, वे वहीं रह गए। फिर कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ा।
गाड़ी द्रुत गति से चल रही थी- न जाने, कितने नदी-नालों को सरपट पार करते हुए। बाहर प्रचंड तूफ़ान चल रहा था, पर शीत-ताप नियंत्रित कक्ष में पूर्ण शांति थी। गाड़ी अपनी लीक पर चली जा रही थी। यात्री अपने-अपने गंतव्य स्थान की ओर बढ़े चले जा रहे थे। तीनों पति-पत्नी समानांतर रेखा में चल रहे थे। मानो कुछ क्षण के लिए वे बहक गए थे। हवा का एक हल्का झोंका आया और तीनों ही वृक्षों की कोमल शाखाओं को एक-दूसरे से थोड़ी देर के लिए स्पर्श करता चला गया- बस!
नव प्रभात के प्रथम प्रकाश में सह-यात्रियों ने एक-दूसरे को देखा। सब अपने-अपने उचित स्थान पर उपस्थित थे। अपूर्व आनंद और उल्लास की मस्ती, उन सब लोगों की आंखों से स्पष्ट छलक रही थीं। तीनों देवियां किसी सद्यः प्रस्फुटित पुष्प की तरह प्रफुल्लित थीं। वे सब किसी उन्मुक्त पक्षी की तरह अपने-अपने पतियों से गप-शप कर रही थीं- बिल्कुल निर्विकार भाव से- मानो कुछ हुआ ही न हो। ठीक ऐसे, जैसे कोई एक लहर आई और बस चली गई।
सुबह गृहणियां स्वच्छ होकर, अपने-अपने थर्मस से चाय निकालकर अपने-अपने पतिदेव को पिलाने लगीं। इस बार, इनमें से किसी को विनिमय की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। अगले जंक्शन पर तीनों दंपति उतर गए। एक दूसरे को बाय-बाय, नमस्ते किया और अपनी-अपनी राह चल पड़े। उधर पंजाब मेल चलती रही… चलती रही… चलती रही…!
संपर्क :शुभंकर मिश्र, उप महासचिव, विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस मो.9810583309
बेहतरीन कहानी का बेहतरीन अनुवाद । हरिमोहन झा को बचपन से ही पढ़ता आ रहा हूँ। उनके लेखन में जो व्यंग्य की धार है वह हास्य के प्रवाह में भी कुंद नहीं होती
। इस कहानी में विनिमय के बहाने आधुनिक परिप्रेक्ष्य में संबंध के मूल्यों के क्षरण को बड़ी सूक्ष्मता और सभ्यता के साथ रखा गया है। लगता है यह आज की लिखी कहानी है। अनुवादक को बहुत बहुत बधाई कि उन्होंनें इसे बिलकुल हिंदी की मौलिक रचना के रूप में प्रस्तुत किया है।
हार्दिक धन्यवाद !
अनुवाद की सफलता यह होती है कि रचना अनूदित नहीं वरन मौलिक लगे। हार्दिक। हार्दिक बधाई शुभंकर जी।
हार्दिक धन्यवाद आपको!
Beautifully translated Sir. You have rendered the thoughts feelings and intentions of the author with admirable faithfulness. Congratulations
Thank you very much sir.
सुन्दर कहानी, अनुवाद प्रशंसनीय है। कथाकार और अनुवादक दोनों को साधुवाद@
Thank you very much sir!
आदरणीय सादर प्रणाम 🙏🏼 बहुत सुंदर कहानी और उससे सुंदर उसका अनुवाद । कहानी पढ़ते समय कहीं भी यह नहीं लगा कि यह अनुवाद है। मैं स्वयं एक अनुवादक भी हूँ ( डच-हिन्दी) इसलिए यह कह सकती हूँ कि यह अनुवाद मूल कहानी से ज़्यादा सुंदर है । आपका सादर आभार इतनी सुंदर कहानी साझा करने के लिए । 🙏🏼🙏🏼🙏🏼
हार्दिक आभार आपका l
आपके माध्यम से प्रो. हरिमोहन झा की सुंदर साहित्यिक कृति को पढ़ने का अवसर मिला। इसके पहले उनका एक दर्शन विषयक ग्रंथ ही पढ़ा था। धन्यवाद सर। अपने सुंदर अनुवाद किया है।
धन्यवाद पीयूष जी आपका l
कहानी भी अच्छी और उसका अनुवाद भी …..एक शाश्वत संवेदना को समकालीन सन्दर्भ में उकेरती कहानी ……अनुवाद इतना मुकम्मल है कि अनुवाद लग ही नहीं रहा है….
धन्यवाद उन्मेष जी।
सराहना के लिए आभार l