गजल लेखन में सक्रिय। गजल, उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि की तीस पुस्तकें प्रकाशित। अद्यतन गजल संग्रह घाट हजारों इस दरिया के

वो किसी प्राइवेट स्कूल से रिटायर हुए अध्यापक थे। उम्र साठ-बासठ, लेकिन तंगदस्ती और तंगहाली ने उन्हें ज्यादा बूढ़ा बना दिया था। उनके दोनों कंधे थोड़ा झुक गए थे, लेकिन जब चलते तो दायां कंधा ज्यादा झुक जाता। दाये कंधे से वो ज्यादा काम लेते रहे हों या फिर यह भी मुमकिन है कि अभावों की गठरी, उन्होंने दायें कंधे पर लादे रखी हो। सिर के आगे के बाल उड़ गए थे। पीछे, घने बाल लेकिन सफेद! अपने बालों में वो इस तरह कंघी करते कि कमीज के कॉलर के पास बाल मुड़-से जाते। उनको देखकर ऐसे लगता जैसे वो कोई शायर हों या फिलासफर! बेशक, वो शायर नहीं थे। लेकिन शायरी का जौक-शौक रखते थे और गाहे-बेगाहे शेर या शेर का मिसरा बोलते रहते। मिसरे वो किसी और को नहीं, अपने आपको सुनाते। अपने भीतर की कशमकश और बाहर की जद्दोजहद को वो अश्आर के जरिए बयान करते। खुद को तसल्ली देने की यह उनकी पुरानी और आजमूदा रविश थी।

उनकी आंखों पर जो चश्मा चढ़ा रहता उसके शीशे मोटे, फ्रेम पुराना और शीशों पर अनेक खरोंचें थीं। ऐसा भी लगता, जब वो कुछ पढ़ने लगते, कि उनको पढ़ने में असुविधा हो रही है। उनके चश्मे का नंबर बदल गया था शायद। लेकिन वो मुद्दतों से उसी चश्मे से काम चला रहे थे। इस चश्मे को वो बड़ी एहतियात के साथ, लोहे की डिबिया में रखते।

उनके कंधे बेशक कुछ झुक-से गए थे, इसके बावजूद, उनका डील-डौल अच्छा था। चौड़ा माथा, लंबा चेहरा, रंग गेहुंआ, चेहरे पर कुछ अदद झुर्रियां, एक मस्सा। मोटी नाक जिसे वो दिन में कई-कई बार छूकर देखते। उनका कद ऊंचा था। जब वो चलते तो ऐसा महसूस होता जैसे कोई मोतबर शख्स, किसी जरूरी काम पर जा रहा है।

लेकिन उनके पास सिर्फ एक जरूरी काम था। वो था, हम दो भाइयों को ट्यूशन पढ़ाना।

बेशक, हम उनसे जरा भी प्रभावित नहीं हुए थे। गुजरे वक्तों का कोई बूढ़ा मास्टर हमें ट्यूशन पढ़ाएगा, ऐसा तो हमने सपने में भी नहीं सोचा था। हम तो मास्टर जी की पोशाक देखकर हँस पड़े थे। मुचड़ी हुई कमीज। मुड़े-तुड़े कालर। कमीज का रंग, बदरंग और वो भी कंधों से चिरती हुई। बटन सात में से चार। एक बटन की जगह बक्सुआ। खाकी रंग की पैंट, जिसके पोंचे खुले, झूलते हुए। जैसे वो पैंट न हो, उतरी लटकी बोरियाेंं के मुंह हों। पैंट की बेतर नदारद। लेकिन वहां नाड़ा था। यहां तक तो ठीक। सिर पर पगड़ी भी थी। वो ट्यूटर कम, पटवारी ज्यादा लगते थे।

पहले दिन जब वो हमें पढ़ाने आए तो हम दोनों भाई उन्हें देख के दंग रह गए। हम अपने मुंह के सामने किताब रखकर देर तक हँसते रहे।

अध्यापक जी हमें भौंचक नजरों से देखते रहे। वो बिलकुल भी नहीं समझ पाए थे कि हम क्यों हँस रहे हैं? और हम उन्हें बता नहीं सकते थे कि हमारी हँसी के क्या कारण हैं? वो हैरानकुन नजरों से हमें देखते रहे और हम उनसे नजरें चुराते रहे।

