कथा साहित्य और पत्रकारिता का जाना–पहचाना नाम।पिंक सिटी प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष।एक उपन्यास ‘रिनाला खुर्द’, प्रसिद्ध संगीतकार दान सिंह के जीवन संघर्ष पर लिखी पुस्तक ‘वो तेरे प्यार का गम’।एक कहानी संग्रह, ‘लाल बजरी की सड़क’ और व्यंग्य संग्रह ‘इशारों–इशारों में’।दो नाटकों– ‘लयकारी’ और ‘फेल का फंडा’ के अनेक मंचन हुए। 2019 में हिंदी सेवा पुरस्कार से सम्मानित।सितंबर 2021 में दिवंगत।
सिद्धार्थ घर के बरामदे से निकल कर बाहर आया।उसके और बगल वाले मकान की कॉमन दीवार पर उसे दूर से ही कागज दिखाई दे रहा था।कागज उड़ न जाए, इसलिए उसके ऊपर पत्थर का एक टुकड़ा रख दिया गया था।
सिद्धार्थ वहां गया।उसने कागज को छुआ नहीं।यह वह वक्त था, जब लोगों को कागज भी बम लगता था, पता नहीं कब फट जाए! उसने मोबाइल से कागज पर लिखी इबारत की फोटो खींच ली।यह डॉक्टर की पर्ची थी, जो पड़ोस की माता जी रतन देवी ने यहां रख दी थी।इसमें उनकी दवाइयां लिखी हुई थीं।
सिद्धार्थ ने फिर घर से अपनी कार बाहर निकाली और सड़क पर आकर मेडिकल स्टोर के लिए रवाना हो गया।रतन देवी ने सिद्धार्थ को बचपन से ही अपने बेटे की तरह प्यार दिया था।वह भी उन्हें माता जी कह कर बुलाता था।उनका बेटा आशीष उसका दोस्त था।
पिछले हफ्ते की बात है, जब सिद्धार्थ के पास माता जी का फोन आया।वे बोलीं, ‘सिद्धार्थ, दो दिन से हमारी काम वाली बाई नहीं आ रही है।वह फोन भी नहीं उठा रही है।उसके बारे में कुछ पता कर सकते हो?’
सिद्धार्थ ने कहा, ‘मैं मालूम करके बताता हूँ।’
सिद्धार्थ को याद आया, शांति नाम की वह काम वाली बाई उनके घर के सामने वाले मकान में शर्मा जी के यहां भी काम करने आती थी।उसने शर्मा जी को फोन किया तो उन्होंने बताया, ‘उसे कोरोना हो गया है, इसलिए वह नहीं आ रही है।इससे हमारी भी चिंता बढ़ गई है।कोई सिम्पटम आएगा तो हमें भी जांच करानी पड़ेगी।’
सिद्धार्थ ने माता जी को यह सब बता दिया।उसने उन्हें हिदायत देते हुए कहा, ‘माता जी, बुखार आदि का कोई भी सिम्पटम आए तो जांच करानी होगी।कुछ भी परेशानी हो तो मुझे फोन कर देना।’
‘ठीक है बेटा।’ – माता जी ने कहा।
कुछ दिन ठीक से गुजर गए।एक दिन सुबह जब माता जी उठीं तो उन्हें हरारत महसूस हुई।थर्मामीटर से नापा तो 100 डिग्री बुखार था।उन्होंने अमेरिका अपने बेटे आशीष को फोन किया और सारी बात बता दी।उसने अपने जयपुर के एक दोस्त को फोन किया, जो माता जी को अपनी गाड़ी में बैठा कर उनकी जांच करा आया।
