इतिहास के सुपरिचित गवेषक।गांधी के जीवन और दर्शन में विशेष रुचि।संप्रति : सतीश चंद्र कॉलेज (बलिया) में अध्यापन।

विश्व साहित्य को ‘वोल्गा से गंगा’ जैसी कालजयी कृतियों से समृद्ध करने वाले, ‘भागो नहीं, दुनिया को बदलो’ का संदेश देने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी बहुआयामी सृजनशीलता से भोजपुरी के साहित्य-भंडार को भी समृद्ध किया।भोजपुरी के अनेक साहित्यकारों, जैसे अवधबिहारी ‘सुमन’ (दंडी स्वामी विमलानंद सरस्वती), आचार्य महेंद्र शास्त्री आदि से भी उनके आत्मीय संबंध रहे।राहुल जी ने आचार्य महेंद्र शास्त्री को लिखे एक पत्र में लिखा था कि ‘यदि जनता को मुट्ठी भर काले या गोरे बाबुओं से बचाना है, तो उसे साक्षर और शिक्षित होना चाहिए और १० या १२ वर्ष के भीतर।यह काम आठ वर्ष तक व्याकरण सीखने की परेशानी रखने वाली भाषा से नहीं, बल्कि मां के दूध के साथ व्याकरण सीखी भाषा – मातृभाषा (मल्लिका, काशिका, कौरवी, कौसली, वात्सी आदि) द्वारा ही हो सकता है।’ यही नहीं, मातृभाषाओं के प्रबल पक्षधर रहे राहुल सांकृत्यायन ने स्वयं भी भोजपुरी में आठ नाटक लिखे थे।ये सभी नाटक उन्होंने १९४२ में हजारीबाग जेल में रहते हुए लिखे थे।

नई दुनिया की तलाश में : राहुल सांकृत्यायन के भोजपुरी नाटक

द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में लिखे गए राहुल जी के इन नाटकों में जहां एक ओर भारत पर जापान के आसन्न आक्रमण के भय, खाद्यान्न के संकट, किसानों और श्रमिकों की दुर्दशा को अभिव्यक्ति मिली है, वहीं साम्राज्यवाद और पूंजीवादी शक्तियों के विरुद्ध मोर्चेबंदी का आह्वान भी आम जनता से किया गया है।मसलन, चार अंकों वाले नाटक ‘मेहरारुन के दुरदसा’ में राहुल जी ने भारतीय समाज में महिलाओं की वस्तुस्थिति का बेबाक चित्रण किया है।लिंग के आधार पर जन्म के समय से लेकर भेदभाव की जो परिपाटी शुरू होती है, उसे नाटक में वर्णित इस गीत के माध्यम से समझा जा सकता है-

पूत के जनमवा में नाच आ सोहर होला,
बेटि के जनम परे सोग, रे पुरुखवा।
धनवा धरतिया प बेटवा के हक़ होला,
बिटिया के किछुवो ना हक रे पुरुखवा।

इस नाटक में राहुल जी ने जहां एक ओर सती प्रथा, कन्या हत्या, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास जैसी सामाजिक कुरीतियों पर आघात किया, वहीं दूसरी ओर, उत्तराधिकार में स्त्रियों की हिस्सेदारी जैसे महत्वपूर्ण आर्थिक प्रश्नों को भी उठाया।उत्तराधिकार से स्त्रियों को वंचित रखने की परंपरा पर सवाल उठाते हुए नाटक की एक पात्र लछिमी पूछती है कि ‘चाहे घर फूंक बेटा होय; ओकरा के बाप के जैजात मिलै में कौनो उजुर नइखै, मुदा मेहरारू केतनो लायक होय, ओकरा के हक ना मिली, एके नियाव कहल जाय सकेला?’

यहां तक कि बचपन में ही खिलौनों के जरिए किस तरह जेंडर की रूढ़िगत भूमिकाओं का समाजीकरण किया जाता है, इसे भी राहुल जी दर्शाते हैं।इसी नाटक की एक पात्र लछिमी कहती है, ‘मरद हमनी के एक-एक तरे से जकड़बंद कइले बाड़न।खेलौना में देखा, हमनी के छिपिया-मउनिया, जाँता-चूल्हा, गुडुवा-गुड़िया कै खेलौना मिलेला औ लड़कन के तीर-धनुही, घोड़ा-हाथी, गुल्ली-डंडा।एहु के भीतर भेद बा।’

