कहानीकार के अलावा पत्रकार। प्रभात खबर, भागलपुर में न्यूज एडिटर।

वहां बिलकुल नर्म धूप थी। ठंड की शुरुआत में इस नर्म धूप से सुखद कुछ नहीं हो सकता था। जेपी चबूतरे पर और पसर कर बैठ गया। सैंडिस कंपाउंड के इस हिस्से से जेपी को गजब का प्यार था। गुलमोहर व अमलताश के पेड़ों से भरा सैंडिस का यह हिस्सा उसे अपनापन का एहसास देता था। छितराए पेड़ों के बीच यह चबूतरा बिलकुल अपना लगता था। सालों से वह सुबह में गोलंबर के चार चक्कर मार्निंग वॉक करने के बाद यहीं आकर बैठता था। जेपी के चबूतरे से लगभग 10 फीट की दूरी पर एक अर्द्धवृत्ताकार लोहे का बेंच बना था। इधर कुछ दिनों से उस बेंच के पास जाकर जेपी की नजर अटक जाती थी। प्रकृति के संपूर्ण दर्शन के बीच यह खाली बेंच उसके अंदर एक अधूरापन भरने लगता था। कई दिनों से यह बेंच खाली है। जेपी ने नजर दूसरी तरफ फेर ली जहां कुछ नवयुवक सेना में नौकरी की तैयारी के लिए जम कर पसीना बहा रहे थे। सर्दी थी लेकिन उन नवयुवकों का पूरा शरीर पसीना से नहाया हुआ था। कुछ वर्जिश कर रहे थे तो कुछ दौड़ लगा रहे थे। जेपी ने एक उड़ती नजर सैंडिस के मैदान पर डाली। कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। 12 से 14 साल के बच्चे क्रिकेट खेलने में इस तरह मगन थे कि बाहर की दुनियादारी से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं था। अपने खेल में डूबे हुए पूरी तरह से। जेपी ने मन ही मन हिसाब लगाया- किशोरवय तक की उम्र किसी मनपसंद चीज के साथ बिलकुल डूब जाने की सही उम्र होती है। वहां भय- आशंकाएं नहीं होतीं। और फिर बढ़ती उम्र के साथ हम कितने बेचारे होते जाते हैं। धूप अब थोड़ी तेज हो गई थी। जेपी चबूतरे पर पद्मासन लगा कर बैठ गया था। प्राणायाम से मन का विक्षेप हटता है। एक लय में सांस लेनी और छोड़नी पड़ती है। यह सब सोचते हुए जेपी ने प्राणायाम शुरू कर दिया। अंदर जाती, बाहर आती सांसों से उसकी तोंद हिल रही थी। लेकिन मन शांत नहीं हुआ। मन का विक्षेप बढ़ता जा रहा था। बंद आंखें, लेकिन एक-एक दृश्य मानस पटल पर आकर जा रहे थे। मन को निर्वात में ले जाने की कोशिश बेकार हो रही थी। रह-रह कर मन उस खाली बेंच पर ही जाकर अटक जाता था। जेपी ने बेंच से ध्यान हटा कर मन ही मन अपनी नौकरी के रिटायरमेंट में बचे सालों को गिनना शुरू किया। एक साल 11 महीने और। उसके बाद? उसके बाद का उस समय सोचेंगे। पेंशन तो मिलेगी ही। जेपी ने उधर जा रही सोच पर लगाम लगाई। मन फिर से खाली बेंच पर चला गया था।
कभी–कभी सूनापन कैसे अपने अंदर घर कर जाता है। भीतर ही भीतर जैसे सब कुछ खाली होता जाता है। बेंच का खालीपन जेपी के अंदर एक शून्यता भर रहा था।
