सुपरिचित कहानीकार और पत्रकार।कहानी संग्रह ‘दक्खिन टोला’।संप्रति ‘हिन्दुस्तान’, रांची में समाचार संपादक।
उनके कई नाम थे।
इतने नाम कि वे भी अपना असली नाम भूल गए।बचपन में छोटन सिंह, बबुआ सिंह और सरदार सिंह जैसे नाम।जवानी में नाम पड़ा बबुआन तो बुढ़ौती में बाबू बम गंड़ासा सिंह।अब इन्हीं दोनों नामों से उनकी पहचान है।सामने पड़ने पर लोग बबुआन कहते हैं और पीठ पीछे बम गंड़ासा सिंह।
ऐसे उनका असली नाम है बाबू हरि सुमिरन सिंह।यह बात अलग है कि अब उनके असली नाम से उन्हें कोई नहीं जानता-पहचानता।लंबे-चौड़े और मजबूत कद-काठी वाले बबुआन को देखकर यह कहना मुश्किल था कि उनकी उमर ५५ साल पार कर गई है।गोरा रंग, घने बालों में अभी भी बस किनारी भर में सफेद रंग और तीखी मूंछ।आंखें छोटीं, लेकिन उस पर बड़े फ्रेम का चश्मा।हमेशा सिल्क का कुर्ता और छींट की किनारी वाली धोती पहनते।धोती का एक सिरा कुर्ते की एक जेब में घुसा रहता।एक पुरानी राजदूत मोटरसाइकिल, जिससे उन्हें अथाह लगाव था।जब बक्सर कालेज में पढ़ते थे तभी वकील पिता ने खरीदी थी।तब से आज तक उनका रूटीन नहीं बदला।
सुबह उठने के बाद लगभग एक घंटे तक मोटरसाइकिल खुद साफ करते।मोटरसाइकिल पर चढ़ने के पहले उस पर धूल का कोई नामोनिशान नहीं होना चाहिए।खरोंच का तो सवाल ही नहीं।आवाज में जरा सा भी फर्क आ जाए तो मैकेनिक की खैर नहीं।क्या मजाल जो उनके अलावा दूसरा कोई उस मोटरसाइकिल को हाथ लगा दे।पिता जी की इच्छा थी कि वे वकालत पढ़ें और उनकी विरासत संभाले।लेकिन उन्हें तो चस्का पहलवानी का लग गया।कॉलेज के जमाने से ही अखाड़े की मिट्टी से ऐसा मोह हुआ कि शादी-विवाह तक नहीं किया।उसी समय उनका नाम पड़ा- बबुआन।दस साल पहले तक तो कुश्ती लड़ने दूर-दराज के इलाकों में जाते।उनका दावा था कि बिहार का ऐसा कोई जिला नहीं है जहां होने वाली कुश्ती प्रतियोगिताओं में जाकर उन्होंने दो-चार पहलवानों को पटका नहीं हो।अब पहलवानी तो नहीं करते, लेकिन दांव-पेच का ज्ञान अभी तक बरकरार है।हालांकि उसका इस्तेमाल अब दूसरे काम में ज्यादा करते हैं।
लेकिन उनका चर्चित नाम बाबू बम गंड़ासा सिंह पड़ने के पीछे का कारण उनका पहलवान होना नहीं था।दरअसल वह काटने में उस्ताद थे।गंड़ासे की तरह।लेकिन इससे यह भ्रम मत पाल लीजिएगा कि वह आदमी को काटते थे।आदमी तो क्या उन्होंने कभी जीवन में खस्सी और मुर्गा भी नहीं काटा था।एक बार पिता जी बलि देने के लिए काली माई के स्थान ले गए।वहां उनके हाथ में गंड़ासा पकड़ाया गया।एक झटके में खस्सी की गरदन उतार देनी थी।लेकिन लाख कोशिश के बाद भी उनका हाथ नहीं उठा।बाद में यह काम पिता जी को ही करना पड़ा।पिता जी कहा भी करते थे कि राजपूत के घर में लाला का बच्चा आ गया।