अगले दिन कोरोना की जांच रिपोर्ट पॉजीटिव आई।इससे माता जी को चिंता हुई, लेकिन वे मजबूत बनी रहीं।आशीष का दोस्त अपने एक जानकार डॉक्टर को रिपोर्ट दिखा कर उसकी लिखी पर्ची और दवाइयां घर पर दे गया।इनमें पेरासिटामोल से बुखार उतर जाता, लेकिन बाद में फिर चढ़ जाता।बुखार पूरी तरह टूट नहीं रहा था।बाद में दवाइयां खत्म हो गईं।तब डॉक्टर की पर्ची पर मोबाइल नंबर देख कर माता जी ने उसे फोन किया।उसने दवाइयां जारी रखने के लिए कहा, लेकिन समस्या यह थी कि दवाई कौन लाए? माता जी ने आशीष के उसी दोस्त को कई बार फोन किए, लेकिन उसने अब फोन उठाना बंद कर दिया था।शायद कोरोना ने घंटी बजने पर मोबाइल के स्क्रीन पर हरे गोले को छूने से डरा दिया था।उन्होंने फिर ठीक बगल वाले मकान में सिद्धार्थ को फोन करके दवाई लाने को कहा।माता जी ने खुद ने ही सावधानी बरतते हुए डॉक्टर की पर्ची दीवार पर रख दी थी और सिद्धार्थ को फोन पर बता दिया था।
सिद्धार्थ को कार चलाते हुए पुराने दिन याद आ रहे थे।वह जब भी आशीष से मिलने उसके घर जाता तो माता जी उसे कुछ भी खाए-पिए बिना नहीं आने देती थीं।कभी घर में खीर बनी होती तो मनुहार से खिलातीं।कभी आलू के परांठे और सफेद मक्खन का नाश्ता करा देतीं।माता जी पढ़ी-लिखी थीं और एक स्कूल में प्रधानाचार्य थीं।कभी उसे होमवर्क में कोई दिक्कत आती तो उसमें भी वे मदद कर देती थीं।पढ़ने के लिए किताबें भी देती थीं।माता जी अब रिटायर हो चुकी थीं।
आशीष अमेरिका के मेनहट्टन में इंजीनियर के रूप में नौकरी करता था।कोई एक साल पहले, जब कोरोना की आहट भी सुनाई नहीं दी थी, तब उसके पिता जी का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था।इसके बाद जयपुर की महावीर नगर कॉलोनी में पड़ौस के मकान में माता जी अब अकेली रह गई थीं।
सिद्धार्थ जब बाजार से लौट कर आया तो उसने दवाइयों का पैकेट और बिल दीवार पर पत्थर से दबा कर उसी जगह रख दिया, जहां पर्ची रखी थी।उसने माता जी को फोन पर दवाई आने की सूचना दे दी।माता जी ने दवाइयों के पैसों के बारे में पूछा तो सिद्धार्थ ने कहा कि वह बाद में ले लेगा।
रतन देवी को मकान में अब बीमारी से ज्यादा अकेलापन डस रहा था।एकांत तो वे झेल लेती थीं, लेकिन अकेलापन खाने को दौड़ता था।अपने खाने का काम-चलाऊ जुगाड़ वे कर लेती थीं।बाजार से राशन का कुछ सामान मंगाना होता तो सिद्धार्थ को फोन कर देती थीं।दर्द में डूबी शामें और सन्नाटे भरी रातें किसी तरह निकल जातीं तो सुबह वे घर के पिछवाड़े बने किचन गार्डन में जा कर बैठ जातीं।पढ़ने का उन्हें शौक था, इसलिए किताबें पढ़ने से वक्त कट जाता था, लेकिन इन दिनों पढ़ने या किसी काम में उनका मन नहीं लग रहा था।पति के बिछोह को ही वे अब तक नहीं भुला पा रही थीं।शरीर भी जैसे साथ छोड़ता जा रहा था।कोरोना ने रिश्तों को ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की एक नई परिभाषा दे दी थी और लोग दूर होते जा रहे थे।अब कोई मिलने भी नहीं आता था।
सिद्धार्थ भी कई बार अपने लॉन में आकर माता जी के घर की तरफ नजर दौड़ाता, लेकिन वे बाहर कभी दिखाई नहीं देतीं।वे घर में ही कैद हो कर रह गई थीं।कभी वह मोबाइल पर फोन करके पूछ लेता- ‘माता जी कैसी हो?’
