चर्चित लेखिका। अद्यतन कहानी संग्रह ‘न नजर बुरी न मुँह काला‘।
कम रोशनी वाला किराए का कमजोर घर। कमजोर घर में व्याप्त कमजोर बाबू की खांसी और दिव्यांग गीता की सिलाई मशीन की खड़खड़ की आपसदारी। सदर कमजोर द्वार वाले छोटे कमरे में खाट पर पहरेदार की तरह पड़ा खांसता बाबू। इस कमरे से लगे दूसरे छोटे कमरे में रखी गीता की खटिया, गैस चूल्हा, गृहस्थी सूचक अलाय बलाय। कमरे से लगी खुलापन और प्रकाश मुहैय्या कराते ओसारे में रखी सिलाई मशीन का पहिया सरपट चलाती, सरसरा कर कपड़े सी रही गीता। नामालूम तरीके से शुरू हुई दिनचर्या नामालूम तरीके पर खत्म होती है। गीता का ध्यान कपड़े से अधिक बाबू पर लगा रहता है। बाबू को रोज बीड़ी चाहिए, जबकि दमा चलाचली की मीयाद तक खींच लाया है।
‘गीता … ।’ सदर द्वार से सेठानी ने पुकारा।
बाबू ने मर्दों पर प्रतिबंध लगा रखा है कि गीता को टोहने-वेधने की कोशिश न हो। उसने तय कर दिया, चूंकि गीता महिलाओं के वस्त्र सिलती है तो वस्त्र लेने-देने महिलाएं ही आएं।
‘गीता …।’ सेठानी ने पुनः पुकारा।
बाबू जैसे शापित नींद में है – ‘आ जाओ।’
सेठानी भीतर आ गई, ‘तुम्हारी तबीयत नहीं सुधरी?’
‘अब नहीं सुधरनी।’
सेठानी ओसारे में आ गई, ‘गीता, कपड़े तैयार हैं?’
‘हौ।’
‘दे दो। चार दिन बाद बारात आनी है। लड़की फिटिंग देख लेगी।’
बैसाखी थाम एक पैर से फुदकती गीता संदूक से कपड़े निकाल लाई, ‘घर में मूस हैं। कपड़े संदूक में रखती हूँ। लीजिए।’
रंग-रंग के ब्लाउजों को देखकर गीता का अंतस कसकता है। उसका ब्याह होता तो अपने लिए कई रंगों के ब्लाउज सिलती। साड़ियों में फॉल पीकू करती। अम्मा और बड़ी बहन सीता के कपड़े, सीता के बच्चों के झबले, चड्डियां सिलती रही, अपनी बारी आई ही नहीं।
‘गीता शादी में आना।’
‘हौ।’
कभी वह इठलाने वाली परिष्कृत सी लड़की थी। विवाह की धूम-धाम देखकर बौरा जाती थी। सेठानी आमंत्रित कर रही है पर नहीं जाएगी। लोग कहेंगे चलते नहीं बनता, लेकिन भूखों की तरह दावत खाने चली आई।
सेठानी पैसे देकर चली गई।
गीता ने अम्मा को याद किया। विरासत नहीं छोड़ गई, लेकिन सिलाई सिखा गई। दसवीं पास की थी कि अम्मा उसे सिलाई सीखने के लिए घेरने लगी थी। वह फौज के सिपाही सी तन जाती – हमें दर्जी नहीं, डॉक्टर बनना है। जानती थी पढ़ने लायक न मति मिली है न गति, पर सहपाठिनों की तरह रटारटाया जुमला कह देती थी – डॉक्टर बनना है। अम्मा निष्प्रभावी रहती -‘डॉक्टर न बन। सिलाई सीख। साल, दो साल में बियाह हो जाएगा।’