उनके इस नए नाम के पड़ने का कारण था- शादियों को काटना।शादियों को काटने में वह उस्ताद थे।इस काम में उन्हें अपार सुख मिलता था।उनके जाने किसी की शादी निर्विघ्न हो जाए यह संभव ही नहीं था।जैसे ही उन्हें पता चलता कि उनके गांव में किसी लड़के की शादी ठीक हो रही है वे बेचैन हो जाते।एकदम पागलों की तरह हरकत करने लगते।लड़के का इतिहास-भूगोल खंगालते।उसमें कोई खोट नहीं मिलता तो लड़के के बाप और दादा ही नहीं, परदादा तक की पूरी पतरी की तलाशी लेते।जैसे ही कोई खोट मिला, सीधे ले जाकर लड़की वालों के घर उलट देते।अगर लड़के के घर में कोई खोट नहीं मिला तो झूठ और कुप्रचार को अपना हथियार बना लेते।
अगर उनके प्रयास से किसी की शादी रुक या कट जाती तो उन्हें लगता कि उन्हें राज-पाट मिल गया है।कमरा बंद कर खूब हँसते, जमकर दारू पीते और महीने-दो महीने इस सुख के सागर में गोता लगाते रहते।इस सुख को हासिल करने के लिए वह अपना पराया भी नहीं देखते थे।पता नहीं उन्हें यह आदत कब और कैसे पड़ी।लेकिन पिछले पांच साल से यह आदत मानो उनकी बीमारी बन गई थी।उनकी इस आदत के चलते पहले तो दोस्त-साथियों ने उनसे किनारा किया और इसके बाद अब रिश्तेदारों ने भी उनसे पिंड छुड़ा लिया।एक बड़े भाई और भाभी साथ में रहते थे, लेकिन जब उन्होंने भतीजे की ही शादी में व्यवधान डाल दिया तो उनलोगों ने भी बंटवारा करके उनसे किनारा कर लिया।अब वे अकेले पांच कमरों के मकान में रहते।साथ देने के लिए उनका मोबाइल फोन और टीवी।एक उमेश कमकर था जो उनके लिए खाना बना देता था।वह भी उनसे ज्यादा बातचीत करने की कोशिश नहीं करता।पता नहीं मुंह से क्या निकल जाए।
अब तो गांव के लोग सुबह-सबेरे उनका चेहरा देखने से भी परहेज करते।राह चलती महिलाएं रास्ता बदल लेतीं- इस राच्छस की छाया भी पड़ जाए तो गिरहस्थ जीवन बिगड़ जाए।पहले तो मन ही मन गरियाती थी, लेकिन अब तो खुलकर सरापती- भोरे-भोरे निस्संतनिया का मुंह देखना पड़ा।पता नहीं आज दिन कैसा कटेगा।इसको मउअत भी नहीं आती।इसकी आंखें बंद हों तो गांव चैन की सांस ले।लेकिन इस सरापने का आज तक कोई असर बबुआन पर नहीं पड़ा।वे महिलाओं का सरापना सुनते और मुस्कराते हुए निकल जाते।
पहले तो लोगों की समझ में नहीं आया कि बबुआन ऐसा क्यों कर रहे हैं।दो चार लोगों के घरों में शादियां टूटीं और उन्हें जब कारण का पता चला तो वे बबुआन से लड़ने पहुंच गए।एकाध बार तो गांव के राजपूतों और ब्राह्मणों ने उन्हें जमकर पीटा।सबसे ज्यादा शादियां उन्होंने इनके ही टोलों के लड़कों की काटी थी।
राम उदार यादव के बेटे की शादी ठीक हुई तो उन्होंने पहले ही जाकर बबुआन को चेता दिया- बेटे की शादी कटी तो वह उनको ही काट देंगे।इसके बावजूद वे नहीं माने और शादी में कुछ न कुछ व्यवधान डाल ही दिया।पिछलका टोला के लड़कों ने उन्हें काटा तो नहीं, लेकिन दरवाजे पर जाकर उनकी जो फजीहत की कि पूछिए मत।बबुआन छत के कमरे में पड़े-पड़े सबकुछ सुनते रहे।नीचे उतरे ही नहीं।नीचे उतरते तो हाथ-पांव टूटना तो तय ही था।धीरे-धीरे गांव में सबकी समझ में आ गया कि बबुआन बियहकटुआ हैं।इनको समझाने या मारने-पीटने का भी कोई फायदा नहीं है।बस इनसे सावधान रहने की जरूरत है।लोग उनसे दूरी बनाकर रहने लगे।हालत यह है कि अब तो अपनी जात के लोग भी उनको अपने दरवाजे पर बैठने नहीं देना चाहते।शुरुआत में गांव के लड़कों ने मजाक-मजाक में उनका नाम बियाह गंड़ासा सिंह रख दिया।यही नाम बदलकर अब बम गंड़ासा सिंह हो गया।अब तो बबुआन को भी अपना यही नाम सबसे अच्छा लगता है।