उनका एक ही जवाब होता था, ‘ठीक हूं बेटा।’
वह पूछता- ‘आपके लिए खाने को कुछ लाऊं?’
वे कहतीं,—‘अरे बेटा, मैं अकेली जान।मुझे जितना चाहिए होता है, उतना कर लेती हूँ।’
माता जी को मिठाइयों में रेशेदार सोन पपड़ी बहुत पसंद थी।सिद्धार्थ ने उनके घर पर भी कभी यह खूब खाई थी।कई बार वे सिद्धार्थ से घर के लिए कुछ राशन मंगवातीं तो उसे सोन पापड़ी लाने के लिए बोल देती थीं।तब वे सिद्धार्थ को भी आग्रह करके यह मिठाई खिलातीं।
एक बार सिद्धार्थ ने फोन करके पूछा- ‘माता जी, आपके लिए सोन पापड़ी लाऊं?’
इस पर उनका जवाब था- ‘नहीं बेटा, अभी यह रहने दे।बाद में फिर कभी देखेंगे।’
सिद्धार्थ कभी उनके बरामदे में खाने के लिए कुछ रख आता और फोन करके बताता तो वे कहतीं,—‘अरे बेटा, क्यों परेशान होते हो?’ मेरे हाथ-पैर चलते रहें, यह भी तो जरूरी है।फिर इन छोटे-मोटे कामों से मेरा समय भी तो कट जाता है।अकेली बैठे-बैठे भी क्या करूं?’
एक दिन सिद्धार्थ ने माता जी को फोन किया तो उनकी आवाज कांप रही थी।सिद्धार्थ ने पूछा, ‘माता जी आप ठीक तो हैं?’
इस पर माता जी ने जवाब दिया, ‘तबीयत थोड़ी नरम है, लेकिन धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी।’
‘आपको खाने के लिए कुछ भेजूं?’
‘नहीं बेटा, आज पेट कुछ ठीक नहीं है।खिचड़ी खाने का मन है।वो मैं खुद बना लूंगी।’
‘खिचड़ी खानी है तो मैं घर से बनवा कर भेज दूंगा।’
‘अरे बेटा, क्यों परेशान होते हो, मैं सब कर लूंगी।माता जी की आवाज में अभी भी कंपन महसूस हो रहा था।’
सिद्धार्थ ने कहा, ‘नहीं माता जी, इसमें परेशानी की कोई बात नहीं।आप मत बनाना।रश्मि बना देगी।’
सिद्धार्थ अपने पुश्तैनी घर में पत्नी रश्मि और पिता जी के साथ रहता था।पिता जी इंजीनियर थे, जो अब रिटायर हो चुके थे।माता जी का कुछ अर्से पहले निधन हो चुका था।सिद्धार्थ एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और इन दिनों ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रहा था।
शाम को सिद्धार्थ एक बड़े कटोरे में खिचड़ी माता जी के बरामदे में एक कुर्सी पर रख कर आ गया।वापस आ कर वह कॉमन दीवार के पास खड़ा हो गया और माता जी को फोन करके बता दिया।कुछ देर बाद माता जी बरामदे में आईं तो सिद्धार्थ ने उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।माता जी ने कहा, ‘बेटा, खुश रहो।जीते रहो।खूब तरक्की करो।’
सिद्धार्थ को माता जी कुछ अनमनी सी लगीं।उनका चेहरा उतरा हुआ था।वह बोला, ‘माता जी, अपने डॉक्टर से फोन करके पूछ लो, कुछ और दवाई लानी होंगी तो मैं ले आऊंगा।’
‘नहीं बेटा, सब ठीक हो जाएगा।डॉक्टर को फोन कर लिया था।वह बोला अभी वही दवाई चलेगी।’ इसके साथ ही माता जी अंदर चली गईं।
