15 जून, 2020

सामने की खिड़की से पलाश का एक पेड़ दिखता है, झुकी डालियों पर लाल दहकते फूल कोनों से जलने लगे हैं; क्या अपनी अल्पायु के आखिरी क्षणों के सरपट खत्म होने का जरा-भी दुख उन्हें नहीं सालता? अल्पायु मैं, कोरोना से ग्रस्त, निपट एकाकी।मुझे कल यहां भर्ती किया गया।बस आसमानी रंग के चोगों और प्लास्टिक के हेल्मेट से लैस कुछ अजनबी आदमियों ने मुझे स्ट्रेचर पर लिटाया और बाकी सबको ‘दूर हटो, दूर हटो’ कहते हुए उस एम्बुलेंस में सवार कर लिया, जिसके सायरन की सांय-सांय शहर को भेदती मुझे यहां ले आई।मुझे सांस लेने में तकलीफ है, उतनी, जितनी एक मंजिल सीढ़ी जल्दी-जल्दी चढ़ने से होती है, पर जबसे मिसेज सिंह को देखा है, उनकी बेटी सोनाली की आर्त चीख ‘मेरी मम्मी को ले जाओ… जल्दी… जल्दी ले जाओ…’ सुनी है, तभी से अस्पताल में भर्ती होने का मेरा दुराग्रह था।

मिसेज सिंह बार-बार याद आती है।अगर उनके जैसी स्वस्थ महिला, जो व्यायाम के लिए हर रोज कम समय सोकर निकलती रहीं और बाहर से सब्जी कभी पेस्टीसाइड के कारण नहीं खरीदीं, बल्कि खुद उगाईं, तो मेरी क्या बिसात।डॉक्टर शिवेश, जो मुझे कल देखने आए, कड़े शब्दों में कह कर गए हैं कि मैं मास्क बिलकुल न उतारूं।परंतु बड़ी अजीब बात है।ऑक्सीजन से मेरा दम घुटता है, बार-बार बनते बुलबुलों की गुड़-गुड़ सुनकर चिढ़ होती है।मैं एक-आध क्षण के लिए मास्क उतारती हूँ, पर मुझे शिवेश और मिसेज सिंह याद आते हैं और मैं द्रुत गति से फिर मास्क पहन लेती हूँ।

यहां कुछ काम नहीं है।नर्स से कहकर एक किताब शेल्फ से मंगवाकर पढ़ने लगती हूँ, पर मन उचाट है और बार-बार कौंधता सोनल का निस्तेज चेहरा मुझे और व्यथित कर जाता है।मिसेज सिंह की खबर जैसे ही आई, मैंने छज्जे से उसे आवाज़ दी, सहानुभूति के लिए (अवश्य ही खोखली रही होगी), पर उसने अनसुना कर दिया।मैं घंटों देखती रही उसे मिसेज़ सिंह की छाती से लगे सुबकते हुए।मन में कितनी बार उठा, कहूँ- दूर हो जाए, बिना बात के कोरोना का अभिशाप अपने सिर न ले, पर कैसे कहती – मां के जाने के दुख की अनुभूति से मैं खुद गुजर चुकी हूँ।फिर एक बार को लगा उसे अपने छाती से चिपका लूं, पर सांसारिक व्यावहारिकता की एक चीख ने मुझे सतर्क किया और याद दिलाया- खून पानी से गाढ़ा होता है… नहीं… नहीं… बल्कि खूब-खूब गाढ़ा होता है।

सुबह तुलसी में पानी डालने निकली, तो देखा मिसेज सिंह की लाश से दूर बैठी थी सोनल, लाश से आती बदबू से बार-बार उबकाई लेती, कभी अपने मुंह को हाथ से ढंकती, तो कभी रूमाल बांधती।अजीब सा धक्का लगा… कल शाम तक इतना बिलख-बिलख कर रो रही थी, और आज कितनी दूर बैठी है, व्यथित पर असंपृक्त, जैसे इंतजार कर रही हो कोई जल्दी से लाश से आती सड़ांध से मुक्ति दिला दे।मैंने खाना डलिया में रखकर भेज दिया था, और अपने कर्तव्य की पूर्ति करके अपने आपको संवेदनशील घोषित कर लिया।

न जाने क्यों बार-बार यह सालता है कि सोनल का अब क्या होगा? मिस्टर सिंह तो अपनी अमेरिकी बीवी और दो बच्चों के साथ रहते हैं।वैसे भी सोनल ही तो सारे फसाद की जड़ थी- जब पता चला प्रेग्नेंसी में कॉम्प्लिकेशन है और यह कि मिसेज सिंह शायद दूसरा बच्चा न पैदा कर पाए, तो मिस्टर सिंह ने कुछ जुगत भिड़ाकर पता लगा लिया था कोख में लड़की है, और मिसेज सिंह को एबॉर्शन करवाने के लिए बाध्य किया, पर वह मानी नहीं थीं और इसी चक्कर में मिस्टर सिंह आठवें महीने में अचानक मिसेज सिंह को रात में सोता छोड़ चले गए थे।मिसेज सिंह ने रोते-रोते अगले दिन जब बताया था तो देर तक सोचती रही थी कि मैं उनकी जगह होती तो क्या करती? कचोटती हुई आत्मा को लेकर भी मैं व्यावहारिकतावश बच्चा गिरा देती।मैं कदापि मिसेज सिंह जैसी नहीं, हालांकि ईर्ष्या बहुत होती थी उनको धूप में छतरी लिए कॉटन की हल्के रंग की साड़ी पहने स्कूल जाते देख।कभी मन लालायित भी होता उनकी तरह बनने का, पर एसी की ठंडी हवा, नौकरों के ऊपर मेरा दबदबा, पति के पैसों से मिला सुख इतना अच्छा लगता कि सब कुछ भुला गहरी नींद में सो जाती।

शाम तक भी मिसेज सिंह की लाश लेने कोई नहीं आया, उनके शरीर से आती बदबू धीरे-धीरे मेरी रसोई में प्रवेश करने लगी।मैंने खिड़की-दरवाजे बंद कर, एग्जास्ट फैन चलाए, इटली से इनके लाए न जाने महंगे-से-महंगे परफ्यूम की आधी-पौनी शीशी उंड़ेल दी, पर मौत की खास गंध नासापुटों में भरती जा रही थी।उसी क्षण सोच लिया- मैं ऐसी मौत नहीं चाहती; मैं डिग्निटी से मरना चाहती हूँ।मुझे मौत का उतना डर नहीं, जितना सड़ने का है।शरीर का बदबू में तब्दील होने का।खाल, नाखून, बाल का धीरे-धीरे हड्डियां छोड़ जाने का, मक्खियों के भिनभिनाने का, चींटियों की लंबी कतारों का नाक में रेंगने का, कुत्तों-कौओं के भोजन का।