महिलाओं को शिक्षा के अधिकार से किस तरह वंचित रखा जाता है, इसे लक्ष्य करते हुए नाटक की एक पात्र लछिमी कहती है ‘लइकन के पढ़ावै में करजा कुवाम करेके बाप लोग तयार रहेला बाकी हमनी के पढ़ावे में कानियो कौड़ी खरच कइल जबूनै बुझाला।कहैला लोग कि का ई पढ़ि के मंसी-दरोगा होइहैं।’ महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने की वकालत भी राहुल जी इस नाटक में करते हैं।अकारण नहीं जसोदरा कहती है कि ‘त जब ले मेहरारू मरद के कमाई खात रही तबले ऊ मरद के चेरि बनि के रही।’ यही नहीं, राहुल जी महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला सभाओं और संगठनों के महत्व को भी रेखांकित करते हैं।नाटक में स्त्रियां संगठित होकर यह मांग भी उठाती हैं कि सरकारी कामकाज में औरतों की भागीदारी और महिलाओं के अधिकार भी पुरुषों के बराबर हो।

चार अंक वाले नाटक ‘नइकी दुनिया’ में राहुल जी ने आर्थिक-सामाजिक विषमता के प्रश्न को और दकियानूसी सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के लिए आतुर नई पीढ़ी के संघर्षों को दर्शाया है।वह विषमता कैसी है, उसका बयान करते हुए राहुल जी लिखते हैं :

केहुके त गाँजल बाड़े अनधन सोनवा, केहु भुखिया तड़फै ना,
केहु त नहाला नित अतर-गुललवा, केहु पनिया तरसै ना।

शोषण और विषमता पर आधारित इसी क्रूर व्यवस्था को बदलने की बात करते हुए नाटक का पात्र बटुक कहता है : मुदा हमार सुराज में एको घर गरीब ना रहे पाई, केहु के लईका भूखा-नंगा न रहे पइहै।केहु मसलद पर बैठल-बैठल घिउ मलीदा खा खा के मोटा के भईंसा ना होये पाई; आ न केहु काम करत-करत सिटुकि के लकड़ी बनै पाई।’ यह एक नई दुनिया के निर्माण का घोषणापत्र है, एक ऐसी नई दुनिया जहां किसी भी किस्म का भेदभाव, विषमता न हो।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब जर्मनी ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया, उस समय सोवियत संघ और दूसरे देशों के साम्यवादी दलों ने जर्मनी, इटली और जापान के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने का आह्वान किया और इसे ‘जन-युद्ध’ की संज्ञा दी।दो विश्वयुद्धों के बीच इस परिस्थितिजन्य अंतर को रेखांकित करते हुए ‘नइकी दुनिया’ का पात्र बटुक अपनी बूढ़ी दादी से कहता है कि ‘पहिलका लड़ाई में गरीब के बेटा आपन समुझि के लड़ाई में ना गइल रहै, ऊ गइल रहै अपना बनिया-मलिकन के हँसेड़ी बनि के।हमनी हँसेड़ी बनि के नइखी जात इयवा! हमनी जातानी एहि रछछवन के संहार करै, आ ओही साथे बनियन के राजो के संहार करे।’

राहुल जी सोवियत रूस के उदाहरण से प्रेरित होकर रची गई इस ‘नई दुनिया’ में न केवल सभी के लिए शिक्षा, सामूहिक खेती और पंचायत व्यवस्था पर जोर दिया गया है।बल्कि मातृभाषा के महत्व को भी रेखांकित किया गया है।पुराने सामंती समाज से इस नई दुनिया की तुलना करते हुए नाटक की एक पात्र जगरानी कहती है कि ‘अब देखी समुच्चा देस एक घर बनि गइल।मेहरारू मरद सब ओही एक घर के सवाँग हवै।जे काम करै लायक बाटे, सेके देह चोरावै ना दीहल जात-आ।जे देहि से बेकाम बा, तेकरा के खाये-पीये, पहिरे-ओढ़े के इंतिजाम देस करत आ।’ पुराने और दक़ियानूसी सोच वाले लोगों में इस नई दुनिया के तौर-तरीक़ों को लेकर जो असहजता थी, उसे भी राहुल जी ने इस नाटक के आखिरी अंक में दर्शाया है।