‘क्यों हँस रहे हो बच्चों, बेवजह हँसना बुरी बात होती है।’ उन्होंने संजीदगी से कहा। एक बार तो ऐसे लगा जैसे हमारे पिता जी बोल रहे हों। वो भी इसी लहजे में बोलते थे।

हमने पहले दिन ही तय कर लिया था कि इस बूढ़े से नहीं पढ़ेंगे। हम उन्हें मास्टर जी के बदले ‘माटर जी’ कहेंगे। हमारे इस संबोधन से वो चिढ़ जाएंगे। खुदखुद चले जाएंगे।

हम हँसते रहे। उन्होंने फिर पूछा तो हमने उस नाड़े की तरफ इशारा किया जो उनकी पतलून में बंधा हुआ था और उसका एक सिरा नीचे की तरफ लटक रहा था।

उन्होंने अपनी पोशाक की तरफ देखा। फीकी-सी हँसी हँसे। उनका जवाब मिसरों में होता। बूढ़े अध्यापक जी ने भी अपने मन की बात इसी तरह व्यक्त की थी। उन्होंने हमारे मखौल का न बुरा माना, न हमें फटकार दी।

हम हँसते-हँसते एकदम चुप हो गए। उन्होंने हमारी तरफ देखते हुए कहा ‘इस उम्र में बच्चे हँसते हुए अच्छे लगते हैं। लेकिन किसी के कपड़ों पर, जूतों पर या किसी की शक्लो-सूरत पर हँसना खराब बात होती है।’ कुछ पल खामोश रहने के बाद उन्होंने अपनी बात पूरी की, ‘कपड़ों को हम इसलिए पहनते हैं कि हम अपनी उरियानी यानी नंगापन छुपा सकें। किसी इंसान के कपड़ों पर हँसने का मतलब है कि हमने उसे बेलिबास ही कर दिया।

उनकी बात बिलकुल ठीक थी, लेकिन ऐसे प्रवचनों से हम ऊबने लगते थे।

हम दोनों भाई पढ़ाई में औसत से भी नीचे थे। अर्थगणित हमें बोर करता और अंग्रेजी के टेंस बनाना हमारे सामने बड़ी मुश्किल खड़ी कर देता। न हमें इतिहास अच्छा लगता न भूगोल। हमने अंग्रेजी कविताओं की कुछ ‘समरियां’ रट रखी थीं, कुछ ऐस्से याद कर लिए थे, कुछ हिंदी कविता के सरलार्थ! औसत बच्चों के बस्ते भारी, दिमाग खाली होता है। हम औसत बच्चे ही तो थे।

पिता जी को हमारी कमजोरियों का इलम था। वो हमारी शिक्षा संबंधी बुनियाद मजबूत करना चाहते थे। हमारे लिए कोई संजीदा मास्टर साहब ढूंढ़ना चाहते थे जो हमें सारे विषय पढ़ाए, खास तौर से मेथेमेटिक्स!

कुछ दिन की दौड़ धूप के बाद उन्हें एक मास्टर साहब मिल भी गए। जो हमारे पिता की तरह विस्थापित थे। पाकिस्तान की तक्सीम के बाद, इधर इस शहर में आकर बस गए थे।

अध्यापक जी हमेशा संजीदा रहते। उनकी संजीदगी हमें मनहूस लगती। हम चाहते थे कोई ऐसा ट्यूटर हो जो हमें पढ़ाते वक्त हँसी-ठठा भी करता रहे। लेकिन अध्यापक जी के पास हँसी-मखौल नाम की कोई चीज ही नहीं थी। वो उदास-उदास से नजर आते। ऐसे लगता जैसे वो अभी-अभी किसी हादसे से टकराए हैं और फिर हमें पढ़ाने चले आए हैं।

वो बंटवारे की त्रासदी को झेलते, विस्थापन को छुपाते, दरिद्रता से लड़ते-लड़ाते हमें पढ़ाने के लिए आ जाते। दरवाजे पर ठिठकते। खखारते। सांकल बजाते। रुकते। फिर चलते। फिर जूतों की गर्द झाड़ते। ड्योढ़ी पर आकर ठिठक जाते। एक आवाज-सी गूंजती- ‘नमस्ते जी!’ कोई सामने होता या न होता उनकी ‘नमस्ते जी’ की आवाज जरूर सुनाई पड़ती। जैसे इस घर के बाशिंदों को ही नहीं, दीवारों, किवाड़ों, छतों, खिड़कियों से भी नमस्ते कर रहे हों।

