युवा कथाकार। प्रकाशित पुस्तकें, ‘वैश्वीकरण और हिंदी का बदतलता हुआ स्वरूप’(आलोचना) और ‘खिलखिलाता हुआ कुछ’ (कविता-संग्रह)। गया कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर।

उनका नाम इतना जवान था कि उन्हें बाबा कहने की इच्छा नहीं होती। यद्यपि थे वे बाबा ही। एक उम्र के बाद दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल उनके भी सफेद हुए। एक उम्र के बाद उनकी चमड़ियां भी ढीली पड़ने लगीं। सिकुड़न ने उन्हें भी बीमारियों की तरह दबोचना शुरू कर दिया। उनकी थकान उनके वजन से भी भारी होनी शुरू हो गई। उनका वजन ही कितना होगा? बमुश्किल 50-55 किलो। लेकिन उनकी थकान का वजन बढ़ते-बढ़ते टनों तक जा पहुंचा… लगता था वे बहुत लंबे अरसे से थकते आ रहे हैं और एक दिन उन्होंने थक-हारकर कहा ‘अब बहुत हुआ।’ वह बरसात का कोई दिन रहा होगा। चारों ओर पानी ही पानी! कीचड़ ही कीचड़! ताल-तलैया सब भरे हुए…
….बादलों की एक नई खेप पूरब की तरफ से आई और पहले से बरस रहे बादलों की ताकत और बढ़ा गई। के.सी.पॉल के फटे हुए छाते को एक हाथ में थामे, दूसरे हाथ में अपने रबड़ के जूते उठाए छपाछप करते हुए, कपड़े कीचड़ से भरे हुए, बच्चों-सी मुस्कराहट लिए लौटे थे बाबा। सड़क पर पैदल चलते-चलते जब खेत के पास पहुंचे तो एकदम बच्चे बन गए। वहां से लौटकर घर आए तो देखा बादल ने घर में भी डेरा जमा लिया था। उनसे कौन पूछता? खुद से ही पूछा उन्होंने ‘कहां गया था बुड्ढा? जरा अपनी परिस्थिति और अपनी उम्र का तो लिहाज कर!’ फिर खुद ही जवाब देते रहे। ‘अरे! तुमने देखा नहीं? खेत गया था। धान के खेत। पूरा हरा-कचूर खेत। पानी लबालब भर गया है। बांध पर मछलियां चढ़ रही हैं। जाल लगा आया हूँ भाई। तूने देखा नहीं?’ ‘हाँ देखा! कहाँ है धान? कहां है मछलियां? तुम अपने जवानी के दिनों में चले गए हो भाई। होश में आओ। बांध टूटने वाला है। जलप्रलय आने वाला है। इतना खुश मत रहा करो। खुश रहने के लिए बचा ही क्या है तुम्हारे पास?’ जैसे धरती का ठोस एहसास हुआ हो… जैसे बर्फ की सिल्ली छू गई हो। ‘सच कहते हो। पता नहीं मैं क्यों खुश रहता हूँ इतना? कौन सा सुख मुझे बच्चा बना रहा है?’
