वरिष्ठ कवि।  कविता संग्रह आसान सी बातेंप्रकाशित।

सारंगढ़ का वन परिक्षेत्र कार्यालय दो विशाल बंगलों में बसा हुआ था। दोनों इमारतें ब्रिटिश राज के जमाने की थीं और बेहतरीन इमारती लकड़ियों में बनी थीं। उनके चारों ओर पीपल और साल के घने पेड़ों की छाया थी।

पूरा शहर पैदल पार कर जब मैं लगभग एकांत में स्थित इस प्रभावशाली कार्यालय के सामने पहुंचा, अनायास मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा। इससे पहले मैं किसी साकारी दफ्तर में अकेला नहीं गया था। मुझे जाना किस बिल्डिंग में था, यह भी पता नहीं था। जल्दी से मैंने दोनों इमारतों की ओर देखा और तय किया कि बाईं इमारत की ओर जाना है। यह कुछ छोटी थी।

सुबह 10:30 बजे थे, मगर अभी पूरा कैंपस एक अजीब-से गंभीर सन्नाटे में लिपटा हुआ था। दाईं मुट्ठी में अपना नियुक्ति पत्र कसकर पकड़ते हुए मैं ऑफिस के अंदर घुस गया।

पूरी तरह से सफेद बालों वाले, मजबूत कद-काठी के एक वृद्ध सज्जन धवल श्वेत कुर्ते-पाजामे में सजे हुए, लकड़ी की कुर्सी पर दरवाजे के बिलकुल सामने बैठे थे। उनका पूरा शरीर स्थिर था और चेहरे के कठोर भावों को मानो किसी ने पत्थर पर तराश दिया था। वह किसी गहन चिंतन में ध्यानस्थ योगी की तरह दिख रहे थे। उनके सामने की विशाल मेज बिलकुल खाली थी। इसपर कांच का एक पेपरवेट रखा हुआ था। उन्होंने मुझे कक्ष में प्रवेश करते हुए देखा, किंतु उनके चेहरे पर किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं हुई।

‘सर, नमस्ते’, उनकी स्थिर दृष्टि से आतंकित होते हुए मैंने डरते-डरते अभिवादन किया और अपनी अनामंत्रित उपस्थिति की सफाई में पसीने से गीला अपना नियुक्ति पत्र उनकी ओर बढ़ा दिया।

सप्रयास वे अपनी कुर्सी पर थोड़ा-सा आगे खिसक आए और पत्र को धीरे-धीरे बोल-बोलकर पढ़ने लगे- ‘इसमें लिखा है कि तुम्हें..’, यहां पर उन्होंने सर उठा कर मुझे एक पल के लिए देखा- ‘यानी सिद्धार्थ बाजपेयी को वन विभाग में फॉरेस्ट गार्ड के रूप में अस्थायी नियुक्ति दी जाती है। तुम्हें इसी कार्यालय में अटैच किया गया है।’

इतना कहकर वह ध्यानस्थ हो गए। कुछ देर बाद ध्यान से जाग कर उन्होंने कहा- ‘इसका मतलब है तुम्हें जंगल के किसी बीट में पोस्ट नहीं किया गया है।’

यहां बीट का अर्थ मुझे नहीं मालूम था। जो मालूम था वह फिट नहीं होता था। मैं चुप रहा।

कुछ रुककर उन्होंने मुझे घूरा- ‘अग्रेजी पढ़-लिख सकते हो?’

मैंने घबराते हुए कहा- ‘जी सर।’

उन्होंने पूछ लिया- ‘उम्र क्या है तुम्हारी?’

‘जी, अठारह साल।’

बिना बेल्ट की एक पैंट और हाफ शर्ट में धंसी मेरी कृशकाय काया का उन्होंने मुआयना किया। एक उड़ती नजर उन्होंने मेरी प्लास्टिक की चप्पलों पर भी डाली। कुछ अविश्वास का भाव उनकी आंखों में उतर आया। उन्होंने पूछा, ‘कहां तक प़ढ़े हो?’