लोगों का कहना था कि चूंकि बबुआन की अपनी शादी नहीं हुई, इसलिए वे दूसरों की शादियां नहीं होने देना चाहते।वे शादियां काटते कैसे थे इसका एक उदाहरण सुन लीजिए।तीन साल पहले की बात है।गांव के बभनटोले के राम नारायण तिवारी के बेटे की शादी सिमरी गांव में तय हुई।राम नारायण तिवारी की गांव में अच्छी इज्जत है।वेदपाठी ब्राह्मण और संपन्न किसान।बेटा फौज में और छोटा भाई बक्सर कचहरी में पेशकार।घर में अपनी चारपहिया गाड़ी।बेटे की शादी ठीक होने के बाद राम नारायण तिवारी ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की कि यह बात बबुआन तक नहीं पहुंचे।अगल-बगल के लोगों को भी कोई जानकारी नहीं।लेकिन गोतिया के लोगों से बात कैसे छुपती।ऐसे ही एक गोतिया के आदमी ने जाकर बबुआन को खबर कर दी।खबर ही नहीं की, उनके होने वाले समधियाने का पता भी दे दिया।बबुआन ने तुरत बस पकड़ी और लगभग ६० किलोमीटर दूर सिमरी पहुंच गए।वहां लड़की के पिता के पास पहुंचे।लड़की के पिता को जैसे ही पता चला कि जासो गांव के बाबू साहेब आए हैं वे तुरत आवभगत में लग गए।
पहले तो बबुआन ने इधर-उधर की बात की।कुछ देर ठहाके लगाए और कुछ गांव-जवार के हाल-समाचार सुनाए।फिर अचानक गंभीर हुए और लड़की के पिता से धीरे से कहा- ‘मिसिर जी, आप अच्छे आदमी हैं, कहां फँस गए?’
‘क्या हुआ बाबू साहेब?’ लड़की के पिता ने सशंकित होकर पूछा।
‘अरे लड़की बोझ थी तो कुइयां-नदी में डुबो देते, लेकिन आप तो कुल-खानदान का ही नाश करने पर तुल गए?’
‘क्यों कोई कमी है का तिवारी जी के खानदान में।अरे हमें तो बताया गया कि राम नारायण तिवारी बड़े कुलीन हैं।बेटा भी फौज में है?’
‘कुलीन…. हुंह…।’ बबुआन ने अपने चश्मे को नाक पर टिकाया।फिर सरसराती हुई आवाज में कहा- ‘राम नारायण तिवारी एक महापतरिन को रखे हुए हैं।जब से उनके घर में महापतरिन आई है तब से उन्हें कोई ब्राह्मण थोड़े मानता है?’
लड़की के पिता को तो लगा कि जैसे वह वहीं नाचकर गिर जाएंगे।उन्होंने फटी आंखों से बबुआन के चेहरे को देखा।पहले तो उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ कि राम नारायण तिवारी रखनी रखे हुए हैं और उसपर भी महापतरिन।अगर तिवारी जी का कोई गोतिया-दयाद बोलता तो कुछ देर के लिए यह सोचा जा सकता था कि घर-परिवार की दुश्मनी के कारण ऐसा बोल रहा है।लेकिन गांव का राजपूत बोल रहा हो तो भरोसा कैसे नहीं किया जाए? उन्होंने बाबू साहेब को धन्यवाद दिया और तत्काल निर्णय लिया कि वह ऐसे घर में अपनी बेटी का रिश्ता नहीं जोड़ेंगे, जिस घर में महापतरिन का वास हो गया हो।
