इतिहास के अध्येता।गांधी के जीवन और दर्शन में रुचि। ‘इतिहास, भाषा और राष्ट्र’ पुस्तक प्रकाशित।सतीश चंद्र कॉलेज (बलिया) में अध्यापन।

जवाहरलाल नेहरू के भारत-संबंधी चिंतन और संकल्पनाओं पर स्वामी विवेकानंद के विचारों का गहरा प्रभाव साफ दिखाई देता है।उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेहरू ने अहमदनगर किले में बंदी रहते हुए लिखी गई अपनी प्रसिद्ध किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में स्वामी विवेकानंद के विचारों की चर्चा सराहना भाव से की है।उपनिषदों के गूढ़ विचारों, योग और वेदांत की चर्चा करते हुए जवाहरलाल नेहरू स्वामी विवेकानंद को बार-बार उद्धृत करते हैं और उनके द्वारा रामकृष्ण मिशन की स्थापना की प्रशंसा करते हैं।

स्वामी विवेकानंद द्वारा तर्क, स्वतंत्र चिंतन और अनुभवजन्य ज्ञान पर दिए गए जोर का हवाला देते हुए नेहरू तार्किक दृष्टिकोण अपनाने की वकालत करते हैं।विवेकानंद के बारे में नेहरू लिखते हैं ‘विवेकानंद का आधार पुराने जमाने में था और उनमें हिंदुस्तान की देन का अभिमान था, लेकिन साथ ही जिंदगी के मसलों को हल करने का उनका ढंग इस जमाने का था और वे हिंदुस्तान के गुजरे हुए और मौजूदा जमाने की खाई पर एक पुल की तरह थे।बेबस और हताश हिंदुस्तान के लिए वे एक जीवन-औषधि के रूप में आए और इसको उन्होंने अपने पर भरोसा करना सिखाया।’

उल्लेखनीय है कि हताश और निराश हो चले भारतीय जनसमुदाय का आह्वान करते हुए विवेकानंद कहा करते थे, ‘हमारे देश के लिए इस समय आवश्यकता है, लोहे की तरह ठोस मांसपेशियों और मजबूत स्नायु वाले शरीरों की।आवश्यकता है इस तरह के दृढ़-इच्छा शक्तिसंपन्न होने की कि कोई उसका प्रतिरोध करने में समर्थ न हो।आवश्यकता है ऐसी अदम्य इच्छा शक्ति की, जो ब्रह्मांड के सारे रहस्यों को भेद सकती हो।यदि यह कार्य करने के लिए अथाह समुद्र में जाना पड़े, सब तरह से मौत का सामना करना पड़े, तो भी हमें यह काम करना होगा।’

यहां इसी क्रम में, भारत माता की जैसी उदात्त संकल्पना नेहरू ने की और उनसे भी लगभग आधी सदी पहले ‘राष्ट्र-देवता’ का जो विचार स्वामी विवेकानंद ने दिया, वह भी विचारणीय है।राष्ट्र-देवता की चर्चा करते हुए विवेकानंद ने कहा था :

‘ये मनुष्य और पशु, जिन्हें हम आस-पास और आगे-पीछे देख रहे हैं, ये ही हमारे ईश्वर हैं।इनमें सबसे पहले पूज्य हैं हमारे अपने देशवासी।अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जागृत देवता है।सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं।समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं।जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते, उनके पीछे तो हम बेकार दौड़ें और जिस विराट देवता को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उसकी पूजा ही न करें।’  (स्वामी विवेकानंद, नया भारत गढ़ो)

विवेकानंद की राष्ट्र-देवता की यह धारणा नेहरू की ‘भारत माता’ की संकल्पना के कितने निकट है, इसकी बानगी के लिए नेहरू के ही इन शब्दों को पढ़ा जाना चाहिए :

हिंदुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत जो हमें अन्न देते हैं, यह सभी हमें अज़ीज़ हैं।लेकिन आख़िरकार जिनकी गिनती है वह हैं हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं, भारतमाता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं और भारतमाता की जयसे मतलब हुआ इन लोगों की जय। (जवाहरलाल नेहरू, हिंदुस्तान की कहानी)