चारों ओर से हहाकर पानी गिर रहा था। उस चौखंडी-घर में बस खाट भर जगह पर आसमान ने रहम की थी। सामने एक भनसाघर था, जिसका छाजन अच्छा था, इसलिए सूखा था। चौखंडी में खाट भर जगह सूखी थी, जहां बुढ़िया लेटी हुई थी। बुढ़िया यानी बाबा की पत्नी। दमे की मरीज। बात-बात में खांसती हुई। बादलों के खेल से खेलते मुस्कराते बाबा अचानक सहम गए। उन्होंने चाहा कि छाता बड़ा हो जाए। आसमान जितना नहीं तो कम से कम घर जितना। लेकिन छाता और छोटा होता गया। बारिश और बड़ी होती गई। बारिश से थक गए बाबा। थकी हुई आवाज में उन्होंने बुढ़िया से कहा, ‘बारिश जाने वाली नहीं। लगता है मुझे ही जाना होगा।’ ‘कहां?’ बुढ़िया ने कराहते हुए पूछा, ‘पता नहीं। लगता है इस बारिश में सब डूब जाएगा।’ इस तरह बरसात के पानी में भींगकर बाबा की थकान बहुत भारी हो गई।
मुझे नहीं पता था कि थकान की भी किस्में हो सकती हैं। बीजों की संकर किस्मों की तरह। मकई, मंडुवे, मूंग, गेहूं और धान की किस्मों की तरह। लौकी, करैले, सेम के किस्मों की तरह कुछ पहचानी कुछ अनपहचानी। थकान कभी-कभी जिंदगी से भारी हो जाती है। मुझे ये भी नहीं पता। मैंने बाबा की थकान को कभी नहीं महसूस किया। वे मुझे हमेशा बच्चा समझते और मैं उनको। मेरे पिता ने बाबा की भींगी हुई रुई के गट्ठर-सी भारी थकान को पहचाना। उन्होंने कवि घाघ-भड्डरी की तरह हवा के रुख से और अपने अनुभव ज्ञान से सब कुछ जान लिया। बरसात के बाद जब तेज धूप फैली तब एकाएक धूल उड़ने लगी। बलुआही जमीनों में जैसे नमी नहीं ठहरती है, वैसे ही। उस दिन शाम को मचान पर बैठे हुए उन्होंने बाबा के ललाट पर एक नई रेखा उगी हुई देखी थी। पिता बोलते-बोलते अचानक चुप हो गए। ललाट पर इस रेखा का उगना उनके खेतों में बोई फसलों के न उगने के बावजूद घटित हुआ था। पूरे इलाके में पिछले कई सालों के सूखे, इस साल की घनघोर बारिश, बाढ़ की आशंकाओं और फसलों की बीमारियों के बावजूद उनकी ललाट पर उगी वह रेखा, जो पिता ने देखी थी, गरीबी की रेखा से अलग थी।
गरीबी की वह रेखा, जो सरकारी आंकड़ों में सबसे बड़े झूठ के रूप में दर्ज होती है, उससे अलग, जो उगती है तब आसमान में चांद डूब जाता है। रात अंधेरे से घिर आती है। थोड़े बहुत जुगनू की तरह तारे कहीं चमक रहे होते हैं रह–रह कर। वहीं किसी कोने में उम्मीद का एक बरगद बच्चा होने की कोशिश में बुढ़ापे की अपनी बूढ़ी खाल उतार कर नन्हा पौधा बन जाता है।
हम अक्सर पिता से कहते ‘उन्हें बाबा कहने की इच्छा नहीं होती, क्यों? उनकी उम्र उतनी नहीं है जितनी बाबा की होती है।’ मेरे पिता हिसाब जोड़ने की तरह जोड़कर कहते, ‘वे मेरे अपने बाबा के छोटे भाई हैं। चौथे नंबर पर।’ इसलिए पिता की उम्र से उनकी उम्र बमुश्किल सात-आठ बरस अधिक रही होगी। यद्यपि सात-आठ वर्ष बहुत नहीं होते पर ये बरस जैसे उनके सिर उधार ली गई रकम के ब्याज की तरह या बेगारी करने वाले मजदूर के माथे पर धान के बोझे की तरह आकर बैठ गए थे।