अगले दिन सुबह सिद्धार्थ उठ कर अपने बरामदे में आया तो बगल की कॉमन दीवार पर पत्थर के नीचे रखा एक कागज दूर से ही दिखाई दे रहा था।उसे लगा शायद माता जी ने फिर दवाई की पर्ची वहां रख दी है।वह पास आया तो जैसे उसके पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी।कागज पर लिखा था – ‘इस समय रात के दो बज रहे हैं।मेरी सांस उखड़ रही है।पता नहीं सुबह तक बचूं या नहीं।बेटे को फोन करके बता देना।’
यह पढ़कर सिद्धार्थ भीतर तक हिल गया।उसने माता जी को फोन मिलाया।फोन नहीं उठा।उसने फिर फोन किया।इस बार भी फोन नहीं उठा।वह भाग कर अपने घर के अंदर आया।उसने घबराते हुए रश्मि और पिताजी को बताया, ‘शायद माता जी आज नहीं रहीं।’ उसकी आंखें छलक आईं।
सिद्धार्थ ने मास्क पहना और बाहर आ गया।रश्मि और पिता जी भी बाहर लॉन में आ गए।सिद्धार्थ ने माता जी के बरामदे में जाकर कॉल बेल बजाई।कुछ देर खड़ा रहा।अंदर से कोई जवाब नहीं आया।उसने फिर घबराहट में कॉल बेल का बटन काफी देर तक उंगुली से दबाए रखा।घंटी लगातार बज रही थी, लेकिन कोई नहीं आया।उसने जोर से दरवाजा खटखटाया, लेकिन अंदर कोई हलचल सुनाई नहीं दी।वह अब समझ गया, माता जी जा चुकी हैं।वह बरामदे में खड़ा-खड़ा ही बुक्का फाड़ कर रो पड़ा।
सिद्धार्थ अपनी आंखें मलता हुआ घर आया।इलाके का पुलिस डिप्टी कमिश्नर पिता जी का दोस्त था।उन्होंने उसे फोन कर के इस बारे में सूचना दी।सिद्धार्थ अपने घर के लॉन में कुर्सी लगाकर बैठ गया।वह गहरे तनाव में था।उसने अपने मोबाइल से अमेरिका में आशीष को फोन लगाया।फोन की घंटी गई, लेकिन वह उठा नहीं।उसने दोबारा फोन किया, लेकिन घंटी बजती रही।उसने सोचा, शायद इस समय अमेरिका में रात होगी।
थोड़ी ही देर में आशीष का फोन आ गया।सिद्धार्थ ने जब माता जी के बारे में आशंका जताई और दीवार पर रखी चिट्ठी के बारे में बताया तो उसने कहा, ‘इन दिनों अमेरिका से भारत के लिए कोई फ्लाइट नहीं है।तुमको तकलीफ़ तो होगी, लेकिन माता जी का कोविड प्रोटोकॉल से अंतिम संस्कार करा दे।’ इसके साथ ही उसने फोन काट दिया।सिद्धार्थ को याद आया, पिता जी के निधन पर भी उसने कहा था, ‘इन दिनों ऑफिस में काम ज्यादा है और छुट्टी मिलना मुश्किल है।नौकरी भी नहीं छोड़ी जा सकती।जो भी कारण रहे हों, लेकिन तब भी वह नहीं आ पाया था।’
कुछ दिन बाद ही पूरी दुनिया में कोरोना का कहर शुरू हो गया था।उस समय फिर आशीष का फोन आया था।उसका कहना था कि अब मुझे छुट्टी मिल सकती थी, लेकिन अचानक यह कोरोना आ गया और भारत के लिए सारी फ्लाइटें बंद हो चुकी हैं।इस बात को भी कोई साल भर बीत चुका था।इस बार फिर उसकी फ्लाइटें बंद थीं।
कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई।पुलिस की गाड़ी को देख कर सिद्धार्थ भी माता जी के घर की ओर चल दिया।रश्मि और पिता जी ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माना और मास्क लगा कर वहां पहुंच गया।सामने बरामदे का दरवाजा नहीं खुला तो पुलिस के सिपाही कॉमन दीवार के साथ-साथ पीछे की तरफ गए।वहां इस गैलरी में खुलने वाला बगल में एक दरवाजा था।उसे धक्का दिया तो वह खुल गया, जिसमें से अंदर घर का आंगन दिखाई दे रहा था।सिद्धार्थ को लगा माता जी ने शायद यह दरवाजा जान-बूझकर रात को खुला छोड़ दिया था।
