शोध छात्रा, हेमचंद यादव विश्वविद्यालय, दुर्ग।
आज की हिंदी कहानियों में स्त्री का जीवन, संघर्ष और स्वप्न मुखर रूप में व्यक्त हो रहा है।भूमंडलीकरण और बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव का भी चित्रण अपने बदलते स्वरूप में मौजूद है।यह सच है कि आज स्त्रियां पहले की तरह बेड़ियों में जकड़ी नहीं रह गई हैं, पर वे पूरी तरह आजाद भी नहीं हुई हैं।लोग कहते रहें कि अब स्त्रियां आजाद हैं, अब उन्हें किसी की जरूरत नहीं है, पर बातें बेमानी-सी लगती हैं, जब हम पाते हैं कि स्त्री को आज भी भोग की वस्तु समझा जाता है।जब हम स्त्रियों के जीवन के अनछुए पहलुओं की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि किस तरह वे हर मोड़ पर अपने लिए संघर्ष कर रही होती हैं।
आज की कहानियों में स्त्रियों के संघर्षों और स्वप्नों का स्वरूप कुछ बदलता हुआ भले नजर आ रहा हो, पर बात आज भी वही है जो पहले थी।
फिर भी हिंदी कहानी का स्वरूप बदल रहा है, क्योंकि स्त्री के प्रश्न बदल रहे हैं।आज की महिला कथाकारों ने अपनी कहानियों में न केवल घरेलू कामकाजी स्त्रियों के जीवन में हो रहे बदलावों को रेखांकित किया है, बल्कि उन चरित्रों को भी सामने लाने का प्रयास किया है जो महानगर में अपने बड़े सपनों के साथ जीना चाहती हैं।स्त्री के संघर्ष का ऐसा चित्रण न केवल स्त्री कथाकारों की कहानियों में दिखाई देता है, बल्कि पुरुष कथाकारों की कहानियों में भी देखने को मिलता है।
जिस तरह दुनिया की सभी स्त्रियों के जीवन, संघर्ष और स्वप्न अलग-अलग हैं, उसी तरह आज की कहानियों में स्त्री के जीवन, संघर्ष और स्वप्न काचित्रण भी अलग-अलग रूप में मौजूद है।देखा जा सकता है कि भारतीय समाज में स्त्रियों का आज भी विभिन्न तरह से उत्पीड़न हो रहा है।स्त्री को घर के कामकाज और चूल्हा-चौका से मुक्त जीवन जीने की आजादी कभी नहीं मिली।आज भी वे जितने भी उच्च पद पर क्यों न पहुंच जाएं, घर का सारा कामकाज वे ही करेंगी।ऐसा क्यों? क्या पुरुष घर के कामकाज में हाथ नहीं बंटा सकता है? यह भी कटु सत्य है कि आज केवल वे ही महिलाएं घर की चहारदीवारी से बाहर निकल पाई हैं, जिनके घरवालों ने उन्हें बाहर निकलने की आजादी दी है।आज भी बड़ी संख्या में वे पिता, पति, भाई या बेटे पर आश्रित होती हैं।
स्त्री के संघर्ष और स्वप्न केवल उसकी अपनी आजादी, अपने स्वतंत्र विचार, अपने देखे गए स्वप्नों को जीने भर से संबंधित नहीं हैं।हमारे परिवार और समाज का ढांचा भी विचार का विषय है।आज भी कोई स्त्री अकेले रात में सफर करने से घबराती है तो आखिरकार यह किसका डर है? 21वीं सदी में पांव धरने के बाद तो यह सब नहीं होना था!
आज स्त्री के जीवन, संघर्ष और स्वप्न को लेकर अनेक कहानियां लिखी जा रही हैं जिन पर विस्तारपूर्वक चर्चा करना यहां उद्देश्य नहीं है।पर आज की कहानियां हमें आश्वस्त करती हैं कि वे अब पहले से भी ज्यादा मुखर रूप में स्त्री के जीवन, संघर्ष और स्वप्न के विविध रूपों को उद्घाटित कर रही हैं।कई लोग कहते हैं कि स्त्री का जीवन एक ऐसी पहेली है जिसे जल्दी में नहीं बूझा जा सकता है।ऐसा वे ही लोग कहते हैं जिन्होंने उसके जीवन को कभी पहेली या रहस्यों से बाहर आने नहीं दिया है।उसकी जटिलताएं, उसकी मान्यताएं, उसकी सीमाएं पहले ही तय कर दी गई हैं जिसमें अब काफी बदलाव भी इधर हुए हैं।
आज की कहानियों में कौन सा परिवर्तन देखने को मिल रहा है, यह परिवर्तन किस सकारात्मक दिशा में है और यह स्त्री की मन:स्थिति को मजबूत करने में कितनी सफल होती नजर आ रही है, इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी है।आज कहानियां केवल दुख और निराशा से भरी हुई नहीं हैं, बल्कि उनमें आशा की किरणें भी हैं जो स्त्री को नए ख्वाब बुनने के लिए प्रेरित करती हैं।आज कहानियों में जीवन की ऐसी ज्योति दिखाई देती है जो स्त्री को अंधेरे से निकाल एक रोशनी से भरी ऐसी दुनिया में ले जाती है जहां सिर्फ उसका अपना जीवन है।इन संदंर्भों में हमारे समय की कई महत्वपूर्ण लेखिकाओं के विचार इस परिचर्चा में हैं।
सवाल
- क्या आज स्त्री संघर्ष के मायने बदल गए हैं? आज की हिंदी कहानी में स्त्री संघर्ष किन रूपों में दर्ज हो रहा है?
- स्त्री स्वतंत्रता पर आज कौन से नए खतरे हैं और कितनी सचेतनता है?
- आज की हिंदी कहानियों के उदाहरण देते हुए कृपया बताएं कि पुरुष कहानीकारों की रचनाओं से स्त्री कहानीकारों की रचनाओं में भिन्नता क्या है? क्या दोनों की स्त्री द़ृष्टि में कुछ समान तत्व भी हैं?
- क्या स्त्री कहानीकारों के पास कोई बड़ा स्वप्न है? वह क्या है या क्या हो सकता है?
- इधर स्त्री कहानीकारों की संख्या में हुई वृद्धि के क्या कारण हैं? उनकी उपलब्धियों के बारे में कुछ बताएं?
- कई स्त्री कथाकार कहानी लिखना छोड़कर उपन्यास लेखन में प्रवृत्त हो चुकी हैं।इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
आज हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपनी ज़मीन तैयार की है
सुधा अरोड़ा बहुचर्चित कथाकार।अब तक इनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।दो कविता संकलन तथा एक उपन्यास के अतिरिक्त वैचारिक लेखों की तीन किताबें प्रकाशित।अद्यतन लेख संग्रह ‘सांकल, सपने और सवाल’। |
(1) पिछले सौ वर्षों में देखें तो स्त्री संघर्ष का ग्राफ़ बहुत तेजी के साथ ऊपर की ओर बढ़ा है।समाज की जुझारू जमात की स्त्रियों की अपनी पहल से एक निरंतर बदलता हुआ परिवेश और पर्यावरण उसके चारों ओर निर्मित हुआ है।स्त्रियों ने घर की चहारदीवारी के बाहर कदम निकाला पर घर की जिम्मेदारी को ओझल नहीं होने दिया।घर और बाहर-दोनों कार्य क्षेत्रों की जिम्मेदारी को निभाया।उसका यह सक्रिय और बदला हुआ चेहरा भारतीय समाज और परिवेश की रूढ़िग्रस्त मानसिकता और परंपरागत माइंडसेट को उद्वेलित और अव्यवस्थित कर देने के लिए पयार्र्र्र्र्प्त था।अष्टभुजा बनने के बाद भी न स्त्री की जिम्मेदारियां कम हुईं, न प्रताड़ना और लांछनों के स्वरूप।उसके बदले हुए हर स्वरूप से परंपरावादी जमात की सत्ता ने बौखलाहट में कुछ स्त्रियों को ही अपनी बिरादरी के खिलाफ खड़ा कर एक बड़ा छद्म रच दिया।उसके बदलाव को लेकर फब्तियां कसी जाने लगीं और जजमेंटल होने में किसी ने ठहर कर अपने को टटोलने की जरूरत नहीं समझी।पितृसत्ता का स्वरूप पहले से अधिक जटिल और संश्लिष्ट हो गया है।उसके बरक्स स्त्री संघर्ष के मायने और उपकरण भी बदले हैं।
आज का समय और समाज जटिलताओं, भूलभुलैयों और गुंजलकों का है, -जहां भटकने और मानसिक रूप से ध्वस्त हो जाने की संभावनाएं भी बढ़ गई हैं।इन्हीं सबके बीच आज हम एक मजबूत और बेखौफ स्त्री की जमात को उभरते हुए देख रहे हैं।स्त्रियों के द्वारा बृहत्तर प्रतिरोध का इतिहास देश के विशाल पटल पर पहली बार दर्ज हुआ है! नागरिकता कानून (सी.ए.ए. और एन.आर.सी) के खिलाफ एक बड़ी स्त्री बिरादरी ने शाहीन बाग समेत पूरे देश में हर जगह एक आंदोलन खड़ा किया।पिछले चार महीनों से ट्रैक्टर चलाती हुई किसान महिलाएं कड़कती ठंड और सारी असुविधाओं और विपरीत स्थितियों के बीच दिल्ली के बॉर्डर पर डटी हुई थीं।आज का समय स्त्री के संघर्ष के इतिहास में एक नया अध्याय लिख रहा है!
