कवि, चित्रकार, वास्तुकार। अद्यतन कविता संग्रह् ‘सुरंग में लड़की’।
अंदर की दुनिया में बेआवाज़ बहुत बोलते हैं हम
अक्सर मैं अवकाश या बिना अवकाश के समय भी
अपने अतीत से बातें करता हूँ
वहाँ अब मुझे वह कौआ कहीं दिखाई नहीं देता
जो दो खंभों के बीच
झूलती हाईवोल्टेज मौत को पंजों से जकड़
निर्भीक उस पर चोंच रगड़ता था
‘इग्नोरेंस इज़ ब्लिस’ को चरितार्थ करता
वह इन दिनों स्मृति से भी
उड़ान भरने के लिए फड़फड़ा रहा है
बिजली के उसी तार पर मेरे बालपन में
कौओं की मीटिंगें हुआ करती थीं
काँव- काँव के कड़वे विवाद होते थे
जैसे इन दिनों संसद में होते हैं
वह संसद टीवी और समाचारपत्रों में से बाहर निकल
पगडंडियों, महामार्गों, गलियों, गलियारों, अट्टालिकाओं
मलिन बस्तियों सबको झिंझोड़ देती है
जैसे यहाँ, तब वहाँ
मीटिंग में बोलने का अधिकार था
विराम, अल्पविराम के बिना
बोलते जाने की परंपरा थी
बोलते थे
सुनने की वैसी कोई परंपरा नहीं थी
सुनते किसलिए?
बोलते-बोलते एकाएक
किसी कौवे के पर फड़फड़ा कर बहिर्गमन करते ही
सारे तत्काल कर जाते थे
मीटिंग अनिश्चित काल के लिए स्थगित
अब न वह मीटिंग कहीं
न अकेला कोई कौआ
बिजली के तार सूने हैं
कौवे इन दिनों देश से बाहर निकल गए हैं
संभव है दुनिया से भी
वे कहीं हमारे पुरखों के साथ होंगे
उनके भूखे शरीरों पर हमारी चिंता
उन तक हरकारों की तरह पहुँचाते
और धीरज बँधाते कि
पिंडदान का दिन जल्दी आएगा
यह मेरी कामनापूर्ण कल्पना है
वैसे किसे पता, वहाँ गए ही न हों
यदि यह सच हो
तो पुरखे असहाय भूखे तड़प रहे होंगे
कौवे वहाँ भी नहीं
और कौवे अब यहाँ भी नहीं
इन दिनों मेरी खिड़की से बाहर
मिट्ठुओं का हरापन
हवा से उतर आँगन में नहीं आता
मेरे बचपन ने बहुत देखा था हरापन
वह पिंजड़ों से भी बाहर कहीं निकल गया है
अमरूद के दो वृक्ष आँगन में
उस हरेपन के इंतज़ार में खड़े हैं कबसे
उदास-उदास, थके-थके
अमरूदों की गंध अब
मिट्ठुओं तक नहीं पहुँचती
इलाहाबादी हों कि मलीहाबादी
सब बदल गया है
बस थोड़ा सा
ताड़पत्रों पर लिखी
घिसती जा रही पांडुलिपि की तरह शेष है
सदी की आपाधापी के झंझावात नियम से आते हैं
और बहुत कुछ मिटा कर चले जाते हैं
मैं भयभीत हूँ
कि ‘आज’ अपने ताप से कहीं
‘कल’ को पूरा गला न डाले
मैं कभी अतीत हो जाता हूँ कभी वर्तमान
किस पल क्या होऊँगा मुझे नहीं पता
मेरे समयांशों पर
अतीत या वर्तमान अकस्मात ही लिखा जाता है
मैं उलझ जाता हूँ
चक्रव्यूह से निकल भी आता हूँ किसी तरह
किंतु उस रवानगी से वापसी में
मेरी इच्छा कहीं नहीं होती
मैं अवश हूँ
वर्तमान अक्सर भूत का कोई अवतार लगता है
बहुत कुछ बदल जाने पर भी