धार्मिक और दिमागी संकीर्णता की आलोचना करते हुए भी नेहरू ने विवेकानंद को उद्धृत किया और लिखा कि ‘हिंदुस्तान इसलिए गिर गया था कि उसने अपने आपको संकरा कर लिया और उसने अपने को एक खोल में बंद कर दिया था।इस तरह दूसरे राष्ट्रों से उसका संपर्क छूट गया और उसकी हालत एक जड़ सभ्यता की सी हो गई।’ इस जड़ता को मिटाने के लिए ही विवेकानंद ने कहा था कि औरों से उत्तम बातें सीखकर उन्नत बनो।जो सीखना नहीं चाहता, वह तो पहले ही मर चुका है।औरों के पास जो भी अच्छा पाओ, सीख लो; पर उसे अपने भाव के सांचे में ढालकर लेना होगा। (विवेकानंद साहित्य, भाग ५)

स्वामी विवेकानंद ने अपने वक्तव्यों और लेखों में बार-बार यह कहा था कि योग और वेदांत के लिए तर्क सर्वोपरि है।कारण कि योग में अनुभव और अन्वेषण से प्राप्त ज्ञान को वरीयता दी गई थी।विवेकानंद ने स्पष्ट कहा था, ‘अनुभव ही ज्ञान का एकमात्र स्रोत है।और अगर कोई धर्म अन्वेषण और खोजों से खुद के नष्ट हो जाने से डरता है, तो वह धर्म नहीं व्यर्थ का कोरा अंधविश्वास मात्र है।वह जितनी जल्दी खत्म हो जाए उतना ही बेहतर है।’ राजयोग की व्याख्या करते हुए भी विवेकानंद ने अनुभव और तर्क पर बल देते हुए कहा था कि राजयोग आस्था या विश्वास पर नहीं, तर्क पर आधारित है।उन्होंने कहा कि ‘याद रखो जब तक स्वयं तुम्हें किसी बात का अनुभव न हो जाए, तब तक उस पर यकीन मत करो।’ नेहरू लिखते हैं कि स्वामी विवेकानंद द्वारा विश्वास और आस्था से ऊपर उठकर तर्क पर दिया गया ज़ोर बुद्धि की स्वतंत्रता में उनके गहरे यकीन से निकलता है।विवेकानंद का विश्वास था कि मानव में ईश्वर-दर्शन ही सच्चा ईश्वर दर्शन है।

जनसमुदाय की उपेक्षा को लेकर भारत को सचेत करते हुए विवेकानंद ने कहा था कि हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप अपने जनसमुदाय की उपेक्षा है और वह हमारे पतन का एक कारण है।उन्होंने स्त्रियों की उपेक्षा और जाति-भेद द्वारा गरीबों पर अत्याचार की निंदा की थी।उनका मानना था कि भारत के सत्यानाश का कारण था – देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि को राज-शासन और दंभ के बल पर मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखा जाना।इसी क्रम में, भारत के शिक्षित वर्ग की अकर्मण्यता को आड़े हाथों लेते हुए विवेकानंद ने कहा था, ‘जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघाती समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परंतु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता।’ (स्वामी विवेकानंद, नया भारत गढ़ो)

रामकृष्ण परमहंस, रामकृष्ण मिशन और नेहरू

आज़ादी के लगभग डेढ़ साल बाद मार्च १९४९ में जवाहरलाल नेहरू दिल्ली स्थित रामकृष्ण मिशन आश्रम द्वारा आयोजित रामकृष्ण परमहंस जयंती समारोह में शामिल हुए।उस अवसर पर दिए गए अपने भाषण में नेहरू ने रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के विचारों की मुक्तकंठ से सराहना की।साथ ही, उन्होंने आजाद भारत के नवनिर्माण के लिए स्वामी विवेकानंद के विचारों और विश्व-बंधुत्व की धारणा को रेखांकित किया।विवेकानंद ने कहा था कि ‘अपने तन, मन और वाणी को जगद्हिताय अर्पित करो।’