लहजा पूरा बिहारी था।

‘जी, मैंने बी.एससी. सेकंड इयर कर लिया है और इस साल ड्रॉप लिया है’- मैंने जवाब दिया।

यह सूचना उनके निर्विकार व्यक्तित्व में इस तरह समा गई जैसे किसी विशाल सागर में एक छोटा-सा कंकर बिना कोई लहर बनाए विलीन हो जाता है।

‘अच्छा’- उन्होंने कहा- ‘वहां जाकर बैठो।’

अपने दाएं हाथ को नामालूम-सी जुंबिश देकर उन्होंने एक खाली कुर्सी और टेबल के सामने रखी छोटी-सी बेंच की ओर इशारा किया। वह खाली कुर्सी और टेबल दफ्तर के छोटे बाबू की थी जो लंबे अवकाश पर थे, हालांकि यह बात मुझे दो दिन बाद पता चली। यह भी पता चला कि जो भव्य मूर्ति मुझसे मुखातिब थी, उन्हें पूरे ऑफिस में सम्मान के साथ ‘बड़े बाबू’ कहा जाता था।

शाम के ठीक पांच बजे बड़े बाबू की निश्चेष्ट काया में कुछ हलचल हुई। वह कुर्सी से उठ खड़े हुए और शरीर तानते हुए बुदबुदाए- ‘अब घर जाओ।’

फिर यकायक लंबे-लंबे डग भरते हुए वे निकल गए।

अगला दिन और उसके बाद का भी पूरा दिन इसी तरह मैंने बेंच पर बैठकर गुजार दिया।

तीसरे दिन बड़े बाबू ने मुझे इशारे से अपनी ओर बुलाया। एक हल्का-सा चतुर भाव उनके चेहरे पर उपजा, ‘चौबे जी तुम्हारे क्या लगते हैं?’

‘कुछ नहीं लगते, बड़े बाबू’ – मैंने विनम्रता से सच बोल दिया।

चौबे जी रायगढ़ जिले के, जिसमें सारंगढ़ वन परिक्षेत्र कार्यालय भी आता था, डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर थे और मेरे नियुक्त पत्र पर उन्हीं के हस्ताक्षर थे।

बात ऐसी थी कि रायगढ़ डिग्री कालेज में हम दो भाई पढ़ते थे। पढ़ने में ठीकठाक थे। पढ़ते हुए हमारी आर्थिक दुर्दशा लगभग सभी प्रोफेसरों को मालूम थी। एक भले मानुस प्रोफेसर ने तरस खा कर हमे चौबे जी से मिलवा दिया। चौबे जी परोपकारी सज्जन थे। शायद उन्होंने भी विद्यार्थी जीवन में तकलीफें झेली थीं। एक साल तक  उन्होंने कुछ पैसों से हमारी मदद की, पर हम दोनों भाइयों का एक साथ पढ़ाई जारी रखना आर्थिक रूप से कठिन हो रहा था। मुझे टेम्परेरी फॉरेस्ट गार्ड की नौकरी देने का प्रस्ताव चौबे जी की ओर से आया था। उसे स्वीकार कर लेने में ही समझदारी थी। प्लान यह था कि एक साल मैं नौकरी करूंगा तब तक भाई की पढ़ाई पूरी हो जाएगी। फिर अगले साल मैं वापस कॉलेज चला जाऊंगा सो मैंने कॉलेज से ड्रॉप ले लिया। माता-पिता ने राहत की सांस भरी और मैंने भी। अपनी बदहाली से मैं तंग आ चुका था। पर यह सब बड़े बाबू को बताने की इच्छा नहीं हुई।

बड़े बाबू की दुनियादार आखों ने मुझे गहरी दृष्टि से देखा, फिर कुछ नहीं कहा।

मेरे इस अस्वीकरण के बावजूद मैंने देखा कि रेंज ऑफिसर से लेकर कार्यालय में आने-जाने वाला हर छोटा-बड़ा अधिकारी मुझसे बहुत अच्छी तरह पेश आता था। संभवतः सजातीय चौबे जी से मेरी किसी न किसी तरह की रिश्तेदारी है, इस बात का गहरा शक सभी को हो गया था। शायद एक टेम्परेरी फॉरेस्ट गार्ड को जंगल की जगह ऑफिस में नियुक्ति मिलना साधारण बात नहीं थी।