सुबह के समय में सैंडिस का यह बेंच जैसे एक तरह से रिजर्व था- जेपी, एसपी और डॉ. शेखर के लिए। घूमने-टहलने के बाद ये तीनों वहां बैठते। दुनिया-जहान की बातें होतीं। खेल से राजनीति तक, शहर से गांव तक और राम से इस्लाम तक। फिर सूर्योदय का उगता लाल सूरज, पक्षियों के कलरव के बीच एक आध्यात्मिक माहौल बना देता। लेकिन कई दिनों से प्रो. एसपी और डॉ. शेखर नहीं आ रहे थे। बढ़ती उम्र में कब कौन बीमारी दबोच ले कहना मुश्किल है। शायद उनके नहीं आने की वजह से खाली बेंच जेपी को ज्यादा परेशान कर रहा था। जेपी मतलब जयप्रकाश। जयप्रकाश सरकारी मुलाजिम था और रजिस्ट्री ऑफिस में काम करता था। जमीन के बड़े से बड़े पेचीदे मामले उसके सामने रोज आते थे। जमीन की बिक्री और खरीद के लिए बनते-बिगड़ते माहौल को वह रोज काफी करीब से देखता था। किसी का बेटा बीमार होता, उसके इलाज के लिए उसके परिजन जमीन बेच रहे होते। कोई मजबूर बाप अपनी बेटी की शादी के लिए जमीन बेच रहा होता। तरह-तरह के जमीन के दलाल सुबह से ही रजिस्ट्री ऑफिस के सामने चक्कर काटते मिल जाते। जेपी 56-57 की उम्र पार कर रहा था। प्रो. एसपी और डॉ. शेखर उससे उम्र में काफी बड़े थे। प्रो. एसपी यहां के एक बड़े प्रतिष्ठित कॉलेज से रिटायर कर चुके थे। हिंदी के प्रो. एसपी को बड़े लेखक के रूप में शहर जानता था। उनकी कई रचनाएं व किताब काफी चर्चित थीं। नौकरी के बाद पूरी तरह से लेखन कार्य में लगे थे। प्रो. एसपी- पूरा नाम प्रो सुरेंद्र प्रसाद। इन सबसे उम्र में सबसे बुजुर्ग थे डॉ शेखर। इस शहर का बड़ा नाम है- डॉ. शेखर। उनके यहां दिखाने के लिए 10 से 15 दिन पहले मरीजों को नंबर लगाना पड़ता। इनकी उम्र 65 के पार तो जरूर हो गई होगी। इतनी व्यस्तता और ख्याति के बाद भी सभी का सुबह सैंडिस मैदान पहुंचने का क्रम अटूट था। सुबह का सैंडिस शायद इनके अंदर एक नई उष्मा-नई ऊर्जा भरता था।
जैसा पिछले कुछ दिनों से हो रहा था आज भी वैसा ही हुआ। प्राणायाम करने के बाद जेपी ने बारी-बारी से अपने मोबाइल फोन से प्रो. एसपी और डॉ. शेखर को फोन लगाया। डॉ. शेखर का मोबाइल फोन आज भी स्वीच ऑफ आ रहा था। पिछले कई दिनों से वह अपने क्लिनिक में भी नहीं बैठ रहे थे। पिछले कुछ दिनों से प्रो. एसपी का मोबाइल रिंग होने के बाद भी कोई नहीं उठा रहा था। आज भी प्रो. एसपी का मोबाइल रिंग होता रहा, किसी ने नहीं उठाया। छह बार लगातार कॉल करने के बाद आखिर जेपी ने मोबाइल अपने पॉकेट में रख लिया। कहीं से कोई समाचार नहीं मिल पाना कई तरह की आशंकाओं को जन्म देता है। आशंकाओं के बादल जेपी के मन में उमड़-घुमड़ रहे थे। एक बार मन में आया, आखिर जाकर देखते हैं क्या बात है? ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि इतने-इतने दिन तक ये लोग सैंडिस न आते हों। सैंडिस का यह बेंच शायद परिवार के हिस्से की तरह हो गया था। लेकिन ऑफिस का वर्क लोड भी कम नहीं था जेपी के पास। यह वर्क लोड कई चीजों को इग्नोर करने की अनकही वजह हो जाती थी। इस स्थिति में संडे उसे बहुत प्यारा लगता था। सारे पेंडिंग काम करने का दिन यही था। पेंडिंग कामों की एक लिस्ट बनी होती थी। जेपी की यह लिस्ट कभी छोटी नहीं होती थी। दो काम खत्म नहीं होता कि चार इस सूची में जगह बना लेते। लेकिन इस बार के संडे की तारीख कैलेंडर में घेर कर उसने लाल कलम से घेरा बनाया और उसमें लिख दिया प्रो. एसपी और डॉ. शेखर।