अपने अंतिम दिनों में उम्र के बोझ से नहीं सिर पर बैठे अनजान दबाव से किसी शराबी की तरह उनके पैर डगमगाने लगे थे। जैसे वे अपने एकांत के किसी कैदखाने में चले गए हों। बाहर निकलते ही हहाती हुई बारिश का शोर हो, जिससे उन्हें डर लग रहा हो। भींगी हुई राहों की फिसलन उन्हें बार-बार अपने ही घर में कैद रहने की हिदायत दे रही हो। हमें उन दिनों की नहीं उससे पहले के उजले दिनों की याद आती रही थी। उनके हिस्से के खेत में एक कुआं था और उसकी बगल में एक बड़ा बरगद का पेड़। इसी कुएं के पाट पर खेत में काम कर लौटते हुए कुएं में रस्सियों के सहारे बाल्टी डालकर छपाक-छपाक से कुएं के ऊपरी जल की गंदगी को हटाकर पानी भरने का आनंद लेते मिलते थे बाबा। जब कभी छुट्टियों में शहर से पढ़ाई कर लौटकर हम चिड़ियों को देखने की लालसा में इधर आते तो ऐन पाट पर टकरा जाते बाबा। ‘चिड़ी को देखने आया है? तुम्हारे हाथ में घोंसले से निकाल कर गरमा-गरम चिड़ी रख देंगे।’ ‘गाछ पर घोंसला बहुत है। घोंसले में चिड़ी बहुत है।’ बोलकर कहीं खो जाते बाबा। शायद खुशी को याद करने लगते। खुशी एक छोटी-सी चिड़ी। उनकी नतिनी।
‘अनितिया आई है। लगता है अब यहीं रहेगी। बोलती है अब बघवादियरा नहीं जाएगी। इसका पति बहुत मारता-पीटता है।’ बाबा मेरी मां के सामने बड़ी सहजता से कहते हुए दिखे थे। मां को उन्हें जब भी कुछ सुनाना रहता तो खांसते हुए आंगन पहुंचकर नाम लिए बिना कहते, ‘हे कनियां…’ और मां समझ जाती कि उन्हें कुछ कहना है। मां चुपचाप माथे पर पल्लू रखकर उनसे थोड़ी दूरी पर आकर खड़ी हो जातीं। मां को पता था कि इतनी आसानी से कह भर देने से कि अनीता आई है कुछ नहीं होता… समस्या कितनी बिकराल है! ‘समस्या बड़ी है’ यह कह देने से समस्या और भी बड़ी हो जाती है, यह मेरी मां जानती थी, इसलिए वह सिर्फ इतना बोली कि ‘अनीता को मेरे पास भेज दीजिए।’ चिट्ठी के जमाने में मां सबकी चिट्ठियां लिखा करती थीं। जब फोन का जमाना आया तो मां सबका फोन रिसीव कर बुलवाया करतीं। मां गांव भर की औरतों के दुख सुना करतीं। सुनते-सुनते मां उनलोगों के दुख हर लेतीं। इसलिए शायद बाबा ने मां को कहा होगा, ‘अनितिया आई है।’
अनीता बुआ की बेटी खुशी छोटी चिड़ी थी। जैसे चिड़ी बोलती है वैसे खुशी बोलती। जैसे चिड़ी उड़ती है वैसे खुशी उड़ती। उड़ते-उड़ते एक दिन वह सचमुच ही उड़ गई। पिंजरे में कैद चिड़िया की तरह। उड़ी और फिर वापस नहीं आई। उड़ते वक्त उसके शरीर में खून नहीं था। चार बरस उम्र थी उसकी। चार बरस की उम्र में वह कुछ ज्यादा ही बड़ी थी। बाबा उसे शहर के हॉस्पिटल ले जाते। वह वहां से जल्द वापस आना चाहती। वह फुदकना चाहती। वह उड़ना चाहती। वह चार बरस में ही बहुत जीने लगी। एक-एक बरस में दस-दस बरस। जैसे उसकी आंखें सबकुछ समझने लगी थीं।
बाबा ने कहा था, ‘खुशी का शरीर हल्का हो रहा है। कहीं खुशी रुई की फाहों में न बदल जाए।’ बाबा ने कहा था, ‘खुशी के शरीर में खून नहीं बन रहा है, इसलिए देखना खुशी और सफेद हो जाएगी। सफेद रुई की तरह।’
