इतिहास के अध्येता। गांधी के जीवन और दर्शन में रुचि। ‘इतिहास, भाषा और राष्ट्र’ पुस्तक प्रकाशित। सतीश चंद्र कॉलेज (बलिया) में अध्यापन।
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में लिखा है कि जिन तीन महापुरुषों ने उन्हें वैचारिक रूप से सर्वाधिक प्रभावित किया, वे थे – श्रीमद् रामचंद्र, लियो टॉल्स्टॉय और जॉन रस्किन। 1909 में प्रकाशित अपनी विचारोत्तेजक पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ के परिशिष्ट में महात्मा गांधी ने पाठकों के लिए कुछ जरूरी किताबों की सूची दी थी। उनमें जॉन रस्किन, एडवर्ड कारपेंटर, हेनरी डेविड थोरो जैसे लेखकों के साथ टॉल्स्टॉय (1828-1910) की भी ये किताबें शामिल थीं – ‘किंगडम ऑफ़ गॉड इज़ विदिन यू’, ‘व्हाट इज़ आर्ट?’, ‘द स्लेवरी ऑफ़ अवर टाइम्स’, ‘द फ़र्स्ट स्टेप’, ‘हाउ शैल वी एस्केप?’, ‘लेटर टु ए हिंदू’।
निश्चय ही महात्मा गांधी जहां एक ओर लियो टॉल्स्टॉय की कृतियों से गहरे प्रभावित थे, वहीं दूसरी ओर उन्होंने ‘यंग इंडिया’ जैसे पत्रों में दो अन्य रूसी साहित्यकारों मैक्सिम गोर्की (1868-1936) और एंतोन चेखव (1860-1904) के व्यक्तित्व तथा कृतित्व से भी भारतीय पाठकों का परिचय कराया था।
अपनी आत्मकथा में टॉल्स्टॉय की पुस्तक ‘किंगडम ऑफ गाड इज विदिन यू’ के बारे में महात्मा गांधी ने लिखा है कि ‘टॉल्स्टॉय की इस किताब ने मुझे अभिभूत कर लिया। उसकी मुझपर बड़ी गहरी छाप पड़ी।’ कहना न होगा कि इस पुस्तक की स्वतंत्र विचार-शैली, इसकी परिपक्व नीति और इसमें निरूपित सत्य ने गांधी को अपना क़ायल बना लिया था।
दक्षिणअफ्रीका में रहते हुए और वहां हुए सत्याग्रह के दौरान जेल में बिताए हुए समय में महात्मा गांधी गीता, क़ुरान, बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों के साथ-साथ टॉल्स्टॉय, रस्किन और सुकरात जैसे विचारकों को भी लगातार पढ़ते रहे थे। दक्षिण अफ्रीका में अपनी तीसरी जेल यात्रा के दौरान जेल जाते समय गांधी टॉल्स्टॉय की किताब ‘किंगडम ऑफ़ गॉड इज़ विदइन यू’ अपने साथ ले गए थे। इस बारे में गांधी लिखते हैं, ‘मैंने मन में सोचा कि यह भी अच्छा संयोग बना है। बाहर से मैं किसी भी विपत्ति में क्यों न पड़ जाऊं, लेकिन यदि मैं ऐसा रहूं कि ईश्वर मेरे अंतर में निवास करे तो फिर मुझे दूसरी किसी बात की परवाह करने की जरूरत नहीं है।’
टॉल्स्टॉय से प्रभावित होकर गांधी ने उनके बारे में लिखना और लोगों को बताना शुरू किया। टॉल्स्टॉय के बारे में उनका एक ऐसा ही लेख सितंबर 1905 में ‘इंडियन ओपिनियन’ में छपा था ‘काउंट टॉल्स्टॉय’ शीर्षक से। इसमें उन्होंने टॉल्स्टॉय के संक्षिप्त जीवन-वृत्त के साथ ही उनके विचारों और जीवन-दर्शन से भी पाठकों को रूबरू कराया था। एक धनाढ्य परिवार में जन्मे और कभी आलीशान जीवन जीने वाले टॉल्स्टॉय का हृदय परिवर्तन कैसे क्रीमिया युद्ध में हुए रक्तपात को देखकर हुआ, कैसे उन्होंने