प्रतिदिन बाजार जाना मेरी दिनचर्या में शामिल था।बटुवेनुमा झोले में एकाध हरी सब्जी खरीद कर रखता, दो-चार हमउम्र लोगों से यदि भेंट हो जाती, तो उनसे देश-दुनिया में घट रही सामयिक घटनाओं पर हल्की-फुल्की चर्चा करता, फिर एकाध कप शुगर फ्री चाय पी कर घर लौट आता था।हां, इसके साथ ही देहात से आई हुई सब्जी बेचने वाली औरतों के बीच नीम-सखुआ का दातुन बेचती एक पुल-पुल सी आदिवासी बूढ़ी औरत से न चाहते हुए भी एक मुट्ठा दातुन, जिसमें सप्ताह के सात दिनों के हिसाब से सात दातुन होते थे, खरीदना न भूलता था।मुझे दातुनों की आवश्यकता नहीं रहती थी, क्योंकि मैं अपने नकली दांत ब्रश से ही साफ करता था।इसके साथ ही, न ही मैं कोई महान बनने की चाह अपने मन में रखता था।लेकिन न जाने क्यों मुझे खाट की रस्सियों की तरह झुर्रियों से लिपटी उस बूढ़ी औरत से एक अनजाना-सा लगाव हो गया था।दो रुपये का एक सिक्का उसकी ओर उछाल कर एक मुट्ठा दातुन लेकर मैं उससे रोज कुछ न कुछ ऐसी अपनत्व वाली बात करता कि उसके स्याह कपोलों में कुछ क्षण के लिए एक अलग किस्म की चमक पैदा हो जाती थी।

दो-दो रुपये में दातुनों को बेचने वाली उस जीर्ण-शीर्ण काया वाली औरत से शायद मुझे और आगे जीने की प्रेरणा मिलती थी।तमाम तरह की सुविधाओं के रहने के बाद भी हमें जीवन नीरस-सा लगता और वह अभावों में रहकर भी जीवन जीने की कला जानती थी।ऐसा मुझे उससे मिलकर अनुभव होता था।

आज की इस आर्थिक समृद्धि के दौर में भी, जहां दो-चार रुपयों का कोई मोल नहीं रह गया था, लोग दो रुपये का दातुन खरीदते समय उस बुढ़िया से मोल-भाव करने में जरा भी नहीं हिचकते थे।मैंने एक दिन देखा कि किस प्रकार वह अपने ग्राहकों से निपटती है-

‘ऐ बुढ़िया, दातुन कैसे हैं?’

‘दो रुपये मुट्ठा!’

‘पांच का तीन देगी?’

‘नहीं…!’

‘अरे, पतला-पतला तो है।’

‘कहां पतला है… जो मिलता है, सो है।’

‘नीम का और सखुआ का एक ही दाम है?’

‘हां… सब दो रुपये का मुट्ठा।’

‘देखते हैं बड़ा बाबू, लगता है, खरीद कर लाती है।’

‘मत पूछिए भाई, यही सबका तो राज है।’

‘ऐ बुढ़िया, लगाव न पांच का तीन मुट्ठा, हम भी लेंगे।’

‘नहीं होगा बाबू…!’

‘मंगनी का तो लाती है और कहती है कि नहीं होगा… नहीं होगा… दो!’

‘न…!’

‘अरे भाई, यह सब जो बोल देगी वह पत्थर की लकीर है।ले लीजिए!’

‘लाओ… तीन मुट्ठा दो… जरा मोटा-मोटा वाला देना!’

‘सब मोटा ही है।’

‘यह लो छह रुपये… एक-एक का छह सिक्का है।’

‘और हम दो मुट्ठा लिए।यह लो, एक दो का सिक्का और दो एक-एक का, कुल चार रुपये हुए।’

‘ठीक है न?’

‘हां…!’

दोनों ग्राहक प्रस्थान करते हैं कि तीसरे ग्राहक के रूप में एक औरत आती है।

‘ऐ, करौंज का दातुन है?’

‘न…नीम और सखुआ का है।’

‘सब तो टेढ़ा-मेढ़ा लगता है।सीधा-सीधा काहे न लाती है?’

‘एकदम सीधा कहां मिलेगा… यह लो, यह सीधा है।’

‘दो मुट्ठा दो।तीन रुपये देंगे।’

‘न… चार रुपये लगेगा।’

‘कौन सा घर का है… तीन से अधिक नहीं देंगे।’

‘न होगा’

‘अरे हो जाएगा दादी।लो तीन रुपये।’

‘एक रुपया और दो।’

‘अच्छा, अबकी बार ले लेना।’

‘कहां खोजेंगे एक रुपया के लिए?’