उस रविवार की सुबह धूप मुरझाई–सी थी। सूरज निकलता नहीं कि बादलों के ओट में चला जाता था। जेपी सैंडिस से सीधे डॉ. शेखर के घर पर पहुंचा।
डॉ. शेखर का घर किसी राजमहल की तरह भव्य था। पॉश इलाके के इस घर में नीचे डॉ. शेखर का बड़ा-सा क्लिनिक और बेहद खूबसूरत लॉन था। मरीजों से भरा रहने वाला उनका क्लिनिक का बड़ा-सा बरामदा सूना-सूना था। वहां दो-तीन आदमी थे जो शायद डॉ. शेखर के क्लिनिक में काम करते थे। जेपी को मरीज समझ, उनमें एक ने कहा- ‘डॉक्टर साहब यहां नहीं हैं। बाहर गए हैं। कब तक वापस आएंगे तय नहीं है। इलाज के लिए किसी और डॉक्टर के पास आप जा सकते हैं।’ जेपी ने अपना परिचय देते हुए कहा- ‘डॉक्टर साहब मेरे मित्र हैं। कई दिनों से घूमने नहीं आ रहे थे, इसलिए हाल-चाल पूछने चला आया।’
कर्मचारियों के रुख में थोड़ी नर्मी आई। उन्होंने उलाहने भरे लहजे में कहा- ‘आप मित्र हैं तो आपको पता नहीं है। डॉक्टर साहब की पत्नी का निधन हो गया। वह कोलकाता गए थे इलाज कराने। पूरे 15 दिन से डिस्टर्ब हैं। अभी पता नहीं और कितने दिन लगेंगे।’ जेपी को याद आया, डॉक्टर साहब ने बात ही बात में बताया था कि उनका बेटा अपने पूरे परिवार के साथ कोलकता में ही रहता है। रियल स्टेट का बड़ा करोबार है उसका वहां पर। यह भी कि कई बार डॉक्टर साहब को इस शहर को छोड़ कर कोलकाता आने पर जोर दे चुका था। शायद पत्नी के इलाज के लिए डॉ. शेखर वहां गए थे। पहले भी पत्नी की चर्चा करते हुए रुमानियत उभर जाती थी डॉ. शेखर की आंखों में। जेपी ने मन ही मन सोचा- शायद डिवाइन लव इसे ही कहते हैं। जहां प्यार शरीर के पार चला जाता है। यह बड़ा झटका था डॉ. शेखर के लिए। जेपी के पास अब डॉ. शेखर से संपर्क का कोई सूत्र नहीं बचा था सिर्फ इंतजार के। डॉक्टर साहब के घर के कर्मचारी बात के लिए कोई फोन नंबर उपलब्ध नहीं करवा पा रहे थे। ऐसा कोई निर्देश था या कर्मचारियों की मजबूरी, जेपी यह भी नहीं समझ पा रहा था।
लगभग दो महीने बीते चुके थे। यह एक बेहद खूबसूरत सुबह थी। प्रो. एसपी का सैंडिस आना लगभग 10 दिन से शुरू हो चुका था। हालांकि प्रो. एसपी के चेहरे पर पहले सी चमक नहीं थी। दुर्बल, थका-थका सा एक क्लांत चेहरा। पहले लाठी के सहारे नहीं टहलते थे, लेकिन अब टहलने में लाठी का सहारा ले रहे थे। डॉ. शेखर अभी तक शहर नहीं लौटे थे। प्रो. साहब को आते देख जेपी का चेहरा खिल गया। जेपी खुद थोड़ा खिसक गए और बेंच पर प्रो. के लिए बड़ी जगह बनाई। मीठी ठंड के साथ हल्की-हल्की हवा बह रही थी। प्रोफेसर साहब टुकड़ों में अपने मुंबई प्रवास की कहानी बता रहे थे। सैंडिस में जैसे उस दिन प्रो. एसपी का सारा अवसाद बाहर निकल रहा था। उन बातों की जानकारी भी जेपी को दे रहे थे जो किसी परिवार की नितांत व्यक्तिगत बातें होती हैं। मुंबई में उनके दामाद का बड़ा कारोबार था। अब प्रो. एसपी अपनी पत्नी के साथ वहीं रहेंगे। प्रो. ने कहा- ‘दामाद-बेटी उनका बहुत ख्याल रखते हैं। बहुत कहने के बाद इस बार आने दिया है। उनकी बेटी कहती हैं-अब अकेले आपलोगों के रहने की उम्र नहीं है वहां। प्रो.एसपी ऐसा बताते-बताते भावुक भी हो जाते। लेकिन बातचीत का क्रम जारी रहता-यह घर और यह मोहल्ला।