बाइबिल पढ़ना शुरू किया और फिर महान उपन्यासों की रचना की, इसके बारे में तो गांधी उस लेख में बताते ही हैं। वे टॉल्स्टॉय द्वारा संपत्ति त्यागने, खेती शुरू करने और सादा जीवन अपनाने के अपने आदर्श के बारे में भी लिखते हैं। टॉल्स्टॉय द्वारा प्रस्तुत जिन आदर्शों को गांधी ने इस लेख में विशेष तौर पर रेखांकित किया, वे हैं : दौलत इकट्ठी न करना, दूसरों की भलाई करना, युद्ध में हिस्सा न लेना, राजसत्ता का उपभोग न करना, कर्तव्य पालन पर ध्यान देना और खेती पर ज़ोर।
अपने लेखों के अलावा भाषणों में भी गांधी टॉल्स्टॉय की चर्चा करते हैं। जून 1909 में जर्मिस्टन में दिए एक भाषण में अनाक्रामक प्रतिरोध (पैसिव रेजिस्टेंस) की चर्चा करते हुए गांधी ने आत्मबल पर जोर दिया। इसी क्रम में ईसा मसीह, सुकरात की चर्चा करते हुए टॉल्स्टॉय का भी उल्लेख किया। गांधी ने कहा कि टॉल्स्टॉय इस सिद्धांत के सबसे श्रेष्ठ और प्रसिद्ध व्याख्याकार थे, क्योंकि उन्होंने न केवल इसकी व्याख्या की थी, बल्कि उसके मुताबिक अपने जीवन को ढाला भी था।
यही नहीं, अपने पत्रों में भी गांधी अपने मित्रों और जानने वालों से टॉल्स्टॉय द्वारा लिखी पुस्तकों को पढ़ने का सुझाव लगातार देते थे। मसलन, अपने बेटे मणिलाल गांधी को मार्च 1909 में लिखे एक ख़त में गांधी ने टॉल्स्टॉय की किताब ‘किंगडम ऑफ़ गॉड इज़ विदिन यू’ पढ़ने की सलाह दी थी। टॉल्स्टॉय के बारे में लिखे अपने पत्रों और वक्तव्यों में गांधी इस बात पर भी ज़ोर देते रहे हैं कि टॉल्स्टॉय की कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था।
‘इंडियन ओपिनियन’ में टॉल्स्टॉय की कहानियों के अनुवाद भी गांधी ने प्रकाशित किए। मसलन, महात्मा गांधी ने टॉल्स्टॉय की चर्चित कहानी ‘हाउ मच लैंड ए मैन नीड्स’ का गुजराती में अनुवाद किया था, जो पहले इंडियन ओपिनियन में छपा और बाद में पुस्तिका रूप में प्रकाशित हुआ।
गांधी और टॉल्स्टॉय के बीच हुआ पत्राचार इन दो महान व्यक्तित्वों की आत्मीयता को हमारे सामने लाता है और यह बताता है कि टॉल्स्टॉय ने दक्षिण अफ्रीका में चल रहे हिंदुस्तानियों के संघर्ष के प्रति न केवल सहानुभूति प्रकट की थी, बल्कि इस आंदोलन को अपना समर्थन भी दिया था। गांधी ने अक्टूबर 1909 में टॉल्स्टॉय को पत्र लिखकर ट्रांसवाल (दक्षिण अफ्रीका) में भेदभावपूर्ण और अपमानजनक कानून के खिलाफ़ हिंदुस्तानियों द्वारा किए जा रहे अनाक्रामक प्रतिरोध की जानकारी दी। उल्लेखनीय है कि यह प्रतिरोध उस ट्रांसवाल एशियाटिक एक्ट के विरुद्ध किया जा रहा था, जो हिंदुस्तानियों के साथ खुले तौर पर भेदभाव करता था।
गांधी इस खत में लिखते हैं कि उन लोगों ने यह तय किया कि इस अपमानजनक कानून के आगे वे नहीं झुकेंगे। इसके बदले में उन्हें जो भी कठिनाइयां या सजाएं झेलनी होंगी, वे झेलेंगे। नतीजा यह हुआ कि उक्त कानून का विरोध करने की वजह से ट्रांसवाल के हिंदुस्तानियों को कुछ दिनों से लेकर छह-छह महीने तक का सश्रम कारावास झेलना पड़ा।