19 जून, 2020

रात भर सो नहीं पाई।अभी उनींदी ही हुई थी कि साथ में लेटा लड़का हांफता-हांफता, थरथराती आवाज में चिल्लाने लगा, और पैर इधर-उधर पटकने लगा।घबराए डॉक्टर शिवेश दौड़े-दौड़े आए, और ‘हेल्प, इमर्जेंसी; हेल्प, इमर्जेंसी’ चिल्लाने लगे।जब तक नर्स पहुंच पाती, उन्होंने एक हथेली को दूसरी पर रखकर लड़के की छाती पर प्रेशर देना शुरू किया।यह प्रक्रिया सी. पी. आर. – फिल्मों के सिवा अन्यत्र कहीं नहीं देखी।उस लड़के की आंखें मुंद चुकी थीं, पैर भी हिलने बंद हो गए थे (क्या वह तभी मर गया था?), पर शिवेश दबाव देना बंद नहीं कर रहे थे।नर्स ने स्टील के खानों वाली लंबी ट्रे से निकाल कर लोहे के दो चौकोर यंत्रों को आपस में रगड़ा और शिवेश को थमा दिया।शिवेश जोर से बोले, ‘क्लियर, क्लियर’, फिर छाती पर उन्हें रखकर कहा, ‘220 वोल्ट’, जिससे उस लड़के के शरीर में तेज कंपन हुआ।मैं सोच रही थी हिचकोले खाते जीवन के छूटने पर क्या महसूस होता होगा।

बार-बार वही प्रक्रिया दोहराई गई।शिवेश वोल्ट को बढ़ाते और फिर साथ लगे मॉनीटर को देखते।जब शरीर में कोई हरकत नहीं हुई, उन्होंने नर्स को कुछ आदेश दिया।नर्स ने चौकोर डब्बों वाले लंबे पेपर पर एक सीधी रेखा निकाली और शिवेश सिर झुकाए, बहुत धीरे-धीरे वहां से चले गए।

तुरंत कुछ और लोग आए और एक सफेद चादर में उस लड़के को लपेट दिया, दो रस्सियों से बांध दिया और ले गए।मैं पूरे समय देखती रही थी उस लड़के को, पर जब चादर में लिपटा देखा तो लगा जैसे आंखों ने धोखा किया है मेरे साथ।वह लड़का इतना सिकुड़ कैसे गया? जिस शरीर को इनसान अपनी जमा-पूंजी मानता है, जिन सांसों पर इतना अधिकार समझता है कि लेते वक्त सोचता भी नहीं, क्या वो सब इतनी जल्दी पलक झपकते ही अहोम हो जाता है? क्या मैं भी… इतनी अचानक… बिजली के झटके… मैं चिल्ला पड़ती हूँ।

रात के तीन बजे होंगे जब अजीब सी बेचैनी महसूस हुई।लगा, दिल धड़धड़ाकर रुक जाएगा, सांस गले की अतल गहराई में अटककर घुट जाएगी।मैंने तुरंत नर्स को आवाज दी, जिसने डॉक्टर शिवेश को टेलीकॉम कर बुला लिया।

‘डॉक्टर शिवेश, मुझे इतनी जल्दी नहीं मरना है; मुझे बचा लीजिए।’ मैं दो साल के बच्चे की तरह मिमियाई।

‘मिसेज रायजादा, आपका ऑक्सीजन लेवल तो बिलकुल ठीक है।मुझे लगता है आप नवयुवक की मौत से घबरा गई हैं।सो जाइए।’

उनके स्वर की आश्वस्ति से मैंने एक गहरी सांस ली।वे जाने लगे तो अचानक पूछ लिया, ‘आप नहीं घबराए?’

‘क्यों, क्या मैं इनसान नहीं?’ मुस्कराहट की एक महीन रेखा उनके होठों पर खिंच गई।

सुबह सात या आठ बजे होंगे कि मुझे वैसी ही बेचैनी फिर होने लगी।वही दिल का घोड़े की टापों-सा धड़कना, वही सांस का शिथिल पड़ना।मैं फिर चिल्लाई।

डॉक्टर शिवेश फिर आए, फिर ऑक्सीजन का लेवल ठीक निकला तो तुनक कर बोले, ‘आप को समझ नहीं आता कि आप ही अकेली नहीं हैं यहां पर।एक तो आप जैसे अमीर लोग बेड्स घेरकर बैठे हैं, जिसके कारण जरूरतमंद वंचित हैं, और ऊपर से बिना बात का बवाल।’

मैं शोधकर्ता के चूहे की तरह सहम गई।

दोपहर को आंख लगी ही थी कि नर्स का तीक्ष्ण स्वर कानों में पड़ा और एक झुरझुरी शरीर में दौड़ गई।वह दूसरी नर्स को कह रही थी, ‘आज सभी बेड भर गए।’ फिर खिड़की की तरफ इशारा करती कहती जा रही थी, ‘वह देख, डोरोथी, वह आदमी चार घंटे से चिलचिलाती धूप में खड़ा है।मैं उसे फोन करते देखती हूँ, हर नया नंबर मिलाने पर आशा की लकीर का खिंचना।किसी के फोन न उठाने की उदासी; कभी चौकीदार के पैर पकड़ गिड़गिड़ाने लगता है; गेट से घुसती हर गाड़ी को रोकने की कोशिश करता है।बेड खाली तभी हो रहे हैं, जब कोई मर रहा है।’

बार-बार उस आदमी पर दृष्टि टिक जाती, कभी आंख मिल जाती, तो मैं शर्मिंदा हो, मुंह दूसरी ओर मोड़ लेती।सोचती रही- क्या यह आदमी मेरी मृत्यु नहीं चाहता होगा, नहीं चाह रहा होगा कि मेरी जैसी तंदुरुस्त महिला की जगह उसकी कृशकाय मां, जो पोटली की तरह उसकी गोद में सिमट गई है, को बेड मिल जाए।मैंने इनका दिया मूल-मंत्र ‘भगवान सबका भला करे, पर शुरुआत मुझसे करे’ मन-ही-मन दोहराया, और मन में उपजे तर्क का गला घोंट दिया।

जब से यहां आई हूँ, शहर से सब जानने वाले फोन कर रहे हैं, हर मिनट घंटी, किसी से बात थोड़ी भी लंबी खिंच जाए, तो कम-से-कम चार लोगों के मिस कॉल।मुझे अच्छा लगता है, लोगों का यूं उमड़ता प्यार, भ्रम जगता है कि जड़ों की तरह जिन रिश्तों के ढेलों को बांधे रखा, वह मेरे न होने पर भी दरके नहीं हैं।फिर भयभीत हो उठती हूँ।जिन पौधों की अपनी जड़ें पानी-पोषण खींचने में समर्थ हो गई हैं, छाया में घनत्व आ गया है, उनका मुझ जैसे खोखले होते पेड़ों से क्या वास्ता?