ट्यूशन गर्मियों की छुट्टियों के दौरान शुरू की गई। सड़ा देने वाली गर्मी। जिस्म गर्मी से बेचैन। लू से बेहाल। प्यास के मारे जी हलकान होता। लेकिन हम जिस कमरे में बैठकर ट्यूशन पढ़ते, वहां पंखा ही नहीं था।

अध्यापक जी आते। कमरे के बाहर ठिठकते। दहलीज लांघते। कमरे में बिछी चारपाई पर बैठते। वो पसीने से तरबतर होते। उनके माथे से, नाक से, गर्दन और ऐनक के पीछे से पसीना चू रहा होता। वो थोड़ासा सुस्ताते। जैसे थक गए होंं, जैसे अपने जिस्म से थकान की कैफियत पूछ रहे हों। फिर पगड़ी उतारकर, चारपाई के एक सिरे पर रखते। रखने से पहले, पगड़ी के साफे से अपने चेहरे पर उतर आए पसीने को पोंछते।

कभी-कभी वो जर्रीवाले ‘कूहले’ के साथ पगड़ी बांध कर आते। उस दिन वो अध्यापक जी नहीं, कोई हेडमास्टर साहब लगते। बेशक जर्रीवाला कुहला भी उनकी तरह खस्ताहाल था। पुरानी चीजों से चिपके रहना, बूढ़े लोगों का महज शगल ही नहीं होता, मजबूरी भी होती है। लेकिन हम इस बात को नहीं समझते थे।

हमारे घर में फ्रिज नहीं था। कोरे घड़े का पानी हम सब पीते। घड़े की ‘छूनी’ पर छोटा-सा जस्ती का जग पड़ा रहता। हम उसे भरते। ओक से पानी पीते। पानी में सौंधी-सी खुशबू भी महसूस होती। मिट्टी और पानी के रिश्ते का तब हमें बिलकुल भी पता नहीं था। लेकिन वो रिश्ता तो अजल (आदिकाल) से था।

हम अध्यापक जी के लिए पानी का एक गिलास आले में रख देते। अध्यापक जी पानी का गिलास उठाते। उन्हें बहुत प्यास लग रही होती। लेकिन वो उसी पानी को थोड़ा-थोड़ा पीते रहते। दूसरा गिलास पानी का उन्होंने कभी नहीं मांगा था। इतना ही नहीं, कई बार हम पानी का गिलास रखना भूल जाते या जानबूझकर गिलास रखना टाल जाते।

लेकिन अध्यापक जी ने कभी नहीं कहा था कि बच्चों पानी का गिलास ले आओ। वो प्यास से बेहद व्याकुल हो रहे होते, लेकिन पानी मांगना उन्हें अच्छा न लगता। यह उनका स्वाभिमान था। उनका स्वाभिमान भी उनकी तरह पक चुका था। ऐसा लगता था जैसे अपनी शिद्दत की प्यास के साथ शतरंज खेल रहे हों। उन्हें देखकर लगता जैसे हर पल वो अपनी मुश्किलों के साथ कोई ‘टूरनामेंट’ खेल रहे हैं। हमें सवाल देकर वो फारसी में गुनगुनाते-से प्रतीत होते- मुश्किले-जीस्त के आसां न शबद! यानी, जिंदगी की ऐसी कौन-सी मुश्किल है, जिसका हल न खोजा जाए।

वो प्यास की शिद्दत से व्याकुल हो रहे होते। पानी न मांगते। मांगना शब्द उन्हें अच्छा न लगता, चाहे वो पानी ही क्यों न हो। वो अपनी प्यास से लड़ने के हथियार अपने साथ रखते। नहीं, हथियार नहीं, उपकरण। नहीं, उपकरण भी नहीं, कुछ देसी किस्म के टोटके। कभी छोटी इलाइची मुंह में रख लेते, कभी मिश्री की डली। कभी नैमनचूस या संतरेवाली गोली जो चार आने की बीस मिलती थी, अपनी जेब में रखते। जेब से निकालते और मुंह में रखकर धीरे-धीरे किसी बच्चे की मानिंद चूसते रहते।

