वरिष्ठ कवि। कविता संग्रह ‘आसान सी बातें’ प्रकाशित।
बात करती नहीं देनबा नदी
बात करती नहीं देनबा नदी
बस बढ़ जाती है आगे
कनखियों से देखती
अपनी आंखों का रंग पूछती है आकाश से
अपना चेहरा देखती है
चमकती सिंदूरी शाम के आईने में
कैसी दिखती हॅूं
पूछती है घर जाती चिड़ियों से
ठिठोली करती है, लजाती है
बालों में तारे गूंथती है रात को
अलसाई हुई बिस्तर पर
चांद गिराती है लापरवाही से
लहरों पर
कुछ बोलती है धीरे-धीरे मछलियों से
पर बोलती नहीं नदी मुझसे
क्योंकि अलग है उसकी भाषा
जो समझती है चिड़िया
जो समझता है आकाश
जो किनारे बैठा घड़ियाल जानता है
जो बोलता है सूरज
जो कभी बोलता था मंत्र द्रष्टा
ऋचा-सृष्टा बूढ़ा ऋषि
जो अब नहीं बोलता आदमी
आदमी नदी को अब नहीं समझता।
मैं आदमी हो जाता
मैं खिल जाता
जब खिलता पलाश
पूरा आसमान साफ नीला होता
मैं धुल जाता
सूख कर कड़ा हो जाता
जब देखता एक हरे पेड़ को ठूंठ होते हुए
मीलों मील बेफिकर हो कर
बह जाता
जब बहती नर्मदा उफन कर बारिश में
सिकुड़ जाता एक घायल कीड़े-सा
सड़क के किनारे
कीचड़ में बैठी
पांवों में घाव लिए
बच्ची के सिकुड़ने से
खिलखिला देता सर्दी में उगे सूरज की तरह
जब वहीं कीचड़ में उकडूं बैठ
उस घाव पर मेरा छोटा बेटा मलहम लगाता
मैं आदमी हो जाता।
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