रामकृष्ण मिशन के कार्यों की तारीफ करते हुए नेहरू ने कहा, ‘मैं पिछले पचीस सालों से हिंदुस्तान और विदेशों में भी रामकृष्ण मिशन द्वारा बगैर किसी शोरशराबे के किए जा रहे कार्यों का साक्षी रहा हूँ।मुझे कोई दूसरी ऐसी संस्था याद नहीं पड़ती, जिसने ऐसे निःस्वार्थ भाव से, बिना किसी लाभ की इच्छा किए हुए अहर्निश सेवाकार्य किया हो, जैसा कि रामकृष्ण मिशन ने अपनी स्थापना के बाद से किया है।’ (एस. गोपाल (संपा.), सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू)

इसी सभा में रामकृष्ण परमहंस की पुण्य-स्मृति को श्रद्धांजलि देते हुए नेहरू ने कहा कि रामकृष्ण परमहंस ने संतों और महात्माओं की प्राचीन भारतीय परंपरा को फिर से जीवित किया।उन्होंने यह दिखाया कि सत्य की खोज ही महापुरुषों के जीवन का सच्चा ध्येय रहा है और इसे प्राप्त करने में उन लोगों ने किसी बाधा या अवरोध को नहीं माना।धर्म और जाति के बंधनों की परवाह किए बगैर हमारे महापुरुषों ने सत्य की अनवरत तलाश की और संकीर्णता की भावना को हमेशा परे रखा।यही भारत की शक्ति है, यही उसकी महानता है।

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं को याद करते हुए नेहरू ने सभा में उपस्थित जन का आह्वान करते हुए कहा कि आज हमारे जीवन में जो संकीर्णता घर करती जा रही है और जिस चुनौतीपूर्ण समय में हम रह रहे हैं, उसमें रामकृष्ण परमहंस का जीवन और उनके कार्य, सत्य की उनकी खोज और उनके उपदेश हमें अपने समक्ष रखने होंगे।प्रासंगिक है कि खुद विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के बारे में लिखा था कि ‘वे शांति के दूत थे।इस सत्य युग में श्रीरामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सब को एक कर दिया है।श्रीरामकृष्ण के जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ।इसलिए हमें चाहिए कि हम उन्हीं को केंद्र बनाकर डट जाएं।चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने, चाहे परित्राता या आचार्य, या आदर्श पुरुष अथवा महापुरुष-  जो जैसा चाहे, वह उन्हें उसी ढंग से समझे।’ (विवेकानंद साहित्य, भाग २)

रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों की चर्चा के क्रम में नेहरू ने विशेष रूप से स्वामी विवेकानंद और उनके योगदान की चर्चा की।नेहरू ने कहा कि उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तकें और उनके व्याख्यान पढ़े हैं और वे उनसे गहरे प्रभावित हुए हैं।विवेकानंद के भाषणों की चर्चा करते हुए नेहरू ने कहा कि ‘उनकी वाणी और लेखनी में एक आग है और भारत की प्राचीन संस्कृति, विचार और आदर्शों पर जोर उनकी सभी कृतियों में परिलक्षित होता है।इसके साथ ही वे एक आधुनिक मनुष्य थे, जो हमारे समय की जटिलताओं से भली-भांति परिचित थे।यही कारण है कि उनका कृतित्व आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।क्योंकि उन्होंने भारतीय संस्कृति के सार-तत्व को ग्रहण किया था, जो कभी पुरानी नहीं पड़ सकती।’