प्यार का जहाज हर बार जरूरतों के आइसबर्ग से टकराकर अस्त-व्यस्त क्यों हो जाता है?

पर दो-चार फोन के बाद बिलकुल उकता जाती हूँ।सारी आवाजें बजरी जैसी शुष्क हैं, भय से भीगा स्वर, जिसमें प्यार खोजने पर भी नहीं मिलता।ऐसा लगता है मानो सब कह रहे हों- मरणासन्न व्यक्तियों के तार ईश्वर से जुड़ जाते हैं, तो क्या तुम हमारे परिवार की सलामती के लिए प्रार्थना करोगी?

शाम के राउंड पर जब शिवेश आए, तो शर्मिंदा थे।माफी मांगने लगे, ‘मिसेज रायजादा, आई एम. सॉरी।मेरी वाइफ की डिलीवरी में कॉम्प्लिकेशंस हो गए थे।’

फिर जैसे कोई इनाम जीता बच्चा गा-गाकर पूरे शहर में ढिंढोरा पीटना चाहता हो, मुझसे पूछा, ‘आप देखेंगी पिक्चर्स?’

मेरे जवाब देने से पहले ही वह अपना फोन खोलकर मुझे अपने नवजात बेटे की तस्वीरें दिखाने लगे।फेस शील्ड में धुंधला होता उनका चेहरा देख, जिस पर उल्लास की अनेक रेखाएं खिंची थीं, मैंने भी आंनद की तरंगों को अपने अंदर महसूस किया।फिर अचानक उनके चेहरे पर विषाद गहरा गया।

‘क्या हुआ डॉक्टर शिवेश?’

‘पता नहीं, कभी मुलाकात होगी भी या नहीं?’

‘ऐसा क्यों कह रहे हैं?’

‘मेरा घनिष्ठ मित्र बिलकुल पलक-झपकते ही खत्म हो गया।मैंने सुबह ही उससे कॉल पर बात की, बिलकुल ठीक था, हँस-बोल रहा था, फिर अचानक दो घंटे बाद उसकी बीवी का फोन आया…’

‘कौन जाने मैं भी…’

22जून, 2020

आज पचास साल में पहली बार धूप का जो टुकड़ा मेरे चेहरे पर टिक गया है, उसे पूरी तरह महसूसा, उसकी चमकती रोशनी को अपने गालों पर मलती रही।पहली बार मन की गहरी घाटी में एक रिक्ति महसूस की।एक अधूरापन; लगा जैसे गृहस्थी के मकड़जाल में झूलती हुई मैं कभी जान ही नहीं पाई विरोधाभासों से जूझती औरत की गहरी संवेदनाओं से ओत-प्रोत जीवन।

इसी कारण आज मेरी जीने की इच्छा प्रबल हो गई है।चाहती हूँ आज किसी का हाथ पकड़ना, किसी के कंधे पर सुबकना।जोर-जोर से चिल्लाना। — मैं जीना चाहती हूँ, अभी और, खुलकर, उमग कर, घास पर लोटकर, झींगूरों का स्वर सुनकर, तारों की छतरी के नीचे नेरुदा और फैज़ की प्रेम कविताएं पढ़कर।

कोई हाथ नहीं, कोई कंधा नहीं यहां पर।प्यार का तो एक छींटा भी नहीं।जब से यहां आई हूँ, घर से मिलने वाला कोई नहीं आया।इनका एक-आध बार फोन आया था, पर इनसे बात नहीं, ‘हूँ, हाँ’ ही होती है।मन को बहुत समझाती हूँ, किसी का न आना ही बेहतर है।सब अपने कामों में व्यस्त हैं, फिर किसी को मेरे चक्कर में कोरोना हो गया तो बिना-बात की सिरदर्दी।

हालांकि मुझे इनके अलावा किसी के आने की उम्मीद है भी नहीं- ‘हॉस्पिटल में मिलने सिर्फ फर्स्ट डिग्री रिलेटिव्स ही आते हैं’, मिसेज़ सिंह कहा करती थीं।पर इनको तो मैं खुद ही न आने का मेसेज भेज देती हूँ।इनको शुगर की बीमारी है, ब्लड प्रेशर भी हाई ही रहता है, फिर इन्हें कुछ हो गया तो रुपयों का अलग झंझट।

शिवेश आते हैं, तो बच्चे और पत्नी के बारे में जरूर बताते हैं।उनकी बीवी ने बेटे का नाम ‘विक्रांत’ रखा है।हालांकि वे नाम से खुश नहीं हैं, वे ‘अतुल’ रखना चाहते थे।खुद ही कहते हैं, ‘डिलीवरी में तीस हड्डियां टूटने जितना दर्द होता है, उसने मेरे बिना ही सब झेला, उसका क्या इतना भी हक नहीं।’ पत्नी की बात करते-करते उनका स्वर स्वप्निल हो जाता है और चेहरा दमकने लगता है।मन करता है उनके चेहरे को अपनी पुतलियों में हमेशा के लिए फ्रीज कर लूं।

नर्सों के अलावा शिवेश जितना पास अब कोई नहीं आता।कोई नहीं आकर कहता- मैं बिलकुल ठीक हो जाऊंगी।शिवेश भी दूर खड़े होकर थर्मोमीटर की लाल रोशनी से बुखार माप लेते हैं, पूछ लेते हैं, ‘रात में कभी सांस लेने में तकलीफ़ तो नहीं हुई?’ और एक मंद मुस्कान के साथ चले जाते हैं।

आज जब शिवेश आए, बड़ी तीव्र इच्छा हुई उनका हाथ कस कर पकड़ लूँ, और उनके स्पर्श की तीव्र संवेदना को महसूस करूँ, जिससे मैं अब तक वंचित रही।सुनती रहूं एक खोखली उम्मीद कि मैं बिलकुल ठीक हो जाऊंगी।

पर उनकी तरफ हल्का-सा हाथ बढ़ाने को हुई, तो वे थोड़ा पीछे सरक गए… और मुझे याद हो आया, मैं एक अधेड़ उम्र की उनकी एक पेशेंट मात्र हूँ जिसके चेहरे की झुर्रियां गहरी हो गई हैं और शरीर एक भयंकर बीमारी से युद्ध में दिन-ब-दिन परास्त हो रहा है।