बहरहाल, अब बड़े बाबू रोज सुबह मुझे अर्ध निमीलित नेत्रों से देखते हुए दो या तीन शासकीय पत्रों का डिक्टेशन देने लगे। मेरा काम था सुंदर हस्ताक्षरों में उन्हें चार या आठ प्रतियों में, जैसा भी निर्देश होता था, लिखना। दफ्तर में काम कुछ खास नहीं था। वैसे भी मेरे अलावा पूरे दिन कोई और आदमी काम करता हुआ दिखता नहीं था। पर मुझे कोई शिकायत नहीं थी। ठीक पांच बजे मैं घर रवाना कर दिया जाता था।

एक दिन अल्ल सुबह मेरा ‘कंपाउंडिंग’ नामक रहस्यमय शब्द से सामना हुआ ।

बड़े बाबू ने उस दिन सुबह-सुबह मुझे आदेश दिया- ‘सामने वाली अलमारी खोलो।’

अलमारी के अंदर ढेर सारी फाइलें लाल फीतों में बंधी हुई थीं। उनपर धूल की एक महीन चादर लिपटी हुई थी।

मैने बड़े बाबू की ओर देखा और सारी फाइलें निकालकर उनकी टेबल पर रख दी। बड़े बाबू बहुत अप्रसन्न हुए- ‘यहां नहीं, उधर।’

शायद विधवा की मांग की तरह सदैव सूनी रहने वाली अपनी टेबल पर यकायक इतने सारे कागज देख कर वे विचलित हो गए थे। वह छोटे बाबू की खाली टेबल की तरफ इशारा कर रहे थे। मैंने आज्ञा पालन किया। तब बड़े बाबू ने मुझे वापस अपने सिंहासन के सामने बुलाया, मेज की एक ड्रॉअर से एक फाइल निकाली और उसके आखिरी पेज पर उंगली रखकर मुझे हिदायत दी- ‘ये चार लाइनें अब तुम उन सभी फाइलों के सबसे पहले पेज पर कॉपी करो।’

फिर पन्ना पलटकर एक और जगह उन्होंने उंगली रखी और बताया कि इतनी-सी जगह खाली रखना, यहां रेंज ऑफिसर के हस्ताक्षर होंगे। वह फाइल भी उन्होंने मुझे पकड़ा दी। उनकी टेबल पूर्ववत सूनी हो गई।

इसके बाद वह चुप हो गए। उनकी चुप्पी और ‘मुगल-ए-आजम’ के बादशाह अकबर के ‘तखलिया’ में कोई फर्क नहीं था। आगे कुछ पूछने की गुंजाइश नहीं थी।

मैं वापस आकर छोटे बाबू की टेबल पर रखे फाइलों के ढेर के सामने एक रास्ता भूले मुसाफिर की तरह बैठ गया। समझ में कुछ नहीं आया था। बड़े बाबू ने मुझे कनखियों से देखा और दयार्द्र होकर एक लंबा प्रवचन प्रारंभ किया-

‘ये सारे प्रकरण बरमकेला के सहायक रेंज ऑफिसर ने यहां भेजे हैं। जब भी उनके क्षेत्र में कोई फॉरेस्ट गार्ड किसी को अवैध कटाई करते हुए पकड़ता है तो पहले एक प्रारंभिक रिपोर्ट बनाई जाती है और शासन को इस कटाई से कितना नुकसान हुआ, उसका आकलन कर पूरा एक प्रकरण बनाया जाता है। इस तरह के सारे प्रकरण आगे की कार्रवाई के लिए हमारे ऑफिस भेज दिए जाते हैं। तुम्हारे सामने ऐसे ही लगभग…’ यहां पर बड़े बाबू अचानक ठिठक गए। एक पल के लिए वे समाधि में गए, फिर शीघ्र वापस आकर कहा- ‘ऐसे लगभग 400 प्रकरण हैं। अब हमारा विभाग चाहे तो इनके आधार पर थाने में एफआईआर करवा सकता है या फिर इन आदिवासियों के ऊपर जुर्माना, जिसे हम लोग कम्पाउंडिंग कहते हैं, लगाकर मामला खत्म किया जा सकता है। जहां तक पुलिस वाली बात है, बेकार है, वे साले हमारी कोई मदद नहीं करते। हम उनके पास जाते ही नहीं हैं।’

