सोसो थाम (1873-1940)
मेघालय की खासी भाषा के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि। नई तरह की कविता लिखने वाले पहले कवि। प्रमुख काव्य–संकलन हैं ‘का दुइतारा क्सियार’, ‘कि स्नगी बा रिम’।
सुनहला अनाज
हम छान मारते हैं पूरी दुनिया प्रकाश की तलाश में
पर अपनी भूमि में छिपे प्रकाश को नहीं जानते
न जाने कितने वर्षों पहले अतीत में
हमारे पुरखों ने रची नई दुनिया
फिर ‘सातों’1 दूर-दूर रहने लगे
अभेद्य अंधकार था सघन
सितारों, सूरज और चंद्रमा के बीच
पहाड़ियों और जंगलों में आत्माएं भटकती रहीं
आदमी और जानवर, बाघ और थ्लेन2
एक ही भाषा बोलते थे
इससे पहले कि भीषण विभीषिका हावी हो जाती
उन्होंने एक सच्चे ईश्वर की पूजा की
उस समय बोली जाने वाली भाषा पूजित थी-
छोटी मुनिया3 का भी सम्मान था
दिया जाता था दाना
भोर से सांझ तक उन्होंने घोर परिश्रम किया
बचाए रखा ज्ञान को गर्भ में4
जहाँ से जीवंत हुईं हमारी महान गाथाएं
और पंख वाली आत्माओं के गीत जन्मे
कुछ लोगों ने संकेत और प्रतीकों में बातें कीं
‘यहीं से’ कुछ ने कहा-
‘थ्लेन अस्तित्व में आया’
‘पाप और वर्जनाएं… बाढ़ कहां से आई?’
‘यहां से’ – वे चीखे… ‘लुम डींगेंई से’5
लेकिन उस एक के बारे में किसी को नहीं था संदेह
कि क्यों उसे कहा गया ‘उ सोहपेत ब्नेंग’6
ईश्वर और पाप तथा सत्य का भी
जैसा कि पुरा-कथाओं में उन्होंने कहा
प्राचीन आवाजें बताती हैं
‘का रिंगाइ’7 की भविष्य-दृष्टि
मानवजाति के बारे में
कुछ तारे जगमग करते हैं बिखरे हुए बगीचों में
शेष गहरे डूब गए हैं जंगलों में
पाप को मिटाने के लिए
जुए को ढोने के लिए
अतीत की पवित्र गुफा8 में
निर्भय लड़ाका मुर्गा9 सीधा खड़ा हो गया
‘मैं ईश्वर के आदेश की प्रतीक्षा में हूँ’
एक नया पंथ जन्मा है
जिसके रीति-रिवाज सम्मानित हैं
‘हिन्यूट्रेप’10 की संतानों द्वारा
मां के दर्द से छलनी हृदय से निकले आंसू
उस अर्थी को ढके हुए हैं जो उसके बेटे की है
उंगलियां बजाती हैं, याद करती हैं वह कहानी11
शानदार मृग की
जंग खाया हुआ गहरा धंसा तीर
धाराधार बहते हुए आंसुओं की बाढ़
कभी जो निशान साफ थे विशाल पत्थरों पर
अपठित पड़े हैं उपेक्षित, जंगली घासों से ढके
जहां कभी बड़े वक्ता, विचारक घोषणा करते थे
ऐसी जुबान में जिसे नहीं जानते थे हम
फिर भी पहाड़ की चोटी पर वीरान और आश्रयी छाया
लकड़ी और पत्थर अभी भी मनुष्य से बातें करते हैं
प्राचीन प्रजाति- खासी और प्नार
पंक्तिबद्ध थे पृथ्वी की बाहों के विस्तार में
छिपी हुई रोशनी पाए जाने की प्रतीक्षा में
मामूली छप्पर और साधारण घरों में
ताकि हम अनावृत्त कर सकें
पीछे धकेल सकें अंधेरे को
अतीत की रोशनी को फिर से जगमगा सकें
चारों ओर पूरी दुनिया में
प्रकाश की तलाश करते हैं हम
फिर भी तिरस्कार करते हैं घर को
जगमगाने वाली रोशनी का
गौरवशाली अतीत का उदय होगा फिर से
जब धुंधलके में छिपी हमारी संधि
प्रकाश का बीज, उसकी तेजस्वी जड़
जो अतीत की गहराई में गहरी धंसी थी
आकाश की कोमल चमक जब देखेंगे चट्टान पर
जब धूप की बौछारें रुक जाएंगी और
काले घने बादल डरकर पीछे हट जाएंगे
आकाश में जैसे उगता है इंद्रधनुष
ईश्वरीय कृपा की मदिरा बरसेगी धाराधार
ओ मेरी सुनहरी कलम
चमका दो चमकीले रंगों से घटाटोप अंधेरे को।
संदर्भ:
1. खासियों के सात मूल पूर्वज।
2. विशालकाय सर्प, जिसने अपने पूजने वालों को धन प्रदान करने का वादा किया था और जिसे मानव-बलि द्वारा प्रसन्न रखा जाता था।
3. मुनिया पक्षी जिसने मनुष्य की सहायता की थी।
4. खासियों का विश्वास है कि उन्होंने एक बहुत बड़ी बाढ़ में अपनी लिपि खो दी थी। उन्होंने सोचा था कि उनकी बहुमूल्य लिपि उनके मुंह में सुरक्षित रहेगी परंतु उन्होंने बाढ़ की उफनती लहरों से संघर्ष के दौरान उसे निगल लिया था ।
5. वह पहाड़ी जिसपर पृथ्वी को ढकने वाला दैत्याकार वृक्ष था जो ईश्वर की नाराजगी का प्रतीक था।
6. स्वर्ग की नाभि।
7. ‘का’ स्त्रीलिंग का प्रतीक होता है। (उसी तरह जैसे ‘ऊ’ पुलिंग का) ‘रेंगाई’ शक्तिशाली प्रेतात्मा आदि के लिए प्रयुक्त होता है और इस प्रकार यहां इसका अर्थ शक्तिशाली स्त्री-शक्ति है।
8. वह पवित्र गुफा जिसमें थैंक्सगिविंग के नृत्य के दौरान हुए अपमान से क्रुद्ध होकर सूर्य छिप गयी थी (खासी संस्कृति में सूर्य को स्त्रीलिंग माना गया है)
9. मुर्गा को खासी संस्कृति का प्रतीक चिह्न माना जाता है।
10. खासी स्वयं को हिन्यूट्रेप अर्थात ‘सात झोपड़ियों की संतान’ मानते हैं।
11. इन पंक्तियों में एक खासी लोककथा ‘ऊ सियर लापालांग’ का संदर्भ है। यह एक हिरनी मां के विलाप का गीत है जिसका एकमात्र पुत्र उसकी बात न मानकर घर से बहुत दूर चला गया था और शिकारी के तीर का शिकार हो गया था
माधवेंद्र, हिंदी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग–793022 मो. 9436163149