24 जून, 2020

मैं टालस्टॉय के नायक इवान इलीच जैसा महसूस करती हूँ।उसकी तरह मैं अपना जीवन जी नहीं पाई, बस सांसों के एक ढूंह के सहारे जीवन को उस सड़क तक ठेल लाई हूँ जिसके आगे ‘डेड एंड’ है।अब लगता है मौत से ही पश्चाताप मुमकिन है।मैं मरना नहीं चाहती, पर शाम जब अंधेरे का हाथ पकड़े मेरे आस-पास फैले जीवन को अपनी स्याह परछाई से ढंक लेती है, और जब गाड़ियों के हॉर्न और कुत्ते की भौंकने की आवाजें गूंजने लगती हैं, बिस्तर पर पड़े रहकर लाशों के बनते टीलों को देखते रहना बहुत निरर्थक लगता है।मन मरने और न मरने के बीच पेंडुलम की तरह दाएं-बाएं होता रहता है।

मैंने इन्हें फोन किया कि एक बार मिल जाएं, बस शीशे से एक बार देख लें, तो पहले इन्होंने एक जोर से ठहाका लगाया, फिर जैसे बच्चे को लोलीपॉप देकर फुसला दिया जाता है, मुझे जल्द आने का आश्वासन दिया।नर्स ने सूचित किया,  ‘शिवेश भी पॉजिटिव होने की वजह से क्वारंटाइन हो गए हैं और कुछ दिनों तक राउंड पर नहीं आएंगे।’

गहरा आघात पहुंचा।उनकी कोरोना ग्रस्त होने की खबर से कहीं ज्यादा इसलिए कि उन्होंने एक बार भी मुझे सूचित करने की जरूरत नहीं समझी।एक बार बस फोन कर देते या मेसेज पर ही बता देते।विशिष्ट अनुराग का जो स्वर उनमें अपने लिए खोजा था वह धूमिल होता दिखाई दिया।यथार्थ का एक नोकीला पत्थर चुभा और पूरा दिन शिवेश की नीली क्रिस्टल जैसी आंखें उस घाव को हरहराती रहीं।

मैं जितना शिवेश को भूलने की कोशिश करती, उतना ही अपराध-बोध से घिरती जाती।कहीं मेरे कारण ही तो शिवेश कोरोना-ग्रस्त नहीं हो गए?

न चाहते हुए भी पूरा दिन भगवान से गुहार लगाती रही कि शिवेश के पूर्वजन्म के सारे बुरे कर्म मेरे लेखे-जोखे में लिख दो परमपिता, और चाहे बसंत की खुमारी कभी जी नहीं पाई, पर आयु के बसंत उनसे ज्यादा देख लिए हैं- हाथ प्रार्थना में जुड़ जाते हैं शिवेश के मंगलमय जीवन की कामना में।

शाम को नर्स ने बताया, कोई लड़का मेरे बारे में पूछता है, कहता है, मेरी मां अंदर हैं, मुझे उनसे किसी भी हालत में मिलना है, चाहे उसमें कितना भी वक्त लगे; जब तक उनसे मिल नहीं लेता, मैं वापस नहीं जाऊंगा।

सार्थक होगा, मैंने मन-ही-मन सोचा।

फिर भी नर्स से पूछती हूँ,‘क्या नाम बताया उसने अपना?’

‘जैकब’

जैकब का यूं यहां आना और मुझे मां कहकर संबोधित करना, आक्रांत कर जाता है।मैं उसे जी भरकर गले लगा लेना चाहती हूं, क्योंकि दिन-प्रतिदिन बिगड़ती हालत के जैसे आसार लगते हैं, मुझे लगता नहीं दोबारा मौका आएगा।पर इस रुग्ण होते मन में क्षमता नहीं उसकी उन कातर निगाहों का सामना करने की, जो कभी एक मां के प्रेम के लिए आकुल थीं।

कहीं पढ़ा था, बीमार होना बिलकुल ऐसा है जैसे किसी और का चश्मा आपने लगा लिया।आज जब बिलकुल अवांछित-सी मैं यहां पड़ी हूँ, जब हर कोई पास आने से डरता है, समझ में आती है उन दोनों की बेचैनी।

मैं जैकब को कहना चाहती हूँ- उसके प्यार ने मुझे एक गहरी सांस दी है, जिसे मैं अपने फेफड़ों में भर लेना चाहती हूँ और इसके लिए मैं उसकी हमेशा कृतज्ञ रहूंगी।

चोरी से उसे शीशे के दरवाजे से देखने की कोशिश करती हूँ, पर वह दिखता नहीं।मैं नर्स को भेज देती हूँ इस सख्त हिदायत के साथ कि उसे कह दे- मैं थक गई हूँ और किसी से मिलने की बिलकुल इच्छुक नहीं।

27 जून, 2020

सपने में देखा अस्पताल के सभी कोरोना मरीजों की आंखों पर पट्टी बांध कर उन्हें कहीं ले जाया जा रहा है।मैं चुपके से पट्टी उतारकर देखती हूँ, सामने लिखा है ‘कोरोना क्लींजिंग’, एक कमरे में पचास-सौ लोगों को लिटा दिया जाता है, फिर आग का एक भभका होता है, नारंगी प्रकाश से कमरा दीप्त हो जाता है, और कुछ मिनटों बाद चिमनी से काला, गाढ़ा धुआँ आसमान के नीले वक्ष पर कालिख पोतता गायब हो जाता है।

उठी तो हांफ रही थी, हाथ-पैर कांप रहे थे, सारा शरीर पसीने से तरबतर था।लगा, उसी दिन की तरह पैनिक अटैक हुआ है।मैंने गहरी सांस लेने की कोशिश की।पर सांस लेने में तकलीफ महसूस हुई।लगा, छाती मोटी चेन से जकड़ी हुई है, श्वसन तंत्र सिकुड़ गया है, एक स्ट्रॉ के डायमीटर के ट्यूब से वायु आर-पार हो रही है।शिवेश होते तो रात में ही बुला लेती, पर उनकी जगह कोई नया डॉक्टर नाइट ड्यूटी के लिए आया ही नहीं।नर्स भी कोई नहीं थी।थोड़ी देर में जब कॉरिडोर से जाती नर्स दिखाई दी, उसे इशारा करके बुलाया।वह मानीटर की रीडिंग देखकर इतनी घबराई कि दौड़कर डॉक्टर को बुला लाई।

उसे दौड़ते जाता देख मेरा कलेजा मुंह में आ गया।लगा, अब मेरी उल्टी गिनती शुरू, मुझे भी कोई सी.पी.आर. देगा, बिजली के झटकों से मेरे भी हाथ-पैरों में हरारत होगी और फिर डब्बों वाले कागज पर सीधी लाइन निकालकर मेरी जीवन-यात्रा के अंत का एलान कर दिया जाएगा।