सिमरी आने-जाने में बाबू साहेब के डेढ़ सौ रुपये खर्च हुए, लेकिन वे संतोष भाव के साथ घर लौटे।रात में जमकर दारू पी और उमेश कमकर से मुर्गा कटवाया।राम नारायण तिवारी के बेटे की शादी जब टूटी तो वे समझ गए कि सारा खरमंडल बबुआन ने किया है।लेकिन वे खून का घूंट पीकर रह गए।बाद में उन्होंने जब बेटे की शादी रामगढ़ तय की तो गांव के लोगों को भनक तक नहीं लगने दी।बनारस जाकर मंदिर में बेटे की शादी की।ठीक शादी के दिन लोगों के घर नेवता भेजा गया।
सुमेर सिंह के बेटे की शादी तो उन्होंने निराले ढंग से काटी।इसके लिए उन्हें दिल्ली तक की यात्रा करनी पड़ी।वे सीधे लड़की वालों के घर पहुंचे और बता दिया कि सुमेर सिंह का एक भतीजा पांच साल पहले एक मुसलमानिन को लेकर भाग गया।बाद में जब हल्ला-हंगामा हुआ तो उस मुसलमानिन से शादी कर ली।अब तो एकदम पक्का मुसलमान हो गया है।लड़की वाले भले पांच साल से दिल्ली में रहने लगे थे, लेकिन उनका सारा घर समाज तो भोजपुर जिले के गांव में था।लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे।बेटी ऐसे घर में गई जहां पहले से एक मुसलमानिन बहू है।जब सुमेर सिंह के बेटे की शादी कटी तो वे भी समझ गए, लेकिन कर क्या सकते थे।हां, सुमेर सिंह के भाई-भतीजों ने बबुआन को उनके घर से खींचकर कूट दिया।अपने जाने तो उनलोगों ने उन्हें मार ही डाला था।लेकिन कठकरेजी जान।केवल हाथ-पांव टूटकर रह गए।कुछ दिन तक तो बिस्तर पर पड़े रहे, लेकिन उठने के बाद फिर से अपने काम में लग गए।कई बार तो बबुआन किसी राजपूत-ब्राह्मण के बेटे की शादी काटने के लिए उसका नाम बीपीएल सूची तक में जोड़वा चुके हैं।भले इसके लिए उन्हें कर्मचारी को हजार-पांच सौ रुपये की घूस ही क्यों नहीं देनी पड़ी हो।
अब इसको बबुआन का आतंक कहिए या बदलते दौर का असर।धनी और संपन्न लोग अपने बच्चों की शादी गांव से करते ही नहीं थे।कुछ लोग बनारस जाकर अपने बेटों की शादी करते और कुछ लोग बक्सर अपने रिश्तेदारों के यहां चले जाते।अपनी इस जबरदस्त बीमारी के बावजूद बबुआन इस बात का ख्याल जरूर रखते कि उनके हाथ से गांव की किसी लड़की की शादी नहीं कटे।
लेकिन कहते हैं कि सबकी बिगाड़ने वाले का भी मामला फँसता है।और उस दिन बबुआन का भी मामला फँसा।तब जेठ ऐसा तप रहा था कि मानो सबकुछ जलाकर राख कर दे।न घर में मन लगे और न ही बाहर।गांव में बिजली आ गई थी, लेकिन उसके दर्शन भी मुश्किल से होते थे।तब गांव की चट्टी पर खुली दारू की दुकान वाले ने बियर को ठंडी रखने के लिए जेनरेटर लगवा लिया था।फ्रीज की ठंडी बियर की चाह में आधा गांव उसकी दुकान के बाहर जमा रहता।बबुआन भी दारू की दुकान के सामने की चाय की दुकान में अड्डा जमाते और वहीं ठंडी बियर की घूंट भरकर गला तर करते।उस दिन भी वह जब बियर की आखिरी घूंट को अंजाम तक पहुंचाकर चलने की तैयारी कर रहे थे, अचानक प्रकट हुआ था कृष्णा पांडे।गांव का सबसे बड़ा दारूबाज और जुएबाज।खड़े होते बबुआन को देखकर वह हँसा- ‘अभिये चल दिए बाबू साहेब।अभी तो रम की बोतल खोलनी है और आपको एक जबरदस्त खबर सुनानी है।’
बबुआन ने अपनी चढ़ी आखों से कृष्णा पांडे को देखा और मुस्कराए- ‘न रे बबुआ, गरमी में रम न।बियर ठीक है।पेट ठंडा रखेगी।खबर क्या सुनाने वाले हो?’