यह शहर और सैंडिस कुछ भी छोड़ कर जाने का मन नहीं करता है। लेकिन यहां कौन देखेगा हमें। पत्नी के बारे में कहते– ‘है तो बहुत जीवट वाली महिला, लेकिन उम्र ने उसे भी थका दिया है। घर का काम अब उससे संभलता ही नहीं और किसी को सहयोगी रख दें तो उसका काम उसे पसंद नहीं आता। हम दोनों बूढ़ा–बूढ़ी को यहां देखनेवाला कोई है ही नहीं।
प्रो. एसपी अपनी रौ में कहते जा रहे थे- बच्चे के नाम पर यही बेटी है। तो अब वह जो कहेगी वह सुनना ही पड़ेगा। 10 दिन के बाद उनकी मुंबई वापसी का टिकट भी बना हुआ है। प्रो. एसपी की बात जारी थी- यह शहर छोड़ने के नाम से ही दुख होने लगता है। हमारी सोसाइटी तो यही है। जो घर देख रहे हो न अभी, उसकी एक-एक ईंट को खुद खड़ा होकर जोड़वाया था। अब घर तो है, लेकिन उसमें कोई रहनेवाला नहीं है। उस घर में ताला मार कर निकलते वक्त मेरी सांसें तेज होती जाती हैं। प्रो. एसपी के मुंह से जैसे आज सिर्फ दिल की बात ही निकल रही थी। जेपी ने प्रसंग को थोड़ा-सा मोड़ते हुए पूछा- ‘मुंबई में आपको कोई समस्या तो नहीं होती? ये तो सच है कि बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए ही आपको आगे का कोई निर्णय लेना पड़ेगा। यहां अचानक बीमार पड़ गए तो डॉक्टर से दिखानेवाला भी कोई समय पर नहीं मिल पाएगा। कोरी भावुकता और सिर्फ सदिच्छाओं से तो दुनिया नहीं चलती है न सर। जेपी की बात सुन कर थोड़ी देर प्रो. एसपी कुछ नहीं बोले। फिर अपनी छड़ी ठीक करते हुए लंबी सांस ली। प्रो. एसपी ने शून्य की तरफ ताकते हुए कहा- ‘मुंबई के फ्लैट में कैद रहने में क्या परेशानी होती है, वह तुम अभी नहीं समझोगे। वहां तो बेटी ने किसी चीज की कमी नहीं की है। हर सुविधा का ध्यान रखती है। लेकिन फ्लैट में रहते हुए लगता है जैसे मेरा संपूर्ण अस्तित्व ही खत्म हो गया। प्रो. एसपी ज्यादा ही गंभीर हो गए थे। उसी गंभीरता में भारी आवाज में कहने लगे- ‘अकेलापन इस संसार में सबसे बड़ी सजा है। एक समय था- जब मैं पढ़ने-लिखने के लिए घंटों एकांत में रहना पसंद करता था। अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता था। किसी को डिस्टर्ब करने की इजाजत नहीं थी। लेकिन अब मैं एकांत और अकेलेपन के अंतर को समझ पा रहा हूँ। कभी-कभी लगता है कि यह जीवन ही अकेलेपन से एकांत की ओर जाने की यात्रा है। लेकिन मेरे मामले में यह उल्टा हो गया है। मैं एकांत से अकेलेपन की ओर जा रहा हूँ। तुम्हें कह नहीं सकता मैं कि यह यात्रा कैसी मर्मांतक पीड़ा देनेवाली होती है। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। मैं निर्विकल्प हूँ, मुझे यह यात्रा करनी पड़ेगी। यहां अब हमारी पसंद के बारे में पूछने के लिए कोई नहीं बैठा है।’ सैंडिस में धूप तल्ख हो गई थी। ‘यह धूप सुबह के समय कितनी प्यारी होती है, लेकिन दोपहर आते-आते तो इसे बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है।’ जेपी ने पार्क के पूर्वी छोर से आ रही धूप की तरफ इशारा करते हुए कहा। इस पर प्रो. एसपी ने दार्शनिक भाव से जवाब दिया- ‘और शाम होते-होते यह धूप कमजोर हो जाती है। यह धूप शाम में इतनी कमजोर क्यों हो जाती है? जैसे इस धूप को पीलिया मार गया हो, लकवा के साथ।’ चढ़ती धूप के साथ सैंडिस से लोगों का वापस जाना शुरू हो गया था।