वार्डबॉय आए और मेरा बिस्तर कमरे के बाहर ठेलने लगे।मैं पूछने को हुई- कहां ले जाया जा रहा है मुझे, पर उनकी पुतलियों में विस्फारित भय को देख मैं एक छोटी बच्ची की तरह दुबकी लेटी रही।

कमरे के बाहर लिखा था- आई. सी. यू.।अंदर घुसते ही रोंगटे खड़े हो गए।वहाँ के अत्यधिक ठंडे वातावरण से, घुप्प अंधेरे से और पीं-पीं-पीं बजती मशीनों से, जिनकी लाल बत्तियां जल-बुझ रही थीं।खिड़की के सामने मेरा बेड लगाने का मेरा आग्रह उन्होंने स्वीकार कर लिया।काफी देर तक आंखें मींचे लेटी रही।मैं हैरान थी कि उन क्षणों में जब लगा था मरने के इतने करीब हूँ, तब भी सिर्फ शिवेश ही याद आए थे, मानो कह रहे हों- मिसेज रायजादा, आप बिलकुल ठीक हैं, कुछ नहीं हुआ आपको।फिर विचार आया उन पलाश के फूलों का जो धीरे-धीरे झड़ते जा रहे होंगे और सड़क पर टायरों के नीचे कुचले जा रहे होंगे।यूँ ही उलटते-पलटते, करवटें बदलते पूरी रात निकल गई।

30 जून, 2020

किसी ने पुकारा, ‘मिसेज़ रायजादा’

मैं देखकर चौंक गई; आवाज शिवेश की थी।जितनी हतप्रभ हुई, उससे कहीं ज्यादा आह्लादित। ‘डॉक्टर शिवेश… शिवेश, आप यहां कैसे?’ मैंने आवाज़ में हैरानी को बरकरार रखा। ‘नर्स ने तो बताया ही नहीं कि आप आई.सी.यू. में भर्ती हैं? एकदम… इतनी अचानक… कैसे?’

शिवेश मेरे सारे प्रश्नों को अनसुना कर कहने लगे, ‘मिसेज़ रायजादा, क्या आप प्रार्थना करेंगी एक बार, बस एक बार, मैं अपने बच्चे और बीवी को जी भरकर गले से लगा लूं?’

उनके स्वर में पराजय थी।आंखों में आंसू डबडबा रहे थे, फिर उनके आविष्ट स्वर को महसूस किया और मन-ही-मन उनके लिए की प्रार्थना दोहराई।

खून की जांच में सी.आर.पी. और फेरिटिन आसमान छू रहा था, जबकि दायें लंग के लोअर लोब का पच्चीस प्रतिशत नष्ट हो चुका था।डॉक्टर मीरचंदानी ने बताया, ‘प्लाज्मा की जरूरत है, पर बढ़ते केसेस के चलते हमारे पास इस समय उपलब्ध नहीं है।

मैंने इन्हें फोन कर बताया तो मुझ पर ही खोंखियाने लगे, ‘अब फिर नई मुसीबत।’

मैं रुआंसे स्वर में बोल पड़ी, ‘नहीं…नहीं… कोई जरूरत नहीं… बिलकुल नहीं, कुछ अरेंज वगैरह करने की।मुझे समझ आ गई है अपनी वैल्यू आप लोगों के जीवन में।यहां के ये इतने बेगाने लोग कितने अपने लगते हैं, इन्हीं के कंधे पर चढ़ कर मैं चली जाऊंगी।’

इन्होंने ललकारा, ‘तुम्हें जो समझना है, तुम समझो।लेकिन यह बेगाने लोग भी इसलिए ध्यान रखते हैं, क्योंकि पैसे मेरी जेब से पानी की तरह खर्च हो रहे हैं।पता है, एक दिन में कितने पैसे लग रहे हैं?’

मैं झटके-से फोन काट देती हूँ।लगता है जैसे किसी ने बड़ी खींच के तमाचा जड़ा है।गाल भट्टी की तरह भभक रहे हैं, कानों में एक अजीब सांय-सांय सुनाई पड़ती है।अपनी बात ‘हे ईश्वर, मुझे डिग्निटी से मरना है’ पता नहीं कहां से कौंध जाती है, फिर देर तक रोलरकोस्टर की तरह दिमाग में चक्कर लगाती रहती है।मिसेज सिंह का मौत से मटियामेट होता चेहरा याद कर आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

शिवेश आतंकित स्वर में पूछते हैं, ‘क्या हुआ मिसेज रायजादा, कहीं सांस लेने में तकलीफ तो नहीं हो रही?’

और हल्के से हाथ पकड़ लेते हैं, जिसे छुड़ाना चाहकर भी मैं छुड़ा नहीं पाती।उनके स्पर्श में कुछ ऐसा है जैसे मन की किसी निर्जीव घाटी में आशा का अंकुरण।मन में हिलोर उठती है- शिवेश, बस अब आप ही मेरे कुम्हलाते जीवन रूपी बगिया के हमसफ़र हो, मेरे एडम!

जितनी देर में मैं कुछ बोल पाती हूँ, मन में मची ख्यालों की उथल-पुथल के बीच कुछ स्पष्ट शब्द खोज पाती हूँ, द्रुत गति से वह अपना हाथ हटा लेते हैं।हल्का-सा सॉरी भी कहते हैं।उनके नर्म स्पर्श की उष्णता, और उससे इतनी जल्दी वंचित हो जाने की पीड़ा, मेरे अंदर उमड़ती लहरों को हिंस्र वेग से भर देती है और मैं फफक-फफक कर रो पड़ती हूँ।

निस्तब्ध मौन के बीच आकाश को भेदती, अपने-अपने घरों को जाती चिड़ियों का आर्द्र नाद और मेरे विचारों का शोर है।मिसेज सिंह जैसे भी रहीं-—रात में डरी-सहमी दरवाजों पर डबल लॉक लगातीं, आधा किलो की जगह एक पाओ भिंडी खरीदतीं, नेस्केफे की जगह लोकल ब्रांड की कॉफी रखतीं- और चाहे इसके लिए उनका कितना परिहास हुआ, पर वे सब कुछ भुलाकर अपने स्वाभिमान से जीं और उसी आत्म-सम्मान के साथ गईं।यह क्या है डिग्निटी से मरना – आप पति के पैसों से एक पॉश हस्पताल के पॉश कमरे में आराम फरमाओ, एक छोटी स्कर्ट वाली नर्स हर वक्त आपकी सेवा में मुस्तैद रहे, और पति के उलाहने सुनते-सुनते चंदन की चिता पर जला दिए जाओ।

एहसास हुआ, मेरे मरने पर कोई रोएगा भी नहीं, उतना भी नहीं जितना सोनल रोई।हां, बस यह है कि मुझे जल्दी जला दिया जाएगा।मेरे मरने पर इनको तो खुशी ही होगी कि काम जल्दी निबटा, ज्यादा पैसों की चपत नहीं लगी; सार्थक के मन में तो मेरे लिए इतनी घृणा है कि उसने एक फोन तक नहीं किया।

औरत जो हमेशा पति की बरगद जैसी छाया में एक कोंपल की तरह रहती है, और न उग पाने को अपनी किस्मत और सौभाग्य समझ बैठती है, वह औरत क्या कभी स्वाभिमान से मरने की हकदार बन पाती है?