 

मेरी उपस्थिति में बड़े बाबू द्वारा की गई यह अब तक की सबसे लंबी वार्ता थी। इसके बाद जब तक मैं दफ्तर में रहा, उन्हें कभी इतनी देर तक बोलते हुए देखने का सौभाग्य नहीं मिला। मेरे ज्ञान में वृद्धि हुई। लेकिन एक मूलभूत शंका अभी भी बाकी थी।

बड़े बाबू, जुर्माने की गणना किस तरह से की जाती है?’ मैंने बहुत विनम्रता से पूछा।

गांधार शैली के बुद्धों के चेहरों पर जो हल्का स्मित भाव छाया रहता है, वैसा ही कुछ बड़े बाबू के चेहरे पर प्रकट हुआ। बहुत धीरेसे उन्होंने सलाह दीजो तुम्हारे मन में आए वह लिख दो।

ऐसा कहकर उन्होंने अखबार उठा लिया। स्पष्ट रूप से बादशाह ने दुबारा ‘तखलिया’ कह दिया था!

प्राप्त ज्ञान से सशक्त होकर मैंने सावधानी पूर्वक एक प्रकरण उठाया। सबसे पहले तो उसे साफ करने की जरूरत थी। क्रमशः मैंने देखा कि सारे प्रकरण 1 से 2 साल तक पुराने थे। लगता था कि वे सारे मेरी ही प्रतीक्षा में अलमारी में बंद हो कर तप कर रहे थे।

पहला प्रकरण किसी समारू वल्द बलि राम, उम्र 35, साकिन वनग्राम डीपाडी का था। हुआ यूं था कि एक शाम समारू को सरकारी जंगल में लकड़ी काटते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया था, ऐसा बरमकेला के रिजर्व फॉरेस्ट के एक कर्तव्यनिष्ठ नाका साहब यानी फॉरेस्ट गार्ड ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था। समारू का अपराध गंभीर था। उसने शासन के स्वामित्व वाले दो कीमती पेड़ों को जलाऊ लकड़ी के लिए काटा था। प्रकरण पर आगे एक दूसरे कर्तव्यप्रिय फॉरेस्टर ने कुछ गणनाएं करते हुए एक टेक्निकल टिप्पणी लिखी थी जिसका सरल भाषा में सार यह था कि इस अपराध से शासन की तीन सौ रुपए की भारी क्षति हुई और इसलिए रेंजर साहब इसपर समुचित कम्पाउंडिंग का निर्देश दें।

प्रकरण की इबारत यहां समाप्त हो गई।

अब मुझे तय करना था कि इस आपराधिक कार्य पर कितना दंड लगाया जाए। मैंने मार्गदर्शन की इच्छा के साथ बड़े बाबू की ओर पुनः देखा। बड़े बाबू अपने श्वेत वस्त्रों में सुसज्जित किसी ध्यानस्थ बगुले की तरह खिड़की के बाहर एकटक देखे जा रहे थे। उनके सामने अखबार खुला रखा था। उधर से निराश होकर मैंने प्रकरण पर दोबारा नजर डाली और अचानक मेरे मन में एक आवाज आई- छह सौ रुपए! ऐसा विचार आते ही मैंने उत्साह से उस प्रकरण पर छह सौ रुपए का दंड- जिसे हमारा विभाग ‘कम्पाउंडिंग’ कहता है- लगा दिया।

बस, इसके बाद मानो मेरी झिझक का बांध टूट गया। फुर्ती से हर प्रकरण पर बड़े बाबू की बताई हुई चार लाइनें चस्पां करते हुए मैं हर जगह शासन को हुए नुकसान का सीधे-सीधे दुगना जुर्माना लिखने लगा। शाम होते-होते मैंने लगभग तीस प्रकरणों में कार्यवाई पूरी कर ली। ऑफिस बंद होने पर घर जाते समय मन में एक संतुष्टि का भाव जागा। मुझे लगा मैं अब एक समर्पित और वफादार कर्मचारी की तरह शासन के नमक का हक अदा कर रहा हूँ।