सिर से पैरों तक सफेद पीटीई किट पहने पुलिस के दो जवान घर के अंदर घुसे।थोड़ी देर बाद वे बाहर आए और उन्होंने हाथ हिला कर इशारा किया, ‘माता जी जा चुकी थीं।तभी वहां खड़े थाना प्रभारी ने फोन करके एम्बुलेंस बुलवा ली।’
पूरे मोहल्ले में सन्नाटा था।चिंघाड़ती हुई एम्बुलेंस आई तो सिद्धार्थ के दिल की धड़कनें बढ़ गईं।एम्बुलेंस की रोती-चीखती आवाज उसे बेहद डरावनी और मातमी लग रही थी।एंबुलेंस में से सफेद पीटीई किट पहने लोग उतरे तो सिद्धार्थ को लगा जैसे अंतरिक्ष से कुछ एलियन्स माता जी को लेने आए हैं।एंबुलेंस में आए लोगों का पूरा शरीर प्लास्टिक की धवल पीटीई किट से ढका हुआ था।हाथों में सफेद दस्ताने थे और सिर पर भी बुर्के जैसा सफेद कपड़ा झूल रहा था।पूरे जिस्म में केवल चश्मों के भीतर छोटी-छोटी आंखें टिमटिमाती दिखाई दे रही थीं।अंतरिक्ष से आए सफेद रंग के एलियन्स इधर से उधर घूम रहे थे।यह एक खौफनाक मंजर था।सिद्धार्थ का दिल बैठा जा रहा था।आस-पास के घरों की खिड़कियों से कई चेहरे झांक रहे थे।सन्नाटे में डूबे ये सभी घर एक डर पैदा कर रहे थे।
कुछ ही देर में ‘एलियन्स’ माता जी को सामने बरामदे के दरवाजे से बाहर ले कर आए तो वे एक सफेद प्लास्टिक के ताबूत में बदल चुकी थीं।सिद्धार्थ को लगा जैसे मौन हो चुकी माता जी उसके कान में कह रही हैं- ‘अच्छा सिद्धार्थ बेटे, मैं चलती हूँ।’ सिद्धार्थ ने उनकी तरफ बॉय-बॉय के लिए हाथ हिलाया।
इस बीच सिद्धार्थ पड़ोस में अपने घर जाकर एक पैकेट उठा लाया था।जब ‘एलियन्स’ माता जी के शव को लेकर आगे बढ़े तो उन्हें सिद्धार्थ ने इशारा करके रोक लिया।उसने आगे चल रहे एक ‘एलियन’ को पैकेट देते हुए कहा-माता जी को सोन पापड़ी बहुत पसंद थी।इस पैकेट में वही मिठाई है।जब इनका अंतिम संस्कार करें तो मेहरबानी करके यह मिठाई भी उनकी चिता के साथ भिजवा दें।उन्हें अच्छा लगेगा।
‘एलियन’ ने सिद्धार्थ के हाथ से पैकेट लिया और उसे सफेद ताबूत के एक कोने में दबा कर रख दिया।हाथ के इशारे से आश्वस्त किया कि ऐसा हो जाएगा।बाद में सभी धवल ‘एलियन’ माता जी के शव के साथ एंबुलेंस में घुस गए और वह फिर से चीखती-चिल्लाती रवाना हो गई।सिद्धार्थ का एक बार मन हुआ कि वह एंबुलेंस के पीछे भागे, लेकिन उसने अपने आपको रोक लिया।वह दूर जाती एंबुलेंस को आंसुओं के धुंधले पर्दे से तब तक देखता रहा, जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गई।पास के घरों की खिड़कियों से कई बच्चे हाथ हिलाते हुए माता जी को विदा कर रहे थे।
एंबुलेंस जाने के बाद थाना इंचार्ज और उनके साथ आए खाकी वर्दीधारी पुलिसकर्मियों ने घर में प्रवेश किया।उन्होंने साक्षी के रूप में सिद्धार्थ को भी अपने साथ ले लिया।सबने चेहरे पर मास्क लगाए हुए थे।