शाम को यह सिर्फ एक मैसेज में लिखते हैं- प्लाज्मा कहीं भी मिल पाना मुश्किल लगता है।जैकब ने फोन पर बताया कि सार्थक को दो महीने पहले ही कोरोना हुआ है।तुम उससे बात कर लो।मैं बिजी हूँ।

उदासी का घना कोहरा जैसे थोड़ा छंटा।सार्थक को हक से फोन करने को हुई, नंबर भी मिला लिया, पर घंटी जैसे ही बजने लगी तो काट दिया।नहीं… सार्थक से बात नहीं कर पाऊंगी।किस हक से बात करूं – मां का हक तो उसी रात गंवा दिया जिस रात उसे घर में घुसने की इजाजत नहीं दी, और वह पूरी रात रैंप की उस छोटी-सी जगह, जहां बूंदें कम पड़ती थीं, वहां सिकुड़ा बैठा रहा, भूख से अकुलाता, पिल्ले की तरह बिलखता।इन्होंने कितना समझाया कि बीस-बाईस साल का लड़का, जिसने अभी ढंग से कमाना भी नहीं शुरू किया, वह कहां जाएगा, कैसे रहेगा, क्या खाएगा, पर मैंने एक नहीं सुनी।देर रात तक मैं भी कहां सो पाई।कितनी बार वापस बुलाने का मन भी हुआ, पर इनसे हार जाना मेरे अहम ने स्वीकार नहीं किया।सार्थक गया और अपने साथ ले गया सारी उमंग और पीछे छोड़ गया एक घर जो घुन खाए चावल जैसा है, हाथ में उठाते ही दरकने को तैयार।

मन खिन्न है।बार-बार याद आती है वह खनखनाती हँसी वाली लड़की, जिससे पूरा घर झंकृत रहता था, जो अपने हक के लिए अत्यधिक सजग रही और लड़ती रही।वह लड़की विवाह के तीये-पांचे में उलझकर कैसे इतनी निष्ठुर हो गई?

शाम की मंद हवा में मद्धिम-मद्धिम हिलती पत्तियों को देखती हूँ।जिस पत्ती पर नजर टिकाती हूँ, वह पत्ती हर दस-पंद्रह मिनट में टूट कर गिर जाती है।दूसरी देखती हूँ, और उसका भी वही हश्र।इस टूटने के खेल से एकदम उकता जाती हूँ।

1 जुलाई, 2020

शाम को मन बहलाने और विचारों के दरकते पत्थरों की हजार-हजार चोटों से अपने को बचाने के लिए बातों का तार ढूंढ़ती हूँ, शिवेश से पूछती हूँ, ‘क्या मैं ठीक हो जाऊंगी?’

शिवेश कुछ नहीं कहते, उनका चेहरा खिड़की की ओर टिक जाता है।सामने लाल, लपटदार सूरज ढल रहा है।

बार-बार कितनी आसानी से कहती रही हूँ, ‘मैं मरने से डरती नहीं, मैं मरने से डरती नहीं’, पर अब जब सचमुच में लगने लगा है कि मौत मेरी तरफ रेंगती हुई बढ़ रही है, जीवन और शरीर के प्रति आसक्ति कितनी गहरी हो गई है।आसक्ति और अनासक्ति के दो चक्कों के बीच जीवन हर वक्त पिसता रहता है… यही तो जीवन की सबसे बड़ी आयरनी है।

फिर बात का रुख मोड़ने के लिए पूछती हूँ, ‘आपकी बीवी मिलने नहीं आई?’

बिना मुंह मेरी तरफ किए ही वे कहते हैं, ‘मैंने मना कर दिया।’

मैं फिर कुरेदती हूँ, ‘सचमुच मना कर दिया?’

उनके चेहरे पर उदासी के छींटें हैं, ‘सोचता था वह जोखिम उठाकर भी आएगी, शीशे के पार से निहारती रहेगी, पर बीमारी लग जाने के डर से वह आतंकित है।’

‘इसके बावजूद आप उससे कैसे प्यार कर पाते हैं?’

‘उससे प्यार करते-करते मैंने खुद से प्यार करना सीखा है।’

शाम के राउंड पर आए डॉक्टर मीरचंदानी पूछते हैं, ‘मिस्टर रायजादा तो कह रहे थे कि आपका बेटा ही प्लाज्मा डोनेट करेगा।वह आया नहीं अभी तक?’

मैं पूछती हूँ, ‘डॉक्टर मीरचंदानी, प्लाज्मा की क्या जरूरत? मैं ठीक ही महसूस कर रही हूँ।नर्स ने बताया सेचुरेशन और पल्स भी नॉर्मल हैं।’

मीरचंदानी की दृष्टि में उपहास है, जैसे कह रहे हों मैं जानता हूँ तुम्हारे बेटे ने मना कर दिया।मैं बड़ी चालाकी से फोन देखने लगती हूँ, फिर कहती हूँ, ‘देखिए डॉक्टर मीरचंदानी, सार्थक तो अभी आने के लिए उतावला हो रहा है, पर लॉकडाउन में कहां आसान है चालीस किलोमीटर दूर से आना।’

मीरचंदानी जैसे मेरे सारे कपड़े उघाड़ते हुए कहते हैं, ‘आप फिक्र न करें, कहीं न कहीं से प्लाज्मा मिल ही जाएगा।’

घने सन्नाटे में मैं शिवेश के चेहरे पर ढलती रात देखती हूँ, उनकी आंखें मुंदी हुई हैं।मैं विह्वल हो उठती हूँ।उनकी छाती में होता कंपन देर तक देखती रहती हूँ और थोड़ा निश्चिंत होकर सोने की कोशिश करने लगती हूँ।

2 जुलाई, 2020

मैं सार्थक को फोन नहीं करना चाहती।शायद कहीं दूर किसी कोने में जो आशा को संजोए हुए थी कि सार्थक मुझे अब भी प्यार करता है, उसका गला नहीं घोंटना चाहती थी।मैंने बिना कुछ सोचे-समझे नंबर मिला दिया।जब घंटी बज रही थी, तो दिल में धुकधुकी हो रही थी जो कॉल लगने पर ही थमी।

‘हैलो, कौन बोल रहा है?’