जब खुशी उड़ रही थी तब हल्की-हल्की गर्मी शुरू हो रही थी। वसंत के फूल मुरझाने लगे थे। लेकिन पलास और गुलमोहर में फूल आने लगे थे। लाल-लाल। बिलकुल आग की तरह। पेड़ों के पत्ते गिरने शुरू हो गए थे। बड़े-बड़े पेड़ों के नीचे की जमीन पर पत्ते की चादर बिछ गई थी। बाबा उन दिनों कहीं खोए रहते। खेत में नाले का पानी खोलकर वे भूल जाते। बरगद के झड़े हुए पत्तों की चादर पर वे घंटों बैठे रहते। उन्हें गुलमोहर के फूल के बारे में बात करना अच्छा नहीं लगता। जबकि कभी वक्त ऐसा भी था जब बाबा गुलमोहर और अमलतास पर घंटों बातें कर सकते थे। लाल और पीला रंग जैसे उनके जेहन में बसा हुआ था। जब उनका मन अच्छा होता तो जैसे चहक उठते। फूल, गाछ और पंछियों को चिन्हाने में उन्हें खूब मजा आता। ‘दिमाग लगाओ लड्डू। मैंने पिछली बार बताया था ये कौन-सा पेड़ है? भूल गए? देखो इसके तने को गौर से देखो। और ये देखो! सामने वाला पेड़। ठूंठ वाला। हाँ हाँ वही! इसकी छाल उतार ली गई है। छाल उतारते हीं पेड़ सूखने लगते हैं।’
पिता उनके सामने बहुत कम बोलते थे पर हमारे दालान से उनके उठ कर अपने घर चले जाने के बाद उनके बारे में कुछ अद्भुत कहानियां कहते थे। बाबा की चुटकी लेने के लिए लोग उन्हें ‘नेता जी’ कहते थे। अपने लिए नेता जी शब्द सुनते ही बाबा के चेहरे का तनाव ढीला होने लगता, एक खुशनुमा चेहरा लोगों के सामने आ जाता। बाबा ने उत्साह में एक बार विधायक का चुनाव लड़ लिया था। ‘कब?’ पूछने पर पिता कहते ‘बहुत पहले’। पुरानी बात बताने में पिता को बहुत आनंद आता था और वे इसी अंदाज में सबको बोलते थे। बाबा के बारे में पिता द्वारा बताई गई सबसे अनोखी बात थी जिस पर कभी विश्वास नहीं होता कि बाबा ने एक बार मेरे अपने बाबा यानी पिता के पिता पर गड़ांसे से हमला कर दिया था। जमीन के विवाद के कारण। हालांकि वे बाल-बाल बच गए थे। बाद में बाबा को अपनी गलती का अहसास हुआ और वे बहुत लज्जित हुए। पिता कहते हैं कि बाबा ने गांव-घर के सभी लोगों से कहा था कि इस घटना का उल्लेख उनके सामने कभी न हो। पिता कहते हैं कि जब मेरे अपने बाबा गुजरे थे सुरेश बाबा फूट-फूट कर रोए थे।
‘अनीता आई है’ ऐसा वाक्य था जो बाबा को रोज मथता होगा। पति रोज मारता-पीटता है। अनितिया सूख कर कांटा हो गई है। वह गुंडा है गुंडा। दियरा का डकैत बनना चाहता है। उसकी अजमाइश अपने घर से ही कर रहा है। उस लंगटे से कौन भिड़ेगा? बाबा मेरी मां के सामने कहे गए खुद के इन वाक्यों से बार-बार टकराते होंगे और हर बार लहूलुहान हुए होंगे।
…इसी बीच खुशी रुई की तरह हल्की हो रही थी। खुशी को जब आखिरी बार मैंने देखा था तब उसकी आंखों में जैसे मौत की निश्चिंतता तैर रही थी। मेरी मां द्वारा परोसे गए स्वादिष्ट खाने को देखकर भी उसने अनिच्छा व्यक्त की थी। जैसे कह रही हो अब क्या? अब इसकी जरूरत नहीं… उसकी बड़ी-बड़ी कातर आंखें मुझसे देखी नहीं जा रही थीं। उसका पेट फूलने लगा था। वह एकदम शांत थी… बोलना बंद कर दिया था… जैसे एक अजनबी चिड़ी को किसी बहेलिए ने पकड़ कर पिंजरे में बंद कर दिया हो। पहले की चिड़ी नहीं थी खुशी जो हर वक्त उड़ती फिरती हो… चहचहाती रहती हो… मैं घर में कुछ दिन रहकर जब शहर जाने को हुआ तो मेरे दिल में एक हूक-सी उठ रही थी। खुशी का चेहरा बार-बार सामने आ जाता था। लग रहा था कुछ है जो छूट रहा है। हो न हो अनहोनी का अंदेशा मेरे दिल में बेचैनी भर रहा हो। मौत की भयानक खबरें इतना परेशान करती थीं कि लगता वे न सुनाई जातीं तो अच्छा था।
