वरिष्ठ लेखक। चार उपन्यास और तीन कहानी संग्रह : ‘शहर की आखिरी चिड़िया’, ‘टोकनी भर दुनिया’, ‘अपने हिस्से का आकाश’।
आर.एस.चौधरी, अर्ज़ीनवीस। उनके घर के दरवाज़े पर लगी नेम प्लेट। चौधरी बाबू के अर्ज़ीनवीस होने की घोषणा करती हुई। वे बरसों-बरस अर्ज़ीनवीस रहे। कचहरी में। होलकर रियासत के दौर के क़स्बे की कचहरी। इमारत का ज़्यादातर हिस्सा पत्थरों का बना था। मोटे-मोटे एरण पत्थरों का। कचहरी की बगल में बनी ट्रेज़री और पीछे की जेल भी उन्हीं पत्थरों की बनी थी। दूसरी तरफ के कोर्ट का भी बड़ा हिस्सा वैसा ही था। हालांकि वह इमारत बाद में बनी थी।सामने छोटा-सा बगीचा था। उससे लगी हुई मेन रोड।जो आगे मंडी तक जाती थी और कभी-कभी ही ख़ाली होती थी।
कचहरी के कमरे काफ़ी बड़े-बड़े थे। ऊंची छत और मोटी दीवारों वाले कमरे! फ़र्श भी मोटे पत्थरों की थी। पूरी इमारत में एक ख़ास तरह की गंध घिरी रहती थी। पुरानी इमारतों से आने वाली गंध। कचहरी के पीछेवाले कमरे में नायब साहब बैठते थे। दूसरी तरफ़ तहसीलदार। अगल-बगल और सामने के कमरों में अलग-अलग दफ्तर थे, जिनकी दीवारों से लाल-पीले बस्तों में बंधी फ़ाइलों से लदी अलमारियां सटी हुई थीं। बीच में बाबुओं की टेबिल! छतों पर लगे पुराने टाइप के पंखे, जिनसे हवा के साथ घरघराहट की आवाज़ भी आती रहती थी। उसी घरघराहट में टाइपराइटरों की आवाज़ भी घुली रहती। इमारत के बीचों-बीच चौड़ा गलियारा था। काफ़ी चौड़ा।उसी में सारे अर्ज़ीनवीस और स्टांप वेंडर बैठते थे। उनके बैठने के लिए कचहरी के उस गलियारे के अलावा आसपास और कोई जगह थी नहीं सो सभी को वहीं बैठना पड़ता था। बरसों से बैठते आ रहे थे।अपनी-अपनी डेस्क लगाकर।वे भी! वे मतलब आर.एस. चौधरी। बीचवाली डेस्क उन्हीं की थी, जिसके ऊपर और गलियारे के ठीक बीच में पंखा लगा था। पुराने ढंग की लाइट फीटिंग थी और आमने-सामने की दीवारों पर कम वाल्ट के बल्ब लगे हुए थे। रात के अलावा वे बारिशके मौसम में बादलों की वजह से रोशनी कम हो जाने से दिन में भी जलाए जाते थे। उनकी डेस्क दो बल्बों के बीच में लगी थी। डेस्क में होते थे काग़ज, कार्बन, आलपिन, इंक पैड, मोहरें वग़ैरह। ठीक पीछे दीवार पर दूसरे अर्ज़ीनवीसों की तरह उनका भी नेम प्लेट लगा था-आर.एस. चौधरी, अर्ज़ीनवीस’।
सबेरे दस से शम पांच बजे तक गलियारे में स्टांप पेपर खरीदने-लिखवाने, अर्जी-दरख्वास्त दाख़िल करवाने और ऐसे ही दीगर काम के लिए आने-जानेवालों, वकीलों, मुवक्किलों की आवा-जाही बनी रहती, जो कई बार छोटी-मोटी भीड़ की शक्ल ले लेती।