घर के अंदर घुसते ही ड्राइंग रूम में एक टेबिल दिखाई दी, जिस पर पंद्रह-बीस किताबें रखी थीं।पास में ही वह कटोरा भी रखा हुआ था, जिसमें सिद्धार्थ ने रात को खिचड़ी दी थी।कटोरे के नीचे दबा एक कागज भी दिखाई दे रहा था।सिद्धार्थ इसे देख कर चौंका।थाना इंचार्ज ने वह कागज कटोरे के नीचे से खींच लिया।
थाना इंचार्ज ने कागज की इबारत पढ़ी और सिद्धार्थ से पूछा, ‘आपने शायद अपना नाम सिद्धार्थ ही बताया था?
‘जी हां’, सिद्धार्थ ने कहा।थाना इंचार्ज ने वह कागज सिद्धार्थ को थमा दिया।उस पर लिखा था, ‘इस टेबिल पर रखी किताबें और कटोरा सिद्धार्थ को दे दें।’ सिद्धार्थ की आंखों से आंसू लुढ़क पड़े।पुलिसकर्मी घर के आंगन में दरवाजा खोल कर पिछवाड़े गए, जहां किचन गार्डन था।पपीते के एक पेड़ के पास कुर्सी पड़ी थी।सिद्धार्थ ने उन्हें बताया- ‘माता जी यहीं बैठ कर किताबें पढ़ती थीं।’
थाना इंचार्ज और पुलिस के सिपाही थोड़ी देर में पूरे घर का मुआयना कर के बाहर आ गए।बाहर लॉन में आकर थाना इंचार्ज ने सिद्धार्थ से माता जी के परिवार वालों के बारे में पूछा तो उसने फोन पर आशीष का अमेरिका का नंबर मिला कर उनकी बात करा दी।थाना इंचार्ज ने आशीष से पूछा, ‘आपका घर अब किसको संभलवाएं?’ उसने कहा, ‘सिद्धार्थ को ही बोल दें।वह घर पर अपना ताला लगा देगा।’
‘आप कब आएंगे?’- थाना इंचार्ज ने उससे पूछा।आशीष का जवाब था,‘अभी यहां से भारत के लिए कोई फ्लाइट नहीं है।फ्लाइट शुरू होते ही मैं आ जाऊंगा।’
‘कुछ फ्लाइट तो शायद शुरू हो गई हैं।’- थाना इंचार्ज ने कहा।
हाँ, लेकिन अमेरिका में जहां मैं रहता हूँ, वहां से अभी कोई फ्लाइट नहीं है।’ -आशीष ने कहा।
‘आप जब भी आएं तो एक बार पास के थाने में आकर मिल लें।माता जी के अंतिम संस्कार की व्यवस्था कोविड प्रोटोकॉल के हिसाब से हमने कर दी है।’ थाना इंचार्ज ने कहा और फोन काट दिया।
सिद्धार्थ ने अपने घर से ताला लाकर माता जी के मकान के दरवाजे पर लगा दिया।सिद्धार्थ के पिताजी और रश्मि अपने घर के लॉन में खड़े हुए दूर से नजारा देख रहे थे।पुलिस वाले अपनी जीप में बैठ कर वहां से रवाना हुए तो सिद्धार्थ भी अपने घर आ गया।वह अपने लॉन में एक तरफ रखी कुर्सी पर आकर बैठ गया।पिता जी और रश्मि अंदर चले गए।
थोड़ी देर बाद रश्मि बाहर आई और सिद्धार्थ से कहा, ‘अब अंदर आ जाओ।बाबू जी बुला रहे हैं।
‘नहीं, मुझे अभी यहीं ठीक लग रहा है।’ -सिद्धार्थ ने कहा।वह आस-पास के मकानों की खिड़कियों पर अभी तक डटे हुए चेहरों की खामोश आवाजें सुन रहा था।सिद्धार्थ के मन में फिल्म की तरह माता जी की कई छवियां आ-जा रही थीं।तभी उसके फोन पर व्हॉट्सअप कॉल की घंटी बजी।स्क्रीन पर निशांक का चेहरा दिखाई दे रहा था।निशांक उसके बचपन का दोस्त था और स्कूल में साथ पढ़ा था।आजकल वह भी अमेरिका के कैलिफोर्निया में कंप्यूटर इंजीनियर था।उसने फोन उठाया और पूछा, ‘कैसे हो निशांक? क्या अमेरिका से ही बोल रहे हो?’