वक्त अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था। जेपी के सुबह सैंडिस आने का सिलसिला जारी था लेकिन उसकी टीम बदल गई थी। टीम में कई नए लोग शामिल हो गए थे। वह बेंच जो जेपी की तिकड़ी टीम के लिए कभी रिजर्व रहा करती थी, अब वहां कोई भी बैठा दिख जाता था। डॉ. शेखर और प्रो. एसपी को अब शायद जेपी के साथ शहर के लोग भी भूलने लगे थे। इस बीच दो घटनाओं का जेपी प्रत्यक्ष गवाह बना।
पहली घटना जब प्रो. एसपी से जेपी की मुलाकात सैंडिस की जगह रजिस्ट्री ऑफिस में हुई। प्रो. एसपी इतने दुबला गए थे कि पहचानने में परेशानी हो रही थी। जेपी को देखते ही प्रो. एसपी जैसे चहक उठे थे- ‘तुम्हें ही खोज रहा था। मुझे पता था, यहां तो जरूर मिल ही जाओगे। तुमसे फोन पर कई बार बात करने की कोशिश की, लेकिन नंबर ही नहीं लग रहा था। शायद तुमने अपना नंबर बदल लिया है। खैर, कोई बात नहीं। अब तो मिल गए हो। अपना नया मोबाइल नंबर भी दे देना मुझे। पता नहीं एक दम में कितनी बातें प्रो. एसपी कहना चाह रहे थे। जेपी अवाक था प्रो. एसपी को देख कर, उनके व्यवहार में आए परिवर्तन को देख कर। कितना गंभीर रहा करते थे प्रो. एसपी। इतने बड़े अध्येता और न जाने कितनी किताबों के लेखक। प्रोफेसर साहब के अंदर जैसे कोई बच्चा घुस कर बात कर रहा था जेपी से। जेपी ने उन्हें बगलवाली कुर्सी पर बैठाया और दो चाय लाने के लिए ऑफिस ब्वॉय को कहा। जब प्रो. एसपी थोड़ा रिलैक्स दिखे तो जेपी ने पूछा- ‘आप कैसे हैं मुंबई में?’ प्रो. ने बड़े ही सामान्य अंदाज में कहा- ‘ठीक हॅूं, लेकिन शारदा (उनकी पत्नी) अब ठीक नहीं रहती। चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया है। कई बीमारियों से एक साथ जूझ रही है शारदा। खैर, अब हमलोगों को तो बीमारियों के साथ ही जीना है, जब तक जीना है।’ जेपी ने बड़ी आत्मीयता के साथ पूछा-‘कब तक रहेंगे यहां?’ इस सवाल पर प्रो. एसपी कुछ क्षण के लिए चुप रहे। फिर धीमी आवाज में कहा- ‘इसलिए ही तो तुमसे मिलने आया। कब तक रहूंगा, वापस फिर कब आऊंगा, ये सारे सवाल अब खत्म हो गए हैं।’ जेपी ने प्रो. को अचरज भरी निगाह से देखा। जैसे आंखों से ही पूछ रहे हों-‘आपके कहने का क्या मतलब है?’ प्रो. ने शायद जेपी की आंखों की भाषा पढ़ ली थी। प्रो. ने जेपी की ओर से नजरें हटा लीं, जैसे इस सवाल से बचना चाह रहे हैं। लेकिन कुछ देर चुप रहने के बाद कहने लगे- ‘अभी मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है। मैं अपना घर बेच रहा हूं। सब कुछ फाइनल है। लेने वाले लोग भी अपने जान-पहचान के ही हैं। जितनी जल्दी रजिस्ट्री करवा दो तो मैं यहां से मुक्त हो जाऊं। जेपी थोड़ी देर