बाबू ने रिश्ता पक्का कर दिया था। सड़क दुर्घटना ने रद्द कर दिया। लड़के वालों का संदेश आया था – लूल लांगड़ उनके घर की शोभा नहीं बन सकती। गीता अपनी वास्तविक वय से एकाएक बड़ी हो गई थी। घुटने के ऊपर से बायां पैर ही नहीं कटा था, वजूद चिंदी – चिंदी हो गया था। उसे लंबी, चौकोर, गोल, आयताकार, तिकोनी रंग बिरंगी चिंदियां लुभाती हैं। चिंदियों का सही जोड़ बैठा कर पैच वर्क कर पोषाक को आकर्षक बना देती है, पर पैर चिंदी नहीं है जिसका जोड़ बैठाया जा सके।
सेठानी के दिए पैसे गिन रही गीता को ध्यान आया बाबू भूखा होगा। दवाई भी चुक गई है। उसने खिचड़ी पकने के लिए कुकर में रख दी। चोखा स्वाद से पसंद करने वाला बाबू अब खाने से कतराने लगा है। खिचड़ी में लौंग जीरे का छौंक लगा देगी। बाबू के कड़ुआते मुख का थोड़ा स्वाद बन जाएगा। जब तक खिचड़ी पकेगी उसने पड़ोस में रहने वाले चौदह वर्षीय ननकू के मोबाइल पर बता दिया – बाबू की दवाई ला दे। गीता को सिलाई का अच्छा काम मिल जाता है। साड़ी में फॉल, ब्लाउज में हुक लगाने जैसा काम ननकू की बड़ी बहन निन्नी को दे देती है। निन्नी की कुछ आय हो जाती है। आय का लिहाज कर ननकू गीता की यथोचित सहायता करता रहता है। ननकू पैसे और दवाई का पर्चा लेकर बाजार चला गया। गीताबाबू के सिराहने खड़ी हुई -‘बाबू, आज फिर नहीं नहाए। मैं चड्डी बंडी दिए देती हूँ। हाथ-मुंह धोकर ताती-ताती खिचड़ी खा लो। कुछ अच्छा लगे।’
बाबू तेजी से खिरता-निझरता जा रहा है। पखौरों में वह बल नहीं रहा जब ताजे फलों से भरा ठेला ढनगा कर भिनसारे बाजार जाता था। गृहस्थी चलाता था।
‘दवाई में पैसा न फूंको। एक बंडल बीड़ी मंगा दो।’
‘बीड़ी ऐसे पीते हो जैसे अमरित है।’
‘बीड़ी मजबूती देती है। न मिले तो कल का मरता आज मर जाऊंगा।’
‘मेरा ख्याल करो। एक तुम ही तो हो बाबू।’
‘तुम्हें देख कर कलेजा पिराता है। सिलाई कर गिरस्ती खींच रही हो।’
‘उठो।’
‘उठता हूँ।’
बाबू ने कहा पर सुस्त पड़ा रहा।
ननकू दवाई ले आया –
‘जीजी, दवाई और परचा। दस रुपये बचे थे। मैंने फुलकी खा ली।’
‘चटोरा।’
गीता भी बाबू के हिसाब से पैसे चुरा कर स्कूल में बर्फ और गुलाब लच्छे खाती थी। बादलों में बैठ कर आसमान नापने के दिन पता नहीं कहां खो गए।
ननकू चला गया। गीता ने अब तेजी दिखाई -‘बाबू उठो। खिचड़ी ठंडी हो जाएगी।’
धुले वस्त्र पहन कर बाबू पीढ़े पर बैठ गया। गीता ने दो थाली परस ली। पहले बाबू खाना खाकर फल बेचने चला जाता था। गीता बाद में इत्मीनान से खाती थी। अब दोनों साथ बैठ कर खाते हैं।
‘अब नहीं खाया जाता।’
‘रोज खाना छोड़ते हो।’
‘नहीं खाया जाता।’
थाली सरका कर बाबू अपनी खटिया पर आ गया। खटिया से पीढ़े तक ही चहलकदमी रह गई है। अकसर अपनी रिक्त हो गई खाट को महसूस करता है। अकसर गए वक्त को याद करता है…