राहुल जी ने पूंजीपतियों, मिल-मालिकों, सामंतों, जमींदारों, महाजनों और सेठ-साहूकारों को ‘जोंक’ की संज्ञा दी थी।ये ऐसी ‘जोंकें’ थीं, जो आम जनता, गरीब किसान और मजदूर का खून चूसकर मोटी हुई जाती थीं।राहुल जी ने पुरोहित वर्ग को, मौलवियों को ‘जोंकों का दलाल’ तक कहा।समाज के इन्हीं शोषकों का विवरण राहुल जी ने अपने नाटक ‘जोंक’ में दिया है, जो जुलाई १९४२ में लिखा गया था।इस नाटक में भी चार अंक हैं।जोंकों द्वारा सताए हुए गरीबों की त्रासदी का विवरण राहुल जी इन शब्दों में देते हैं :

साँझ बिहान के खरची नइखे, महरी मारै तान।
अन्न बिना मोर लड़का रोवैं, का करीं हे भगवान॥
करजा काढ़ि-काढ़ि खेती कइलीं, खेतवैं सूखल धान।
बैल बेंचि जिमदरवा के देलीं, सहुआ कहै बेईमान।

जमींदारों द्वारा जिस तरह रैयत से जबरन बेगारी ली जाती थी और नजराना वसूला जाता था, इसकी हकीकत बयान करते हुए नाटक का एक पात्र नोहर राउत कहता है ‘छः हजार माल-गुजारी दा, तीन हजार बबुनी के वियाह में दा, दु हजार मोटर के चिट्ठा में दा, पान सै हाथी के चिट्ठा में दा, तीनसै घोड़ा के चिट्ठा में दा।साल भर बगारी करत-करत मू-आ।हेइ मलिक के सवारी आइल, हेई मनेजर साहेब के हुकुम आइल, हेई सजावल साहब अइलें, हेई पटवारी, हेई सवार हेई सिपाही-पियादा, हेई गोराइत-बराहिल।’ बेगारी, नजराने और जबरन वसूली के इस कुचक्र में किसान पिसता रहता है।इस शोषक व्यवस्था और सामाजिक असमानता को न्यायसंगत ठहराने के लिए और उसे धार्मिक वैधता प्रदान करने के लिए पुरोहित वर्ग द्वारा पुनर्जन्म और कर्मफलवाद जैसे जिन सिद्धांतों को प्रस्तुत किया जाता है, उन्हें भी राहुल जी अपने लेखन में आड़े हाथों लेते हैं।नाटक में इसी संदर्भ में यह गीत आता है :

स्वारथ से जोड़ि-जोड़ि पोथिया बनौलस।
बम्हना भइल सतनासी॥
हमनी के खुनवा सुखौला के किछुना,
जोंकिया सरग के बासी॥
झूठ तोर सधुआ धरमवा करमवा।
झूठे बम्हनवा के कासी॥

हिंदुस्तान में लोगों के पगार में भारी अंतर को भी राहुल जी लक्षित करते हैं और उसकी आलोचना भी करते हैं।मसलन, बड़े लाट (वाइसराय) के वेतन और गरीब जनता की दैनिक आय के बीच के भारी अंतर (लगभग ग्यारह हजार गुना) को भी राहुल दिखाते हैं और इसके जरिए आर्थिक विषमता की यथार्थ तस्वीर पेश करते हैं।जिस नई दुनिया की संकल्पना राहुल जी कर रहे थे, वह यथार्थ में कैसी होगी, इसकी एक तस्वीर राहुल जी कुछ इन शब्दों में नोहर के मुख से प्रस्तुत करते हैं : ‘जौना में जोंक ना रहें खुनचुसवा ना रहें; जिमदार, मिल मालिक, सेठ-साहुकार ना रहें।जौना में सब केहू के देहि से काम करै के पड़े; सब केहू के खाये कपड़ा-रहे के पूरा इंतिजाम होखे।समुच्चा देस औ दुनिया के एगो खान्दान बनि जाय।सब करिया-गोर बड़की-बड़की तनखाहवाली जोंक सपना हो जाँय।’ इस तरह राहुल जी ने शोषण और अत्याचार से मुक्त एक नई दुनिया का आदर्श प्रस्तुत किया।