आम तौर पर हर डेस्क पर अपने काम के सिलसिले में कोई न कोई बैठा हुआ होता। उनकी डेस्क पर भी। अर्जी लिखवाने या दूसरी लिखा-पढ़ी करवाने! बीच-बीच में पेशी पर हाजिर होने की पुकार लगती रहती। गलियारा लोगों और आवाज़ों से घिरा औेर भरा होता। वे भी अपने टाइपराइटर पर किसी की दरख़्वास्त में लगे होते। बीच-बीच में दरख्वास्त लिखवाने आये व्यक्ति से ज़रूरी छुटपुट जानकारियां पूछते जाते। उनके टाइपराइटर की आवाज़ भी दूसरे टाइपराइटरों की आवाज़ के साथ गलियारे में गूंजती रहती। बीच में चाय वगै़रह आ जाती।
उनका घर बस स्टैंड के पास बाजार से लगी शीतला माता गली में था। गली के मुहाने पर शीतला माता का मंदिर था। इसलिए गली शीतला माता गली कहलाती थी। शीतला सप्तमी के दिन सबेरे वहां पूजा करनेवाली महिलाओं की भीड़ रहती थी। गली छोटी-सी थी। थोड़ी-सी बांकी-तिरछी। शहर की सबसे पुरानी गलियों में से एक। बमुश्किल तीस-चालीस घर। सारे पुराने। पुराने ढंग की बनावट वाले। उनका घर भी पुराना था। इसका ज़्यादातर हिस्सा कच्ची ईंटों का बना था। आगे मिट्टी का ओटला था, जो बारिश में उखड़ जाता था। दिवाली के पहले उनकी पत्नी इसे गोबर-मिट्टी से छापती-लीपती थी। सबेरे तैयार होकर पेपर पढ़ने के लिए वे ओटले पर ही बैठते थे। वहीं बैठे-बैठे आस-पड़ोसवालों से छुटपुट बातचीत भी हो जाती। पिछवाड़े अमरूद का पेड़ था। अमरूद के सीजन में उस पर परिंदों का जमावड़ा रहता था। अमरूद वे गली के बच्चों में बांट देते थे। घर छोटा-सा था। ज़रूरत जितना। बीच का कमरा कोठरी-जैसा था, जिसमें बारहों महीने अंधेरा रहता था। कोई खिड़की या रोशनदान न होने से। कोठरी में कुछेक पुराना सामान, तांबे-पीतल के बर्तन, और दो-तीन लोहे की पेटियां जैसी चीज़ें रखी थीं। जिनका आम तौर पर काम नहीं पड़ता था। पेटियों में पुराने काग़ज़ात और कपड़े रखे थे। पेटियों को कभी-कभी ही खोला जाता था। खुलते ही कोठरी में काग़ज़ात और कपड़ों की गंध फैल जाती थी। पुरानी गंध!
वे वहां के सबसे पुराने अर्ज़ीनवीस थे। उनके पहले के जो कुछेक अर्ज़ीनवीस रहे होंगे वे अब बचे नहीं थे। एक-दो जो थे वे बिस्तर पर थे। सो वे ही सबसे पुराने थे। तब से थे जब अर्जियां लिखने और दीगर लिखापढ़ी करने का काम क़लम-दवात से किया जाता था।
क़लम या होल्डर! उनकी डेस्क पर काली और लाल स्याही की दो दवातें और दो होल्डर रखे होते थे। साथ में ब्लाटिंग पेपर, जिसकी मदद से लिखी हुई इबारत की अतिरिक्त स्याही सोख ली जाती थी। कभी-कभी यह होता कि काग़ज़ उठाने-धरने या दूसरी हड़बड़ में स्याही ढुल जाती, जिसे पोंछ दिया जाता। निशान फिर भी रह जाते थे। निशान और दाग! उनकी डेस्क पर वैसे बहुत सारे दाग़-निशान देखे जा सकते थे। दूसरे अर्ज़ीनवीसों की डेस्कों पर भी। परेशानी तब होती थी जब लिखी जा रही अर्ज़ी पर स्याही ढुल जाती और तब उसे नए सिरे से लिखना पड़ता था। वैसे, दवात-होल्डर से ज़्यादा दिन काम करना नहीं पड़ा। शुरू-शुरू के सालों में