‘हैलो’ रुंधे हुए गले से मैंने कहा।

‘आप… आपने अब फोन क्यों किया है? प्लीज़ डोंट कॉल हेर एगैन।’

वह फोन काटने को ही था जब मैं गिड़गिड़ाई, ‘ऐसा नहीं है सार्थक।तुम मेरे अंश हो, मैंने तुम्हें हमेशा याद किया है।बस कभी फोन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।’

‘जब-जब मैं बीमार हुआ, जैकब ने आपको कितने कॉल किए।पता है क्यों? उसे यह गलतफहमी थी कि कोई मां इतनी निर्मम नहीं हो सकती कि बेटा बुखार में तपता हो, फिर भी सामाजिक मान-प्रतिष्ठा के कारण वह उसे देखने तक न आए।पहली बार हॉस्पिटल में एडमिट हुआ तो मुझे भी उम्मीद थी कि आप आएंगी।अब किसी से कोई उम्मीद नहीं।’

इतने सालों के कसैलेपन और कुंठा से पैने हुए उसके शब्द मेरे हृदय को भेदते जा रहे थे।मैं उसे बताना चाहती थी कि गत साल मेरे लिए कितने मुश्किल रहे हैं।समझाना चाहती थी, ‘मैं भी इनसान हूँ, और जो हुआ उसके लिए बहुत गिल्टी भी, पर क्या सब सुधारने का मुझे एक मौका भी नहीं मिल सकता?’

‘बेटा, जो बीता वह किसी के लिए आसान नहीं था।लेकिन जो बीत गया, उसे कुरेदने से अब क्या फायदा?’

‘जिसकी छाती पर घाव हैं वही जानता है ‘स्कार’ बनने तक की तकलीफ।कितनी बार जी होता है दिन-रात चरमराती हुई त्वचा को नोच देने का।लेकिन अब ‘स्कार’ बन गए हैं जो हमेशा वैसे-के-वैसे ही रहेंगे।’

‘अच्छा, क्या एक बार तुम मुझसे मिलने आओगे? मुझे तुमसे माफी मांगनी है।’

‘आप इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हैं? …अब प्लाज्मा की जरूरत है, तो माफी मांगने लग गईं।कितना रिस्क लेकर गया था जैकब आपसे मिलने के लिए, पर आपने तो मिलने से ही साफ इनकार कर दिया।जैकब मेरा सब कुछ है।जहां उसका अपमान होगा, वहां मैं भी नहीं जाऊंगा।’ वह जैसे एक एक्टिव वोल्कैनो की तरह फटता गया, जिसका लावा मन के खंडहर में दबे उम्मीद के खिलौने को धूं-धूं कर भस्म कर गया।

सुबह राउंड पर मीरचंदानी, उनका वही सवाल, और मेरा वही अभिनय।

इनका मेसेज आता है – ‘सार्थक ने दे दिया प्लाज्मा?’

मैं देर तक सोचती रहती हूँ, क्या उत्तर लिखूं।मुझे इनके सामने फिर से निरीह नहीं बनाना।अगर इनको सच बताऊंगी, तो किसी तरह से सार्थक को मना ही लेंगे।पर मैं कहना नहीं चाहती।जानती हूँ मीरचंदानी से इन्हें पता चल ही जाएगा फिर भी लिखती हूँ-

‘हाँ’

4 जुलाई, 2020

अजीब-सा डर कुंडली मारकर बैठा है।अपने से ज्यादा शिवेश के लिए डरती हूँ।लगता है अगर शिवेश नहीं रहे, तो फिर कहां इतना निश्चल प्रेम किसी से कर पाऊंगी? पहली बार तो बोध हुआ प्रेम का, जो शरीर और मन की जरूरत से दूर है, जहां दो लोग चाहे साथ न भी हों, उनके बीच एक अटूट विश्वास अंकुरित रहता है।

सोचती हूँ, क्या शिवेश भी प्रेम करने लगे हैं? या जैसे साथ में रहतेरहते जो दो अजनबियों के बीच एक सामीप्य स्थापित हो जाता हैएकदूसरे के खोखलेपन को भरने का साधन? आश्वासन देती हूँ खुद कोमैं प्रेम करती हूँ, बस यही सच है।

शिवेश उठे, और पत्तों से छनती आ रही सूरज की किरणों को अपने चेहरे के आधे भाग में महसूस करते, उनींदी आंखें मलते, मेरी ओर निर्निमेष देखने लगे।उनकी एकटक दृष्टि से असहज होकर मैंने अपनी आंखें टेबल पर रखे फोन पर टिका लीं।

वे शायद भांप गए मेरी असहजता और कहने लगे, ‘मिसेज रायजादा, नींद ठीक से आई? कल एक सपने में आप दिखीं।’

मन-ही-मन यह सुनकर बहुत खुश होती हूँ, एक्साइटमेंट भी होता है सपने में क्या हुआ यह जानने की, पर चेहरा तटस्थ बनाए हुए उनका प्रश्न उन्हें लौटा देती हूँ, ‘आपको कैसी नींद आई?’

‘काफी अच्छी।’

करीब बारह बजे शिवेश ने कैंटीन में फोन किया और अपने खाने का ऑर्डर देने लगे।हॉस्पिटल में दिया जाने वाला खाना ठीक ही है, बदल-बदल कर भी आता है।वैसे भी टेस्ट किसी चीज का ज्यादा आ नहीं रहा, फिर भी एक आस तो थी ही कि शिवेश पूछेंगे तो जरूर, पर उन्होंने पूछा नहीं।

मैं अनमनी होकर मोबाइल में ताकने लगी।शिवेश ने कुछ बात करने की कोशिश भी की, पर मैंने अनसुना कर दिया।

जब खाना लेकर नर्स आई, उसके हाथ में दो प्लेटें थीं।शिवेश ने आग्रह किया, ‘मिसेज रायजादा, क्या आप ज्यादा बिजी हैं?’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।बस फ्रेंड्स को बर्थडे विश कर रही थी।सॉरी, आप क्या कह रहे थे?’

‘आपके लिए खाना मंगवाया था।मेरा सबसे पसंदीदा खाना है।आप खाकर देखिए।’

मन ही मन सोचा- शिवेश आप इतने अच्छे क्यों हैं? आप आज खुद खा लेते, तो आपसे प्रेम न करने का कारण ढूंढ़ लेती, सोच लेती मैंने फिर गलती कर दी इनसान पहचानने में।

तेल से लबालब, ज्यादा नमक और मिर्च-मसाले की मिक्स वेज और पानी जैसी दाल… खाना इतना बेस्वाद था कि कौर निगलना मुश्किल हो रहा था।मुंह कुछ विकृत हुआ होगा, शिवेश पूछने लगे, ‘मिसेज रायजादा, आपको पसंद नहीं आया क्या?’