आज की हिंदी कहानी पिछले दो-तीन सालों के इन सामाजिक कार्यों और स्त्रियों के प्रतिरोध के बरक्स कहां खड़ी है, इसका लेखा-जोखा करना एक जल्दबाजी होगी।एक बड़े वितान में इसका रचा जाना प्रतीक्षित है।कोई भी आंदोलन या सामाजिक बदलाव रचनात्मकता में उकेरा जा सके, इसके लिए एक दूरी, एक तटस्थता के साथ-साथ संलग्नता और विश्लेषण की क्षमता भी जरूरी है।आज की हिंदी कहानी देश के सामाजिक और राजनीतिक बदलावों से रू-ब-रू होती रही है।आज का महत्वपूर्ण समय भी इसमें दर्ज होगा।इसे कुछ मोहलत दी जानी चाहिए।
स्त्रियों का संघर्ष अपने-अपने समय के दायरों में रचा और दर्ज किया जाता रहा है।कृष्णा सोबती का ‘जिंदगीनामा’ एक दस्तावेजी लेखन है।मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’ आज भी प्रासंगिक है।मधु कांकरिया का ‘सेज पर संस्कृत’ और ‘पत्ताखोर’ अपने समय में घट रही त्रासदियों का प्रामाणिक प्रस्तुतीकरण है।प्रज्ञा रोहिणाी का ‘धर्मपुर लॉज’ एक वंचित तबके की समस्याओं की पड़ताल करता है।वंदना राग का उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ एक विस्तृत फलक पर रचा गया है।सुमन केशरी की किताब ‘आर्मेनियाई जनसंहार’ या गरिमा श्रीवास्तव की ‘देह ही देश विदेश की धरती’ के बारे में एक संवेदनात्मक दस्तावेज हैं।कुछ और मानीखेज रचनाएं स्त्री संघर्षों और प्रतिरोध की चेतना से जरूर उभरकर सामने आएंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
(2) आज जब हमारे लोकतंत्र पर ही खतरा मंडरा रहा है तो स्त्रियां और दलित-वंचित वर्ग कैसे इस खतरे से बचा रह सकता है।हर बार जब देश में किसी मासूम नाबालिग लड़की पर सत्ताधारी वर्ग के नुमाइंदों की ओर से दरिंदगी की खबरें आती हैं तो एक बार फिर स्त्री को सुरक्षा देने की बात जोर-शोर से कही जाती है पर स्त्री को सुरक्षा नहीं, हमें अपने ही देश में सड़कों पर बेखौफ होकर चलने-फिरने-घूमने की आजादी चाहिए।इसके लिए समाज के पुरुष वर्ग की सोच और मानसिकता में बदलाव की जरूरत है।जैसे-जैसे स्त्री मुखर और चेतस होती है, परंपरावादी वर्ग अधिक चौकन्ना और आतंकित होकर उसके इर्द-गिर्द बाड़े बनाने लगता है, कुछ ज्यादा लक्ष्मण रेखाएं खींची जाती हैं और नैतिकता के खांचे नए सिरे से गढ़े जाते हैं।
आज हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपनी जमीन तैयार की है।पर्यावरण और पुनर्स्थापन के मुद्दे पर मेधा पाटकर, सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा जयसिंह, सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ती तिस्ता सेतलवाड, आदिवासियों के हक के लिए सोनी सोरी, एक बहुत लंबी फेहरिस्त है जिससे सत्ता को खतरा है! गरीब-गुरबों की जमीन की कानूनी लड़ाई के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाली सुधा भारद्वाज और शोमा सेन को फर्ज़ी मुकदमों में फंसाकर जेल में बंद कर दिया गया है।उम्मीद है, वहां से भी उनके कुछ और अनुभव हमारे सामने आएंगे, जैसे सीमा आजाद की हाल ही में प्रकाशित किताब ‘औरत का सफर : जेल से जेल तक’ में आई है।
आज मध्यवर्ग की आम स्त्री अपने ओहदे और समाज में एक ओर अपनी स्थिति को लेकर जागरूक और चेतस हुई है, दूसरी ओर उसके इर्द-गिर्द जैसा छद्म गढ़ा गया है, वैसा पहले कभी नहीं था।साहित्य में स्त्री मुक्ति के नाम पर देह मुक्ति का ऐसा झुनझुना थमा दिया गया कि स्त्री रचनाकारों का बहुत लंबा समय देह के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गया और देह की आकांक्षा और आजादी के राग को ही बोल्ड होने का तमगा दिया जाने लगा।
(3) लेखन का एक मूलभूत तत्व है- संवेदना और बेचैनी।हमारे आस-पास हर रोज घटती कुछ दुर्घटनाएं, कुछ अनाचार अत्याचार, कुछ हिंसक वारदातें, कुछ अमानवीय दंश, कुछ बेगैरत समझौते – एक संवेदनशील मन पर निरंतर आघात करते हैं और उसे बेचैनी से भर देते हैं चाहे वह स्त्री हो या पुरुष! कोई भी कला इस बेचैनी से निबटने का जरिया बन जाती है -चाहे वह चित्रकला हो, संगीत या नृत्य हो या किसी भी विधा में लेखन हो! कला सिर्फ कला के लिए रहकर जीवित नहीं रह सकती।सौंदर्यबोध के साथ-साथ जीवन दर्शन और सामाजिक बोध भी अनिवार्य है।जीवन और समाज से सरोकार ही कला की प्राणवायु हैं।पुरुष हों या स्त्री रचनाकार- ये सरोकार दोनों के लिए समान हैं।
पुरुष और स्त्री का मूलभूत अंतर उनकी मानसिक संरचना में मौजूद है।पुरुष स्त्री के प्रति कितना भी संवेदनशील हो, वह स्त्री की तकलीफ का द़ृष्टा ही हो सकता है, भोक्ता नहीं।यही बात स्त्री के लिए भी कही जा सकती है, लेकिन स्त्री चूंकि हमारी सामाजिक संरचना में हमेशा प्रताड़ित रही है और उसका दर्जा दोयम ही रहा है इसलिए स्त्री का अपने बारे में लिखा गया अपना वृत्तांत ज्यादा प्रामाणिक होता है।पुरुष रचनाकारों ने अपनी कलम से स्त्री को तमाम आलंकारिक उपकरणों से सजाया संवारा है या फिर उसकी व्यथा पर उद्वेलित होकर आंसू भी उड़ेले हैं, लेकिन अपना भोगा और झेला हुआ यथार्थ एक स्त्री खुद ही लिख सकती है और वह बेबाक ज्यादा प्रभावी होगा।
पुरुष और स्त्री रचनाकारों की भाषा में भी एक स्पष्ट सा फर्क देखा जा सकता है।वैसे अपवाद हर जगह हैं।निर्मल वर्मा की कुछ कहानियां, स्वयंप्रकाश की कहानी ‘अगले जनम’ को पढ़कर कोई नहीं कह सकता कि यह किसी पुरुष रचनाकार ने लिखी है।पवन करण की कुछ कविताएं भी सघन स्त्री संवेदना की बानगी हैं।ऐसे ही उदाहरण स्त्री रचनाकारों में भी मिलेंगे, जैसे मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’ या मृदुला गर्ग का ‘अनित्य’।
(4) एक आम स्त्री का स्वप्न है कि उसे बराबरी का मुकाम हासिल हो! अब तक उसे इनसान नहीं, एक बिना वेतन की गुलाम का दर्जा दिया गया, जरूरी है कि अब उसे भी मनुष्य समझा जाए।इसके लिए समाज के वाशिंदों को अपना नजरिया बदलना होगा।एक रचनाकार स्त्री को पुरुषों के फैलाए हुए छद्म को समझना है, पुरुषों के ही खेल के नियमों का शिकार नहीं होना है, उनकी ही बिसात पर अपने मोहरे नहीं खेलने हैं।