किया। जल्दी ही फाउंटेन पेन आम चलन में आ गए। काम आसान हो गया। उनकी जेब में दो पेन रहने लगे। लाल और काली स्याही के। उनके नीचे के हिस्से पारदर्शी होते। स्याही की मात्रा दिखाई देती रहती। वैसे कचहरी निकलने के पहले वे पेनों की स्याही वगै़रह देख लिया करते थे। हमेशा पूरी भरी रखते थे। इसके अलावा निब वगै़रह भी साफ़ कर लिया करते ताकि लिखते वक़्त पेन रुके या अटके नहीं। उनकी डेस्क में दीगर सामान के साथ एक जोड़ी नीबें भी रखी होतीं। टूटने पर बदल ली जाती।
आगे चलकर जब अर्ज़ीनवीसी का काम कुछ लोग टाइपराइटर पर करने लगे तब वे भी एक टाइपराइटर ख़़रीद लाए। हालांकि टाइपराइटर पर काम करना शुरू में आसान नहीं रहा। बल्कि काफ़ी उलझन और थकाने वाला ही रहा। परेशान करने वाला भी! कई दिन घर पर ही प्रैक्टिस करते रहे। इस बीच रिबन अटकती रही। काग़ज़ रोलर में उलझता रहा। एक से ज़्यादा कीं एक साथ दब जाने से एक-दूसरे में फंसती रहीं। काग़ज़ रोलर में फंसता रहा। बहरहाल, सीख गए। धीरे-धीरे। जैसे-तैसे। हालांकि ज़रूरी भरोसा देर से आया। जब आया और लगा कि अब टाइपराइटर पर काम कर सकेंगे तब टाइपराइटर साइकिल के पीछे कैरियर पर रखकर तहसील ले जाने लगे। शुरू-शुरू में टाइप करने का काम एक उंगली से ही चलाया। दसों उंगलियों का इस्तेमाल तो कभी आया ही नहीं। बिना की बोर्ड देखे काम करना भी नहीं आया। आंखें की बोर्ड पर लगाए रखनी पड़तीं। इतना अच्छा था कि इसके बावजूद काम करना आ गया। सहूलियत हो गई। काम में सफ़ाई आ गई और काम भी तेजी से होने लगा। अब उनकी डेस्क पर दूसरे अर्जीनवीसियों की तरह टाइपराइटर रहने लगा। शाम को घर लौटते वक़्त टाइपराइटर साइकिल पर रख कर घर ले आते। साइकिल जो अभी तक इधर-उधर जाने के काम आती थी, टाइपराइटर ले जाने-लाने के काम आने लगी। कचहरी घर से नज़दीक होने से अभी तक ज़्यादातर पैदल जाते-आते रहे थे। अब साइकिल से जाने-आने लगे। बैठकर नहीं! साइकिल हाथ में लेकर पैदल। केरियर पर टाइपराइटर मज़बूत रस्सी से बंधा होता। और वे पैदल चल रहे होते। इसमें ख़ुद के और टाइपराइटर के गिरने का ख़तरा नहीं रहता। पहुंचने के बाद रस्सी खोलकर केरियर से लपेट देते और टाइपराइटर उतार लेते।
अर्ज़ीनवीसी उन्होंने अपने मौसा के पड़ोसी से सीखी थी। मां-पिता के गुज़र जाने पर मौसा उन्हें कुछ साल के लिए अपने पास ले गए थे। थोड़ी-बहुत पढ़ाई उन्हीं के पास रह कर हुई थी। मौसा के पड़ोस के सज्जन कोर्ट में पिटीशन राइटर थे। वे कोर्ट के अलावा घर पर भी काम करते थे। उन्हीं के पास जाते-आते अर्ज़ीनवीसी से जुड़ीं कुछ-कुछ बातें सीख गए। कुछेक बार उनके साथ कोर्ट भी जाना हुआ। वहां उनके पास बैठ उन्हें काम करते देखा। जाना। सीखा।