नेहरू ने यह भी कहा कि विवेकानंद भले ही राजनीति के क्षेत्र में न उतरे हों।मगर वे उन महान भारतीयों में से एक थे, जिन्होंने राष्ट्र की हताशा से भरी मनोदशा को झकझोरा, राष्ट्र को एक नया जीवन दिया, उसे अपनी शक्ति का अहसास कराया और इस तरह स्वाधीनता आंदोलन का सूत्रपात किया।उन्होंने भारतीयों को निर्भय और शक्तिमान होने का संदेश दिया।उनके शब्दों में एक जादू है, जो अपने पाठकों के दिलो-दिमाग पर बिजली-सा असर डालता है।वे भारत की कमियों को छुपाने में नहीं, बल्कि उनसे निजात पाने के लिए तत्पर रहे।इन कमियों और कुरीतियों पर उन्होंने तगड़ा प्रहार किया और लोगों को झकझोरा।

उल्लेखनीय है कि हिंदुओं में व्याप्त छुआछूत की कुरीति की आलोचना करते हुए विवेकानंद ने कहा था, ‘हमारा धर्म रसोईघर में है, हमारा ईश्वर खाना बनाने का बर्तन है और हमारा धर्म है- मुझे मत छूओ, मैं पवित्र हूँ।’

अगर एक ओर विवेकानंद गर्व के साथ यह कहते थे कि पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, तो वे उसी दम बेहिचक यह भी कह सकते थे कि पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो।’ (विवेकानंद साहित्य, भाग १)

जून १९६१ में कोलकाता में गोलपार्क स्थित रामकृष्ण मिशन इंस्टीट्यूट ऑफ़ कल्चर के सचिव स्वामी नित्यस्वरूपानंद ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर संस्थान द्वारा प्रस्तावित एक कांफ्रेंस की जानकारी दी थी।नेहरू ने स्वामी नित्यस्वरूपानंद को २८ जून १९६१ को भेजे अपने जवाबी खत में लिखा कि रामकृष्ण मिशन ने शांतिपूर्वक और बगैर किसी आडंबर के अपने ठोस कार्यों से एक शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है और जहां भी संभव होगा वे रामकृष्ण मिशन की सहायता जरूर करेंगे।

इसके दो साल बाद जब १ जुलाई १९६३ को नेहरू ने स्वामी संबुद्धानंद के आमंत्रण पर रामकृष्ण मिशन सेवा प्रतिष्ठान द्वारा संचालित अस्पताल के नवनिर्मित भवन का उद्घाटन किया, तब भी नेहरू ने रामकृष्ण मिशन के सेवा-भाव और समर्पण की सराहना की। (सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड ८२)  उसी वर्ष रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी माधवानंद ने बेलूड़ में विवेकानंद विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा था।नेहरू ने सहर्ष इस प्रस्ताव का स्वागत किया और इस संदर्भ में एक पत्र विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष दौलत सिंह कोठारी को ८ अक्टूबर १९६३ को लिखा और उन्हें इसके विभिन्न पक्षों पर विचार करने के लिए कहा।

विवेकानंद जन्म-शती वर्ष

वर्ष १९६२ में जब स्वामी विवेकानंद के जन्मशती समारोह का आयोजन चल रहा था, तो इसकी जानकारी जवाहरलाल नेहरू को नई दिल्ली स्थित रामकृष्ण आश्रम के स्वामी स्वाहानंद ने दी, जो स्वामी विवेकानंद जन्मशती समिति के सचिव थे।४ अक्टूबर, १९६२ को स्वामी स्वाहानंद के पत्र का जवाब देते हुए नेहरू ने लिखा कि उन्हें खुशी है कि स्वामी विवेकानंद का जन्मशती समारोह मनाया जा रहा है।नेहरू ने इस समारोह के लिए गठित समिति से जुड़ने में अपनी हार्दिक प्रसन्नता जाहिर की।