हिंसा और प्रेम के बीच चल रहे इस संघर्ष और उसकी वस्तुस्थिति से टॉल्स्टॉय को अवगत कराते हुए गांधी ने लिखा कि ‘कठोरता से कोमलता का, दर्प तथा हिंसा से विनम्रता व प्रेम का संघर्ष यहाँ हमारे बीच भी प्रतिवर्ष अधिकाधिक जोर पकड़ता जा रहा है। यह जोर धार्मिक आदेश और दुनियावी कानूनों में चलनेवाले तीव्रतम विरोध के रूप में, अर्थात सैनिक सेवा से इनकार करने के रूप में, खास तौर से दिखलाई पड़ता है। इसके अलावा गांधी यह भी बताते हैं कि सैनिक सेवा से इनकार करने की घटनाओं की संख्या भी रोज बढ़ती जा रही है।
अनाक्रामक प्रतिरोध के बारे में गांधी इसी ख़त में लिखते हैं, ‘हममें से कुछ लोग तो यह अच्छी तरह समझ गए हैं कि जहां अनाक्रामक प्रतिरोध होगा वहां पशुबल की हार निश्चित है। इसी पत्र में गांधी ने टॉल्स्टॉय लिखित ‘लेटर टु ए हिंदू’ के बारे में भी अपने विचार साझा किए थे और उसे प्रकाशित करने की अनुमति भी मांगी थी।
टॉल्स्टॉय द्वारा ‘लेटर टु ए हिंदू’ पहले-पहल बैंकूवर से छपने वाली पत्रिका ‘फ्री हिंदुस्तान’ के लिए लिखा गया था, जिसके प्रधान संपादक तारकनाथ दास थे। किंतु लेख में दिए टॉल्स्टॉय के विचारों से असहमतियों के कारण वह लेख ‘फ्री हिन्दुस्तान’ में नहीं छपा। इस पूरे प्रकरण की जानकारी और टॉल्स्टॉय के उस पत्र की प्रति गांधी को अपने एक मित्र से मिली थी। टॉल्स्टॉय ने ‘लेटर टु ए हिंदू’ के प्रकाशन की अनुमति गांधी को सहर्ष दी। उल्लेखनीय है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ में गुजराती में छपे टॉल्स्टॉय के उस पत्र को नाडियाद से छपने वाले पत्र ‘गुजरात’ ने भी उद्धृत किया, जिसकी वजह से उसके विरुद्ध मुकदमा चलाने की नोटिस जारी की गई। अंग्रेज़ी सरकार के इस दमनकारी रवैये के विरुद्ध भी गांधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ में आवाज उठाई।
‘लेटर टु ए हिंदू’ की भूमिका में महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में चल रहे सत्याग्रह के संदर्भ में टॉल्स्टॉय के विचारों की महत्ता रेखांकित करते हुए लिखा था, ‘ट्रांसवाल की सरकार के तोप-बल के मुकाबले में मुट्ठी-भर भारतीय सत्याग्रह, प्रेम बल या आत्मबल की आजमाइश कर रहे हैं। यह टॉल्स्टॉय की शिक्षा का रहस्य है। यह सभी धर्मों का सार है। हमारी आत्मा में – रूह में परमात्मा ने, खुदा ने, ऐसी शक्ति दी है कि उसकी तुलना में निरा शारीरिक बल किसी काम नहीं आता। हम आत्मबल को व्यवहार में लाते हैं, सो ट्रांसवाल की सरकार का तिरस्कार करने या उससे बदला लेने के लिए नहीं, बल्कि केवल इसलिए कि हमें उसकी अन्यायपूर्ण आज्ञा नहीं माननी है। किंतु जिन्होंने सत्याग्रह का रस नहीं चखा, जो आधुनिक सभ्यता के महापाखंड में वैसे ही चक्कर काटते हैं जैसे पतंगे दीपक के आसपास चक्कर काटते रहते हैं, उनको टॉल्स्टॉय के पत्र में एकाएक रस नहीं आएगा। ऐसे लोगों को जरा धैर्य से विचार करना चाहिए।’