लगभग दो-तीन माह सुबह से शाम तक इसी तरह मैं प्रकरणों को तेजी से निपटाता रहा।

एक दिन ऑफिस पहुंचते ही बड़े बाबू ने मुझे संबोधित किया- ‘इनसे मिलो, ये समता सिंह साहब हैं।’

मेरे सामने बड़े बाबू की बगल में कुर्सी पर एक काफी लंबे-चौड़े सज्जन बैठे हुए थे। वन विभाग की वर्दी उनके विशालकाय शरीर पर फिट नहीं बैठ रही थी। पतलून पर एक चौड़ी बेल्ट बंधी होने के बावजूद स्पष्ट लग रहा था कि उनके खड़े होने पर शायद पतलून अपनी जगह रुक नहीं पाएगी। समता सिंह के चेहरे पर एक सरल मुस्कराहट मौजूद थी। वे उठकर मेरी ओर आए और हाथ मिलाया- ‘अच्छा तो आप हैं नए बाबू! आपने ही तो मेरे क्षेत्र के सारे पुराने प्रकरणों का निपटारा किया है।’

सिर्फ इस बात से कि बड़े से वन विभाग का कोई बड़ा अधिकारी मुझ जैसे एक अदने टेम्परेरी फॉरेस्ट गार्ड को ‘बाबू’ का सम्मानजनक संबोधन दे रहा है, मैं फूलकर कुप्पा हो गया। समता सिंह ने प्रसन्नता पूर्वक मुझे बताया- ‘छोटे बाबू, आपने अपना काम तो पूरा कर लिया। अब मेरा काम देखिए। मैंने वसूली करना चालू कर दिया है। बहुत जल्दी आप सबको अच्छे नतीजे दिखने लगेंगे।

अचानक उनकी बात काट कर बड़े बाबू ने पूछा- ‘अरे, तो समारू के पुलिस वाले मामले में आगे क्या हुआ?’ समता सिंह कुछ नाखुश दिखे- ‘कुछ हुआ नहीं ज्यादा, बड़े बाबू! मैंने फिर मामला सलटा दिया।’

इस वार्तालाप में मुझे अचानक रुचि उत्पन्न हुई – ‘समारू वल्द बलिराम साकिन डोपाडीह?’ -मैं कुतूहल से पूछ बैठा।

‘हां… हां… वही’- समता सिंह ने आश्चर्य से पूछा- ‘लेकिन बाबू, आप उसको कैसे जानते हैं?’

‘जी, मैं तो उसको नहीं जानता।’ मैंने लगभग माफी मागने के अंदाज में कहा- ‘लेकिन वह कम्पाउंडिंग का मेरा पहला प्रकरण था, इसलिए याद रह गया। पर उसको हुआ क्या? आप क्या बात कर रहे थे?’

समता सिंह हँसने लगे- ‘ज्यादा कुछ नहीं हुआ बाबू जी, ज्यादा कुछ नहीं। वह साला छह सौ रुपए कंपाउंडिंग के नहीं दे रहा था। कहता था कि वह एक मामूली लकड़हारा है। इतना पैसा उसके पास कहां से आएगा। मैंने पहले उससे बहुत प्यार से बात की, समझाया-बुझाया, पर वह समझ ही नहीं रहा था। बाबू जी, ये गोंड-गंवार हैं। आखिर एक दिन मेरे गार्ड ने और मैंने उसे बांधकर पेड़ से उल्टा लटका दिया, फिर उसकी अच्छी खातिरदारी की। अब साला हुआ क्या कि थोड़ी चढ़ाई हुई थी हमने, बहक गए। जरा जोर का हाथ लग गया। साले की कलाई टूट गई। रोने लगा औरतों-सा, जोर-जोर से। फिर किसी हरामी गांव वाले ने चुपचाप जाकर थाने में शिकायत कर दी। बस इतना ही हुआ।’