अपनी देह के प्रति अति सचेतनता, आत्ममुग्धता उतनी ही घातक हो सकती है, जितनी अपनी पीड़ा और यातना के प्रति अति संलग्नता।हमारे इर्द-गिर्द स्त्रियों का एक बहुत बड़ा संसार है, जहां कुछ समानताएं निचले तबके से लेकर हर वर्ग में मिल जाएंगी।यहीं पर्सनल इज पॉलिटिकल का एक बड़ा फलक भी दिखाई दे जाएगा।एक युवा स्त्री रचनाकार का स्वप्न यह भी है कि उसकी रचना पर जजमेंटल न हुआ जाए, उसे एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा जाए।
एक और जरूरी बात, आज अगर युवा स्त्री कहानीकार, बहुत कम लिखकर, बहुत कुछ हासिल कर लेने का सपना देखती है तो वह अपनी रचना धर्मिता के प्रति न्याय नहीं कर सकती।यशोलिप्सा रचनाकार की असमय मौत को साथ लिए आती है।प्रायोजित चर्चाएं बहुत तात्कालिक हुआ करती हैं।किसी भी रचना को समय अपनी छाननी में निथार कर सामने लाता है।उस समय को अपना काम करने देना चाहिए।
(5) मीरा से महादेवी वर्मा तक और चंद्रकिरण सौनरेक्सा से मन्नू भंडारी तक – स्त्री रचनाकारों ने बहुत आहिस्ता, बिना किसी पदचाप के अपनी गरिमामय चुप्पी तोड़ी है।स्त्रियों ने बहुत देर से बोलना शुरू किया है।सिर्फ हिंदी में नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में एक लंबे समय तक लड़कियां फर्जी नामों से लिखती रहीं, अपने लिखे हुए को परिवार से छिपाती रहीं।मेरी मां कविताएं लिखती थीं पर उन कविताओं को अपनी कॉपी में छिपा कर रखती थीं, क्योंकि उनके समय में किसी लड़की के कविता लिखने का मतलब था कि वह किसी के प्रेम में पड़ गई है।एक दमित प्रताड़ित वर्ग को जबान खोलने का मौका मिला है।उनका बोलना और मुंह खोलना उनकी पहली उपलब्धि है।जो कविता, कहानी अपने नाम से नहीं लिख पाती थीं, आज बेखौफ होकर अपनी तकलीफ का बयान इतनी बारीकी से कर रही हैं कि अचंभित रह जाना पड़ता है।यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।यह लिखना, अपने आप को खोलना, उनके लिए एक थेरेपी है, चिकित्सा है।उनके लिए जीने का बायस है।
विषयों की विविधता, कथ्य की ताजगी और शिल्प के नए प्रयोगों के साथ रचनाकारों की एक नई पीढ़ी बहुत तेजी से उभरी है! इसका स्वागत किया जाना चाहिए।आज युवा स्त्री रचनाकारों की बहुत बड़ी जमात सृजनरत है।मैं नया साहित्य बहुत पढ़ नहीं पाती हूँ इसलिए बहुत से नाम छूट सकते हैं।नीला प्रसाद, योगिता यादव, ज्योति चावला की कहानियां और बाबुषा कोहली, शैलजा पाठक की कविताएं मुझे बहुत आश्वस्त करती हैं।कोई समीक्षक इनकी उपलब्धियों को अधिक प्रामाणिकता के साथ रेखांकित कर सकता है, बशर्ते वह पूर्वग्रह रहित हो।वैसे इस समय सबसे असरकारक समीक्षक है जो सार-सार को गह लेता है और थोथे को हवा में उड़ा देता है।
(6) विधा का चुनाव लेखक का अपना है।कहानीकार का अगला पड़ाव उपन्यास विधा ही है।उपन्यास लिखना बहुत समय, धीरज और फोकस की मांग करता है।इसलिए यह विधा एक रचनाकार को चुनौती से भरी लगती है।स्त्री रचनाकार इस चुनौती को स्वीकार कर रही हैं, यह सुखद है।
अभिव्यक्ति की जो भी विधा आपको पर्याप्त संतुष्टि देती है, एक रचनाकार मन उसी में रम जाता है।मुझे कथाकार के रूप में जाना जाता रहा और मुझे उपन्यास लेखन की ओर न मुड़ने का कभी अफसोस नहीं रहा।वक्त जरूरत एसिड अटैक या शिक्षित लड़कियों की आत्महत्याओं पर या स्त्री मुक्ति बनाम देह मुक्ति, स्त्री पर हिंसा, पुरुष विमर्श पर आलेख लिखना जरूरी लगा।निर्भया कांड पर मांग आलेख की हुई पर मैंने आलेख न लिखकर एक लंबी कविता लिखी।
अपनी ऊर्जा और आलोड़न के अनुसार हम अपनी विधा का चुनाव करते हैं।जो विधा एक रचनाकार को अपनी बेचैनी से राहत दिलाए, उसी विधा में सृजन करना श्रेयस्कर है।यह सृजन सिर्फ खुद को ही राहत नहीं देता, एक बड़े पाठक वर्ग तक अपनी राहत का स्थानांतरण भी करता है।
वसुंधरा, 602, गेटवे प्लाजा, हीरानंदानी गार्डेन, पोवाई, मुंबई–400076 मो. 9082455039
संबंधों की परिधि में घूमना स्त्री लेखन की सीमा नहीं है
रोहिणी अग्रवाल वरिष्ठ आलोचक एवं कहानीकार।अद्यतन आलोचना पुस्तक ‘कथालोचना के प्रतिमान’। |
(1) सवाल को देखने का नजरिया जवाब की दिशा तय करता है।स्त्री-संघर्ष के मायने बदलने की बात किस संदर्भ में की जा रही है? हिंदी साहित्य के संदर्भ में? या जीवन के संदर्भ में? जीवन अपनी व्यापकता में इतना अनूठा, विविधवर्णी और अंतर्विरोधों से परिपूर्ण है कि सच का समग्र चेहरा देखना संभव नहीं।यथार्थ जीवन में स्त्री-संघर्ष का एक पहलू वह भी है जो अपने बुनियादी एवं नग्न रूप में न्यूनतम मानवाधिकार एवं मानवीय अस्मिता के लिए जूझ रहा है।कन्या-भ्रूण-हत्या, उच्च शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया जाना, विवाह की अनिवार्यता और बलात्कार की आशंका के बीच कैद परंपरागत संस्कारग्रस्तता से आछन्न अधिकांश भारतीय मां-बाप का लड़कियों को घर और अज्ञान के घेरे में जकड़े रखना, मैरिटल रेप और प्रेम को समानार्थी सिद्ध करने के जतन में स्त्री को गूंगी भेड़ की तरह जिबह करते चलना, दोहरी कमाई के लोभ में कामकाजी स्त्री की शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक जरूरतों की ओर से आंख मूंदना।फेहरिस्त बहुत लंबी है जिसमें किसी एक खास आय-वर्ग, आयु-वर्ग की स्त्रियों को रखना मुमकिन नहीं।बल्कि सत्य तो यह है कि तमाम स्त्रियां किसी न किसी मुद्दे की वजह से अपने मानवाधिकारों के लिए फरियाद करती नजर आ सकती हैं।सामाजिक न्याय से वंचित है स्त्री।दिन-रात होने वाले सांस्कृतिक गौरव के महायज्ञ के हवन कुंड में लटकी समिधा (बलि) भी।अंतर इतना है कि शिक्षा एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता से उपजे आत्मविश्वास को उसने बाह्याभरण की तरह देह पर सजा लिया है।पारिवारिक दांपत्य संबंधों की भीतरी गुट्ठलें आज भी उतनी ही कड़क और हिंसक हैं।स्त्रियों का एक वर्ग स्वावलंबी, संघर्षशील एवं आत्मविश्वास से परिपूर्ण अवश्य हुआ है, लेकिन उसने पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दुर्भेद्य किले में सेंध लगाने के लिए संगठित मोर्चाबंदी की हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता।
