चार कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह और आलोचना पुस्तक ‘कविता का जनपक्ष‘ प्रकाशित। जयपुर में रहकर स्वतंत्र लेखन।
कविताएं कविताओं पर लदी हुई हैं
बुकशेल्फ में सजी हुई हैं
पोखर में काई की तरह हैं मौजूद
नदी में बहती नाव के तले में चिपकी हैं
समुद्र में तरह-तरह के बैक्टीरिया और
जलचरों की देह पर चमचमाती
किसी डंपयार्ड में इकट्ठे कूड़े के ऊपर
आसमान में चील-सी उड़ती हैं
राजधानी में पराली की धुंध बनकर छा जातीं
कविताएं भुने हुए चने की तरह हैं, चखना हैं
अंग्रेजी शराब का नशा है
खेतों में आलू हैं
चौपायों में भेड़ हैं
अखबार के दफ्तर में बन जाती हैं पत्रकार
साहित्यिक पत्रिकाओं में
पुस्तैनी आलोचकों का रूप धरती हैं
पुरस्काीर बन जाती हैं अकादमियों में
किसी सेठ के न्यास में हड्डी का बचा हुआ मांस
गरीब गुरबों के लिए हैं एक बीड़ी का धुआं
शिकारियों के लिए तड़पता शिकार और
मनचलों के लिए असुरक्षित मादा
पीड़ितों के सीने में फांस की तरह करकती हैं
स्त्रियों के लिए कविताएं, जूठे बर्तन, मैले कपड़े
गीला पोंछा, बच्चों का बस्ता
और पति का टिफिन होती हैं
कविताएं पेड़ की आड़ से झांकती हैं
सियारों-सी हूकती हैं
कूकरों-सा विलाप करती हैं
काठ की हांड़ी में पकती हैं
कर्मकांडी ब्राह्मणों के पोथे में बंद हैं कविताएं
यूं सदियों से गाई जाती हैं
विद्यापति, केशव, तुलसी, कबीर,मीरा बन
हृदय की हूक और आंख की नमी बन
हमारे आर-पार हो जाती हैं कविताएं और
हम किसी बागड़ी से बैठे खांसते रहते हैं|
बहुत ख़ूब
बहुत सुंदर कविता
अच्छी रचना, सामयिक अभिव्यक्ति
पद्मा मिश्रा जमशेदपुर झारखंड
सुंदर
साधु साधु
Good poetry with intensive expressions.
अच्छी कविता. ग़रीब की फांस समझ नहीं आया
अच्छी सच्ची कविता झूठ का तिलिस्म तोड़ती
साहित्य के इलाके में पनपते छद्म पर भी वार करती।