गांधी ने दिसंबर 1909 में लिखे अपने एक खत में टॉल्स्टॉय को लिखा, ‘मेरी राय में ट्रांसवाल में भारतीयों का यह संघर्ष आधुनिक युग का सबसे महान संघर्ष है। कारण, उसमें साध्य और साध्य की प्राप्ति के लिए साधन दोनों को आदर्श बनाने का प्रयत्न किया गया है। मैं ऐसे किसी दूसरे संघर्ष को नहीं जानता जिसमें संघर्षकारियों को संघर्ष के अंत में कोई वैयक्तिक लाभ न हो और जिसमें उससे प्रभावित व्यक्तियों में से 50 प्रतिशत ने सिर्फ सिद्धांत के लिए इतने कठिन कष्ट और संकट झेले हों।’
इस खत के साथ महात्मा गांधी ने जोसेफ डोक द्वारा लिखित पुस्तक ‘एम.के. गांधी : एन इंडियन पैट्रियट इन साउथ अफ्रीका’ की एक प्रति भी टॉल्स्टॉय को इस अनुरोध के साथ भेजी कि यदि वे पुस्तक में दिए विवरणों से और हिंदुस्तानियों द्वारा किए जा रहे प्रतिरोध के तरीके से संतुष्ट हों और ठीक समझें तो दक्षिण अफ्रीका में चल रहे आंदोलन को लोकप्रिय बनाने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग करें।
बकौल गांधी : यदि यह आंदोलन सफल होता है तो वह न सिर्फ अधर्म, असत्य और विद्वेष पर धर्म, सत्य और प्रेम की विजय होगी, बल्कि बहुत संभव है कि वह भारत के लाखों-करोड़ों निवासियों और दुनिया के दूसरे हिस्सों में बसने वाले पददलित लोगों के लिए भी एक अनुकरणीय उदाहरण हो और हिंसा की नीति में विश्वास करने वाले दलों का बल तोड़ने में, कम से कम भारत में, तो वह अवश्य ही बहुत सहायक सिद्ध होगा।
यही नहीं, अप्रैल 1910 में गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ के अंग्रेजी संस्करण की एक प्रति भी टॉल्स्टॉय को भेजी। उस पत्र के साथ गांधी ने टॉल्स्टॉय के ‘लेटर टु ए हिंदू’ की वे प्रतियां भी भेजीं, जो उन्होंने प्रकाशित की थीं।
नवंबर 1910 में जब टॉल्स्टॉय का निधन हुआ, तब उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए गांधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ में छपे एक लेख में लिखा, ‘टॉल्स्टॉय का विशेष रूप से यह कहना था कि शरीर-बल की अपेक्षा आत्म-बल अधिक शक्तिशाली होता है, यही सब धर्मों का सार है। संसार से दुष्टता मिटाने का मार्ग यही है कि बुरे के साथ हम बुराई के बदले भलाई करें। दुष्टता अधर्म है। अधर्म का इलाज अधर्म नहीं हो सकता, धर्म ही हो सकता है। धर्म में तो दया का ही स्थान है। धर्मी व्यक्ति अपने शत्रु का भी बुरा नहीं चाहता। इसलिए सदा धर्म-पालन करते रहना इष्ट हो तो नेकी ही करनी चाहिए।’