मौसा के यहां से लौटने के बाद गुजारे का सवाल सामने था। क्या करें एकदम से सूझा नहीं! शुरू-शुरू में कुछेक छुट-पुट काम किए। लेकिन जमे नहीं। फिर अर्ज़ीनवीसी का ख़याल आया। कचहरी जाने-आने लगे। थोड़ा-बहुत आता था। कुछ इस-उससे पूछा, समझा और काम शुरू किया। धीरे-धीरे काम चल निकला। गुजारे का रास्ता निकल आया। हालांकि मामूली अर्ज़ीनवीस होने से शादी-ब्याह में दिक़्क़त ज़रूर हुई। फिर भी मौसा ने ढूंढ-ढांढकर जैसे-तैसे शादी करवा दी। पत्नी भले ही कुछ कमज़ोर और बीमार-सी मिली, लेकिन गृहस्थी बस गई। पत्नी से कभी शिकायत नहीं रही। बच्चा न हो पाने की भी नहीं! घर, कचहरी, बीमार बीवी की तीमारदारी वग़ैरह में लगे रहे। गली-मोहल्ले औेर मिलने-जुलनेवालों के यहां सुख-दुख में जाते-आते रहे।
अपने गली-मोहल्ले और साथ काम करनेवालों के बीच वे हमेशा सम्मानित व्यक्ति के तरह रहे। कुछ तो उनकी उम्र और कुछ व्यवहार के कारण। साथ काम करनेवाले दूसरे अर्ज़ीनवीस तो ठीक, कचहरी के कई बाबू भी उनका अदब करते थे। सबेरे जल्दी तैयार होकर अख़बार निपटाने के बाद वे एक बार गली-मोहल्ले का चक्कर लगा आते और कचहरी खुलने के दस-पंद्रह मिनट पहले अपना टाइपराइटर ले अपनी डेस्क पर पहुंच जाते। अपने बैठने की जगह की साफ़-सफ़ाई करते। डेस्क खोल काग़ज़-कार्बन, मोहरें, स्टेपलर, गोंद वग़ैरह बाहर रख लेते। अगरबत्ती जला देते। तब तक कचहरी का स्टाफ़ और आसपास बैठनेवाले अर्ज़ीनवीस आ जाते। उन सबसे उनकी सीट पर जा कर मिल आते। हालचाल पता कर लेते। फिर आकर अपनी सीट पर बैठते। यह सिलसिला बरसों से चल रहा था। शादी होने के पहले से! शादी होने के बाद भी चलता रहा। और पत्नी के गु़ज़र जाने के बाद भी जारी था।
शादी के पहले से जल्दी उठने की आदत रही। बाद में भी उठते रहे। उठकर घर के काफ़ी काम निपटा दिया करते। खाना बनाने में पत्नी की मदद कर देते। उसके बीमार रहते काम थोड़ा बढ़ जाया करता था। अस्पताल ले जाना, दवा देना और घर के काम देखना। कचहरी से बीच-बीच में घर देखने भी आना पड़ता था। बाद में तो खै़र पत्नी चली ही गई। उन्होंने तेरह दिन काम बंद रखा। चौदहवें दिन फिर कचहरी जाना शुरू कर दिया। वैसे, कचहरी अब पहले से थोड़ी और जल्दी जाने लगे। जाते, कुछ देर कचहरी के सामने के बग़ीचे में बैठते। बग़ीचे के माली के साथ एकाध बीड़ी पीते। तब तक कचहरी खुलने का वक़्त हो जाता। वे उठकर अपने काम में लग जाते।
कचहरी और कोर्ट लगभग एक-दूसरे से सटे हुए ही थे। वक़ीलों का आना-जाना दोनों जगह लगा रहता था। दो-तीन वक़ील अपना काम उनसे ही करवाते थे। अपने मुवक्किल उन्हीं के पास भेजते। हलफ़नामे, ख़रीद-बिक्री और लेन-देन की लिखा-पढ़ी, मार-पीट के मामले, ज़मीन-जायदाद के झगड़े! भाई का भाई के ख़िलाफ़ केस, बेटे का बाप पर मुक़दमा। जायदाद के बंटवारे की नालिश!