हिंदी साहित्य के संदर्भ में इस संघर्ष का खाका पेश करूं तो लगता है काफी रफ्तार से मुक्ति के स्वप्न को साकार करने की दिशा में बढ़ रही है स्त्री।अभी महज सौ साल पहले भारतीय स्त्री (जैसे मल्लिका देवी, अज्ञात हिंदू महिला, शिवरानी देवी, सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा) ने पितृसत्ता को मजबूती देती मनुस्मृति के औचित्य पर सवाल खड़े किए थे, अज्ञान की नींद में सोई स्त्री को तुमुलनाद करके बताया था कि कैसे घर-आंगन में रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुए वह पितृसत्ता से संतुष्ट भी हो रही है और पितृसत्ता को खाद-पानी देकर अपने हाथों अपना ताबूत भी बना रही है, कि कैसे आत्मालोचन से आत्मज्ञान, संगठन से जन-संघर्ष तक मुक्ति की यात्रा तय करनी है उसे।लेकिन स्वातंत्र्योत्तर हिंदी लेखन जिस तरह क्रमशः मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती की रचनाओं के जरिए समस्या (स्त्री-शोषण) के सामाजिक संदर्भों और समाज-सांस्कृतिक साजिशों की विश्लेषणधर्मी पड़ताल से कटकर एक ‘अकेली‘ स्त्री की नियति, पीड़ा, संघर्ष और पराजय तक सीमित हो गया, उसने स्त्री और पुरुष को पितृसत्ता द्वारा पोषित अपॉजिट बायनरी में ही विभक्त करके एक-दूसरे के शत्रु रूप में देखे जाने का संस्कार प्रबल किया है।बेशक मध्यवर्गीय सुशिक्षित स्त्री की संघर्ष-कथा कहते हुए इन लेखिकाओं का इरादा यथास्थितिवादी नहीं था, लेकिन स्त्री-मुक्ति को व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संदर्भों से काटकर एकल भाव से ग्रहण करना स्त्री-मुक्ति की अवधारणा पुरुष की स्वायत्तता, स्थान एवं अस्मिता के प्रतिलोम रूप में उभरता गया।
संबंधों की परिधि में घूमना स्त्री लेखन की सीमा नहीं है, लेकिन इस प्रक्रिया में निसंग एवं बेधक भाव से पितृसत्ता के पुनरीक्षण के क्रांतिधर्मी विवेक को छोड़ देना कहीं इसकी सीमा बन जाता है।नब्बे के दशक में स्त्री-लेखन एक करवट लेता दिखाई देता है।संघर्ष-यात्रा से आत्मविश्वास अर्जित करती स्त्री को उसने नए समय की प्रतिनिधि बनाया है।वह बृहत्तर सामाजिक संदर्भों को अपनी नजर से पढ़ने-विश्लेषित करने के विवेक से संपन्न हुई है, तो नितांत निजी बायोलॉजिकल अनुभवों को वैशिष्ट्यपूर्ण अभिव्यक्ति बना कर दर्ज भी कर सकी है।वह विवाह संस्था के औचित्य पर सवाल ही नहीं खड़े कर रही है, विवाह संस्था के विकल्प-लिव इन रिलेशनशिप, सिंगल मदरहुड, चिर कौमार्य-को आलोचनात्मक द़ृष्टि से देख रही है।नैतिकता के दोहरे मानदंडों के परखच्चे उड़ा रही हैं तो नैतिकता को मानवीय संदर्भ में परिभाषित करने का प्रयास करके परंपरा और शुद्धतावादी आग्रहों से टकरा रही है।वह सुपर वुमन का आभास देती दिखती है कहीं, तो कहीं अपनी ही दरकनों से चूर-चूर होकर मुक्ति की अवधारणा को प्रश्नांकित कर बैठती है।
सभ्यता और संस्कृति के विकास का दौर निर्मिति की असमाप्त प्रक्रिया है।अत: बना-बनाया यहां कुछ भी नहीं।सब प्रयोगधर्मी है-एकदम तरल अवस्था में।स्त्री लेखन की सुवास और संभावना इसी तरल अवस्था में निहित है।यूं बहुत कुछ अत्यल्प समय में पा लेने की हड़बड़ियां स्त्री लेखन की नीयत पर सवालिया निशान भी लगाती हैं।
(2) विश्व-गुरु बनने की बदहवासी में आज हमने उल्टे पैरों से चलना शुरू कर दिया है।वे परंपराएं और मिथक, आचार संहिताएं और ‘स्मृतियां’, जिन्हें हम आर्काइव के दस्तावेजों में रख आए थे, और लोकतांत्रिक चेतना एवं मानवाधिकार को गरिमा से परिपूर्ण होकर जिस प्रकार जेंडर (सोशल कंस्ट्रक्ट) की अवधारणा को ही प्रश्नांकित करने लगे थे, आज गड्डमड्ड होकर अपना रूप बदलने में लगी हैं।हम ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के नारे लगाकर बेटी को बर्बर यौन हिंसा का शिकार होते देखते हैं और मजे से बांसुरी फूंकते चलते हैं।तर्क की जगह अंधविश्वास को महत्व देने लगते हैं तो मंदिरों के कपाट स्त्रियों के लिए बंद कर देते हैं।राजनीति से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री की जगह सुनिश्चित कर देना चाहते हैं, लेकिन हाथ से सारे अधिकार छीन कर महज अनुगूंज या परछाई बना देना चाहते हैं।ये राजनीतिक-सांस्कृतिक-आर्थिक षड्यंत्र ऐसा दिलखुश फरेबी बाना पहन कर सामने आते हैं कि परंपराएं ग्लैमरहोड़ की आड़ में रूढ़ियां बनकर स्त्री को निःसत्व करने लगी हैं।धर्मांधता के इस धधकते माहौल में परंपरा और संस्कृति स्त्री की सत्ता और अस्मिता पर मंडराता सबसे बड़ा खतरा है।इसलिए जरूरी है कि तमाम तरह के फतवों, दबावों, लाभों और अवसरों के दबाव से मुक्त हो स्त्री के मनुष्यत्व पर विचार किया जाए।यह हरदम ख्याल रखा जाना चाहिए कि परतंत्र स्त्री के बरक्स स्वतंत्र पुरुष की परिकल्पना समय का सबसे बड़ा झूठ है।यह तय है कि लोकतांत्रिक समाज में दो भिन्न वर्गों, समूहों, जातियों के लिए एक ही समय दो तरह के सिक्के चला कर आप मुक्त और न्यायपूर्ण व्यापार नहीं कर सकते।
विघटन की प्रक्रिया प्रारंभिक रूप में क्रमशः अंकुराती है, लेकिन फिर सैलाब बनकर फूट पड़ती है।चेतना चूंकि संघर्ष की कठोरता और कठिनाइयों का ड्राफ्ट हाथ में थमाती है, इसलिए बहुत जरूरी हो जाता है कि बाजार में ‘सेल’ में उपलब्ध गुलामी का आकर्षक पैकेज सुविधा और स्खलन बनकर सामने न आए।आज की हिंदी कहानी का बहुलांश जिस तरह स्त्री, स्त्री मुक्ति, और स्त्री-मुक्ति के संघर्ष को सतह से उठाकर, तथा मसालेदानी के तमाम मसलों से चटपटा करारा बनाकर परोस रहा है, उससे चिंता गहराती तो है ही कि क्या हम मुक्ति का अर्थ जानते हैं? कि क्या स्त्री-मुक्ति को पुरुष-नियंत्रण से मुक्ति के क्लीशे में गूंथ कर हम उसकी बड़ी मानवीय रेंज को कतर नहीं रहे हैं?