‘हमारे चचेरे भाई सुरेंद्र पांडे की शादी तय हो गई है।रघुनाथपुर में।कहने के साथ उसने जेब से रम का अद्धा निकाला और गिलास में डाला।कृष्णा पांडे के पिता हरेराम पांडे और सुरेंद्र पांडे के पिता श्रीराम पांडे एकपीठिया भाई हैं।लेकिन जब से जमीन का बंटवारा हुआ दोनों भाई एक-दूसरे को देख नहीं सकते।जब सुरेंद्र पांडे की नौकरी गांव के ही मिडिल स्कूल में हो गई तो कृष्णा पांडे के घर में कोहराम मच गया।कृष्णा पांडे और सुरेंद्र पांडे की उम्र लगभग एक ही थी।२४-२५ वर्ष।लेकिन कृष्णा पांडे जहां दारू और जुए की अड्डेबाजी में फँस गया वहीं सुरेंद्र पांडे ने पहले बक्सर कालेज से बी.ए. पास किया और फिर बी.एड. भी कर लिया।अब गांव के ही सरकारी स्कूल में शिक्षक भी बन गया है।यही नहीं, उसकी शादी रघुनाथपुर के जिस घर में तय हुई है वे लोग पचपन बीघे के काश्तकार हैं।घर में एक ही लड़की और मां विधवा।मतलब सारी संपत्ति पर एकाधिकार भी सुरेंद्र पांडे का।कृष्णा पांडे को जैसे इसका पता चला उसे एक ही चेहरा याद आया- बबुआन उर्फ बाबू बम गंड़ासा सिंह।
मना करने के बावजूद बबुआन के लिए भी प्लास्टिक की गिलास में रम डालते हुए कृष्णा पांडे ने कहा- ‘शादी की बात हमारे चाचा पूरे गांव से छिपाए हुए हैं।रघुनाथपुर में हरेंद्र मिश्र की मुसमात के घर में ठीक हुई है शादी।और हां, रम का एक पैग मार लीजिये।नुकसान नहीं करेगा।रात में नींद अच्छी आएगी।’
लेकिन बबुआन को अब क्या खाक नींद आनी थी।वे तो इस बात पर हैरान थे कि इस खबर की हवा उन्हें अब तक क्यों नहीं लगी।बबुआन मुस्कराए।उन्होंने रम को हलक में उतारा, तली हुई मछली का टुकड़ा मुंह में डाला और जेब से सौ का पत्ता निकालकर कृष्णा पांडे की ओर बढ़ा दिया- जाकर गोल्ड फ्लैक का एक डिब्बा लेते आओ।
कृष्णा पांडे ने सौ का पत्ता उन्हें वापस लौटाया- ‘अरे सिगरेट का डिब्बा लेकर आए हैं बाबू साहेब।लीजिए सुलगाइए।’
पूरी रात जगे रहे बबुआन।सुरेंद्र पांडे और उनके पूरे परिवार को लेकर तमाम तरह के झूठ-सच जुटाए और अहले सुबह बक्सर के लिए निकल गए।तय किया था कि बक्सर से ट्रेन से रघुनाथपुर के लिए रवाना होना है।बक्सर पहुंचते ही पता चला कि गाड़ी दो घंटे लेट से खुलेगी।डुमरांव में लड़कों ने रेल पटरियों पर धरना दे दिया है।न तो कोई गाड़ी जा रही है और न ही आ रही है।उन्होंने मन ही मन आंदोलन करने वाले लड़कों को गरियाया और वहीं प्लेटफार्म पर एक किनारे बने पत्थर के बेंच पर बैठ गए।उन्होंने अपना सिर दीवार से सटाया और आंख बंद कर ली।गरमी का दिन, सुबह का वक्त और धीरे-धीरे बहती ठंडी हवा।उन्हें नींद आने लगी।आंखों पर गमछा डाल लिया ताकि नींद में कोई बाधा नहीं पड़े।अचानक उन्हें लगा कि उनके बगल में आकर कोई बैठ गया है।ऐसा लगा जैसे हवा कुछ और ठंडी हो गई है।रात की रानी की हल्की खुशबू का भी अहसास हुआ।रात की रानी और दिन में? वह चौंके।उन्होंने आंखों पर से गमछा हटाया और कनखियों से देखा।बगल में एक महिला बैठी थी।सांवली, लंबी और तीखे नाक-नक्श।भरी-पूरी देह और उमर यही कोई ४५ के आसपास।खूबसूरती पर मानो उमर का कोई असर नहीं।बड़ी और गहरी आंखों पर पतले फ्रेम का चश्मा और हाथ में एक बैग।बबुआन अब पूरा १८० डिग्री पर घूमे और उसे पूरी नजरों से देखा।आम तौर पर महिलाओं से दूर ही रहने वाले बाबू साहब को वह महिला अच्छी लगी।पहली नजर में लगा कि किसी स्कूल की मास्टरनी होगी।या फिर किसी सरकारी दफ्तर की मुलाजिम।बाबू साहेब को अपनी ओर देखते हुए पाकर वह थोड़ी अचकचाई और फिर उन्हीं से पूछ बैठी- ‘आरा तरफ जाने वाली गाड़ी की कोई खबर है क्या?’