पूरे दिन इसी सबका हंगामा रहता। कोई किसी के अपना भाई होने से इनकार का हलफ़नामा तैयार करवा रहा है! किसी को अपने बाप की वसीसत को जाली या बेहोशी में लिखवाई साबित करवाना है। कोई किसी के मकान पर कब्जा जमाए बैठा है, कोई ज़मीन पर! किसी ने मंदिर की ज़मीन हड़प रखी है, कोई स्कूल के खेल का मैदान हथियाने की कोशिश में है। दावे, शिकायतें, आपत्तियाँ, मांगें, हल़़फ़नामे और कभी-कभी राज़ीनामे। दिन-भर यही सब चलता रहता। उनकी और दूसरे अर्जीनवीसों की डेस्क पर! पंखों की घरघराहट, टाइपराइटरों की टकटक और बीड़ी का धुआं! वकील, मुवक्किल वग़ैरह की आमदरफ़्त और भीड़। बाजवक़्त ज़ोर से बोलना और कान देकर सुनना पड़ता। सुने हुए की कई बार पूछकर तस्दीक़ करनी पड़ती।
शाम को दिमाग़ी तौर पर बुरी तरह थक कर घर लौटते। कभी-कभी मन बेहद कड़वा होता। कहां तो भरत ने राजपाट स्वीकार न कर सिंहासन पर बड़े भाई की पादुका रख चौदह साल उनकी तरफ़ से राज संभाला और वनवास से भाई के लौटने पर उन्हें उनका राजपाट लौटा दिया और अब कहां यह सब! भाई, भाई के ख़िलाफ़ मुक़दमा कर रहा है,भाई के भाई होने से इनकार कर रहा है! सोचकर बहुत तकलीफ़ होती।
‘वह गुजरे जमाने की बात हुई भैया, हमारे समय की तो अब पहचान ही यह है! अब छोटा भाई सबेरे रामायण से राम-भरत मिलाप प्रसंग बांचेगा और दोपहर को बड़े भाई के ख़िलाफ़ चल रहे जायदाद के मुक़दमे की लगी तारीख़ पर सुनवाई के लिए अदालत में हाज़िरी बजाएगा। किसी के बेटा या भाई या बाप होने का फ़ैसला अब तो कभी-कभी हलफनामा या गवाह-पुरावे से नहीं, बल्कि डी.एन.ए. टेस्ट से होने की नौबत आने लगी है। औलाद होने या वल्दीयत के सबूत के तौर पर डी.एन.ए. रिपोर्ट लगाना सरकारी कार्रवाई में शायद जल्दी ही ज़रूरी भी हो जाए!’ छगन मास्टर का जवाब में कहना होता। मास्टर के छोटे भाई ने खु़द उन्हें अपने पैतृक घर से बेदख़ल कर रखा था। और वे किराए के मकान में गुजारा कर रहे थे।
घर लौटने के बाद देर तक उनके भीतर कचहरी में अपने टाइपराइटर पर लिखी गई इबारतें और छगन मास्टर के जवाब गूंजते रहते और ख़ुद को सचों के क़त्लगाह में फैले ख़ून और गोश्त के टुकड़ों से लथड़-पथड़ महसूस करते रहते। घर में और बाहर रात उतर रही होती। वे देर तक रात के साथ उतरते-फैलते सन्नाटे में अपने होने को सुनते रहते। होने, न होने की सरहद पर खड़े होकर। पत्नी के न होने को भी इसी तरह से सुनने की कोशिश करते। फिर अगर मन होता तो खाना बनाने लगते वरना लेट जाते।
उस दिन भी लेट गए थे। कचहरी से जल्दी लौट आए थे। काम भी ज़्यादा नहीं था। तहसीलदार साहब कलेक्टर और कमिश्नर साहब के साथ नामली के लिए निकल चुके थे। उन्होंने बकाया काम निपटाया था। कुछेक देर बैठे थे।इस बीच बग़ल में बैठनेवाले जुगलकिशोर की मंगवाई चाय पी थी। और रोज़ की तरह अपना बाहर रखा सारा सामान समेट कर डेस्क में रख उस पर ताला लगाया था। डेस्क को दीवार के पास सरका उस पर अपने बैठने की दरी तह कर के रख दी थी।
‘आज जल्दी जा रहे हैं?’ जुगलकिशोर ने पूछा था।