गीता के मामा ने सोयाबीन बेच कर अच्छी कमाई की थी। आनन-फानन बच्चे का मुंडन वैष्णो देवी में कराना सुनिश्चित कर लिया। पहली बार इतनी लंबी यात्रा वह भी मामा के खर्च पर जाने का उराव (आनंद) मिलने जा रहा था। अम्मा, गीता, गीता के दोनों भाई सज गए। इसी शहर के कमानी मुहल्ले में रहने वाली सीता ललचा गई। अपने बच्चे का भी मुंडन वहीं करा लेगी। दोनों बेटियों – मुन्नी और गुड्डी को पति पुरुषोत्तम के पास छोड़ गई थी। नहीं मालूम था लंबी यात्रा अंतिम यात्रा साबित होगी। घुमावदार घाटी में जीप पलट गई। गीता के अलावा पूरा परिवार जीप सहित घाटी में समा गया। गीता छिटक कर नीचे वाली सड़क पर गिरी। बाएं पैर की हड्डियां चूर-चूर हो गईं। शोक में डूबे बाबू को सुध न आई गीता का उचित उपचार होना चाहिए। जब सुध आई सड़ांध फैल चुकी थी। पैर काटा गया। आज वही गीता सिलाई पर गृहस्थी खींच रही है।
बाबू जानता है वह चलाचली की मीयाद में है। उसे अपनी मौत से अधिक गीता की जिंदगी से भय लगने लगा है। सबसे अधिक भय खजहा कुत्ते की तरह लहट गए वर्कशॉप में मिस्त्रीगिरी करने वाले पुरुषोत्तम से है। जब न तब अतिथि बनने चला आता है। अब तो रात को रुकने लगा है। सुबह यहीं से वर्कशॉप चला जाता है। अभी हफ्ता नहीं बीता है पर आज फिर धमक पड़ा। परोपकार दिखाते हुए समोसा, खोवा की कत्थई स्वादिष्ट जलेबी और बाबू के लिए दो सूती अंगौछी बांध लाया।
‘बाबू, तबीयत कैसी है ?’
बाबू को लगा पूछ रहा है -बाबू कब मरोगे ? मरो तो गीता को अपनी सुपुर्दगी में लूं।
बाबू ने उसे हताश किया -‘पहिले से ठीक है परसोतम।’
‘अंगोछी लो। कितना पसीना आता है।’
गीता को पुरुषोत्तम का आना नहीं सुहाता। सूरत माशाअल्ला है पर हीरो की तरह काला चश्मा धारण कर भाल में चार जुल्फें फहरा लेता है। विडंबना यह कि नाते ढोने पड़ते हैं। सीता नहीं रही, पर यह उसका पति है। मुन्नी गुड्डी का पिता है। बाबू के पास अंगोछी रख अजब मोह में डूबा पुरुषोत्तम, गीता के पास आ गया -‘गीता, कइसा चल रहा है?’
वक्त की आंच ने गीता की कोमल कमनीय सूरत झुलसा दी है फिर भी सुंदर लगती है। पुरुषोत्तम को बहुत सुंदर लगती है।
‘बाबू की तबीयत बिगड़ती जा रही है।’
पुरुषोत्तम ने उसके कंधे पर हथेली रख दी ‘काहे घबराती हो? मैं हूँ।’
गीता ने हथेली हटा दी। पुरुषोत्तम नाज से हँसा – ‘जीजा, साली में इतना चलता है।’
‘मुन्नी, गुड्डी को ले आते। अपने नन्ना की तबीयत देख लेतीं।’
गीता कहती है पर अपने लिए एकांत बनाने की कोशिश कर रहा पुरुषोत्तम बच्चियों को नहीं लाता।
‘उनके आने से तुम्हारा काम बढ़ जाता है।’
‘दोनों के लिए फ्राकें बनाई हैं। ले जाना।’
गीता ने गुलाबी प्लेन कपड़े में चिंदियों के फूल टांक कर रेडीमेड जान पड़ती सुंदर फ्राकें सिली हैं।
‘दे देना।’
‘सोहागी (पुरुषोत्तम की दूसरी पत्नी) कइसी है?’