बदले हुए के अंदर रह जाता है
तलछट की तरह बहुत कुछ अनबदला
एक किताब सामने खुल-बंद हो रही है
पृष्ठ जल रहे हैं
‘जिन्हें ज़ुर्म – ए-इश्क पै नाज़ था’
इस समय मैं वर्तमान में हूँ या अतीत में
पता नहीं
दोनों परस्पर घुले हुए हैं
जबकि दीर्घ अंतराल में
बहुत अलग हो जाना चाहिए था उन्हें
नहीं हुए
पृष्ठों से रक्त पैंसठ-सत्तर साल से टपक रहा है
शायद उससे भी पहले से, मुझे नहीं पता
मैं तब नहीं था
सन पचास वाले काले दिन
मेरे कस्बे का छोटा गाँधी
रक्तरजित दंगों की आग बुझाने निकला था
पुराने शहर की बस्तियों में
उसकी लहूलुहान काया
ताँगे से उतरी मेरे सामने
मैं धूल में कंचों से खेल रहा था
मुझे ऐसे खेलों के बारे में
तब कुछ भी मालूम नहीं था
जिनमें रक्त निकलता है
उसकी गर्दन के पिछले भाग में
नफ़रत का गंडासा गड़ा था,
आज और कल गड्डमड्ड हैं
हम कल कहीं खड़े थे ऐसी जग़ह
जहाँ हमें नहीं होना था
आज और भी आगे निकल
उस आकाश में चले गए हैं
जहाँ श्वेत कपोतों की उड़ानें निषिद्ध हैं
और बुद्ध के लिए ज़गह नहीं है
मैं अँधेरे कमरे में हूँ
एक पीला पड़ा बच्चा पलंग पर है कंबल के नीचे
पिता-माता खड़े हैं,
चिंतित मुद्रा में दाढी और काले कोट वाला डाक्टर भी
सब चेहरों पर किसी आसन्न दुर्घटना की छाया
और अंतिम प्रयासों की बैसाखी पर टिकी बहुत छोटी सी आशा
मौत से पराजित होने जा रहे वे सब
फिर भी पीले लैम्प की बहुत धुंधली रोशनी
कमरे के अँधेरे से लड़ रही है
जिस तरह शायद बालक नीम बेहोशी में लड़ रहा है
पता नहीं, उनमें से कितने हार चुके
कितने हार-जीत में पैण्डुलम-से झूल रहे हैं
नहीं, अँधेरे कमरे में मैं नहीं था
वह अपने आप आसपास धीरे-धीरे खड़ा हो गया
मैं अँधेरे में उसी तरह घिर गया
जिस तरह वे चार,
कई वर्षों के अंतराल में
उस कमरे में फिर आया हूँ
जिसमें बार-बार कभी मैं ‘कलाभवन’ में
उस कमरे की उदासी को
कैनवास पर उतारने जाता रहा था
अंतत: उदासी कैनवास पर उतर
शहर के नामी चिकित्सक के अस्पताल जाकर
दीवार पर टंग गई थी
स्मृतियों के कुएँ में कबसे पड़ी उदासी
विदेशी धरती पर उभर आई आज
लंदन… ‘टेट आर्ट गैलेरी’
वही माता, वही पिता, वही बालक
वही डाक्टर और… वही गहन उदासी
तीन गुना पाँच इंच के जिस अँधेरे कमरे को
पुस्तक के पृष्ठ पर देखा था
अकस्मात सामने पूरे आकार में आ गया
मैं दो भागों में कटा हुआ
एक ही समय आधा भूत में
उतना ही वर्तमान में
मुझे लगता है
स्मृतियाँ यदि मर जाएँ
उनका समाधि-लेख कुछ ऐसा होगा
‘यहाँ स्मृतियाँ सो रहीं हैं
स्मृतियाँ कभी मरतीं नहीं।
स्मृतियाँ आत्महत्या भी नहीं करतीं।’
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