‘नहीं, जयपुर आया हुआ था।माता जी की तबीयत ठीक नहीं थी।इसलिए आना पड़ा।कल ही आया था।’
‘माता जी की अब तबीयत कैसी है?’
‘अभी तो ठीक है।सुधार हो रहा है।उन्हें कोविड हो गया था, अस्पताल में भर्ती हैं।’
‘मेरे लिए कोई काम हो तो बताना।’
‘कोई जरूरत पड़ी तो जरूर बताऊंगा।अब इस खराब समय में शायद अपना मिलना तो नहीं हो पाएगा, इसलिए मैंने सोचा तुम्हें फोन ही कर लूं।…और व्हॉट्स अप पर तुमने यह किसकी डीपी लगा रखी है? क्या माता जी हैं?’
‘हां, ये दूसरी माता जी हैं।आशीष की माता जी जो आज ही हमें छोड़ कर चली गईं।’
‘ओह, वो तुम्हारे पड़ोस वाली माता जी?’- निशांक ने पूछा।
‘हां, लेकिन आशीष तो कह रहा था कि अमेरिका से अभी कोई फ्लाइट नहीं है।’
‘पिछले लॉक डाउन की पहली लहर में तो फ्लाइट नहीं थी, लेकिन अभी तो वहां से चल रही है।मैं कल ही तो आया हूँ।’
‘अच्छा! उसे फिर कुछ और दिक्कत रही होगी।’ -सिद्धार्थ ने कहा।
‘हो सकता है।लेकिन आशीष की तुम्हें एक दिलचस्प बात बताऊं?’
‘हां, बताओ।’
‘अमेरिका में हमारे दोस्तों के बीच यह किस्सा मशहूर है कि आशीष ने राजस्थान से संगमरमर का पत्थर मंगवा कर उससे डॉलर की एक बड़ी प्रतिमा बनवाई हुई है, जिसकी वह लक्ष्मी जी की तरह पूजा करता है।’ -निशांक ने कहा और जोर से हँसा।
‘डॉलर की प्रतिमा?’ -सिद्धार्थ ने आश्चर्य से पूछा।
‘हां, बिल्कुल।वैसे इस बात में कितनी सच्चाई है, यह तो नहीं पता, लेकिन भारतीय समुदाय के मित्र जब मिलते हैं तो ऐसी चर्चा हो जाती है।’ – निशांक ने फिर ठहाका लगाया।
‘अच्छा! वैसे भी पत्थर का डॉलर किसी काम का तो होता नहीं, उसे बस पूज ही सकते हो।’ – सिद्धार्थ ने कहा।
‘हां, और नहीं तो क्या! अब यही देख लो न कि दीपावली पर हमारा पूरा देश लक्ष्मी पूजता है, लेकिन लक्ष्मी अमेरिका में बरसती है।’ -निशांक फिर हँसा।
सिद्धार्थ को याद आया, माता जी आशीष की हमेशा तारीफ ही करती थीं, लेकिन एक बार उन्होंने यह जरूर कहा था- ‘आशीष अमेरिका जाकर बदल गया है।’
‘कैसे?’ – यह पूछने पर माताजी बात को टाल गई थीं।उन्होंने तब इतना ही कहा कि अमेरिका में पता नहीं क्या हालात होते हैं? उसकी अपनी कोई मजबूरियां भी होंगी।
सिद्धार्थ ने फिर निशांक से पूछा- ‘तुम जयपुर कब तक हो?’