बाबू साहेब को उसकी आवाज अच्छी लगी।एकदम सुरीली।मानो कोई कोयल कूक रही हो।वह थोड़े सीधे हुए फिर कहा- ‘डुमरांव में विद्यार्थी लोग आंदोलन कर रहे हैं।पटरी पर बैठ गए हैं।अब या तो वे लोग खुद उठे या पुलिस उठाए।इसके बाद ही ट्रेन खुलेगी।’
‘विद्यार्थियों को ट्रेन से क्या दुश्मनी हो गई?’ कहते हुए उस महिला ने अपने बैग से मुड़ा-तुड़ा अखबार निकाला और पढ़ने लगी।
बबुआन की इच्छा हुई कि वह फिर से उसकी आवाज सुनते।लेकिन वह महिला तो अखबार पढ़ने में ही मशगूल थी।बबुआन ने धीरे से कहा- ‘कहां जाना है आपको?’
महिला ने अखबार से आंख उठाए बगैर कहा- ‘रघुनाथपुर।’
बबुआन ने महिला को फिर से देखा और आंखें बंद कर ली।जब तक ट्रेन नहीं आती तब तक थोड़ी देर तक सो लिया जाए।लेकिन अब काहे को नींद आए।बार-बार मन करे कि एक बार फिर नजर उठाकर बगल में बैठी महिला को देखें।जब नजर बचाकर देखें तो उसकी आवाज सुनने का मन करे।उन्हें फिल्म बलम परदेसिया का वह गीत याद आया जो कालेज के दिनों में वह खूब गाया करते थे- गोरकी पतरकी रे, मारे गुलेलवा जिया में गड़-गड़ जाए।कोई और जगह होती तो वर्षों बाद आज वह पूरे मिजाज से इस गीत को गाते।
तभी सिर के ऊपर लगे लाउडस्पीकर से आवाज आई- ‘बक्सर-पटना सवारी गाड़ी अब से थोड़ी देर में प्लेटफार्म नंबर दो से खुलेगी।’
धत तेरे की।अब दो नंबर से खुलेगी।बीस-पचीस सीढ़ी चढ़िए और फिर इतनी ही सीढ़ी उतरिए।जब दो नंबर से खुलनी थी तो नोटिसबोर्ड पर एक नंबर क्यों लिखा था।वह भुनभुनाए- ‘रेलवे के अफसर कभी नहीं सुधरेंगे।’
वह जल्दी से प्लेटफार्म नंबर दो पहुंचने के लिए लपके।तभी उनका ध्यान महिला की ओर गया।उसके पास एक बैग के अलावा बड़ा ब्रिफकेस भी था।वह किसी कुली की आशा में इधर–उधर देख रही थी।बबुआन घूमे और उसका ब्रिफकेस पकड़ लिया– ‘चलिए, मैं आपका सामान ले जाने में मदद कर देता हूँ।
महिला झिझकी।
‘अरे, कुली के फेर में रहिएगा तब तक तो गाड़ी खुल जाएगी।’
महिला के चेहरे पर कृतज्ञता के भाव आए।बबुआन ने ब्रिफकेस उठाया और महिला ने बैग।बबुआन के पास अपना तो कोई सामान था नहीं।उन्होंने लपकते हुए सीढ़ियां पार कीं और ट्रेन पर महिला का सामान चढ़ा दिया।ट्रेन में दोनों आमने सामने की सीट पर थे।एकदम सामने बैठी महिला को बबुआन ने भर नजर देखा।इसके बाद सीट पर पालथी मार ली।महिला फोन पर किसी से बात करने में मशगूल हो गई।बबुआन ने नोटिस किया कि वह ट्रेन पर चढ़ने के दौरान हुई परेशानी के बारे में किसी को बता रही थी।जाहिर है कि बातचीत के दौरान उनकी भी चर्चा हो रही थी।महिला बातचीत के दौरान कभी-कभी नजर उठाकर उनकी तरफ देख भी ले रही थी।ट्रेन को रघुनाथपुर पहुंचने में लगभग एक घंटा लगना था।बबुआन ने इशारे से महिला से उसका अखबार मांगा और उसे पढ़ने लगे।हालांकि अखबार पढ़ने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं थी और कुछ ही देर में उनकी नाक बजने लगी।