इसके चार दिन बाद ही स्वामी स्वाहानंद ने नेहरू से मुलाकात की और स्वामी विवेकानंद जन्मशती समारोह को मनाने के संदर्भ में अपने सुझाव भी दिए।स्वामी स्वाहानंद ने भारतीय युवाओं को विवेकानंद की शिक्षाओं और उनकी लेखनी से परिचित कराने पर जोर दिया और अद्वैत आश्रम द्वारा प्रकाशित स्वामी विवेकानंद की तीन पुस्तिकाओं को भारत की विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध कराने का भी सुझाव दिया।ये पुस्तिकाएं विवेकानंद की जीवनी, युवाओं के लिए उनके संदेश और भारत की समस्याओं पर उनके विचारों से संबंधित थीं।स्वामी स्वाहानंद ने स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में भी विवेकानंद के भाषणों और लेखों को शामिल करने का सुझाव दिया।इस संदर्भ में नेहरू ने तत्कालीन शिक्षा मंत्री के. एल. श्रीमाली को ८ अक्टूबर, १९६२ को पत्र लिखकर कहा कि ‘विवेकानंद की लेखनी सभी के लिए है, विशेषकर हरेक भारतीय को उनकी रचनाओं को पढ़ना चाहिए।मैं चाहूंगा कि उनकी किताबों का खूब विस्तार हो।’ उसी रोज नेहरू ने एक अन्य पत्र विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष दौलत सिंह कोठारी को लिखा, ‘हमें युवाओं के बीच विवेकानंद साहित्य का प्रचार-प्रसार करना चाहिए।इसके लिए विवेकानंद जन्मशती वर्ष से अच्छा अवसर दूसरा नहीं हो सकता।’

इसी बीच नेहरू तीन दिनों की श्रीलंका (तब सीलोन) यात्रा पर गए, जहां उन्होंने १५ अक्टूबर, १९६२ को रामकृष्ण मिशन अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक केंद्र का उद्घाटन भी किया।उस अवसर पर रामकृष्ण मिशन में दिए अपने भाषण में नेहरू ने कहा,  ‘रामकृष्ण मिशन द्वारा संचालित इन सेवा के केंद्रोंमें जाना उन्हें हार्दिक खुशी देता है।

हिंदुस्तान और विदेशों में जहां भी मिशन अपना काम कर रहा है, वहां अपने सेवा के आदर्श और आडंबररहित कार्यों से मिशन ने लोगों का सम्मान अर्जित किया है।’ (सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड ७९) नेहरू ने यह भी कहा कि मानव-सेवा के साथ ही रामकृष्ण मिशन ने देशों के परस्पर संबंधों को भी बेहतर बनाने का काम बखूबी किया है।तत्कालीन वैश्विक संदर्भ के हवाले से नेहरू ने कहा कि रामकृष्ण मिशन ने शीत युद्ध से गुजर रही इस दुनिया को करुणा और मैत्री का संदेश दिया है।युद्ध और हिंसा के मंडराते संकट से दुनिया को उबारने के लिए नेहरू ने शांति, अहिंसा, मैत्री और सहयोग की भावना पर जोर दिया।

कुछ इसी संदर्भ में स्वामी विवेकानंद ने अपने एक वक्तव्य में कहा था, ‘भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह पदार्थ की शक्ति से नहीं, वरन आत्मा की शक्ति द्वारा।वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं, वरन शांति और प्रेम की ध्वजा से – संन्यासियों के वेश से – धन की शक्ति से नहीं, बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से संपादित होगा।’

ध्यान देने की बात है कि २० अक्टूबर, १९६२ को भारत-चीन युद्ध शुरू हो गया था, जो २१ नवंबर, १९६२ को दोनों पक्षों द्वारा युद्धविराम घोषित किए जाने तक चला।यह समय नेहरू और हिंदुस्तान के लिए एक चुनौतीपूर्ण समय था।उस कठिन दौर में भी नेहरू ने स्वामी लोकेश्वरानंद को जो संदेश भेजा, उसमें नेहरू की मनःस्थिति और विवेकानंद के प्रति उनके गहरे लगाव दोनों की झलक मिलती है।२९ अक्टूबर, १९६२ को भेजे गए इस संदेश में नेहरू ने स्वामी विवेकानंद जन्मशती समारोह और छठवें श्री रामकृष्ण मेला के लिए अपनी शुभकामना प्रेषित की।उन्होंने लिखा कि ‘स्वामी विवेकानंद की शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रेरक और जीवंत हैं, जितनी कि वे पहले थीं।आज चीन द्वारा भारत पर हमले के बाद जिस मुश्किल दौर से हम गुजर रहे हैं, उस समय हम स्वामी विवेकानंद के जीवन और उनके कृतित्व से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं।’