‘माता जी ठीक हो कर घर आ जाएं, तब तक तो रहूंगा ही।यह समय थोड़ा अच्छा हो जाए तो अपन मिलेंगे।पिता जी को मेरा प्रणाम कहना।’
‘बिलकुल ठीक।’ सिद्धार्थ ने कहा और फोन काट दिया।
शाम को सिद्धार्थ माता जी के घर गया, जहां से वह माता जी की ओर से आखिरी उपहार के रूप में दी गई किताबें और अपना कटोरा ले आया।माता जी उसके लिए हिंदी और अंग्रेजी साहित्य की कई किताबें छोड़ गई थीं, जिन्हें वह उलट-पुलट कर देखता रहा।रातभर उसे नींद नहीं आई।बार-बार माता जी का चेहरा आंखों के सामने आ जाता था, जो दिल में एक टीस की तरह चुभता था।
सुबह वह उठा तो आशीष का फोन आया।वह बोला, ‘फ्लाइट अब शुरू हो गई हैं।मैं कल की फ्लाइट से आ रहा हूं।परसों दिल्ली पहुंचूंगा।वहां से फिर टैक्सी से जयपुर आऊंगा।’
‘ठीक है, आ जाओ।मैं घर पर ही मिलूंगा।आज कल मेरा भी वर्क फ्रॉम होम चल रहा है।’- सिद्धार्थ ने कहा।
‘सिद्धार्थ, एक बात बताओ, कोई प्रोपर्टी ब्रोकर तुम्हारा जानकार है क्या? अब जयपुर में तो हमारा अपना कोई है नहीं।मकान बेचना पड़ेगा।’
‘आ जाओ।फिर देख लेंगे।’ – सिद्धार्थ ने कहा।
‘ठीक है फिर जयपुर मिलते हैं।ओके, बॉय।’- आशीष ने कहा और फोन काट दिया।
सिद्धार्थ फिर माता जी के खयालों में डूब गया।वह सोच रहा था – ‘माता जी जब डॉक्टर की पर्ची पर पत्थर का एक छोटा टुकड़ा रखती थीं, तो उसमें भी जैसे उनका दिल धड़कता महसूस होता था।वह शायद मां का दिल था।क्या अमेरिका के डॉलर दिल को पत्थर में बदल देते हैं?’
वह अपने कमरे में आकर माता जी की दी गई किताबों को अब ध्यान से देख रहा था।तभी उसकी नजर एक किताब पर गई।वह नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकन कवयित्री लुईस एलिजाबेथ ग्लुक की कविता की किताब थी -द वाइल्ड आइरिस।उसने किताब का कवर पलटा तो अंदर एक कागज रखा था।इसमें माता जी की लिखाई साफ दिखाई दे रही थी।कागज पर एक कोटेशन लिखा था-
अकेले होना भयावह है।मेरा मतलब अकेले रहने से नहीं है।अकेले का मतलब है, जहां तुम्हें कोई नहीं सुनता। – लुईस ग्लुक।
सिद्धार्थ के मुंह से अचानक निकला- ‘माता जी, मैं आपको सुनता तो था।’ वह अपने आंसू पोंछ रहा था।
संपर्क : 79/14, शिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
लेखक को भावभीनी श्रद्धांजलि। कहानी बहुत ही करुणा परक और मार्मिक है।