अचानक मोबाइल की घंटी बजने से उनकी नींद टूटी और उन्होंने फोन उठाया- ‘हां बाबू साहेब हम कृष्णा।कृष्णा पांडेय।कहां हैं? आपसे मिलना है।’
‘ससुरा।आग लगा के पूछता है कहां हैं।’ उन्होंने अनमने तरीके से कहा- ‘जरा जमीन के काम से ब्लॉक आफिस आए हैं।क्या काम है? शाम में आते हैं तो बतियाते हैं।’ कहकर उन्होंने जल्दी से अपना फोन बंद किया।वे अपने काम के बारे में किसी को नहीं बताते थे।चाहे सामने वाला कोई भी हो।
दो लड्डू।अखबार के फटे हिस्से पर।अचकचा कर देखा बबुआन ने।महिला ने उनके बगल में रख दिया- ‘लीजिए।पानी पी लीजिए।अब तो थोड़ी देर में रघुनाथपुर आ जाएगा।वहां कहां जाना है आपको?’
बबुआन ने एक बार में एक पूरा लड्डू मुंह के अंदर डाला और लापरवाही के अंदाज में कहा- ‘रघुनाथपुर में ही काम है।एक आदमी से मिलना है।शाम वाली गाड़ी से वापस लौट भी जाना है।’
‘क्या करते हैं आप बक्सर में? वकील हैं क्या?’ महिला ने पूछा।पता नहीं कैसे उसे बबुआन के वकील होने का अंदेशा हो गया था।
‘नहीं नहीं।हमारा घर जासो है।गांव का नाम तो सुने होंगे।बक्सर के बगले में है।मोटरसाइकिल से आधा घंटा लगता है।किसान हैं।’
जासो? नाम सुनकर महिला चौंकी।कुछ सोचने लगी तभी बबुआन ने पूछा- ‘आप मास्टरनी हैं क्या?’
‘नहीं तो? क्यों?’
‘वो देखने से लगता है।देखने से ही पढ़ने-पढ़ाने वाली औरत लगती हैं।’ बबुआन हँसे।
‘पढ़ने वाली तो हैं।पढ़ाने वाली नहीं।’ कहकर महिला हँसी।
‘मतलब?’ बबुआन को उसकी बात समझ में नहीं आई।
‘मतलब यह कि हिंदी में एम.ए. तो बहुत पहले कर लिया था, अब समय मिला है तो पी-एच.डी. भी कर रही हूँ।बक्सर कालेज के प्रोफेसर ही गाइड हैं।उनसे मिलकर लौट रही थी।’
‘बाप रे! अब एतना पढ़ के का कीजिएगा?’ बबुआन ने हैरत से उसका चेहरा देखा।
‘बस ऐसे ही।बचपन से शौक था पढ़ने का।अब पूरा कर रही हूँ।’
‘इ पढ़ने का शौक भी होता है? उन्हें तो हमेशा यही लगता था कि आदमी मजबूरी में ही पढ़ता है।मजबूरी न हो तो किताबों को दूर से प्रणाम।
‘आप जासो गांव के रहने वाले र्हैं न?’ महिला ने कुछ सोचते हुए पूछा।
‘हां-हां।क्यों?’
‘जासो के श्रीराम पांडे को जानते हैं क्या?’