के लिए बिलकुल चुप हो गया, जैसे निर्वात में चला गया हो। अचानक यह निर्णय आपने क्यों ले लिया? किसी फाइल पर आंख गड़ाए-गड़ाए जेपी ने पूछा। प्रो. एसपी शायद इस तरह के सवालों से बचना चाह रहे थे। फिर भी थोड़ा अनमने ढंग से उन्होंने जवाब दिया- ‘अब हमलोग कोई निर्णय लेने की स्थिति में हैं क्या? निर्णय तो हमारे बच्चों का होता है और उस निर्णय के विरुद्ध हम नहीं जा सकते। ऐसे भी कोरी-भावुकता और लगाव से क्या होना है? भावुकता से परेशानी बढ़ सकती है, बस यही हो सकता है। प्रोफेसर शायद अपने दिल की सारी बात नहीं कह पा रहे थे। लेकिन एक पीड़ा उनके चेहरे पर तैर गई थी। गंभीर होते जा रहे माहौल को हल्का करने के लिए जेपी ने फाइल की ओर से नजर हटा कर प्रो. की ओर देखा। जेपी को अपनी ओर देखते देख प्रो. ने फिर कहा- ‘यह रजिस्ट्री आज-कल में करा दो तो बड़ी सहूलियत हो मुझे। अब यह शहर मुझे अपना नहीं लगता है। चाहता हूं- जल्दी से जल्दी यहां से निकल जाऊं।’ यह कहते-कहते प्रो. की आवाज भर्रा गई थी। जेपी ने बातचीत का टॉपिक बदलते हुए कहा- ‘आप कहें तो आज ही करवा दें रजिस्ट्री। मैं हूं यहां, कोई परेशानी नहीं होगी।’ तब तक चाय आ चुकी थी। चाय पीते हुए प्रो. एसपी ने कहा- ‘कल आता हूँ। घर खरीदनेवाली पार्टी को भी साथ लेता आऊंगा। तो कल मिलते हैं।’ प्रोफेसर के जाने के बाद जेपी और गंभीर हो गया था। उसका भी रिटायरमेंट काफी पास था। वह सोच रहा था- क्या वाकई बुढ़ापा सबसे खतरनाक चीज होती है?
अब दूसरी घटना, जिसने जेपी को अंदर से हिला दिया था। यह फिर से गुलाबी ठंड लिए एक सुबह थी। सैंडिस कुछ सूना-सूना था। कम लोग आए थे शायद आज मार्निंग वॉक पर। जेपी अपने बेंच पर कुहासों में लिपटे पेड़ों को एकटक देख रहा था। उन कुहासों के बीच ही पूर्वी गेट से डॉ. शेखर जैसा कोई व्यक्ति आते हुए दिखा। जेपी ने मन ही मन सोचा- अचानक डॉ. शेखर कहां से प्रकट हो गए। कुहासे के धुंधलेपन में लगा शायद डॉ. शेखर जैसा दिखनेवाला कोई और आदमी भी हो सकता है। लेकिन करीब आने पर देखा- यह डॉ. शेखर ही थे। उनका चेहरा अभी भी दिव्य था। लेकिन चलने के अंदाज से दिख रहा था कि कुछ परेशानी है। लगभग एक साल के बाद डॉ. शेखर से जेपी की मुलाकात हो रही थी। जेपी ने बड़ी गर्मजोशी से डॉ. शेखर का स्वागत किया। डॉ. शेखर ने एक आत्मीय मुस्कान के साथ जवाब दिया। कुहासों के बीच शॉल में लिपटे डॉ. शेखर ने जेपी का हाथ अपने हाथ में लेकर पहली बात यह कही- ‘सैंडिस में तो कुछ नहीं बदला है। सब कुछ पहले की तरह है।’ जेपी ने कहा- ‘हां, पहले की तरह ही सब कुछ है। बस आप नहीं थे। अब आप भी आ गए तो संपूर्णता आ गई।’ डॉ. शेखर इस पर बगैर कोई जवाब दिए गंभीर हो गए। कुछ क्षण के लिए सन्नाटा छाया रहा।