कभी-कभी जब हम सवाल ठीक निकाल लेते या बिना स्पेलिंग मिस्टेक के समरी या ऐस्से लिख कर उन्हें दिखाते तो वो बतौर शाबासी, हमें भी एक-एक संतरेवाली गोली देते।

संतरेवाली गोली को चूसते हुए बूढ़े अध्यापक जी कुछ विचित्र से प्रतीत होते। लेकिन उनमें न दिखावा था न छल! न तृष्णा न मृगतृष्णा। वो अपने जीवनकाल में हजारों अनुभव हासिल कर चुके थे। उन्हें अपनी दरिद्रता को छुपाने की कला का ज्ञान था और दरिद्रता को जीवनशैली बनाकर जीने का हुनर भी।

कमरे में बिजली का पंखा नहीं था। हाथ से झलनेवाला पंखा हम चारपाई पर रख देते। कई बार पंखा बहुत कमजोर होता। उसकी डंडी पतली नाजुक और चुभती हुई। लेकिन अध्यापक जी इससे हवा पैदा करते।

हम दोनों भाई मिलकर अध्यापक जी को जमकर तंग करते। कभी पानी का गिलास न रखते तो कभी ऐसा पंखा रखते जो लगभग टूट चुका होता। हमारे सवाल गलत होते तो हम शर्मसार होने के बजाय खिड़खिड़कर हँसते। पता नहीं, अध्यापक जी किस मिट्टी के बने थे कि सब सहन करते रहते।

अध्यापक जी हमें सब विषय पढ़ाते। गणित पढ़ाते हुए उनका चेहरा सख्त और तना हुआ हो जाता। एक दिन लाभ-हानि के सवाल समझाते हुए पता नहीं क्या सोचकर बोले, ‘पूरे समाज ने जिंदगी को भी लाभ-हानि के सवाल में बदल दिया है बरखुरदारों!’ उन्होंने गहरी सांस ली। ये और बात कि हम उनके इस जुमले का भावार्थ बिलकुल भी नहीं समझ पाए थे।

गणित के बाद जब वो अंग्रेजी, हिंदी, सोशल-स्टडी और तवारीख पढ़ाते तो अजीब-सी लय पैदा हो जाती उनके अल्फाज में। जब वो तवारीख (इतिहास को वो तवारीख कहते थे) पढ़ाने लगते तो रोमांच-सा पैदा होने लगता। अशोक का अध्याय होता तो अध्यापक जी ऐसे पढ़ा रहे होते जैसे वो खुद सम्राट अशोक हों। चंद्रगुप्त मौर्य, गौतम बुद्ध, चाणक्य पढ़ाते हुए, कोई ‘मगध’ उनके अंदर आकार लेने लगता। मुगल काल तक आते आते वो बादशाहों के महल, किले, उनके तानाशाह रवैये, साजिशें- षड्यंत्र, उथल-पुथल के विषय में ऐसे बताते जैसे वो खुद उन दिनों का कोई बचा हुआ किरदार हों या चश्मदीद गवाह! गौतम बुद्ध को पढ़ाते हुए उनके चेहरे पर असीम शांति विराजमान हो जाती तो पानीपत की तीसरी लड़ाई का वर्णन करते हुए लगता कि कोई तीसरी, चौथी या पांचवी लड़ाई वो खुद भी लड़ रहे हैं जिंदगी के साथ, लेकिन निहत्थे!

वो हमें पढ़ाते और हम उन्हें किसी चुटकुले की तरह समझते। वो हमारे लिए मनोरंजन की तरह थे। हम उन्हें खूब तंग करते। लेकिन उन्होंने हमारी शिकायत कभी पिता जी से नहीं की थी।

उनके जूते बहुत ज्यादा फट गए थे। वो अपने पैरों में पुरानी-सी हवाई चप्पल डालकर आने लगे। एक दिन हमने उनकी हवाई चप्पल में कील गाड़ दी। कील का मुंह पांव की तरफ उठता हुआ। रोजाना की तरह वो उठे। बोले, ‘अच्छा बच्चों, जो पढ़ाया है उसका अभ्यास करना। इसके बाद उन्होंने पगड़ी को सिर पर रखा। चप्पल पांव में डाली और एक कराह-सी निकली उनके गले से। वो दुख के मारे छटपटाए। हम खुश थे कि हमारा प्लान सफल हुआ।