बबुआन को झटका लगा।श्रीराम पांडे मतलब सुरेंद्र पांडे का बाप।सुरेंद्र पांडे की ही तो शादी ठीक हुई है रघुनाथपुर में।कहीं इसी के घर में शादी तो ठीक नहीं हुई है न? मतलब काम आसान।बस समझा दीजिए यहीं पर और निकल जाइए वापस जासो।
‘हां, मेरे ही गांव के हैं श्रीराम पांडे।क्यों?’ बबुआन एकदम सावधान होकर बैठ गए।चश्मे को नाक पर ठीक से लगाया और महिला का चेहरा गौर से देखा।
‘उनके लड़के हैं सुरेंद्र पांडे।शिक्षक हैं।उनको आरा में देखा था।बहुत सुशील और गुणवान लगे।उनसे बेटी की शादी की बात चल रही है।चल क्या रही है फाइनल ही समझिए।’
‘जी।’ बबुआन ने गौर से महिला का चेहरा देखा।
वह कुछ कहते इससे पहले ही महिला ने हाथ जोड़े- ‘बस एक ही बेटी है।उसको भी मन से पढ़ाए हैं।बीए पास हो गई है।आरा में रहकर पढ़ी है।मन होगा तो शादी के बाद आगे भी पढ़ेगी।जर-जमीन की कोई कमी नहीं।हमारे आदमी को बहुत मन था कि रघुनाथपुर में लड़कियों का कालेज खुले।अभी लड़कियों को आगे पढ़ने के लिए आरा जाना पड़ता है।अब बेटी की शादी ठीक-ठाक से हो जाए तो उनकी इच्छा पूरी करने में लगना है।आसपास के लोग भी तैयार हैं।धन-जन सबसे मदद होगी।’
‘जी।’ बबुआन के मुंह से कोई आवाज ही नहीं निकल रही थी।उन्होंने बड़ी मुश्किल से कहा- ‘तो क्या आप हरेंद्र मिश्रजी की…?’
‘हां।आप कैसे जानते हैं उनको? वही हमारे आदमी थे।उनको गए हुए दस साल हो गए।केवल मैट्रिक पास थी जब उनसे शादी हुई थी।उन्होंने एम.ए. तक पढ़ाया और चल बसे।’
बबुआन चुप।वह सोच कर तो बहुत कुछ आए थे।श्रीराम पांडे के घर परिवार का पूरा पतरा खंगाला था।झूठ–सच का पूरा अंबार खड़ा किया था।सोचा था कि श्रीराम पांडे को नकली ब्राह्मण साबित करके लौटेंगे।लेकिन यहां तो मुंह ही नहीं खुल रहा था।
उन्होंने मुश्किल से कहना चाहा- ‘एक बार फिर से सोच लेतीं तो अच्छा था।’ उन्होंने मुंह खोला भी लेकिन तभी तेज आवाज के साथ बगल से ट्रेन गुजरी और आवाज मुंह में ही दब गई।
‘आप बताइए, श्रीराम पांडे का घर तो ठीक है? हमारे गांव के लोग तो बहुत बड़ाई कर रहे हैं।’
बबुआन कुछ बोलते तभी एक झटके से ट्रेन रुकी।रघुनाथपुर स्टेशन आ गया था।बबुआन ने महिला को ट्रेन से उतरने में मदद की।उसका सामान एक रिक्शे पर चढ़वा दिया।महिला ने कहा- ‘बस पास में ही अपना घर है।आपने बताया नहीं कि आपको कहां जाना है?’
‘हमको भी रघुनाथपुर में ही काम है।बस स्टेशन के पास ही में।’
‘काम हो जाए तो आप मेरे घर पर आइए।भोजन मेरे ही घर पर कीजिए।रघुनाथपुर में आप किसी से भी मिश्रजी का नाम लेकर पूछिएगा तो वह मेरे घर पहुंचा देगा।आप अच्छे आदमी हैं।आपसे श्रीराम पांडे के घर के बारे में बात करनी है।आपसे ज्यादा अच्छी तरह उनको कौन जानता होगा?’
बबुआन ने धीरे से कहा- ‘आज शायद मौका नहीं मिल पाए।लेकिन दूसरी बार आपके यहां जरूर आऊंगा।और हां, मैं ज्यादा नहीं जानता श्रीराम पांडे के बारे में।आप कह रही हैं तो पता करूंगा।कुछ ऊंच-नीच होगा तो जरूर बताऊंगा।’
रिक्शे वाला आगे बढ़ गया और बबुआन पीछे घूमे।धीरे-धीरे वापस रघुनाथपुर स्टेशन पहुंचे और काला कोट पहने टीसी से पूछा- बक्सर जाने वाली गाड़ी कितनी देर में आएगी?
संपर्क : फ्लैट नं. ३०१, निरंजन अपार्टमेंट, आकाशवाणी मार्ग, खाजपुरा, बेली रोड, पटना–८०००१४ मो.९९३४९९४६०३
(All Images Amar Singha)