जब हम पूरे होशोहवास में स्त्री से अति-स्त्री और पुरुष से अति-पुरुष न बनने के विनम्र निवेदन के साथ स्त्री से ‘थोड़ा पुरुष’ और पुरुष से ‘थोड़ी स्त्री’ बनने का आग्रह करते हैं, तब दरअसल हम दोनों के मानव (ह्यूमन बीइंग) होने की जड़ों में मट्ठा डालकर जेंडर को ही सींच रहे होते हैं।हम सब जानते हैं, जेंडर प्रकृतिप्रदत्त नैसर्गिक संरचना नहीं है, सोशल उत्पाद है।लेकिन कैसी विपन्न अवस्था है हिंदी भाषा की कि हमारे पास सैक्स- बायोलॉजिकल आईडेंटिटी-के लिए कोई शब्द नहीं।
(3) आज पुरुष रचनाकारों की कहानियों में वैसे प्रखर, तेजस्वी कालजयी स्त्री चरित्र उभर कर आना बंद हो गए हैं, जैसे प्रसाद (आकाशदीप – चंपा), जैनेंद्र (पत्नी, जाह्नवी), अज्ञेय (गैंग्रीन -मालती, पगोड़ा वृक्ष- सुखदा), यशपाल (करवा का व्रत – लाजो), रेणु ( तीसरी कसम -हीराबाई, लाल पान की बेगम, नैना जोगिन – रतनी) की कहानियों में कस्तूरी गंध के साथ मिलते रहे हैं, बल्कि यह कहूं कि इधर के कहानीकार-संजीव, उदय प्रकाश, अखिलेश, शिवमूर्ति आदि-स्त्री चरित्रों का अपनी कहानियों मे ‘उपयोग’ करते हैं, सर्जना नहीं।ये स्त्री- चरित्र लेखकीय मंतव्यों, आग्रहों के अधीन रचे जाकर सीढ़ी की एक पायदान भर बनते हैं।अपने समग्र सौंदर्य, संभावनाओं और सीमाओं के साथ खुलती जिंदगी नहीं बन पाते।लेकिन सामान्यीकरण की लाठी से साहित्य को नहीं हांका जा सकता।मनोज कुमार पांडे की कहानी ‘हंसी’ और ‘मोह’, तरुण भटनागर की ‘बीते हुए शहर से फिर गुजरना’ और ‘कातिल की बीवी’, शिवेंद्र की ‘चॉकलेट फ्रेंड्स और अन्य कहानियां’ संग्रह में संगृहीत लगभग सभी कहानियां स्त्री को ‘मनुष्य’ के रूप में ही नहीं देखतीं, उनकी मनुष्यता के आलोक में पुरुष के अहम, व्यक्तित्व और मनोविज्ञान को भी समझने का प्रयास करती हैं।मनोज कुमार पांडे पितृसत्ता की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना के अधीन स्त्री के बरअक्स पुरुष की निर्मिति के खौफनाक सच को उभारती हैं तो तरुण भटनागर प्रेम, हार्दिकता, विश्वास और सख्य जैसी महीन संवेदनपरक तारों के सहारे पुरुषों के क्रूर हिंसक समाज के समानांतर स्त्री से भीतर के प्रेममय सर्जक संसार के भय एवं सौंदर्य को जर्रा-जर्रा उकेर देते हैं।शिवेंद्र के पास लोक-कथाओं का जखीरा है, प्रयोगधर्मिता की ताजगी है, भाषा को मांजने की दक्षता है और है स्त्री-मन के साथ स्त्री के संसार में अनन्य भाव से प्रवेश करने का आत्मविश्वास।जाहिर है स्त्री-लेखन के परंपरागत ढांचे में खुशबू का ताजा झोंका बनकर प्रविष्ट होती हैं ये कहानियां, जहां शिकायतें-उलाहने, आंसू-रंज, प्रतिरोध-प्रतिशोध की सतर्कताएं नहीं हैं।स्त्री लेखन जिस मुकम्मल संबंध-संसार की परिकल्पना करता है, वह यूटोपियाई अंदाज इन पुरुष-रचनाकारों की कहानियों में रेशमी हकीकत की तरह उभरता है।
(4) ‘बड़ा स्वप्न’ एक आइडियल स्थिति है-संभाव्यता का आतंक उत्पन्न करने की भूमिका और घबराकर अपनी खोह में दुबक जाने की कातरता के बीच फैली।इसलिए मैं छोटे-छोटे स्वप्नों की सीढ़ियां चढ़कर मुकाम हासिल करते स्त्री-प्रयासों को ज्यादा ठोस, वास्तविक और मानीखेज मानती हूँ।यदि २१वीं सदी के दौरान लेखन कार्य में प्रवृत्त हुई रचनाकारों पर दृष्टि केंद्रित करूं तो कह सकती हूं कि स्त्री के अंतर्लोक का जैसा प्रामाणिक, कवित्वपूर्ण एवं स्वप्नशील चित्रण जया जादवानी (अंदर के पानियों में कोई सपना कांपता है), नीलाक्षी सिंह (रंग महल में नाची राधा), अलका सरावगी (आक एगारसी), अल्पना मिश्र (उनकी व्यस्तता, स्याही में सुर्खाब के पंख), किरण सिंह (यीशू की कीलें) आदि कहानीकारों ने किया है, वह काबिले तारीफ है।ठीक इसी तरह समाज की भीतरी सड़ांध को अनेक सामाजिक समस्याओं के जरिए शब्दबद्ध करके मधु कांकरिया और प्रीति प्रकाश (राम को जन्मभूमि मिलनी चाहिए) स्त्री-लेखन का कैनवस व्यापक करती हैं, जो संवेदना से लेकर विचार तक पुरुष लेखन की समकक्षता में जाता है।निर्वैयक्तिकता पुरुष लेखन की विशिष्टता रही है, अलबत्ता प्रसाद-अज्ञेय-रेणु से लेकर विनोद कुमार शुक्ल अपवाद की तरह आते हैं।स्त्री लेखन आत्मपरकता, स्वप्न और कविता को सान कर कहानी को जैसा विशिष्ट वैयक्तिक चरित्र देता है, वह निस्संदेह २१वीं सदी की हिंदी कहानी को समृद्ध करता है।
(5) छोटे-छोटे स्वप्नों की श्रृंखला में कभी कुछ भटकाव भी चले आते हैं।उन्हें पहचानना और समूल उखाड़ फेंकना भी जरूरी है-निरंतर अपनी गुड़ाई और विकास करते रहने के लिए।देह-मुक्ति का राग अलापते हुए उच्छृंखलता, स्त्री सशक्तिकरण की बात करते हुए पुरुष-प्रतिद्वंद्विता साहित्य में दुःस्वप्नों और दुश्चिंताओं को पिरोने लगता है।देह सिर्फ व्यक्तित्व की ऊपरी परत है, दैहिकता का उत्कर्ष हृदय और बुद्धि दोनों के समंजन से बने लालित्यपूर्ण आत्मानुशासन में है जो शिव की सरलता और विकटता, सृष्टि और प्रलय में संग-संग निबद्ध है।तीसरी आंख अपने को जांचने की अंत: प्रज्ञा है।स्त्री लेखन उसे अपनी अंतर्शक्ति बनाकर संजोए रख सके तो समाज व्यवस्थाओं के सामने विकट चुनौतियां रख सकता है।