‘आलोकवा आ रहा है पंजाब से। मुसहरी का सुगना आया है आज। बोल रहा है कि दूसरे ट्रेन से आ रहा है। कल तक आ जाएगा।’ बाबा खांसकर कहते हुए आंगन में आते ही बोल उठे। उन्हें इस बार मां को ‘हे कनिया’ कहकर पुकारने की याद भी नहीं रही। शायद बाबा बहुत खुश रहे होंगे।
बहुत पहले ही बाबा से लड़–झगड़कर आलोक–चा पंजाब भाग गए थे… पंजाब–हरियाणा और दिल्ली भाग जाने की कहानी इस क्षेत्र के युवकों के लिए नई नहीं थी। रोजगार की तलाश में फुर्र से उड़ जाते… परदेश के दुख अलग थे… आलोक चा के अलग… बाबा के अलग… अनिता बुआ के अलग…।
बरसात के उस दिन जब बाबा फटे छाते में भींगते हुए कीचड़ से भरे बादलों से घिरे अपने घर में आकर अपने से बात कर रहे थे तब उनको बुढ़िया ने कहा था, ‘आओ बैठो। इतने बेचैन क्यों हो?’ बाबा अपने अधभीगे कपड़ों में ही बुढ़िया के पास एक काठ की कुर्सी पर बैठ गए। ‘ठीक कहती हो तुम। बेचैन होकर भी क्या होगा? कैलाश कह रहा था आलोक अब नहीं छूट पाएगा। थानेदार नहीं मान रहा।’
‘जमीन सूदभरना पर दे दो। कितना पैसा मांग रहा है दारोगा?’ ‘अब कुछ नहीं होगा। दारोगा कहता है शराब के साथ पकड़ाया है। ऊपर से आदेश है, इसलिए नहीं छोड़ेगा। शराब बंदी में शराब पहुंचाते पकड़ाया है।’
‘तो क्या हुआ। थाना वाले तो खुद पहुंचाते हैं।’
‘हां, हां, तुम्हारे हिसाब से सब डकैत ही है। तुम्हारा बेटा तो जैसे सत्य हरिश्चंद्र है? हर किसी को अपनी नौकरी प्यारी है। दारोगा क्या मेरा भाई लगता है?’ बादल की एक नई खेप आ गई थी और फिर झमाझम बारिश शुरू हो गई थी। बादल जैसे एक शराबी हो और बारिश में जैसे देशी शराब की गंध तैर रही हो। कहां से आ रही है यह गंध? ‘कितनी बार मना किया था! राजकुमरा की सागिर्दी छोड़ दो। लेकिन मेरी बात माने तब न! वह अपना दारू की भट्ठी चलाकर भी कितना ठाठ से जी रहा है? पुलिस-दारोगा सब मैनेज कर के बैठा है। कितना बढ़िया था जब पंजाब में था। कभी-कभी खाता में पेसा भेजता था। न यहां आता न ऐसा होता।’
जब आलोक-चा भागे थे घर छोड़कर तो उससे पहले बाबा ने उन्हें थप्पड़-थप्पड़ बहुत मारा था… मारते-मारते खुद बेदम हो गए थे… ‘हरामी की औलाद, मर्डर करेगा? अब यही एक काम रह गया है हमारे खानदान में।’ बुढ़िया रोकती रही, ‘अरे क्यों मार रहे हैं बच्चे को? क्या किया है इसने?’ ‘साला! एक दिन सबको ले डूबेगा। अनिलवा लोहार के यहाँ थ्रीनॉट बनाता है ये हरामजादा। कहता है अनितिया के हसबैंड को बघवादियरा जा के भीतर घुसा के गोली मारेगा।’
गुस्से से थरथर कांपते बाबा को बुढ़िया ने कुर्सी पर बिठाया। अचानक रोने लगे बाबा। रोते-रोते उनपर थकान हावी होने लगी। थकने पर हमेशा अच्छी नींद आ ही जाती हो ऐसा नहीं। रात के दूसरे पहर के बीत जाने के बाद भी बाबा को जमादार रमण सिंह की धमकी याद आती रही… ‘बेटा का हाथ-गोर समेट लो नहीं तो कहां गायब हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। ज्यादा उड़ रहा है। बाबू साहब लोगों को धमका रहा है। शराब का ठेका लेने के लिए धमकी दे रहा है। लोहरवा के घर दो ठो पुटपुटिया बनाना क्या सीख गया है समझता है बड़का ठेकेदार हो गया है। एके-47 के जमाने में थ्रीनॉट बनाके क्या उखाड़ेगा?’