‘दादी, हम आते ही रहते हैं।’

‘क्या दादी… दादी करती है… दादी हैं तो दो रुपया बेसी दे दो!’

‘अच्छा, अबकी बार जरूर दे देंगे।’

वह औरत खिसकती है कि तीन-चार टपोरी टाइप के किशोरवय लड़के अपने हाथों में चंदे की रसीद लिए आते हैं- ‘ऐ बुढ़िया, बहुत माल कमा ली… ला निकाल चंदा’

‘किसका चंदा?’

‘क्लब का’

‘यह कौन सा परब है?’

‘यह परब नहीं है’

‘तो…?’

‘अरे देती है कि खाली खिचखिच करेगी।लो बीस रुपये की रसीद!’

‘अरे बताओगे न, कौन सा परब है? सरस्वती पूजा, होली, दीवाली, मोहर्रम…?’

‘ऐ बुढ़िया, शांति से यहां बेचने देते हैं, तो पटर-पटर करती है बीस रुपये देने में… रोज-रोज मांगते हैं क्या?’

‘अभी उठा-पुठाकर ले जाएंगे सब, तब समझेगी।’

‘ले जाओ।क्या ले जाओगे… मेरा भाग्य!’

‘अच्छा लाओ दस रुपया दो!’

‘लो दो रुपया!’

‘अरे कम से कम दस रुपये दो।दो रुपये में क्या मिलता है आजकल?’

‘दो रुपये लेना है तो लो!’

‘यह तो भिखारी भी नहीं लेता!’

जाते-जाते उन लड़कों ने बुढ़िया का दो मुट्ठा दातुन उठाकर लेते गए।वह चिल्लाती रही।

मुझे उसी से ज्ञात हुआ था कि वह अपने गांव से लगभग पांच-छह किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके इस छोटे से कस्बे की डेली मार्केट में पहुंचती थी।कोलियरी क्षेत्र था इस कारण प्रतिदिन यहां ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी।लेकिन वह रोज न आकर, एक दिन बाद करके यहां आती थी।जिस दिन यहां नहीं आती उस दिन अपने बूढे के संग जंगल दातुन तोड़ने चली जाती थी।

दातुन भी अब जंगल में आसानी से कहां मिलता था।अच्छे दातुनों को ढूंढने में काफी मेहनत करनी पड़ती थी।पारंपरिक जंगल उजड़ रहे थे और जो नए पेड़ लग रहे थे, उस पर निगरानी लगी रहती थी।इसलिए बड़ा परिश्रम के बाद ही टेढ़े-मेढ़े दातुन मिल पाते थे।दातुन तोड़ने में दिन भर का समय बरबाद होता था दोनों बूढ़ा-बूढ़ी का।

बूढ़ा बाजार नहीं आ पाता था।अब उसमें वह शक्ति नहीं थी।हां, किसी प्रकार गांव से सटे जंगल में बुढ़िया के संग दातुन तोड़ने जाया करता था।बुढ़िया गांव की दूसरी औरतों के संग जो मौसमी सब्जियां लेकर बाजार आती थीं, हो लेती थी।

उस दिन भी वह दूसरी औरतों के संग सुबह-सुबह ही पहुंच गई थी यहां।एकदम भूखे पेट।दस बजे तक दातुन बेचने की धुन में उसे भूख का एहसास नहीं हुआ था।हां, कुछ देर पहले साथ में आई औरतों ने उसे दो लोप मूढ़ी जरूर दी थी, जिसे वह अपने मैले-से आंचल में बांध कर रखी हुई थी।अब जब लोगों का आना-जाना कुछ कम हो गया था और उसके पास दातुनों के कुछ ही मुट्ठे शेष रह गए थे, तब उसे भूख सताने लगी थी।

वह अपनी बगल में भिंडी बेच रही औरत से ‘दातुनों को देखना’ कह कर पास के ही एक झोपड़ीनुमा दुकान में घुसी, जहां गरमा-गरम आलू चप छन रहा था।उसने वहां पांच रुपये में एक आलू चप खरीदा और फिर वापस आकर आंचल में बंधी मूढ़ी को खोल कर उसमें आलू चप को मसल कर मिलाने लगी।कुछ देर तन्मयता से आलू चप और मूढ़ी को आपस में मसलने के उपरांत उसने पहले अपने दाएं-बाएं बैठी औरतों को भी ‘आलू चप-मूढ़ी’ खाने का ऑफर दिया, जिसे उन औरतों ने प्रेमपूर्वक लेने से मना कर दिया।

फिर बाजार में इक्का-दुक्का टहल रहे लोगों को संभावित ग्राहक समझकर आशा भरी द़ृष्टि से निहारते हुए वह आलू चप मिला मूढ़ी चबाने लगी।