शिक्षा ने आत्माभिव्यक्ति की भूख को बढ़ाया है।अंतिम विकल्प के रूप में मुद्रित सामग्री की उपलब्धता एवं संपादकीय हस्तक्षेप के अंकुश के हटते ही अभिव्यक्ति को मानो मनचाही मुराद मिल गई है।सोशल मीडिया ने कहानी की गुणवत्ता और गंभीर बनाम लोकप्रिय साहित्य जैसी कोटियों के विभाजन को नकार दिया है।कहानी के लिए इतना भर जरूरी माना जाने लगा है कि वह कहानी जैसी दिखती हो, यानी कुछ पात्र हों, घटनाएं हों, कोई ज्वलंत सामाजिक-भावनात्मक मुद्दा हो (खूंटी की तरह), प्रवाहपूर्ण आकर्षक भाषा हो, जरूरत पड़ने पर चुटीले संवादों का छौंक या विचार की फर्लांग भर गझिन यात्राएं हों- कहानी को कालजयी बनाने वाले तत्व और अर्हताओं को दरकिनार करके कहानी को अखबारी खबर का साहित्यिक संस्करण बनाने की होड़ सोशल मीडिया की मेहरबानी है।लेकिन इस अराजक माहौल के बीच बहुत सी लेखिकाएं निरंतर समय के साथ मुठभेड़ करके कुछ बेहतर रच रही हैं।मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग, प्रत्यक्षा, किरण सिंह, जयश्री राय, प्रज्ञा आदि अपनी कहानियों के जरिए स्मरणीय स्त्री चरित्रों को भी रच पाई हैं और युगीन समस्याओं से टकरा भी सकी हैं।हाल ही में पढ़ी अनुकृति उपाध्याय की कहानी ‘जानकी और चमगादड़’ उनकी संवेदना और मानवीय सरोकारों के कारण ही स्मरणीय नहीं रहती, अपनी भीतरी तहों में वह कहानी को दर्शन तक की ऊंचाइयों तक ले जाने की कवित्वपूर्ण व्यग्रता भी बनती है।यह ठीक वही मनःस्थिति है जो किरण सिंह से ‘संझा’, ‘ब्रह्म बाघ का नाच’, ‘द्रौपदी पीक’ और ‘शिलावहा’ जैसी कहानियों की रचना कराती है।
(6) कहानी विधा में हाथ मांजने के बाद अमूमन रचनाकार उपन्यास विधा की ओर मुड़ जाते हैं।कारण शायद यह है कि उपन्यास जीवन का अपेक्षाकृत विशद चित्रण होने की वजह से पाठक की स्मृति में देर तक अटका रहता है।कहानियां अपनी क्षिप्रता और संक्षिप्तता के कारण आंदोलित भले ही कर लें, कहानियों के विशाल ढेर में अंतत: खो सी जाती हैं।उपन्यास का गरिष्ठ कलेवर स्मृति को जुगनू की तरह टिमटिमा कर अंधेरे में विलीन नहीं होने देता, टॉर्च की तरह उसके हाथ पर पकड़ को मजबूत करता है।लेकिन उपन्यास साध पाना इतना सरल भी नहीं।बीसवीं सदी में यशपाल, अज्ञेय, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव, कमलेश्वर, रेणु उपन्यासों में समस्याओं को नहीं, जिंदगी को पिरोते थे, किरदार नहीं, मनुष्य रचते थे, यथार्थ नहीं उकेरते थे, यथार्थ की भित्ति पर भौतिकता और दार्शनिकता के द्वंद्व से उपजा वैचारिक स्वप्न प्रस्तुत करते थे।तब उपन्यास का कलेवर पृथुल हुआ करता और अंतर्लहरें होती थीं समुद्र के गर्भ में पलती लहरों की तरह अनंत, उच्छृंखल, प्रचंड और गत्यात्मक।आज उपन्यास सिकुड़ गए हैं-मानो वैचारिक एवं संवेदनात्मक डाइटिंग के असर से दुबला गए हों।उपन्यास लेखक के सजग चिंतन का माउथपीस ही नहीं हुआ करता, उसकी अंतर्निहित दुर्बलताओं और अंतर्विरोधों का आदमकद आईना भी होता है।कहानी में जिन्हें ‘टशन’ के साथ छुपाना सरल होता है, उपन्यास में वही पेंदे में सुराख की तरह हाजिर हो जाते हैं।अंत तक आते-आते उपन्यास का बिखर जाना, अतिनाटकीय हो जाना, शोध और रिपोर्ताज की ऊंची-ऊंची दीवारों के बीच कलात्मकता का दम तोड़ देना, और विचार के नाम पर किसी संवेदनात्मक प्रखरता का आगाज न कर पाना आज के उपन्यास की कुछ दुर्बलताएं हैं।देर तक सोचने के बाद भी यदि किसी गहन-संश्लिष्ट उपन्यास का नाम न कौंधे तो इसे साहित्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहा जाएगा।
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स्त्री के स्वप्न उसके आत्मसम्मान औरआत्मनिर्भरता से जुड़े हैं
ज्योति चावला चर्चित लेखिका।कविताएं और कहानियां हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित।विभिन्न भारतीय भाषाओं –पंजाबी, ओड़िया, अंग्रेज़ी आदि में रचनाएं अनूदित।अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ, इग्नू में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत। |
(1) स्त्री संघर्ष के मायने कभी बदल नहीं सकते हैं, हां उसके स्वरूप में बदलाव भले ही आ सकता है।मोटे तौर पर एक परिवर्तन देखने को मिल सकता है।हम कह सकते हैं कि स्त्रीवादी साहित्य, स्त्री केंद्रित फिल्में आदि इस दिशा में एक उम्मीद जगाती हैं।लेकिन यहीं तक सीमित होना हमारी दूरद़ृष्टिहीनता का प्रतीक है।स्त्री कहानीकारों और स्त्री निर्देशकों की एक नई लहर ने कुछ उम्मीद तो जगाई है, किंतु स्त्री संघर्ष आज भी बदस्तूर जारी है।गांवों में, पिछड़े समाजों में, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियां आज भी हाशिए पर खड़ी हैं।और कुछ नहीं तो पिछले कुछ वर्षों में घटित बलात्कार की घटनाओं को ही आधार बनाया जाए तो देखा जा सकता है कि स्त्री के अस्तित्व का संघर्ष कितना अधिक बढ़ गया है।बाजार, बाहरी चमक-दमक और इंटरनेट की स्वच्छंदता ने स्त्री को और अधिक कमजोर बनाया है।पुरुष समाज में उसे केवल एक देह की तरह परोसा जा रहा है और हैरानी की बात यह कि स्त्रियां स्वयं इस शोषण को समझ नहीं पा रही हैं।एंटोनियो ग्राम्शी जिस सांस्कृतिक वर्चस्व यानी कल्चरल हेजेमनी की बात करते हैं वह यहां प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है।स्त्रियों के शोषण में खुद स्त्रियां एक इंस्ट्रूमेंट की तरह इस्तेमाल की जा रही हैं और वे इससे बेखबर हैं।दूसरी ओर, परिवार और समाज के दोहरे शोषण की शिकार स्त्रियां धर्म और जाति के स्तर पर, समाज की परत और अधिक मोटी होते जाने से, और अधिक शोषण की शिकार हो रही हैं।पिछले साल घटित हाथरस बलात्कार कांड इसका उदाहरण है।
चूंकि स्त्री रचनाकार अपने साथ विभिन्न अनुभवजगत को लेकर आ रही हैं, इसलिए कहानियां भी न केवल विभिन्न विषयों और अनुभवों को दर्ज कर रही हैं, बल्कि बेहद पुख्ता ढंग से लिख रही हैं।
(2) स्त्री के जीवन में कम-ज्यादा खतरा तो नहीं है, परंतु इसके स्वरूप में परिवर्तन अवश्य थोड़ा-बहुत होता है।अस्मिता के स्तर पर चाहे किसी भी अस्मिता के साथ अत्याचार हो रहा हो, परंतु स्त्री सभी अस्मिताओं में शिकार होती ही हैं।इस तरह स्त्री हमेशा से दोहरे शोषण की शिकार होती हैं।2010 में मैंने जब अपनी कहानी ‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ लिखी थी तब उसका अर्थ यही था कि स्त्री के खिलाफ जो अंधेरा है, उसकी कोई शक्ल नहीं है।वह किसी भी रूप में आ सकता है।हर अस्मिता का अपना एक अन्य होता है, परंतु स्त्री का अन्य बहुत ही स्थायी किस्म का है।एक स्त्री पहले अपनी अस्मिता से लड़ती है फिर वह जिस जाति, जिस धर्म और जिस क्षेत्र, भाषा से संबंधित है उसका शिकार होती है।स्त्रियों की इस स्थिति को बहुत बेहतर तरीके से दलित विमर्श के संदर्भ में समझा जा सकता है।मोहनदास नैमिशराय ने एक निबंध लिखा था ‘दोनों गालों पर थप्पड़’।यह निबंध दलित स्त्री को बहुत ही बेहतर तरीके से समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।एक दलित स्त्री सबसे पहले अपनी जाति के स्तर पर विषमता झेल रही होती है, वहीं वह साथ-साथ स्त्री होने के कारण पुरुष से भी विषमता झेल रही होती है।
