युवा कवयित्री। कविता संग्रह- ‘मन की खुलती गिरहें’ और ‘आखिरी प्रेम-पत्र’।
जेठ की दोपहरी
किसी हठी बच्चे सा अड़ा मन
दोपहर की तपती धरती पर रखता है पैर
पैर में छाले हैं
मन पहचानने लगा है धरती का ताप
सूरज की गरमी से ज्यादा आग है
धरती के पास
इतनी दाह है लोगों के मन में कि
अक्सर जल उठती है धरती
यहां सर्दियों की सुखद दोपहर संग
जेठ के लू भरे थपेड़े भी हैं
किसान पहचानता है इन दिनों को
सतुआ-पिसान सा उसका मन
हमेशा याद रखता है जीवन में
मौसम की आवाजाही को
इसलिए जमाए रखता है पैर ज़मीन पर
उसका सुच्चा मन चमकता है सोने-सा
सूरज इसी से उधार लेता है उजास
ऋतुएं पहचानती हैं उसका मन
जब तक धरती पर इनका डेरा है
बची रहेंगी सभ्यताएं
क्योंकि किसान न थकता है न हार मानता है
वह धरती के रंग-गंध पहचानता है।
इस घने अंधेरे में
आंखें मूंदते कब रात ढल गई
पता नहीं चलता था
इन दिनों रात का अंधेरा
उतरता ही नहीं मन से
उतरता नहीं काई लगी सीढ़ियों का भय
बरसात में रखती हूँ थाह-थाह कर पैर पृथ्वी पर
यह धरती इतनी बीहड़ कभी नहीं लगी पहले
सन्नाटा चीरते हुए
कान के परदे से भय उतरने लगा है नसों में
उतरता नहीं मन से
बिजलियों की कड़कड़ाहट का भय
कितनी जानें जा चुकी हैं इनके गिरने से
इनके गिरने से जो गिरे थे पेड़
वे फिर कभी नहीं उगेंगे इस धरती पर
वहां खुलेगा गुणा-गणित का कोई केंद्र
मैं अठानवे, निन्यानवे से आगे बढ़ नहीं पाई
उनका सौ का आंकड़ा
हजार से लाख की सीमा तोड़ता गया
इधर लोग उलझे रहे गांव के चकरोट में
उनकी फोरलाइन सड़क
गांव की छाती चीर निकल गई
कितने बचे हैं खेत, बाग, बगीचे
कितनी बची है हमारे बीच की दुनिया
हमारी दुनिया के बिलाने के साथ ही
उगती है उनकी दुनिया
इस दुनिया की चकाचौंध रोशनी से मैं डरती हूँ
छिपा रही हूँ घर के तहखाने में
मां के गीत
पिता के सपने
भाई की लकड़ी की गाड़ी
गिट्टी, चिप्पी, चूड़ी के रंगीन टुकड़े
खेल के वे सामान जो सुलभ थे सबके लिए
घिरते अंधेरे में जलाकर उम्मीद का दीया
सब रख देती हूँ आंगन के ताखे पर
रात यहीं उतरेगा चांद
मैं बलइया लेती उसे चूम लूंगी जी भर
मेरे आंगन में बचा रहे चंद्र खिलौना
कउवा मामा
दूध-भात की लोरी
कि इन दिनों बढ़ते अंधेरे में
सब भागना चाहते हैं छुड़ा कर हाथ
मेरी हथेलियों पर कुछ जुगनू बैठे
लड़ रहे हैं पूरी ताकत से
बबूल की झाड़ ही सही
थोड़ी सी चुभन ही सही
थोड़ी सी जलन ही सही
हम सह लेंगे दर्द की सारी हदें
लड़ते हुए अपने-अपने अंधेरे से।
चुप्पी
एक लंबी चुप्पी जब घर कर ले
और शब्द बेघर हो जाएं
जीवन में जब सब कुछ बेरंग हो
हवा कुछ कह जाती है कान में
आत्मा सुनती है मौन धरे अबोली भाषा
कहीं दूर से उठते रसोई के धुएं सी यादें
सुलगती लकड़ियों-सा प्रेम जब टभकता है
तुम अचानक आकर
टन से बज उठते हो चौखट पर उसी क्षण
जब गहन अंधेरा उतरता है धरती पर
सूरज जब लौट जाता है पहाड़ों के पीछे
धूप सो जाती है नदियों के तलछट में
तुम उसी समय बज उठते हो
जलतरंग की तरह
प्रेम की भाषा के पास शब्द नहीं होते
वह हवा, बादल, पेड़ और पहाड़ों संग
पक्षियों के कलरव में गूंजता है
इन दिनों ढल जाता है जब दिन
तुम्हारी याद का दीया जल उठता है
मध्यम-मध्यम लौ में पकता प्रेम
किसी साधिका-सी साध रही हूँ खुद को
तुम आना तो मौन धरे आना
आजकल चुप्पियों को ओढ़ती बिछाती हूँ
तुम कुछ कहो तो टूटे सन्नाटा
अकेला आदमी बोले भी तो किससे।
दुख
दुख के दिन लंबे थे सुख के छोटे
दुख की रातें लंबी सुख की छोटी
दिन तपते थे जैसे पठारी मैदान
हवा में जैसे घुल गई हो आग
रास्ते खत्म नहीं होते थे
थक कर बैठ जाता था मन
बहुत जलन थी दुनिया में
मन में भी
राख के नीचे दबी थी जो आग
बस उतनी आग बची थी
जलन और आग का रिश्ता ऐसा था
कि हर तरफ आग जलने की धूम थी
लोग आग लगाकर मगन हुए
आग दहका कर हँसे, हिले-मिले
अब आग की खेती है
पानी सूख गया है दिलों का
रात का अंधेरा उतर गया है दिलों में
उजाले ने धरा है मौन।
संपर्क : संस्कार चैनल, एफसी 16, फिल्म सिटी, सेक्टर 16ए, नोएडा, उत्तर प्रदेश 201301