ग्यारह बजते-बजते सब्जी बेचने वाली औरतें अपनी बची-खुची सब्जियों को औने-पौने दाम में बेचने लग गई थीं।उन्हें दोपहर तक घर लौटने की भी चिंता थी।

उसके पास भी अब मुट्ठों से खुल चुके टेढ़े-मेढ़े दातुन ही बचे थे।वह आज चालीस मुट्ठा दातुन लेकर आई थी।दो रुपये के हिसाब से अस्सी रुपये होने थे, किंतु उसने सारे सिक्के को एक-एक करके गिना, तब कुल पैंसठ रुपये ही हुए।इस पर पांच रुपये का एक आलूचप लेकर वह खा चुकी थी।अब उसके पास कुल साठ रुपये ही थे।

बाजार छोड़ने से पहले वह सामने की उसी झोपड़ीनुमा दुकान से अपने बूढ़े के लिए दो आलू चप खरीदना नहीं भूली।कई दिनों के बुखार से उसका मुंह सिट्ठा हो चुका था।वह कुछ झाल-झाल खाने को कल से मांग रहा था।साथ ही एक पाट दारू लाने के लिए भी वह उसके समक्ष रात को घिघिया रहा था।

इसलिए रास्ते में उसने एक गुमटीनुमा दुकान से दस-दस रुपये में दारू के लिए दो पाउच भी खरीद लिया।

दूसरी औरतों के संग चलते हुए उसे भी अब घर पहुंचने की जल्दी पड़ी हुई थी।बूढ़ा अब तक कुछ खाया-पिया होगा कि नहीं! रात के बचे बासी भात में पानी डालकर उसके लिए छोड़ आई थी।अब उसे भी भूख सताने लगी थी।वह जल्दी से घर पहुंचकर अपने और बूढ़े के लिए साग-भात बनाने की सोच रही थी।साथ में आई एक औरत ने न बिकने के कारण दो मुट्ठा गंधारी साग उसे दिया था।उसे वह अपनी गठरी में बांधकर लिए जा रही थी।बूढ़े को भी गंधारी साग पसंद था।

वह जब घर पहुंची, तब घर का दरवाजा आधा खुला देख कर अंदर बड़बड़ाती हुई दाखिल हुई।बूढ़ा अपनी चारपाई पर नहीं था।उसने सोचा, पेशाब-पखाना के लिए कहीं निकला होगा।बात भी सही थी।वह अभी आगे कुछ सोचती कि इससे पहले ही बूढ़ा ‘के हय?’ का हांक लगाते हुए अंदर दाखिल हुआ।

‘ओह, बुधनी माय।कखन एलें?’ उसने अंदर बुढ़िया को पाकर चारपाई पर बैठते हुए पूछा।

बूढ़ा उसे बुधनी मां कहता और वह बूढ़े को बुधनी बाप कह कर ही संबोधित करती थी।उसकी एक ही बेटी थी, जिसका नाम बुध के दिन जन्म लेने के कारण बुधनी रख दिया गया था।आज से वर्षों पहले अपने किशोर काल में ही वह गांव की दूसरी लड़कियों के संग दूर शहर में कमाने के लिए गई थी, जो आज तक वापस लौटकर नहीं आई।गांव से गई दस-बारह लड़कियों में से दो-तीन ही वापस लौटी थीं।बाकी का अब तक कुछ अता-पता नहीं चला था।वापस लौटी लड़कियों ने भी बाकी का हाल-चाल बताने में असर्मथता जताई थीं।इसका मुख्य कारण शायद एक ही रहा होगा कि शहर पहुंचते ही सब अलग-अलग काम-धंधों में लग गई होंगी, फिर किसके साथ क्या हुआ, किसी को पता नहीं।

‘एखनी तो आवइतय हिए।तोहें कहां चइल गेल हला?’ बुढ़िया गठरी को खोलते हुए बोली।

‘सारहेन, दुगो कुकुर आय कुने दुवरिया तार कांय-कांय कइर कुने लड़ा हलथीन, ऊखनीएक रग दलिए’ बूढ़ा दोनों पावों को चारपाई पर रखते हुए बोला।वह बुखार की कमजोरी से कुछ हांफ भी रहा था।

‘जर टा फइर अइलो ने की?’ बुढ़िया गठरी से गंधारी साग को अलग करके एक ओर रखते हुए पूछने लगी।

‘नाय।बिहान ले तनी बेसे लागो हो, दे, कछ आनल हें बजार बाट ले…!’ बूढ़ा सामने गठरी खोल कर बैठी बुढ़िया की ओर आशा भरी द़ृष्टि से देखते हुए मांगने लगा।