तो यह तय समझिए कि स्त्री पर कभी खतरा कम ही नहीं हुआ है।हां, यह अवश्य सत्य है कि जब भी किसी अस्मिता पर अत्याचार बढ़ेगा तो साथ ही साथ स्त्रियों पर अत्याचार भी बढ़ेगा।हमें गुजरात दंगे से लेकर किसी भी जाति या धर्म आधारित दंगे में स्त्रियों के साथ हुए अत्याचार को भूलना नहीं चाहिए।दंगों और उन्माद की इबारत स्त्री की देह पर ही लिखी जाती है।आजादी के इतने बरसों बाद और स्त्री अधिकारों के इतने लंबे संघर्ष के बाद भी स्त्री की अस्मिता देह से बाहर नहीं गई है।
अगर स्त्री अस्मिता पर मंडरा रहे किसी नए खतरे की बात करनी हो तो यह खतरा भूमंडलीकरण और बाजारवाद के कारण उपजी इस नई आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति के कारण है।यह चमकदार दुनिया, चमकदार भाषा, जो प्रथमद़ृष्टया स्त्रियों को एक अवसर देती हुई प्रतीत होती है, कुल मिलाकर स्त्रियों के विरुद्ध एक ऐसी दुनिया तैयार कर रही है जहां स्त्री सिर्फ एक उत्पाद में तब्दील होकर रह जा रही हैं।स्त्रियों के संदर्भ में यह खूबसूरती स्त्री को सुंदरता की एक ऐसी अंधेरी दुनिया में धकेलती जा रही है जिसका कोई अंत नहीं है।प्रमुख शिक्षाविद कृष्ण कुमार की पुस्तक ‘चुड़ी बाजार में लड़की’ इस संदर्भ में पढ़ी जानी चाहिए, जिसमें उन्होंने बहुत विस्तार से समझाने का प्रयास किया है कि फैशन और सुंदरता कैसे स्त्रियों की एक बड़ी जमात को अंधेरी दुनिया में धकेल देती है।
फैशन, गहना, सुंदरता-दैहिक रूप से सुंदर बनाने के सारे तरीके यह पुरुषों की दुनिया का वह षड्यंत्र है जिनमें स्त्रियां खुद फंसना चाहती हैं और वे ऐसा करके विमर्श को कमजोर करती हैं।कुल मिलाकर स्त्रियों को अभी रोज नई-नई चुनौतियों से जूझना है।
(3) मेरा मानना है, स्त्री अस्मिता के संदर्भ में स्त्री और पुरुष लेखकों को अलग-अलग करके देखना उन पुरुष लेखकों की तौहीन है जो स्त्रियों के संदर्भ में अच्छा सोचते हैं।यह संभव है कि स्त्री कहानीकार की तुलना में पुरुष कहानीकार स्त्रियों के जीवन के दुख को अनुभवजन्य तरीके से नहीं व्यक्त कर पा रहे हों, परंतु यदि वे अपने लेखन के माध्यम से स्त्रियों के पक्ष में कुछ अच्छे को विस्तार दे रहे हैं तो हमें उसे अनदेखा नहीं करना चाहिए।एक तो इसलिए कि उन्होंने पुरुष होकर ऐसा सोचा और दूसरा यह कि पुरुष हम लेखिकाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर स्त्री के पक्ष में सोचेंगे तो स्त्री के जीवन में कुछ धनात्मक बदलाव अवश्य होंगे।
और वैसे भी कई पुरुष लेखक स्त्री के पक्ष में इतना अच्छा लिख रहे हैं कि उन्हें किसी भी रूप में कमतर नहीं आंका जा सकता है।इतिहास में जाकर देखें तो स्त्री के पक्ष में लिखा गया भारतेंदु का ‘नील देवी’, जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘पुरस्कार’ से लेकर आज शिवमूर्ति द्वारा लिखा गया ‘तिरिया चरित्तर’, या ‘कुच्ची का कानून’ को कैसे अनदेखा किया जा सकता है।आज मैत्रेयी पुष्पा और शिवमूर्ति की कहानियों को आमने-सामने रखकर देखा जाए तो शिवमूर्ति की कहानियों को स्त्री के संदर्भ में कैसे कमतर कहा जा सकता है।मंटो द्वारा लिखित कहानी ‘खोल दो’ स्त्री विमर्श की एक नायाब कहानी है जो एक पुरुष द्वारा लिखी गई है।तो इस प्रश्न को इस रूप में देखा ही नहीं जाना चाहिए कि स्त्री के संदर्भ में लिखने वाला कौन है।महत्वपूर्ण यह है कि स्त्री के संदर्भ में लिखा क्या जा रहा है।
(4) स्त्री कहानीकार स्त्री विमर्श से अलग नहीं है कि उसका अपना अलग से कोई स्वप्न होगा।यह साझी लड़ाई है और इसे साझे रूप से ही लड़ा जाना है।स्त्री के संदर्भ में यह स्वप्न स्त्रियों के सम्मान और उनकी समृद्धि से जुड़ा हुआ है।एक अस्मिता के रूप में स्त्री को बराबर का अधिकार हो और यहां बराबर का मतलब बराबर ही लिया जाए।उन्हें उनके अपने अधिकार, अपनी आजादी और अपने मन का जीने को मिले।हम जब स्त्री की स्वतंत्रता की बात करते हैंं तो कई बार बहुत ही मोटे स्तर पर बात करते हैं।बहुत ही सामान्य स्तर पर देखें तो कई बार स्त्री बहुत ही स्वतंत्र और अधिकार संपन्न दिखती हैं परंतु वह मन से स्वतंत्र नहीं हो पाती हैं।स्त्रियों का मान-सम्मान और उनकी आजादी को बहुत हद तक बेहद सूक्ष्म और मनोविश्लेषणात्मक स्तर पर समझना होगा।हमें यह समझना होगा कि कई बार एक पुरुष को यह पता भी नहीं चलता है कि वह किस प्रकार एक स्त्री का मानसिक शोषण कर रहा है।
स्त्री कहानीकार स्त्रियों के जीवन की इस बारीकी की बात को न केवल समझती हैं, बल्कि उस पर बात करती हैं।वे बहुत हद तक उन स्त्रियों की मानसिक स्वतंत्रता की बात करती हैं जो सामान्य रूप में शोषण के रूप में सामने आ भी नहीं पाता है।मैत्रेयी पुष्पा ‘चाक’ उपन्यास में अपनी नायिका सारंग को जब यह छूट देती हैं कि वह अपनी देह का निर्णय खुद ले तो स्त्री के संदर्भ में यह एक बड़ा स्वप्न है।आज पुरुष कहानीकार स्त्रियों के हक में तो लिख रहे हैं, परंतु वे स्त्रियों की मानसिक आजादी के बारे में स्वप्न नहीं देख पाते हैं, परंतु स्त्री कथाकार के यहां स्त्रियों को दुनिया अपने अनुसार रचने की आजादी मिली है।वे हवा से बातें करती हैं।वे अपने लिए नियम, कायदे खुद रचती हैं।उनके पास उनके अपने सत्य हैं, सही-गलत की अपनी परिभाषा है।सत्य के केंद्रीयकरण की सामंती मानसिकता स्त्रियों के सक्रिय होने से मुंह छिपाती फिरती है।स्त्रियां अपने संबंध को खुद डील करती हैं, अपनी देह, अपने मस्तिष्क, अपने निर्णयों के लिए वे खुद स्वतंत्र हैं।वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, प्रत्यक्षा, नीलाक्षी सिंह आदि के यहां कई कहानियां ऐसी मिल जाएंगी जहां एक स्त्री अपने मस्तिष्क के स्तर पर बेहद स्वतंत्र हैं।