वो चारपाई पर एक बार फिर से बैठे। एक बार उन्होंने हमें देखा। चप्पल से कील निकाला। पांव से खून बहने लगा था। इधर-उधर देखा। एक पुराना-सा कपड़ा नजर आया। उठे। उसे झाड़ा। पट्टी की तरह पांव में बांधा। चलने से पहले दुखभरी आवाज में बोले, ‘शम्आ हर रंग में जलती है सहर होने तक।’ पता नहीं, यह मिसरा उन्होंने हमें सुनाया या फिर अपने आपको। वो लंगड़ाते हुए-से चले गए।

पहली बार हमें अपनी करतूत पर पछतावा हुआ। वो इस शरारत के एवज में हमें मारते या फटकारते तो शायद पछतावा भी न होता। लेकिन जिस तरह वो चुपचाप कमरे से निकले- दुख से भरे हुए- हमें वो बात विचलित करती रही। हमने सोच लिया था कि अब वो हमें पढ़ाने नहीं आएंगे। लेकिन हम तब हैरान हुए जब अगले दिन ठीक वक्त पर वो हमें पढ़ाने आ पहुंचे। वो थोड़ा लंगड़ा कर चल रहे थे।

आज पहली बार हमने उनको ‘नमस्ते’ कहा। पानी का गिलास उनके सामने लाकर रखा और हाथ से झलनेवाला पंखा भी ऐसा लाकर दिया जिसकी डंडी मजबूत थी।

उन्होंने इस बात की शिकायत न हमारे पिता जी से की न हमसे। इसका असर हम पर इतना हुआ कि हम उन्हें गुरु जी कहने लगे। इससे पहले हम उन्हें कभी माटर जी कहते तो कभी ट्यूटर जी।

पता नहीं क्या हुआ कि वो पगड़ीधारी, बूढ़े और अजीबसी पोशाक पहननेवाले अध्यापक जी हमें अच्छे लगने लगे थे। उनका पगड़ीवाला चेहरा किसी ऐसे किसान का चेहरा प्रतीत होता जो अपनी जमीन से गहरे तक जुड़ा हो। वो चेहरे जो पहले हमें किसी चुटकुले जैसा प्रतीत होता था, अब करुणा और मानवीय संवेदना से भरपूर लगता। हमारे उनके बीच रिश्ते इस कदर सुधरे कि पंखा जब खुद को झलने लगते तो हमें भी झलने लगते। हवा बंद होती तो वो हवा से सवाल करते हुए बलगमी आवाज में गाते, ‘ऐ हवा, ये बता, आज क्या करती रही?’

जब तवारीख (इतिहास) पढ़ा रहे होते तो उर्दू जबान और शायरी भी पढ़ाने लगते। एक दिन उन्होंने बताया कि हिंदुस्तान में कितनी अजीबोगरीब बातें होती रहती हैं। अब देखो, पटवार जैसा खुश्क और पेचीदा काम उर्दू में तो तिलिस्म पैदा करती शायरी भी उर्दू में।

हम हैरान होकर उन्हें देखते रह जाते। वो कोई और बात शुरू कर देते। धीरे-धीरे अध्यापक जी को हमसे लगाव हो गया था। शायद इसलिए वो सारे विषय पढ़ा चुकने के बाद भी बैठे रहते और ऐसी बातें करते जिससे हमारे व्यक्तित्व में विकास हो।

हमारे बीच जो तनाव था वो समाप्त हो गया था। अब हमें कोई मसखरी नहीं सूझती थी। अब हम उनसे घर चलने की जिद भी कर बैठते। वो टाल जाते और कहते ‘ले चलूंगा कभी।’ उनकी आवाज में बुझापन होता।

उन्होंने अप्रैल में पढ़ाना शुरू किया था और अब अगस्त था। उन्हें पढ़ाते हुए पांच महीने हो गए थे। हमने कोर्स पूरा कर लिया था और गणित हमें दुरूह और अबूझ नहीं लगता था। अंग्रेजी के टेंस भी हमने काफी हद तक सीख लिए थे।

गुरु जी पढ़ाने आते रहे। इतवार को वो छुट्टी किया करते थे। कभी-कभी आ भी जाते। उस दिन इतवार था। वो दिन के वक्त आ गए। हमें पढ़ाते रहे।