यह सुनते-सुनते मेरे मन में कुछ-कुछ होने लगा। मुझे अपनी आखों के आगे समारू यानी मेरा पहला कम्पाउंडिंग प्रकरण, जिसे मैंने कभी देखा ही नहीं था, पेड़ से उल्टा लटका हुआ दिखने लगा। ऐसा लगा मानो मेरे ही सामने समता सिंह एक दुबले-पतले काले से गोंड लकड़हारे को उल्टा लटकाकर अपने चौड़े बेल्ट से मारते हुए बार-बार कह रहे हैं- ‘बाबू ने छह सौ रुपए लिखा है कागज पर, निकाल छह सौ रुपए!’

मैंने बेचैनी से कुर्सी पर अपना पहलू बदला। सत्तर का दशक था। एक टेम्परेरी फॉरेस्ट गार्ड के रूप में मेरा मासिक बेतन डेढ़ सौ रुपए ही बनता था। मगर बिना सोचे समझे मैंने एक गोंड आदिवासी पर छह सौ रुपए का जुर्माना लगा दिया था जो मेरी चार महीने की तनख्वाह के बराबर था!

मरी-मरी सी आवाज में मैंने समता सिंह से पूछा, ‘फिर क्या हुआ, पैसा दे दिया उसने?’

‘अरे बाबू, कैसे दे देगा वह पैसे!’ समता सिंह ने लापरवाही से कहा- ‘एक मामूली लकड़हारा है। रोज हाट में जाकर चार-छह रुपए की जलाऊ लकड़ी का बंडल बेचता है। उसके पास छह सौ आएगा कहां से? पर मैं भी क्या करूं, मैं तो सरकारी नौकर हूँ। सरकारी खजाने के लिए वसूली करना मेरा काम है। मैंने की कोशिश, काफी कोशिश की, पर बताऊं आपको, आखिर में पैसा गया मेरी ही जेब से! थोड़ा पुलिस वालों को देना पड़ा मामला रफा-दफा करने के लिए, फिर कुछ उसके इलाज के लिए डॉक्टर को देना पड़ा। फिर मामला ठंडा रखने के लिए उसके गांव के मुखिया को कुछ देना पड़ा। साला, मिला कुछ नहीं पर क्या करें। दुनिया ही ऐसी है!’ समता सिंह ने बड़ी दार्शनिक मुद्रा में कहानी का अंत किया।

मैं थोड़ी देर सन्न हो कर बैठा रहा। यह सही था कि कम्पाउंडिंग की आधी-अधूरी शिक्षा मुझे आदरणीय बड़े बाबू ने दी थी और मेरे प्रकरण पर हस्ताक्षर रेंज ऑफिसर के थे। लेकिन सही यह भी था कि प्रकरण पर छह सौ रुपए जुर्माना लिखने वाली कलम मेरी थी। मन में भयंकर अपराधबोध ने जन्म लिया। उस दिन घर जाते समय मेरी चाल थोड़ी धीमी थी।

उस रात मुझे एक सपना आया।

सपने में मैं किसी मध्ययुगीन अंग्रेजी किले जैसी इमारत में जल्लाद के लाल कपड़े पहने खड़ा था। मेरे हाथों में एक विशालकाय तेज धार वाला कुल्हाड़ा था। मेरे ठीक पीछे कठोर राजसी मुद्रा में बड़े बाबू खड़े थे। मेरे सामने मेरा पहला कम्पाउंडिंग प्रकरण यानी समारू गोंड वल्द बलिराम सकिन डीपीडीह, जो अपने परिवार का पेट भरने के लिए जलाऊ लकड़ियां चुराता था, वह घुटनों के बल बैठा हुआ लकड़ी के एक चौड़े खंड पर अपनी पतली काली गर्दन टिका कर मेरे भीषण कुल्हाड़े के गिरने का इंतजार कर रहा था!

मेरी नींद खुल गई। मैं परेशान होकर सोचने लगा, अभी तो कॉलेज वापस जाने में नौ महीने बचे हैं!

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