‘कटखनी बिलारी है। मेरी मत मारी गई थी। बाबू तुम्हारे वास्ते बोले थे।’
कहते हुए पुरुषोत्तम ने गीता को चोर नजर से देखा। चरित्र खोते हुए उसे चोर नजर से देखने का अभ्यास हो गया है। जितना सीधी नजर से देखता है, उतना चोर नजर से देखता है।
गीता ने बात को महत्व न दिया।
‘जीजा, बाबू के पास बैठो। मैं चाय बना दूँ।’
‘बनाओ। बाबू की चिंता रहती है इसलिए चला आता हूँ। सीता नहीं रही पै इस घर से मेरा नाता है। समोसा, जलेबी है। बाबू का कुछ स्वाद बदले।’
सौगात लाकर अपरिहार्य बनना चाहता है।
‘न लाया करो। बाबू नहीं खाते।’
‘तुम खाओ। बाबू के साथ पथ (पथ्य) खाकर कमजोर होती जा रही हो। जो जरूरत हो मोबाइल पर बता दिया करो। ले आऊंगा।’
गीता उपेक्षा के भाव से प्लेट में समोसा, जलेबी रखती रही-
‘जरूरत का सब है। नास्ता बाबू के कमरे में ले जाओ। चाय बनाती हूँ।’
गीता के साथ शान जमाते हुए खाना चाहता है पर यह बाबू की पैरवी करती रहती है। प्लेट थाम बाबू के पास चला गया।
गीता चाय खौलाने लगी।
उसे बाबू का विनय निहोरा याद है-
‘परसोतम, गीता से ब्याह कर लो। मुन्नी, गुड्डी को आराम होगा। दिन भर ठकर-ठकर रोती है।’
पुरुषोत्तम भाड़ में पड़े मकई के दानों की तरह पटपटाने लगा था-
‘बाबू, गीता बैसाखी पर चलती है। खुद को आसरा नहीं दे सकती। मुन्नी, गुड्डी को कइसे देगी? लूल लांगड़ को मेरे मूड़ में काहे लादना चाहते हो? मैं सीता को नहीं जाने दे रहा था। अम्मा (गीता की) ने जबरई (जबरदस्ती) की। सीता अउर गभुआर लल्ला (पुरुषोत्तम का ढाई साल का बच्चा) भसम हो गए।’
‘अम्मा ने जबरई नहीं की थी। सीता जबरई गई थी कि इतने बड़े तीरथ में लल्ला का मुंडन करा लेगी।’
‘वह तो जनम की मूरख थी…’
गीता पूरा प्रसंग न सुन सकी थी। लूल-लांगड़। इस संबोधन ने कुछ सुनने न दिया। लंबी देह वाली सुंदर लड़की अब लूली लंगड़ी पुकारी जाती है। सबके साथ वह भी मर जाती तो बाबू के गले की फांसी छूट जाती। जी चाहता था पुरुषोत्तम को पूरी तरह उपेक्षित कर बाबू से कहे – बाबू तुम गलत आदमी से फरियाद कर रहे हो। सीता के जमाने में जब यह मस्ताते हुए यहां चार-चार दिन पड़ा रहता था, इसके दाना-पानी की फिक्र सीता से अधिक मैं करती थी। आज मैं लूल-लांगड़ हो गई। नहीं कह सकी थी। कंठ में नमी भरी रहती थी। अब तो उसकी आवाज ही स्थायी रूप से नम हो गई है।
पुरुषोत्तम का दूसरा विवाह हो गया था। बाबू विवाह में गया था। लौट कर यथार्थ कहा था –
‘सोहागी के महतारी-बाप कसाई हैं। एतनी सुंदर लड़की को दो लड़कियों के बाप से बांध दिया।’
‘बेटियांमां-बाप के लिए अभारू (बोझ) होती हैं बाबू। तुम भी तो जीजा से मुझे बांध देना चाहते थे।’
‘उसका घर बस जाता। तुम्हें आसरा हो जाता, पर वह मूरख है।’