दक्षिण अफ्रीका में चले सत्याग्रह के साथ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को भी टॉल्स्टॉय की रचनाओं और उनके विचारों ने गहरे प्रभावित किया। 1919 में रौलट एक्ट के विरोध में हुए सत्याग्रह के दौरान रचनात्मक कार्यक्रम के अंतर्गत महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज और हेनरी डेविड थोरो, रस्किन की पुस्तकों के साथ ही टॉल्स्टॉय द्वारा लिखित ‘लेटर्स टु रशियन लिबरल्स’ के पाठ और उनके वितरण का सुझाव सत्याग्रहियों को दिया था। असहयोग आंदोलन के दौरान ‘यंग इंडिया’ में छपे अपने लेखों में गांधी टॉल्स्टॉय के सत्याग्रह संबंधी विचारों को लगातार उद्धृत करते रहे। यही नहीं, भारतीय विद्यार्थियों को दिए अपने संबोधनों में भी गांधी टॉल्स्टॉय के विचारों की महत्ता बताते थे और उनके विचारों पर अमल करने पर जोर देते थे।
गांधी अपने अनेक लेखों और पत्रों में टॉल्स्टॉय के सिद्धांत शरीर-श्रम (‘ब्रेड लेबर’) की चर्चा करते हैं। इसका तात्पर्य है, शरीर-श्रम सभी मनुष्यों के लिए अनिवार्य है। गांधी के शब्दों में ‘रोटी के लिए हरेक मनुष्य को मजदूरी करनी चाहिए, शरीर को (कमर को) झुकाना चाहिए, यह ईश्वर का क़ानून है।’ यरवदा सेंट्रल जेल में रहते हुए महात्मा गांधी ने जब गुजराती में ‘सत्याग्रह आश्रम का इतिहास’ लिखा था, उसमें उन्होंने शरीर-श्रम के सिद्धांत की विस्तार से चर्चा की थी।
दूसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए गांधी इंग्लैंड में थे। उसी दौरान दिसंबर 1931 में गांधी ने एडमंड दिमितर को एक साक्षात्कार दिया था। दिमितर द्वारा पूछे गए इस सवाल का जवाब देते हुए कि ‘दुनिया की किस शख्सियत ने बीसवीं सदी पर महान और सबसे उत्कृष्ट प्रभाव डाला है’, गांधी ने कहा ‘केवल और केवल टॉल्स्टॉय’! अपनी उसी यात्रा में जब गांधी रोम गए, तब टॉल्स्टॉय की पुत्री सुखोतिना टॉल्स्टॉय ने गांधी से मुलाक़ात और बातचीत की, जिसका जिक्र महादेव देसाई की डायरी में है।
1928 में टॉल्स्टॉय के जन्मशती वर्ष के अवसर पर जब इंग्लैंड स्थित टॉल्स्टॉय सोसाइटी के मंत्री एल्मर मॉड ने गांधी को टॉल्स्टॉय की कृतियों के व्यापक प्रसार के संदर्भ में पत्र लिखा तो गांधी ने उन्हें भेजे अपने जवाबी ख़त में लिखा कि टॉल्स्टॉय की कृतियों को भारत में लोकप्रिय बनाने के लिए जो कुछ भी मैं कर सकता हूँ, करने में अपना सौभाग्य मानूंगा। इसके साथ ही गांधी ने टॉल्स्टॉय सोसाइटी द्वारा भेजी गई नोटिस को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित किया।
यही नहीं, महात्मा गांधी अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम में सितंबर 1928 में आयोजित टॉल्स्टॉय जन्मशती समारोह में शामिल हुए थे। उस अवसर पर टॉल्स्टॉय को स्मरण करते हुए गांधी ने कहा था, ‘अहिंसा के मानी है प्रेम का समुद्र, अहिंसा के मानी है वैर-भाव का सर्वथा त्याग। अहिंसा में दीनता, भीरुता नहीं होती, डर-डरकर भागना भी नहीं होता। अहिंसा में तो दृढ़ता, वीरता, अडिगता होनी चाहिए। यह अहिंसा हिंदुस्तान में शिक्षित समाज में दिखाई नहीं देती। टॉल्स्टॉय का जीवन प्रेरक है, क्योंकि उन्होंने जिस चीज पर विश्वास किया उसका पालन करने का जबरदस्त प्रयत्न किया, और उससे कभी पीछे नहीं हटे।
बापू भवन, टाउन हाल, बलिया–277001 मो.7651981322