…नहीं पढ़ा सके बेटे को… बेटी की शादी भी अच्छे घर में नहीं कर सके… खुद नौकरी नहीं कर सके। औन-पौन पढ़ के कुछ नहीं होता आजकल… खेती-बाड़ी से कुछ नहीं होगा। खेतिहर किसान कहीं अपना बच्चा को पढ़ा पाया है? साला जिंदगी कट गई खेत में मेहनत करते-करते कुछ भी नहीं कर पाए… जीवन नरक होकर रह गया है।
रुई की तरह भींगी हुई गठरी और भारी हो गई। बाबा ने कोशिश की नींद आए तो सपनों की उड़ान में कम से कम गठरी ढीली हो। हवा की छुअन से गीली चीजें सूख जाए और कम से कम मन में भारी होती गांठें हल्की हो जाएं, लेकिन नहीं, जैसा कि बाबा ने फटे छाते से हहाती हुई बारिश में घर को ढकना चाहा था। लेकिन बारिश रुकी नहीं, बादल खेप दर खेप आते गए।
बाबा अपने पुराने दिनों में लौटते गए। उन्होंने खुद से कहा था, ‘बकवास बंद करो यार! तुम कौन हो कहने वाले कि अपनी उम्र का ख्याल करो। मैं अभी बांध से घूमकर आ रहा हूँ। मैंने बांध पर गिरते सोते में जाल लगाए हैं। उसमें कबई और गरई मछलियां गिर रही होंगी। अभी जाकर उसे उठाकर लाऊंगा। फिर ये बुढ़िया बनाएगी मछली। हां यार! ये बुढ़िया बनाती बढ़िया है।’ बुढ़िया ने कहा होगा, ‘सुनो जी! किसी तरह बचा लो मेरे बेटे को? दस साल की सजा हो गई तो फिर हम उसका मुंह नहीं देख पाएंगे।’ बाबा ने कहा, ‘सुनो, मछलियों के लिए मसाला पीस के रखो। हम अभी आते हैं। हमारे साथ खुशी भी खाएगी। वहां मैं उसे छोड़ आया था। वह मछलियों को देख कर हँस रही होगी।’
मूसलाधार बारिश में बांध तक लबालब पानी भर आया होगा… मुझे पता है अगर मैं उस बारिश में अपने घर में रहा होऊंगा तो बाबा ने मुझे पुकारा होगा…. मेरी मां को उन्हें ‘हे कनिया’ बोलना याद नहीं रहा होगा। मेरे पिता ने पहले की तरह उनसे कुछ नहीं कहा होगा। वे सिर्फ हम दोनों को हहाती बारिश में निकलते हुए देख रहे होंगे। बाबा ने मुझसे कुएं के पास पहुंचकर कहा होगा, ‘देखो! कुआं पानी से भर गया है।’ ‘हां बाबा!’ ‘चिड़ी देखने आया है? आज तुम्हारे हाथ में गरमागरम चिड़ी नहीं दे पाएंगे। बारिश हो रही है न! सब गीला है। सब ठंडा है।’
बरगद के विशाल पेड़ के पास एक बच्चा रो रहा होगा…।
संपर्क सूत्र :द्वारा– श्रीमती इंदु शुक्ला, आलमगंज चौकी, पोस्ट– गुलजारबाग, पटना– 800007 मो.9709719758, 7004945858
Vivid memories of childhood days make an individual exuberant and lively and help him out to forget the stark reality of the present. Hence it is desirable that every man must dive into the sea of childhood and adolescence memories to get pearls of lively moments, laced with fun and frolic . The story effectively and candidly depicts the vicarious journey taken by the protagonist into the past with panache. Heartiest Congratulation to Sridhar Karuna nidhiji.