मैं बन्द करती हूँ अपनी आँखें और मृत हो जाता है यह संसार
मैं उठाती हूँ अपनी पलकें और सब लौट जाता है फिर एक बार
(सोचती हूँ, तुम्हें गढ़ा हैं मैंने अपने जेहन में)

तारे होते हैं नृत्यरत आसमानी और लाल
और अनियंत्रित अन्धकार लेकर आता है रफ़्तार
मैं बन्द करती हूँ अपनी आँखें और मृत हो जाता है यह संसार

देखा है यह स्वप्न कि सम्मोहित कर मुझे तुमने लिटाया है सेज पर
और गीतों से कर मंत्रमुग्ध, चूमा है बेसुध
(सोचती हूँ, तुम्हें गढ़ा हैं मैंने अपने जेहन में)

आसमां से ईश्वर होता है निरस्त, बुझ जाती है आग नर्क की
फरिश्ते और शैतान, मिट जाता है सबका आकार
मैं बन्द करती हूँ अपनी आँखें और मृत हो जाता है यह संसार

सोचती थी लौटोगे तुम कभी, जैसा कह कर गए थे
लेकिन बढ़ती उम्र के साथ भूलती हूँ तुम्हारा नाम
(सोचती हूँ, तुम्हें गढ़ा हैं मैंने अपने जेहन में)

इससे तो बेहतर था कि मैं चुनती पपीहे का प्यार
जब आता बसन्त तो वह मुझे फिर से लेता पुकार
मैं बन्द करती हूँ अपनी आँखें और मृत हो जाता है यह संसार
( सोचती हूँ, तुम्हें गढ़ा हैं मैंने अपने जेहन में )

कवि : सिल्विया प्लाथ
अनुवाद : रश्मि भारद्वाज
कविता पाठ : संध्या नवोदिता 
ध्वनि संयोजन : अनुपमा ऋतु 
दृश्य संयोजन-सम्पादन : उपमा ऋचा 
प्रस्तुति : वागर्थ, भारतीय भाषा पारिषद कोलकाता