‘हां, आज ज़रा जल्दी निकलूंगा।’ उन्होंने टाइपराइटर उठाते हुए कहा था। पहले भी जब कभी पत्नी बीमार पड़ती थी या और कोई ज़रूरी काम निकल आता तब इसी तरह से जल्दी चले जाते थे। आज भी निकल आए। घर लौटकर साइकिल दीवार से टिकाई,टाइपराइटर उतारकर भीतर रखा। कैरियर पर बंधी रस्सी को कैरियर पर लपेटा और भीतर आकर लेट गए। देर तक लेटे रहे। चुपचाप। इस बीच दूधवाला आकर चला गया। लेटे-लेटे पता नहीं कब नींद लग गई। अगली सुबह जब जागे तब काफ़ी धूप निकल आई थी। उनके जागने का हमेशावाला वक़्त कब का बीत चुका था। उस दिन छुट्टी थी। कचहरी नहीं जाना था। धीरे-धीरे रोज़ के काम निपटाए। अखबार आया पड़ा था। लेकिन पढ़ा नहीं। सिर्फ़ उलटा-पुलटा और तह करके रख दिया। रात को खाना नहीं खाया था। आज भी मन न होने से नहीं बनाया। दो-एक बार चाय बनाकर पी और बैठे रहे। रोज़ की तरह बाहर नहीं निकले।लोगों से नहीं मिले। शाम को निकले। साइकिल से।मिडिल स्कूल, सरकारी अस्पताल और शहीद चौक का चक्कर लगाते हुए कचहरी पहुंच गए।
यूं भी छोटी जगहों के रास्ते ज़्यादा इधर-उधर नहीं जाते। कुछ गिनी-चुनी, जानी-पहचानी जगहों के नज़दीक से गुजरते,उन तक पहुंचते एक तरह से अपनी जगह लौट आते हैं। या थम जाते हैं।उन पर चलते हुए गुमने-खोने का ख़तरा कम रहता है।
बहरहाल बरसों के जाने-पहचाने रास्ते पर चलते हुए वे कचहरी तरफ़ निकल आए थे। कचहरी का सूना और बंदपन शाम के छुटपुटे में और ज़्यादा सूना और बंद लग रहा था। कुछ देर उस सूने और बंदपन के सामने साइकिल हाथ में लिए चुपचाप खड़े रहे। फिर साइकिल रोज़ की जगह पर खड़ी कर दी। धीरे-धीरे बंद और सूनी कचहरी का एक चक्कर लगाया। कचहरी के सूने बरामदों से गुजरे। इजलास में ‘हाजिर हो’ की पुकार सुनी।दरवाजों के शीशों से ख़ाली मेज़-कुर्सी, बंद छतपंखे और अलमारियों में रखीं फाइलों के गट्ठरों को देखा। उसके बाद बीच वाले गलियारे में आ गए।गलियारे में भी सन्नाटा पसरा था। दीवार से सटकर उनके समेत सारे अर्जीनवीसों की डेस्कें रखी हुई थीं। दो दिन पहले भी वहां भीड़ जैसी ही थी। उस दिन हाट भी था!टाइपराइटर की और दीगर आवाजें गलियारे में गूंज रही थीं। तभी वहां कलेक्टर के साथ कमिश्नर आ पहुंचे थे। बिलकुल अचानक। बिना सूचना दिए। उनके आने की ख़बर लगते ही तहसीलदार और नायब साहब अपने-अपने चेंबरों से दौड़कर पहुंचे थे। कमिश्नर कचहरी के गलियारे में भीड़ और काम कर रहे अर्ज़ीनवीसों को देखकर भड़क उठे थे।
‘यहां यह भीड़ क्यों लगा रखी है! और आप लोग यहां बैठकर काम क्यों कर रहे हैं! बाहर जाकर कहीं और बैठिए!’ गुस्से में उफनती उनकी आवाज़ पूरे गलियार में गूंजी थी। सन्नाटा खिंच गया था। सारे अर्जीनवीस अपनी जगह खड़े थे। चुप थे। और चौधरी जी की ओर देख रहे थे। वे ही वहां सबसे सीनियर और अनुभवी थे। उन्होंने एक बार अपने सारे साथियों को देखा। फिर अपनी जगह से थोड़ा-सा आगे आए। और अपने स्वाभाविक विनम्र अंदाज़ में बोले,‘सर,बाहर कहीं दूसरी जगह है नहीं। हम लोग बरसों से यहीं बैठकर काम करते आ रहे हैं।’
‘बरसों से बैठते आ रहे हो तो क्या कचहरी अपने नाम लिखवा ली है! मुंहज़ोरी करते हो! नेता बनते हो! अभी सारे सामान समेत उठवा कर बाहर फिकवा दूंगा समझे। सारी नेतागिरी ठिकाने लग जाएगी…’