भरा है गीता का दिल। जीजा को लूल-लांगड़ से ब्याह करने में लाज आ रही थी। मौज मारने में नहीं आएगी। भोलेनाथ, तुम्हें मेरा अंग-भंग करना ही था तो किसी दूसरे अंग को भंग कर देते। कौन सा अंग? हाथ। तब एक हाथ से सिलाई न हो पाती। आंखें। कपड़े नापना, काटना, सिलना न हो पाता। कान । खाट पर पड़े बाबू की गोहार सुनाई न देती। मतलब कोई भी अंग अकारथ नहीं है। सभी अंग, अवयव, तंतु आपस में जुड़े रहें जीवन तभी सुचारु चल सकता है। बैसाखी की आदत डालने में कितना रोना आया था। कितना अपमान लगा था। खुद को साधने में कितना जोर लगाना पड़ा था। सुनती हूँ नकली पैर लगाए जाते हैं। कहां लगाए जाते हैं, खर्च कितना बैठता है, कहां जाना पड़ता है मालूम नहीं। एक बार कौन बनेगा करोड़पति में दो दिव्यांग महिला खिलाड़ी आई थीं। उनके नकली पैर लाखों रुपये के थे। सुन कर घबराहट होती है, भोलेनाथ।
एक पैर के सहारे जीवन काट लूंगी, बस बाबू ठीक हो जाए। फिक्रमंद बनने की कोशिश कर रहे जीजा की आवाजाही बंद हो जाए।
पुरुषोत्तम रात को रुका रहा।
गीता ने व्यवस्था बना दी –
‘जीजा, मेरी खाट उठा कर बाबू के कमरे में रख लो। मैं जमीन में बिछौना डाल लूंगी।’
‘बाबू खांसते हैं। नींद न आएगी।’
‘यहां सो जाओ। मैं बाबू के कमरे में बिछौना डाल लेती हूँ।’
महारास की संभावना बनाने के लिए रात को रुकता है पर यह दिमाग फैल कर देती है –
‘तुम दिन भर की थकी हो। बाबू के कमरे में सो जाऊंगा।’
बाबू की खांसी और पापी मन। पुरुषोत्तम को नींद नहीं आ रही थी जबकि खांसी से अधमरा हुआ बाबू शायद झपक गया है। पुरुषोत्तम बिल्ले की सी खास सतर्कता से उठा। गीता के बिछौने पर कुछ देर बैठा रहा। फिर उसका हाथ सहलाने लगा। गीता को अब भरोसे की नींद नहीं आती। घर में पुरुषोत्तम हो तब कदापि नहीं। उसे लगा हाथ में छछूंदर सुरसुरा रहा है। पर यह तो बजबजाती नाली में पड़े बिलबिलाते सूड़ों की छुअन है।
‘जीजा तुम?’
‘नींद नहीं आ रही है। कुछ बात करो।’
गीता दूरी बना कर दीवार की ओर खिसक गई ‘जाओ, सो जाओ।’
‘फौज के सिपाही की तरह तनी रहती हो। बाबू कै दिन का मेहमान? तुम्हारी फिक्र होती है। सीता होती तो बाबू के बाद तुम्हें अपने साथ रखता पै सोहागी न रहने देगी। तुम मुझे नीक लगती हो। तुमसे बियाह न कर कितना पछता रहा हूँ। प्रेम पियार की दो बात कर लिया करो। तुम्हारा कौन जुरुम जो तपसिन जैसा जीवन बिताओ।’
गीता को पुरुषोत्तम का आग्रह अतिशयोक्ति लगा।
‘मेरा जुरुम यह कि लूल लांगड़ हूँ।’
पुरुषोत्तम हांफ गया। सीता या सोहागी तेवर दिखातीं तो एक पटकनी में तेवर निकाल देता। इसे खास दर्जा देना चाहता है, पर गरूर दिखाती है। बाबू मरे तो यह काबू में हो। एक पैर से फुदक कर कहां तक भागेगी। कुछ देर निष्प्रयोजन बैठा रहा फिर लौट गया। बाबू ने पुरुषोत्तम का जाना और आना परख लिया। वह नींद में भी आसपास की गतिविधियों का अंदाज लेता रहता है। नजरअंदाज करते हुए भी गतिविधियों पर नजर रखता है।