‘भतवा खइलहक…?’ बुढ़िया ने उससे उलटे प्रश्न किया।

‘चेका भय गेल हलो।आधा खइलियों आर आधा हइए हो।बड़ी जोर के भूख लागल हय!’ बूढ़ा अपने पेट की अंतड़ियों को दबाते हुए बोला।

‘लेह…!’ बुढ़िया ने उसके सामने आलूचप का ठोंगा रख दिया।अब तक आलूचप ठंडा हो चुका था।

‘आर ऊटा…!’ बूढ़ा ठोंगे को लपकते हुए दारू के पाउच की ओर इशारा करते हुए बोला।

‘माने, मोरते-मोरते पारहुं भी पिएक टा जरूरी हय… ले धकल!’ बुढ़िया उसकी ओर शराब का एक पाउच लगभग फेंकते हुए बोली।

‘तोएं अपनों लेल आनल हें, नाय…!’ बूढ़ा उसकी ओर मंद-मंद मुस्कराते हुए कहने लगा।

‘हां, तो नाय आन बय ने की? खाली तोहरे जिवा सुखल हो ने की?’ बुढ़िया अपने पास के शराब के पाउच को निकालते हुए बोली।

‘ऐ, जनी जाइत के बेसी नाय पिएक चाही, ओकर से आधा आर दे हमरा’, बूढ़ा खुशामद पर उतर आया।

‘काहे, सुख भोगेक अधिकार खाली मरद जाइत के ही हय ने की?’ बुढ़िया तर्क पर उतर आई।

‘ढेर पिला से बहेक जीबें!’ बूढ़ा नरम पड़ गया।

‘जे भय जाय, आइज हम बराबर पीबो!’ बुढ़िया यह कहते हुए अपने स्थान से उठी और पीने का बरतन ढूंढ़ने लगी।

उस दिन दोनों ने घर का कुछ बचा-खुचा खाया तथा साथ-साथ पिया।फिर नशे की हालत में दोनों कुछ देर तक मदहोश पड़े रहे।शाम से पहले बुढ़िया ने साग-भात बनाया, जिसे बूढ़े ने बड़े चाव से खाया।अब उसकी तबीयत पहले की अपेक्षा ठीक हो चुकी थी।

दूसरे दिन प्रात: ही दोनों जंगल के अपने चिरपरिचित राह पर थे।उस दिन बुढ़िया के कहने पर बूढ़ा सीधा-सीधा दातुन खोजने के लिए जंगल के भीतरी भाग में जाने का इरादा बना लिया था।

अपनी दिनचर्या के अनुसार मैं मार्केट रोज आ रहा था, किंतु कई दिनों से मैं देख रहा था कि बुढ़िया अपनी जगह से नदारद है।पहले मुझे लगा कि शायद उसने बैठने का स्थान बदल लिया हो, इसलिए मैंने एक दिन उसके नियत स्थान के अलग-बगल बैठकर सब्जी बेचने वाली औरतों से उसके बारे में पूछ ही लिया, ‘वो दातुन बेचने वाली कई दिनों से नजर नहीं आ रही है… कहीं दूसरी जगह बैठती है क्या?’

‘अब वह कभी नहीं आएगी?’ अगल-बगल बैठी दोनों औरतों ने एक साथ उत्तर दिया।मेरे आगे पूछने से पहले उनमें से एक ने बताना शुरू किया- ‘एक दिन दोनों बूढ़ा-बूढ़ी दातून तोड़ने के लिए जंगल गए।और जैसा कि गांव के लोग बताते हैं कि सीधा और अच्छा दातुन तोड़ने के लिए दोनों जंगल के उस ओर निकल गए होंगे, जिधर बाघ-भालू रहने का डर रहता है।दो दिनों तक जब दोनों गांव नहीं लौटे, तब जंगल जाने वालों ने उनकी खोज जंगल में शुरू की, तब जाकर बड़ी कठिनाई से एक खोह के पास दोनों बूढ़ा-बूढ़़ी की लाश मिली।लाश क्या… लोग कहते हैं कि खाली हाड़ बचा हुआ था।जानवरों ने बड़ी बेरहमी से दोनों के शरीर को नोच डाला था।ओह, बेचारी बुधनी मां…!’

‘बूढ़ा-बूढ़ी के भाग्य में कभी सुख नहीं लिखा था’, बगल की दूसरी औरत अफसोस जताई।

फिर दोनों उसी के बारे में बात-चीत करने लगीं।मेरा वहां अब और खड़ा रहना असह्य होने लगा।मैं भारी कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ा, अनाम दुखों का बोझ सर पर लिए।

संपर्क : सलीम हाउस, शहीद गड्ढा, पानी टंकी, पुराना बाजार, गोमो, धनबाद-828401  (झारखंड) मो. 765450 7122