राहुल जी द्वारा भोजपुरी में लिखे अन्य नाटक हैं : जपनिया राछछ, जरमनवा के हार निहचय, देस रच्छक, ढुनमुन नेता, ई हमार लड़ाई। ‘ढुनमुन नेता’ नाटक में राहुल जी ने युक्त प्रांत, बिहार आदि राज्यों में वर्ष १९३७ में बने कांग्रेस मंत्रिमंडलों द्वारा किसानों और श्रमिकों की उपेक्षा के प्रश्न को प्रमुखता से उठाया।इस नाटक के दो प्रमुख पात्र ढुनमुन सिंह और हरपाल महतो हैं, जो क्रमशः कांग्रेसी और साम्यवादी नेता हैं।ढुनमुन सिंह के पात्र के जरिए राहुल जी ने कांग्रेसी नेताओं के दोहरे चरित्र को उद्घाटित किया है।जहां चुनाव से पहले कांग्रेसी नेता किसान-मजदूरों की बात करते नहीं थकते थे, वहीं चुनाव में आशातीत सफलता और राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हो जाने के बाद वही नेता जमींदारों और पूंजीपतियों का खुलकर पक्ष लेने लगे।बिहार में स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा चलाया गया किसान आंदोलन और कांग्रेस नेतृत्व द्वारा किसानों की मांगों की उपेक्षा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।खुद राहुल जी भी बिहार के किसान आंदोलन में सक्रिय रहे और जेल भी गए थे।किसान आंदोलन से जुड़े अपने अनुभवों और किसानों-मजदूरों की मांगों के प्रति कांग्रेसी नेताओं की बेरुखी को राहुल जी ने ‘ढुनमुन नेता’ में बखूबी चित्रित किया है और किसान-मजदूर राज का आदर्श प्रस्तुत किया है।

वहीं जपनियाँ राछछ, जरमनवा के हार निहचय, देस रच्छक, ई हमार लड़ाई जैसे नाटकों में सीधे तौर पर द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों का वर्णन किया गया है और इसे साम्यवादी नीति के अनुरूप फासीवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध ‘जन-युद्ध’ (पीपल्स वार) के तौर पर दिखाया गया है।इन नाटकों में जापान के अत्याचारों का लोमहर्षक विवरण भी राहुल जी ने दिया है।इतना ही नहीं, वर्ष १९४२ में ही राहुल जी ने जर्मनी के हार की भविष्यवाणी भी की थी, जो आगे चलकर सच साबित हुई।राहुल जी के इन नाटकों के विषय में डॉ. उदयनारायण तिवारी अपनी पुस्तक ‘भोजपुरी भाषा और साहित्य’ में लिखते हैं कि ‘इन नाटकों में नाटकीय तत्व का चाहे भले ही अभाव हो, भाषा की दृष्टि से इनका अत्यधिक महत्व है।इनकी भाषा सरल, किंतु मुहावरेदार भोजपुरी है।सारन जिले में बोली जाने वाली भोजपुरी का इससे बढ़कर उत्कृष्ट नमूना अन्यत्र दुर्लभ है।’

भोजपुरी सम्मेलन में राहुल सांकृत्यायन     

उल्लेखनीय है कि राहुल जी ने वर्ष १९४८ में बलिया में आयोजित हुए भोजपुरी सम्मेलन की अध्यक्षता भी की थी।४ अप्रैल, १९४८ को आयोजित हुए इस सम्मेलन में राहुल सांकृत्यायन के साथ भोजपुरी भाषा और साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ. उदयनारायण तिवारी ने भी भाग लिया। ‘भोजपुरी भाषा और साहित्य’ जैसे विचारोत्तेजक ग्रंथ के रचयिता डॉ. उदयनारायण तिवारी राहुल जी के अनन्य मित्रों में से एक थे।बलिया में आयोजित उसी सम्मेलन में भोजपुरी प्रांत निर्माण का प्रस्ताव भी पारित किया गया।इसी संदर्भ में राहुल जी ने १९४८ में लिखा था : ‘तीन करोड़ भोजपुरी भाषी दो-दो प्रांतों में बंटे रहें, और उनकी भाषा की कोई कदर न हो, यह दुख की बात थी।लेकिन आजकल जनता और उसकी भाषा की पूछ भला दिल्ली के देवताओं के दरबार में हो सकती थी?’ पर राहुल सांकृत्यायन नाउम्मीद नहीं होते और आशा जताते हैं कि ‘जनता का दिन लौटेगा जरूर’।भोजपुरी सम्मेलन में हुए कवितापाठ में उन्होंने डॉ. रामविचार पांडे और भोजपुरी के अन्य युवा कवियों की कविताओं को खुले मन से सराहा।