आज अजीब बात हुई। पढ़ा  चुकने के बाद खुद-ब-खुद बोले, ‘चलो बरखुरदारों, आज मैं तुम्हें अपने घर ले चलता हूँ।’ इस अप्रत्याशित-सी बात को सुनकर हम हैरान हुए। फौरन तैयार भी हो गए। रास्ता भर वो खामोश रहे। हम उनके साथ-साथ चलते रहे।

उनका मकान पुराना था। मकान का दरवाजा और भी पुराना। उन्होंने बड़ी एहतियात से दरवाजा खोला। वो दरवाजे को जोर से धकेलते तो मुमकिन था पूरा दरवाजा ही गिर जाता।

घर में पहले वो प्रविष्ट हुए, फिर हम। हम दरवाजे के पास खड़े हो गए। उन्होंने हमें बुलाया ‘अजीजो यहां आओ।’ हम आंगन की तरफ बढ़ते गए। गोबर लिपा कच्चा फर्शं नीम का दरख्त। हैंडपंप। नीम के नीचे चारपाई बिछाकर हमें बिठाकर, वो कमरे में चले गए। फिर रसोई में जाकर दो गिलास पीतल के सोने की तरह दमकते हुए ले आए। उन्होंने हैंडपंप को बहुत देर तक चलाया। जब ठंडा पानी निकलने लगा तो पानी से गिलास भरे। स्टूल पर पानी के गिलास और एक प्लेट में गुड़ की तीन-चार डलियां हमारे सामने रखकर बोले, ‘अजीजो! पानी पिओ।’

हमने गटगट पानी पिया- एक ही घूंट में। गिलास रखकर लंबी सांस ली। एक गुड़ की डली मैंने, दूसरी भाई ने उठाई। खाने लगे।

पानी मीठा था। पीतल के गिलास चमकते हुए। पानी में भी स्वाद होता है, यह हमें उस दिन पता चला था। हमें इस बात का मलाल हो रहा था कि हमने इस जज्बे के साथ कभी पानी नहीं दिया था अध्यापक जी को।

एक बूढ़ी स्त्री धीरे-धीरे चलते हुए हमारे पास आ गई। वो अध्यापक जी की पत्नी थी।

अध्यापक जी बोले, ‘कुंतो, येई वो बच्चे हैं जिन्हें मैं पढ़ाता था। बहुत नकबख्त, असील, होशियार और फरमाबरदार बच्चे हैं। भगवान इनकी उम्र दराज करे।’

अध्यापक जी ने हमारी झूठी तारीफ की। उन्होंने जो-जो गुण गिनाए, उनमें से कोई गुण हममें नहीं था।

बूढ़ी स्त्री कुंतो ने ममतामयी दृष्टि से हमें देखा। आसीस दी। कहा, ‘जींदे रवो। वड्डे आदमी बणो। लंबी उमरां होवे तुआडी।’

गुरु जी कुंतो के बारे में बताने लगे, ‘बीमार रहती है। सांस की तकलीफ और गठिया।’ गुरु जी चुप हो गए। दोनों ने बड़ी जज्बाती नजरों से एक-दूसरे को देखा। फिर वो बाहर कहीं चले गए।

कुंतो जी हमारे सामने गोबर से लिपे हुए फर्श पर बैठ गईं। अपने आप बोलने लगीं, ‘आपके पिता जी की बहुत मीहरबानी। ट्यूशनें लगवा कर उपकार किया। भगवान उनका भला करे।’

इस बीच अध्यापक जी लौट आए। खुद रसोई में जाकर, शीशेवाले गिलासों में, शक्कर और ईसबगोल के बीज डालकर शरबत तैयार किया।

उसी स्टूल पर शरबत के गिलास रखकर बोले, ‘बरखुरदारो, गर्मियों में ये शरबत बड़ा मुफीद होता है, इसे पिओ।’ इसकी तासीर ठंडी होती है। पिओ बच्चो। अच्छा न लगे तो इसे छोड़ देना।’

हमने कुछ घूंट भरे। पहले स्वाद अजीब-सा लगा, फिर अच्छा लगने लगा।

जब हम शरबत पी रहे थे तो अध्यापक जी की पत्नी कुंतो हमें देखते हुए बोली, ‘तुम बच्चों से तो काफी बड़ा था पंकज।’