कमिश्नर तैश में आ गए।देर तक दनदनाते रहे। तहसीलदार, नायब तहसीलदार चेहरे का पसीना पोछते उन्हें अपने चेंबर में ले गए थे।उन्होंने शायद उन दोनों को भी डपटा था। और दस-पंद्रह मिनिट रुक कर कलेक्टर के साथ पास के गांव नामली निकल गए थे। तैयारी का जायजा लेने। वहां मुख्यमंत्री अगले महीने आने वाले थे।
वे कुछ देर अपनी जगह वैसे ही खड़े रहे थे। पथराए हुए।इन कुछेक पलों में ही उनके बाहर-भीतर से जाने क्या-क्या गुज़र गया था। भीतर जाने कितना-कुछ भरभराकर ढह गया था।बिखर गया था। जिंदगी में पहली बार अपने लिए इस तरह का कुछ सुना था! ऐसे शब्द! इतनी ऊंची आवाज़! ऐसा लहज़ा! सबके बीच! उनका अदब करने वालों के सामने। आज तक नहीं हुआ था ऐसा! वे बाहर से चुप थे।भीतर सन्नाटा था।
कुछ देर खड़े रहने के बाद फिर अपनी सीट पर बैठ गए थे। हरिप्रसाद उनके लिए पानी लाया था। थोड़ा-सा पीकर गिलास लौटा दिया था।सब पर एक नज़र डाली थी। सब सिटपिटाए हुए और सन्न थे। उन सबको सहज बनाने के लिए उनकी ओर देखकर मुस्कुराए थे। और अपने टाइपराइटर के रोलर में फंसी अधूरी अर्ज़ी पूरी करने लगे थे। चुपचाप। उन्हें देख बाक़ी लोग भी अपना बकाया काम निपटाने लगे थे। वे क़रीब आधा घंटा और बैठे थे। फिर सामान समेट, जुगलकिशोर की मंगवाई चाय पीकर आ गए थे।
और अब दो दिन बाद वे फिर कचहरी में थे। बंद कचहरी के गलियारे में। अपन नेम प्लेट के ठीक सामने! ‘आर.एस. चौधरी, अर्जीनवीस’। गलियारे में लगे कम वॉल्ट की रोशनी में अक्षर घुंधले लगे थे। बाक़ी अर्जीनवीसों की लगी नेमप्लटों के भी। तभी चौकीदार आ गया था। उस वक़्त उन्हें वहां देख थोड़ा चौका था।
‘बाबूजी, कुछ काम था क्या?’ उसने पूछा था ।
‘नहीं,ऐसे ही आ गया था।’ उन्होंने कहा था। कुछ देर उससे उसके घर-परिवार की बातें की थीं। चौकीदार उसके बाद ट्रेज़री के पीछे के शिव मंदिर में अगरबत्ती लगाने चला गया था। लौटकर जब आया तब उसे गलियारे में जो कुछ देखा उससे उसकी चीख निकल गई।
अगले दिन अख़बारों में छपा और पुलिस को दिया उसका बयान कुछ इस तरह से था, ‘मैं करीब साढ़े छह-सात बजे अपनी रात की ड्यूटी पर कचहरी पहुंचा था। कचहरी के बाहर के लाइट जलाकर जब मैं बरामदे में पहुंचा तो वहां चौधरी बाबूजी को चुपचाप खड़े पाया। मेरे पूछने पर उन्होंने इतना ही बताया कि ऐसे ही घूमते हुए इधर आ गए हैं। उसके बाद उन्हें वहीं छोड़ मैं शिव मंदिर में अगरबत्ती लगाने चला गया। लौटकर बगीचे में घुस आई बकरियों को भगाया। बकरियां भगाकर जब वापस आया तो बाबूजी को पंखे से लटका पाया। उनके पांव के नीचे उनकी डेस्क लुढ़की हुई थी। साइकिल रोज़ की जगह खड़ी थी। उसके कैरियर से बंधी रहनेवाली रस्सी नहीं थी।’
संपर्क : 155, एल.आई.जी.मुखर्जीनगर, देवास, म.प्र.-455001, मो.9407416269
पठनीय और संग्रहणीय दस्तावेज़
दिनोंदिन असहनीय और असंवेदनशील होते जारहे समाज,प्रशासन और राजनीति के रवैये को प्रकट करती अद्भुत कहानी।जो व्यक्ति अपने जीवन के संकटों में बेरोजगारी,पत्नी की बीमारों और उनकी मृत्यु से विचलित नहीं हुआ, वह स्वाभिमानी व्यक्ति एक असंवेदनशील नौकरशाह के अहंकार जन्य बर्ताव और मजदूरपेशा अर्जिनवीसों के लिए नायक के मार्फ़त अपमानजनक जुमले बोलने पर भीतर से टूट गया और अपनी अर्जिनवीस वाली जगह पर ही आत्महत्या कर बैठा। ओह। मारक समय की मारक प्रस्तुति।