पुरुषोत्तम का मिजाज बढ़ता जा रहा है। जंगली हो गया है। उंगलियों में बाघ के नख निकल आए हैं। दुर्घटना में गीता भी मर जाती तो मैं स्वतंत्र होकर मरता। अपनी मौत से अधिक गीता की जिंदगी से भय होता है। पुरुष निकम्मा, लाचार, अयोग्य, बीमार हो लेकिन पुरुष है। उसकी उपस्थिति का भय होता है। स्त्री समर्थ, योग्य, बलशाली हो लेकिन स्त्री है। अबला।
गीता आत्मनिर्भर है, पर पैरों में इतनी ताकत नहीं है कि अपना बचाव कर लेगी। पुरुषों को नहीं आने देता, पर पुरुषोत्तम को कैसे रोके? निर्भीक होता जा रहा है। सोचना होगा।
पुरुषोत्तम सुबह जाते हुए बोला – ‘बाबू अपना ध्यान रखना।’
‘मुन्नी, गुड्डी को बहुत दिन से नहीं देखा। कभी ले आना।’
बाबू अब चेहरे के भाव नहीं सम्भाल पाता। असहायता में कह रहा था, पर मुख ऐसा हो गया जैसे आवेश में है।
‘लाऊंगा।’
पुरुषोत्तम चला गया।
गीता समझ गई बाबू रात भर गहन स्थिति से गुजरा है।
‘बाबू, तुम अच्छे हो जाओ।’
‘अब अच्छा नहीं हो सकता।’
‘क्या तो बोलते हो। दिमाक में दवाइयों की गर्मी चढ़ गई है। ननकू से कहती हूँ ऑटो ले आए। तुम्हें डॉक्टर के पास ले चलूं।’
‘तुम्हारी सोच लगी रहती है बिटिया। मैं न रहूँ तब मुन्नी को अपने साथ रख लेना। पास के स्कूल में दाखिला करा देना।’
तो इस गहन स्थित से गुजर रहा है बाबू। अब तक इसने गीता की पहरेदारी की। चाहता है अब मुन्नी करे।
‘सोहागी न आने देगी। मुन्नी, गुड्डी बताती हैं दिन भर उन्हें काम में पेरे रहती है।’
‘मुन्नी, गुड्डी से नाता बना रहे इसीलिए सोहागी को मैंने घर बुलाया था। मुंह दिखाई दी थी पर वह दुबारा नहीं आई।’
‘जानती है यह उसका मायका नहीं, मुन्नी, गुड्डी का ननिहाल है।’
‘हो सकता है आना चाहती हो। पुरसोतम न लाता हो। तुम्हारी सोच लगी रहती है।’
बाबू जैसे अंतिम इरादा बताने के लिए ही रुका था।
सनीचर की रात चलाचली की मीयाद पूरी कर गया।
गीता को लगा अंतिम दांव हार गई है। जिंदगी में रफ्तार कभी नहीं रही, पर इस क्षण गति और गतिविधि दोनों खत्म हो गई। शव के सिरहाने किया गया विलाप अलग किस्म का होता है। सुनकर कुछ लोग जुहा गए। निन्नी बोली –
‘दीदी, जीजा को खबर करो।’
विवशता।
जिसने मर्म पर आघात किया वह इंतजाम संभालेगा। गीता ने मोबाइल पर पुरुषोत्तम को बताया ‘बाबू नहीं रहे। मुन्नी, गुड्डी, नन्ना के दरसन कर लें। सोहागी को भी लेते आना।’
बच्चियों के साथ आए पुरुषोत्तम ने इस स्फूर्ति और उदारता से इंतजाम संभाला मानो गीता को एहसानमंद बना कर मानेगा। इंतजाम संभालता। यहीं से वर्कशॉप चला जाता। मुन्नी, गीता की कलाई थाम संताप कहती –
‘मउसी, मम्मी काहे मर गई? यह मम्मी हम दोनों से खूब काम कराती है। खुद अपने बिलौटे को गोद में टांगे भागती है।’
‘पापा कुछ नहीं कहते, मुन्नी?’
दिन भर ड्यूटी में रहते हैं। कभी-कभी रात में भी ड्यूटी करते हैं। गार्ड छुट्टी पर जाता है तब मालिक, पापा को रोक लेता है।’
जीजा मोटी खाल का ही नहीं, लबरा (झूठा) भी है। जी चाहा सर्वेसर्वा बने जा रहे जीजा के पुट्ठे में बैसाखी हुमक कर मारे।
‘मम्मी कुछ नहीं कहती?’