भोजपुरी लेखकों से आत्मीयता

भोजपुरी और हिंदी के प्रखर विद्वान आचार्य महेंद्र शास्त्री से राहुल जी का लगातार पत्राचार चलता रहा था, जिसमें भाषा, साहित्य और संस्कृति से जुड़े प्रश्नों पर उन दोनों के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता रहता था।उल्लेखनीय है कि आचार्य महेंद्र शास्त्री ने वर्ष १९४० में प्रकाशित हुई भोजपुरी की द्विमासिक पत्रिका ‘भोजपुरी’ का संपादन किया था, जिसे भोजपुरी की पहली पत्रिका माना जाता है।सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान शास्त्री जी ने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिया और सारन जिले में आंदोलन का नेतृत्व किया।आंदोलन में भाग लेने, उसका नेतृत्व करने के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया और अठारह महीने के सश्रम कारावास की सजा हुई।राहुल सांकृत्यायन के साथ मिलकर आचार्य महेंद्र शास्त्री ने बिहार के सारन जिले में किसान आंदोलन का नेतृत्व किया और भारत छोड़ो आंदोलन में भी भाग लिया।१९३० में ही शास्त्री जी ने सारन के गोरेयाकोठी से ‘तरुण तरंग’ नामक हस्तलिखित पत्र का भी संपादन किया था।कलकत्ता से बनारसीदास चतुर्वेदी के संपादन में छपने वाले ‘विशाल भारत’ और पटना से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘योगी’ से भी वे लंबे अरसे तक जुड़े रहे।शास्त्री जी का कृतित्व हिंदी, संस्कृत और भोजपुरी तीनों भाषाओं में फैला हुआ है।उनकी भोजपुरी कविताएं ‘भकोलवा’, ‘हिलोर’, ‘आज की आवाज’, ‘चोखा’, ‘धोखा’ आदि काव्य-पुस्तकों में प्रकाशित हुईं।सारन जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक होने के साथ ही वे १९६१ में सारन जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन के चौदहवें अधिवेशन के अध्यक्ष भी रहे।

यही नहीं, राहुल जी ने आजमगढ़ के रहने वाले भोजपुरी के लोककवि बिसराम की कविताओं के महत्त्व को भी अपने लेखों में रेखांकित किया था।अपनी आत्मकथा ‘मेरी जीवन-यात्रा’ में राहुल जी ने बिसराम के दुखद निधन और उनकी रचनाओं के नष्ट होने पर शोक प्रकट किया था और कहा था कि बिसराम जैसे लोककवि की रचनाओं को विस्मृति और उपेक्षा से बचाकर सहेजने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए।राहुल जी के अनुसार ‘बिसराम के बिरहे बतला रहे थे कि जो बड़वा उनके हृदय में धाँय-धाँय जल रही है, उसके कारण वह देर तक नहीं रह सकेंगे।’ बिसराम की असमय मृत्यु ने भोजपुरी समाज को एक महान प्रतिभा से वंचित कर दिया था।अकारण नहीं कि बिसराम की मृत्यु की ख़बर पाकर राहुल जी ने लिखा : ‘बिसराम अब इस दुनिया में नहीं रहे।बिसराम आजमगढ़ के तरुण वियोगी लोक कवि।कभी-कभी ही ऐसे कवि पैदा होते हैं।वह अपनी मातृभाषा में कवि बनने के लिए या स्वांतःसुखाय कविता नहीं करते थे।उनकी कविता सुख के लिए नहीं, दुख के लिए होती थी।वह दुनिया की किसी चीज को देखते ही अपनी प्रियतमा की याद करते थे।अपने सीधे-सादे बिरहों को जोड़कर स्वयं गुनगुनाया करते थे।’ धीरे-धीरे बिसराम के ये बिरहे आम लोगों तक पहुंचे और अपनी सच्ची अनुभूतियों की वजह से उन्हें लोक-स्वीकृति भी मिली।

इसके साथ ही राहुल जी अवधबिहारी ‘सुमन’ के भी निकट संपर्क में रहे, जिन्हें भोजपुरी के पहले कहानी संग्रह ‘जेहल की सनदि’ का लेखक होने का श्रेय प्राप्त है।भोजपुरी का यह पहला कहानी संग्रह वर्ष १९४८ में छपा था। ‘सुमन’ जी ने बक्सर से फागूराय विशारद के साथ मिलकर ‘कृषक’ नामक से भोजपुरी में साप्ताहिक पत्र भी निकाला।वर्ष १९४८-४९ के दौरान ‘सुमन’ जी ने राहुल सांकृत्यायन और बाबा नागार्जुन के साथ मिलकर कई पुस्तकों का संपादन भी किया।उन्होंने भोजपुरी के प्रसिद्ध महाकाव्य ‘बउधायन’ की भी रचना की थी।

 

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