‘पंकज कौन?’ छोटे भाई ने पूछा।

‘मेरा जवान बेटा था। तकसीम के दौरान हमसे बिछुड़ गया। पता नहीं कहां होगा? हमारे साथ होता तो हम बूढ़ों के लिए बड़ा सहारा होता।’

अध्यापक जी ने गहरी सांस ली। सर झुकाकर बैठे रहे। फिर बोले ‘तकसीम में लाखों घर उजड़ गए। हजारों लोग एक-दूसरे से बिछुड़ गए। लाखों फसाद में मारे गए।’

हम चुपचाप अध्यापक जी की बातों को सुनते रहे।

बहुत तड़प थी उनकी बातों में।

अध्यापक जी फिर बोले, ‘बांका जवान था पंकज! सड़क से गुजरता तो लोग देखते रह जाते। पता नहीं कहां खो गया? लापता संतान उम्रभर तड़पाती रहती है।’

अध्यापक जी ने उच्छ्वास छोड़ा। एक शेर कहा-

लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं

मैंने उस हाल में जीने की कसम खाई है।’

हम दोनों भाई कुछ देर वहां खड़ रहे। वापिस जाने के लिए मुड़े।

अध्यापक जी हमारे साथ चल पड़े। गली तक हमारे साथ-साथ चलते रहे। बोलते रहे। हिदायतें-सी देते रहे, ‘मन लगाकर पढ़ना। यही समय है। इस वक्त मेहनत करोगे तो उम्रभर इसका प्रतिफल मिलेगा। वक्त से मत पिछड़ना। वक्त के साथ-साथ चलना। तुम दोनों बहुत सयाने बच्चे हो। तुम्हारा पहला और आखरी काम पढ़ाई है। मैंने जो-जो तरीके समझाए हैं, उन्हें भूलना मत। रोजाना अभ्यास करना। अपनी हैंडराइटिंग भी सुधारना।’ उन्होंने कहा।

‘गुरु जी, ये सब बातें आप हमसे क्यों कह रहे हैं?’ छोटे भाई ने पूछा।

वो वहीं गली में ठिठक गए। गहरी सांस ले कर बोले, ‘तुम्हें पढ़ाने का आज मेरा आखरी दिन था। चार दिन पहले तुम्हारे पिता जी ने मुझे और आगे ट्यूशन पढ़ाने से मना कर दिया था। उनकी बात दुरुस्त है। कोर्स भी तो पूरा हो चुका है।’

‘लेकिन गुरु जी… छोटे भाई ने कुछ कहने की कोशिश की तो गुरु जी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर मुस्कराने की कोशिश की। बोले, ‘बरखुरदारों, अब जाओ। कोई चीज समझ न आए तो बिलाशक पूछने आ जाना’।

हम दोनों चुपचाप घर की तरफ जा रहे थे। कोई किसी से नहीं बोल रहा था। हम बाजार से गुजरते तो हँसते हुए लोगों का मजाक उड़ाते हुए होतेे। किसी की चाल पर फब्ती, किसी के कपड़ों पर जुमला, किसी आदमी की साइकिल पर कोई बात बात तो किसी देहड़ीवाले से छेड़छाड़! मगर आज हम चुपचाप जा रहे थे।

हमेशा ज्यादा बोलनेवाले, लोगों पर फब्तियां कसनेवाले हम दोनों भाई, आज बेहद चुपचाप चल रहे थे।

हमें अध्यापक जी और उनका अपनापन याद आ रहा था। पीतल के गिलास। शक्कर और ईसबगोल के बीज वाला शरबत, उनकी सादगी, उनकी दीनता और जवान बेटे का विभाजन के दौरान बिछुड़ने का संताप- सब बातें हमें याद आ रही थीं।

अगले दिन तीन बजे। हमेशा की तरह हमने चटाई बिछाई। अध्यापक जी के लिए चारपाई रखी। चारपाई पर अच्छा-सा पंखा रखा। चारपाई के पास पानी का गिलास रखा।

हम दोनों भाई अपना-अपना बस्ता खोलकर बैठ गए। अध्यापक जी का इंतजार करने लगे।

हम यह बात अच्छी तरह जानते थे कि वो अब हमें पढ़ाने कभी नहीं आएंगे। इसके बावजूद हमारे दिल में कुछ ऐसा था कि हम उनके आने का इंतजार कर रहे थे।