‘लड़ती है।’
‘पापा से लड़े पै तुम दोनों से इतना काम काहे कराती है। मैं सोचती थी बाबू का सुन कर आएगी पै देखो, नहीं आई।’
गुड्डी ने यथार्थ कहा ‘आने को कहती थी। घूमने में बड़ी तेज है। पापा नहीं लाए। नन्ना बीमार थे तब भी आने को कहती थी।’
गीता का अंतस लुहार की गरम भट्टी की तरह भभकने लगा। जीजा दांव खेलने में माहिर होता जा रहा है।
‘मुन्नी, बाबू के बिना अकेले मुझे डर लगेगा। जीजा से कहूंगी तुम्हें मेरे साथ रहने दे। पास के स्कूल में दाखिला करा दूंगी।’
मुन्नी उत्साहित हो गई ‘मउसी, पापा से नहीं मम्मी से कहो। मम्मी कहती है मउसी, नन्ना ऐसे कठोर हैं कि तुम दोनों बहनों को कभी नहीं बुलाते। महीना दुइ महीना वहांरहो तो मैं सांति पाऊं।’
‘मैं जीजा से खूब कहती हूँ मुन्नी, गुड्डी को लाओ। तुम लोगों को नहीं बताता क्या? मम्मी से बात कराओ।’
‘हौ।’
मुन्नी ने गीता के मोबाइल से सोहागी को कॉल किया। सोहागी शोकसूचक मंद स्वर में बोली –
‘गीता दीदी, बाबू जी का सुन कर दुख हुआ।’
‘सोचती थी आओगी।’
‘आती पै तुम्हारे जीजा बोले बाद में चलना।’
‘मैं अनाथ हो गई सोहागी। मुन्नी यहां रहे तो सहारा रहेगा।’
सोहागी ने माना करिश्मा हस्तगत हुआ है। उसका अभीष्ट गीता की जरूरत बनेगा –
‘दीदी, मुझसे क्यों परमीसन लेती हो? मुन्नी पर तुम्हारा हक है। किसी दिन आऊंगी।’
सोहागी किसी दिन नहीं दूसरे दिन ही चली आई। बाबू के लिए रोई। औपचारिक बातें कीं। आंसू पोंछ कर मुद्दे पर आई –
‘घर की रौनक चली गई।दीदी, अकेले कैसे रहोगी ?’’
‘इसीलिए मुन्नी को रखना चाहती हूँ।’
‘गुड्डी को भी रखो। तुम्हारा हक है। दूनौ एक-दूसरे के बिगिर नहीं रहतीं।’
स्कूल और घर के जंजाल में उलझी मासूम बच्चियां। न चतुराई है, न अधिक सोचने का अभया है। गुड्डी ने उत्साहित होकर सोहागी की कलाई पकड़ ली – ‘मम्मी, मैं भी मउसी के साथ रहूँ? पापा डांटेंगे तो नहीं।’
‘मैं बात कर लूंगी।’
यह मौका है जब पुरुषोत्तम का चरित्र बता दिया जाए।
‘सोहागी, तुमने तो मेरे मन की बात कर दी। जीजा, बाबू की तबीयत देखने आते रहते थे। एक-दो दिन रुकते थे …
‘तुम्हारे घर? कब दीदी? जब गार्ड छुट्टी पर जाता है तब जरूर रात में वर्कसाप में रुकते हैं।’
‘दुनियादारी समझो सोहागी। जीजा यहां रुकते हैं। बाबू थे, अलग बात थी, पर अब …’
गीता ने पुरुषोत्तम का चरित्र समझा दिया।सोहागी ने समझ लिया।
गीता को आदर और विनम्रता से देखा। बाबू की उपस्थिति में अपनी हिफाजत करती रही। अब बच्चियों की उपस्थिति में करना चाहती है। पुरुषोत्तम दिन ढले वर्कशाप से लौटा। सोहागी को विस्मय की तरह मौजूद पाया।सोहागी ने पुरुषोत्तम को सुनाते हुए गीता से कहा ‘दीदी, तुम अकेले नहीं रहोगी। मुन्नी, गुड्डी साथ में रहेंगी। मैं दोनों के कपड़े, किताब पहुंचा दूंगी। कोई दिक्कत हो मेरे मोबाइल पर बात करना।’
इतना कह पुरुषोत्तम से संबोधित हुई ‘सुनो हो। वर्कसाप वाले को कह दो रात में ड्यूटी नहीं करोगे। मुन्नी, गुड्डी के बिगिर हमको अकेले डर लगेगा।’
पुरुषोत्तम लटपटा गया। सोहागी फैसला नहीं कर रही है उसकी तमन्ना का नाश कर रही है।
‘गीता मुन्नी, गुड्डी को नहीं संभाल सकती।’
मुन्नी ने अरज की ‘पापा, रहने दो न। मउसी परेसान है।’
सोहागी ने बच्चियों के सिर पर हथेली फेरी ‘मउसी को परेसान न करना। मैं आती-जाती रहूंगी।’
दो स्त्रियों का शामिल फैसला।
संपर्क : द्वारा श्री एम. के. मिश्र, जीवन विहार अपार्टमेन्ट़ फ्लैट नं0 7, द्वितीय तल, महेश्वरी स्वीट्स के पीछे, रीवा रोड, सतना (म.प्र.)-485001 मो.8269895950