स्वामी विवेकानंद जन्मशती वर्ष के दौरान ही जनवरी १९६३ में जब बिमल घोष ने नेहरू को पत्र लिखकर बताया कि वे स्वामी विवेकानंद के जीवन पर नाटक लिख रहे हैं, तब नेहरू ने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए लिखा, ‘मुझे प्रसन्नता है कि आप स्वामी विवेकानंद जन्मशती वर्ष में उनके आरंभिक जीवन पर एक नाटक लिख रहे हैं।बच्चों और बड़ों दोनों ही के लिए नाटक का इससे बेहतर विषय कुछ और नहीं हो सकता।मुझे उम्मीद है कि बच्चों के लिए स्वामी जी के जीवन पर आधारित यह नाटक विशेष रूप से प्रेरणादायी होगा।’ (सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज, खंड ८०)

स्वामी विवेकानंद जन्मशती समारोह का आयोजन भारत ही नहीं, यूरोप और अमेरिका में भी हुआ था।नेहरू ने इस अवसर पर जनवरी १९६३ में देशविदेश में हुए आयोजनों के लिए अपने शुभकामना संदेश भेजे थे।न्यूयॉर्क और लंदन में भी स्वामी विवेकानंद की जन्मशती मनाई गई।नेहरू ने स्वामी निखिलानंद (न्यूयॉर्क) और स्वामी संबुद्धानंद (कलकत्ता) को शुभकामना संदेश भेजे।

इन संदेशों में नेहरू ने लिखा कि ‘स्वामी विवेकानंद के समूचे जीवन और उनकी शिक्षाओं ने हमारी पीढ़ी को प्रेरित किया और आज भी स्वामी जी की शिक्षाएं लोगों को प्रेरित कर रही हैं।स्वामी जी सच्चे देशभक्त थे और आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत उनकी शिक्षाएं दुनिया भर के लिए प्रासंगिक हैं।’

दिल्ली के रामलीला मैदान में १७ जनवरी, १९६३ को जवाहरलाल नेहरू ने विवेकानंद जन्मशती समारोह के अवसर पर एक महत्वपूर्ण भाषण दिया था।विवेकानंद के संदर्भ में नेहरू ने कहा कि वे हिंदुस्तान के उन चुने हुए लोगों में से थे, ‘जिन्होंने भारत को एक तरह से बनाया, भारत के दिमाग को बनाया, सोए हुए भारत को जगाया और जिनकी आवाज कहीं हिंदुस्तान के दिल के अंदर से निकलती थी।एक जमाना हो गया उनके गुजर जाने के, क्योंकि वे तो चालीस बरस के भी नहीं थे जब वे मरे, अपनी जवानी के उन थोड़े से दिनों में उन्होंने अपना ऐसा सिक्का हिंदुस्तान के लोगों पर ही नहीं, बल्कि और दुनिया के बहुत लोगों पर जमाया कि आश्चर्य होता है कि थोड़े से बरसों में उन्होंने क्या-क्या किया।’ नेहरू ने विवेकानंद के भारत संबंधी विचारों और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर उनके विचारों के गहरे प्रभाव की खासतौर पर चर्चा की।नेहरू ने कहा है :

‘स्वामी विवेकानंद को आप पढ़िए जो उन्होंने कहा है, उसको पढ़के आपकी ताकत दुगुनी हो जाएगी, क्योंकि वो एक हिम्मत वाले आदमी थे, उनको बरदाश्त नहीं था कि भारत का सिर नीचा हो और हर वक्त इस बात पर जोर देते थे कि ताकत आए इंसान में।और याद रखिए कि असली ताकत इंसान के दिलो-दिमाग की होती है, हिम्मत की होती है, वो एक दफा हो जाती है तो और चीजें हो ही जाती हैं। (वही)