सन्नाटा टूटा डॉ. शेखर की आवाज से- ‘जेपी जिस डॉ. शेखर को तुमने देखा था, वह अब नहीं है। उस डॉ. शेखर का नाम-यश था इस शहर में। खत्म हो गया। उस डॉ. शेखर के पास भव्य मकान था, अब नहीं है। उस डॉक्टर शेखर के पास पत्नी थी, बच्चे थे। अब नहीं हैं। आइ लॉस्ट एवरी थिंग। सब कुछ खत्म हो गया। कैसे-क्यों -मत पूछना। बता नहीं पाऊंगा। बताने में असह्य वेदना होती है। कितने लोगों को कितनी-कितनी बार बता चुका हूं। और बताने का कोई मतलब भी नहीं है। तुम भी तो अब रिटायर करनेवाले होगे। एक सलाह दूंगा- किसी पर यकीन मत करना। अपने बेटे-बेटी पर भी नहीं। बुढ़ापा कैसे कटे इसकी पहले मुक्कमल व्यवस्था कर लेना।
बुढ़ापा एक बीमारी है। यह बीमारी लगते ही तुम हाशिए पर डाल दिए जाओगे। जो सूरज दोपहर में चमकता है, शाम होते–होते अस्त हो जाता है। सूरज अस्त हो इससे पहले दीये–तेल की व्यवस्था कर लेना। और वह दीया–तेल सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा हो। इसे किसी को देना मत। नहीं तो अंधेरे में भटकते रह जाओगे। इतने दिनों के बाद मिले डॉ. शेखर जैसे भावावेश में आ गए थे।
वह कुछ देर के लिए रुके। फिर धीमी आवाज में कहा- ‘पत्नी की मौत के बाद बेटे के पास रहने लगा था। यह उसकी जिद थी। कुछ दिन में ही मुझे वहां रहने में परेशानी होने लगी। मैं वापस यहां आना चाहता था। लेकिन बेटे के निर्णय के बाद मैं यहां वापस नहीं आ पाया। बीच में एक सप्ताह के लिए आया था- अपनी सारी संपत्ति को बेचने का कानूनी हक बेटे को देने के कागजात बनवाने के लिए। उसके बाद तो यहां कुछ बचा ही नहीं मेरा। बेटे ने एक-एक कर सारी संपत्ति बेच दी। इधर संपत्ति बिकती, उधर मेरी उपेक्षा बढ़ जाती। अब स्थिति यह है कि बेटे के पास रहने के हालात ही नहीं रह गए। दूसरी तरफ मैं सब कुछ खो चुका था। मोटे तौर पर सारी बात बता दी मैंने। अब इस बारे में कुछ मत पूछना- कष्ट होता है।’ कहते-कहते शायद डॉ. शेखर की आंखें भर आई थीं। उन्होंने चश्मा उतार कर शॉल से अपनी आंखों को पोछा। जेपी के पास उनको कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहा था। वह हतप्रभ था। एक लंबा सन्नाटा फैल गया था। डॉ. शेखर के आंसू से जेपी के अंदर ही अंदर कुछ दरक गया था। जैसे शीशा दरक गया हो, गरम लावा के बीच पड़ कर। कुछ देर की चुप्पी के बाद डॉ. शेखर ने फिर बोलना शुरू किया। इस बार उनकी आवाज में कंपकपाहट नहीं थी। डॉ. शेखर ने सधे लेकिन धीमे स्वर में कहा-‘बूढ़े आदमी का कहीं गुजारा नहीं होता। आदमी कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो, लेकिन बुढ़ापा उसके लिए ग्रहण की तरह होता। जैसे चमकता, प्रखर सूरज ग्रहण के बाद अपना तेज, ओज खो देता है। बताओ, समाज के इन वृद्ध और वयोवृद्ध लोगों की जिम्मेदारी किस पर है। उन्होंने अपना सब कुछ जिस बेटे-बेटी को दे दिया, उस बेटे-बेटी पर। उन्होंने अपनी पूरी उम्र जिस समाज को दिया, उस समाज पर। वृद्धाश्रम के संचालकों पर? बूढ़े-बूढ़ी की जिम्मेदारी कोई लेना चाहता है क्या? बढ़ती उम्र उन्हें अछूत बना देती है। वह समाज, परिजन सभी के लिए अछूत हो जाते हैं। बूढ़े-बुजुर्ग के लिए जीने की कोई वजह नहीं होती। बेवजह जीते हैं और यंत्रणा भोगते हैं। खुद को बहिष्कृत होते हुए देखने से बड़ा दुख क्या हो सकता है। शायद समाज में वे अप्रासंगिक हैं, अनुपयोगी हैं। जैसे