मैं चेहरे पर अकस्मात मुस्कराहट लाकर कहती हूँ, ‘काफी लज़ीज है।’ फिर जोड़ती हूँ, ‘आप कैंटीन में हर-रोज़ खाते हैं? डिब्बा नहीं लाते घर से?’

एक मंद मुस्कान लाकर बताते हैं, ‘हम दोनों बिजी हैं, रोज संभव नहीं हो पाता।मुझे आता नहीं, वह कितनी बार बनाने के चक्कर में जल्दी उठी, पर फिर झल्ला-झल्ला पड़ती है।उसका खाना ज्यादा पसंद भी नहीं।खाने के चक्कर में रोज-रोज की झांय-झांय क्यों की जाए?’

पहली बार किसी आदमी के मुंह से सुन रही हूँ पत्नी खाना नहीं बनाती, और वह भी बिना किसी शिकायत के। ‘आपका मन नहीं करता घर का खाना खाने का?’

वे चिहुंक कर बोले, ‘मैं खुद ही सीख रहा हूँ, अब कुछ-कुछ बनाने लगा हूँ इटालियन वगैरह।फिर कभी मां के यहां खाने चला जाता हूँ।’

‘जीवन भर तो ऐसे नहीं चल सकता… किचन में रुचि न हो, यह तो अजीब है।पूरे घर का काम करने के लिए नौकर हैं, पर खाना तो इन्हें मैं ही बनाकर देती हूँ।’ मैं गर्वीले स्वर में बोलती रही।

‘जरूरी नहीं सबको चूल्हा-चौका पसंद हो।फिर आप ये दावे के साथ कैसे कह सकती हैं कि आपके हाथ का खाना आपके पति को पसंद ही है?’

पहली बार लगा जैसे मैंने कभी इनके एंगल से सोचा ही नहीं।पता नहीं इन्होंने भी क्या-क्या एडजस्टमेंट कर रखे होंगे मेरे साथ? गौर से सोचा तो समझ आया, इनके बारे में तो कभी घनिष्ठ भाव से सोचा ही नहीं, जैसे इतने दिनों में शिवेश के लिए सोच पाई हूँ।हमेशा एक रिस्पांसिबिलिटी ही महसूस की है।सुबह ब्रेकफास्ट में ब्रेड-बटर, खाना कम नमक-मिर्च का, कपड़े इस्त्री करवाना, कपड़े वॉर्डरोब में सेट करना।यह क्या इसलिए कि जानती हूँ शिवेश बहुत थोड़े दिनों के लिए मेरे साथ हैं- क्या पति-पत्नी के बीच मुमकिन नहीं एक सदाबहार पेड़?

क्या प्रेम सीज़नल बेल जैसे होता है?

10 जुलाई, 2020

कल शाम डॉक्टर मीरचंदानी ने बताया शिवेश एकदम स्टेबल हैं, कोविड टेस्ट भी नेगेटिव आ गया है।सुबह उनकी छुट्टी हो जाएगी।कहीं-कहीं उदासी का एक-आध बादल जरूर है, पर हर्ष के नीलाभ से वे बादल छंट जाएंगे, यही उम्मीद है।मैं इतना खुश किसी के लिए कभी नहीं हुई।लगा, मानो जीवन मुझे बांकी दृष्टि से एक बार फिर देखकर मुस्कराने का निमंत्रण दे रहा है।

उन्हें उम्मीद थी उनकी बीवी आएगी और मैं चाहती भी यही थी।पर, रात जब वह उससे वीडियो कॉल पर बात कर रहे थे और उत्साहपूर्वक कल डिस्चार्ज की बात बता रहे थे, उसके चेहरे पर कोई उमंग नहीं थी।वह नहीं आई तो शिवेश कहने लगे बिजी होगी।जब जाने लगे, मजाक के अंदाज में बोले, ‘मिसेज रायजादा, मैं हर रोज हाल-चाल पूछने के लिए फोन करूंगा।आप भूल तो नहीं जाएंगी?’ और वे चुपचाप मेरी आंखों को निहारते मन को गहरा थाहते चले गए थे।

शिवेश के चले जाने के बाद मन में प्रश्न उठा- शिवेश क्यों नहीं खीझ उठते- उन्हें भी कोई देखने नहीं आया, उनकी बीवी भी शायद रिस्पांसिबिलिटी की तरह ही रिश्ता निभाती है, उन्हें भी कोई नहीं प्रेम करने वाला।मैंने तो अपूर्ण रिश्ते को ही अपनी नीरसता का दोषी ठहराया, फिर शिवेश कैसे इतने पूर्ण हैं, जैसे स्वयं ही प्रेम के पुंज हों।ओशो अपने एक वक्तव्य में कहते हैं- इनसान की सबसे बड़ी गलती यही है कि उसका प्रेम किसी के प्रति डायरेक्टेड है, तब समझ नहीं पाई थी खुद से प्रेम करने का अर्थ।शिवेश के कारण कितना कुछ जान और समझ पाई।शिवेश, मैं चाहकर भी आपको भूल नहीं सकती।आप मुझे नए जीवन की चौखट पर खड़ा करके जा रहे हैं।

मिसेज सिंह को भी याद करती हूँ-—निश्चय किया है कि मैं भी उनकी तरह स्वाबलंबी बनूंगी, हालांकि शादी और गृहस्थी के जंगल में सारी प्रतिभा नष्ट हो गई, बार-बार ऐसा लगता है, पर मैं उनकी तरह बिना किसी की बात पर ध्यान दिए परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेकूंगी और सोनल का सारा खर्चा उन्हीं रुपयों से करूंगी।

नर्स बताती है, प्लाज्मा उनके अस्पताल के ब्लड बैंक से ही उपलब्ध हो गया है।मैं पूछती हूँ,  ‘डॉक्टर मीरचंदानी तो कह रहे थे, बढ़ती मांग के कारण ब्लड बैंक में उपलब्ध नहीं है।अचानक कैसे मिल गया?’

‘मैम, मुझे कुछ आइडिया नहीं।सर ने बोला आपको इन्फॉर्म कर दूं।’

नर्स चली जाती है।मुझे शीशे के दरवाजे से लॉबी में बड़ी तेज गति से जाता एक लड़का दिखाई देता है जो बिलकुल सार्थक की कद-काठी का है।एक बार को लगता है वह सार्थक ही है- मैं उसका नाम पुकारने को होती हूँ, फिर लगता है, सार्थक नहीं हो सकता।

मैं कितनी शिद्दत से चाहती हूँ कि वह सार्थक ही हो।

संपर्क :जीवन ज्योति हस्पताल, करनाल रोड, कैथल, हरियाणा-136027, मो.9560871782