डस्टबीन में कचरा। लेकिन मुझे जीने की वजह चाहिए। मैं फिर से खुद के जीने की वजह बनाऊंगा। मेरी सांस जब तक चलती रहेगी, मेरे जीने की एक मुक्कमल वजह होगी। और अब मेरे जीने की वजह और किसी के लिए नहीं, बल्कि मेरे लिए होगी। अप्प दीपो भव। मैं खुद से खुद का प्रकाश बनूंगा। मेरा अंतस आलोकित हो जगमगाएगा। बताओ, क्या तुम इसमें मेरा साथ दोगे? मैं फिर से अपना क्लिनिक शुरू करूंगा। मुझे किराए पर बाजार में एक जगह दिला दो। अब मैं सिर्फ वह करूंगा जो मुझे अच्छा लगता है। मैं अब सिर्फ खुद की सुनूंगा।’ डॉ. शेखर के चेहरे पर गजब की शांति आ गई थी। उन्होंने कहा- ‘क्या खुद की सुरक्षा के लिए किसी वीर्य पुत्र का होना जरूरी है? खुद के बेटे ने तो इतना कष्ट दिया कि क्या कोई बड़ा से बड़ा दुश्मन देगा। मैं हर उस व्यक्ति के साथ खड़ा होने का प्रयास करूंगा जिसे मेरी जरूरत है। ये हमारे मानस पुत्र होंगे। ये मानस पुत्र हर कदम पर मेरे साथ खड़े रहेंगे। ये मानस पुत्र हर जगह मुझे मिल जाएंगे, जेपी ने देखा- कोहरे के बीच धीरे-धीरे सूरज निकल रहा था- अपनी रोशनी के साथ। सूरज की इस बेहद प्यारी-सी रोशनी में जेपी ने देखा सैंडिस में कई सूखे-से दिखनेवाले पेड़ में नई पत्तियां और कोंपल निकल रहे थे। उसे याद आया-सूर्योदय और सूर्यास्त का सूरज कभी-कभी बिलकुल एक जैसा दिखता है। तेज से भरा, सुर्ख लाल।
संपर्क सूत्र : द्वारा : डॉ. बी.एन. झा, नीलांबर, एसके तरफदार रोड, पीडब्ल्यूडी ऑफिस के सामने, आदमपुर चौक, भागलपुर–812001 मो.7782939289
एक बेहतरीन कथा शिल्प के सहारे उकेरी गई कहानी जो वर्तमान में अतीत की उपेक्षा का चित्रण कर रही है।लेखक साधुवाद के पात्र हैं कि इन्होंने ढलते सूरज में भी रोशनी की ओर लेे जाने की आभा देखी।
शानदार
ढलती शाम का सूरज ….
आज के सामाजिक परिस्थिति को दर्शाती एक अत्यंत मार्मिक कहानी है । प्रो. एस पी और डॉ. शेखर दो ऐसे पात्र है जो अपनी उम्र के अन्तिम पड़ाव की ओर अग्रसर हो रहे हैं, यहां उनके मनोभावों को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया गया है । प्रो. एस पी जहां परिस्थिति से समझौता कर लेते हैं वहीं डॉ. शेखर अपने आत्मबल और संकल्प शक्ति को जागृत कर समय के प्रवाह को अपनी ओर मोड़ने का एक प्रयास करने की हिम्मत रखते हैं और इन सब के मनोदशा को बखानता
जे पी …..
कहानी में प्रवाह बनी रहती है । जीवन के सच्चाई को दर्शाती अत्यंत मार्मिक कहानी । सरल भाषा में लिखी यह कहानी शुरू से अंत तक पाठक को अपने से जोड़े रखती है । लेखक ने सभी पात्रों के साथ न्याय किया है ।
बहुत ही सुन्दर रचना सर आत्मा को जगाने वाली,वृद्धावस्था की बेबसी की कहानी उपेक्षा ओर अपेक्षा का दर्द की आंच जो कल हम तक भी पहुंचेगी।
बहुत ही उम्दा कहानी अस्ताचल सूर्य और पुनः एक नयी ताज़गी एवं उमंग के साथ नए कोपल का उद्भव।
वाह। अद्भुत।
प्रकृति के संपूर्ण दर्शन के बीच यह खाली बेंच उसके अंदर एक अधूरापन भरने लगता था।
शानदार शब्द शिल्प
न थकान न स्यापा हो तो जिन्दगी की नौंक हो बुढ़ापा