(5) स्त्री कहानीकारों की वृद्धि का कारण सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक परिस्थितियां ही हैं।ज्यों-ज्यों स्त्रियां अपने अधिकारों के प्रति सचेत होंगी, वैसे-वैसे समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी भागीदारी अधिक द़ृश्यमान होगी।केवल साहित्य ही नहीं, लगभग प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ने के साथ-साथ वे द़ृश्यमान भी हुई हैं।
साथ ही, स्त्री रचनाशीलता के क्षेत्र में जो एक अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन है, वह यह कि स्त्रियां अपनी रचनाओं के प्रति न केवल सजग हैं, बल्कि साहित्य लेखन में अपनी भूमिका को स्वयं रेखांकित भी करवा रही हैं।वे अपनी रचनाओं के प्रति आत्मविश्वास से परिपूर्ण हैं।इसके साथ ही, सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों ने स्त्रियों की इस मुखरता के विस्तार में साथ दिया है।आलोचना और इतिहास लेखन की क्रूर और पक्षपातपूर्ण प्रक्रिया में स्वयं को अनुपस्थित पा वे खुद अपनी बात कह रही हैं।आलोचना के क्षेत्र में स्त्रियों की उपस्थिति भी इसका प्रमाण है कि स्त्री रचनाशीलता में यह परिवर्तन चारों ओर से दिखाई दे रहा है।
सुमन राजे द्वारा लिखित ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ और सुधा सिंह द्वारा संपादित पुस्तक ‘स्त्री कथा’ तथा ऐसी ही कई पुस्तकें इस बात का प्रमाण हैं कि स्त्रियां तो हमेशा से लिखती आ रही हैं, आलोचकों ने ही उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया।हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी की पहली कहानी की रचनाकार बंग महिला भी एक स्त्री ही थीं।
रोहिणी अग्रवाल, सुधा सिंह जैसी स्त्री आलोचकों ने और स्त्री रचनाकारों की स्वचेतनता ने स्त्री रचनाकारों को अधिक द़ृश्यमान बनाया है।
(6) कहानी या उपन्यास लिखना लेखक का अपना चयन है।कहानी से उपन्यास लेखन की ओर बढ़ना किसी खास परिवर्तन की ओर संकेत नहीं करता।हां, ये परिवर्तन बाहरी जरूर हो सकते हैं।जैसे कि आप अनुभव कर सकती हैं कि साहित्यिक पत्रिकाओं की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है।कहानी लिखने और प्रकाशन का सुख लेखक को बहुत प्रिय होता है।लेकिन पत्रिकाओं की कमी के चलते कहानी प्रकाशन के मंच कम होते जा रहे हैं।
दूसरा, मेरा सदा से मानना है कि कहानी में सधा हुआ हाथ ही बेहतर उपन्यास रच सकता है।तो जो लेखिकाएं उपन्यास लेखन की ओर प्रवृत्त हो रही हैं वे जरूर उस विधा के साथ न्याय करने की क्षमता रखती होंगी।
साथ ही, कथा लेखन के लिए उपन्यास एक ऐसी विधा है जो रचनाकार को घटनाक्रम और कथा को विस्तार से रखने का एक बड़ा वितान प्रदान करती है।इस द़ृष्टि से भी रचनाकार उपन्यास लेखन की ओर प्रवृत्त होते हैं।
ऐओटीएसटी, इग्नू, मैदानगढ़ी, दिल्ली-110068 मो. 9871819666
स्त्री का सपना कल भी अपनी एक मुकम्मलपहचान बनाने का था, आज भी है
हुस्न तबस्सुम निहां युवा कहानीकार।कई कहानियों का अन्य भाषाओं में अनुवाद।अद्यतन कहानी संग्रह ‘नीले पंखों वाली लड़कियां’। |
(1) यह सवाल बहुत जरूरी है और जरूरी समय में आया है।स्त्री संघर्ष के मायनों पर बात करते हुए हमें यह ध्यान देना होगा कि स्त्री संघर्ष हकीकत में किन उद्देश्यों को लेकर है।उसकी राह क्या है? नारीवाद बुर्जुआ एलीट क्लास के शगल से निकल कर झुग्गी-झोपड़ियों, फैक्ट्रियों और खेतों में खट रहीं महिला खेत-मजदूर तक क्यों नहीं पहुंचा है-जहां हर रोज वह बलत्कृत होती है और जिसकी कोई एफ.आई.आर. तक दर्ज नहीं होती है।फिर भी कुछ हद तक हिंदी कहानी स्त्री संघर्ष, विलाप के अपने परंपरागत बीमारू रूप को त्याग कर ठोस जमीनी आधार ले रही है।अर्थात दौर के लिहाज से स्त्री के संघर्षों की रूपरेखा और प्राथमिकताएं बदलती रही हैं।जैसे-जैसे स्त्री के सम्मुख परिस्थितियां आईं, वैसे-वैसे ही संघर्षों की संभावनाएं बनती गईं।आरंभ में स्त्री आंदोलन नागरिक अधिकारों, राजनीतिक अधिकारों के लिए खड़े किए गए।जिसकी छवि लिबरल फेमिनिज्म के रूप में बनी।स्त्री का संघर्ष असल में किस्तों में स्थापित हुआ और अलग-अलग अर्थ और उद्देश्य लेकर आया।70 के दशक में घरेलू हिंसा, तलाक, यौन उत्पीड़न आदि खास मसले थे।सो कहानियां भी उनकी छांह लिए हुए ही थीं।क्योंकि प्राय: आसैपास घट रही घटनाएं-दुर्घटनाएं ही एक साहित्यकार को लिखने के लिए प्रेरित करती हैं।लेकिन इस दौर में स्त्री संघर्षों की परिणति समझौतों में होती रही।कह सकते हैं कि स्त्री संघर्ष पीछे धकेल दिया जाता रहा और स्त्री स्वयं हथियार डाल देती रही।जैसे कृष्णा सोबती की ‘डार से बिछुड़ी’ की पात्र पाशो की अल्हड़ किशोरी का भटकाव।जिसमें परंपरागत रूढ़िवादी समाज द्वारा स्त्री शोषण को दर्शाया गया है।इसी प्रकार नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘शाल्मली’ में आधुनिक कामकाजी महिलाओं के अस्त-व्यस्त जीवन का चित्रण है।ममता कालिया का उपन्यास ‘बेघर’ भी ऐसी ही मन:स्थिति से प्रेरित है।मन्नू भंडारी का बंटी भी इसी श्रृंखला में आता है।
80 के दशक में दैहिक स्वतंत्रता और यौन शुचिता पर भी सवाल खड़े किए जाने लगे।राजनीतिक और आर्थिक सरोकारों की दावेदारी भी मुख्य रूप से मुखर हुई।जो सुधा अरोड़ा, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, मृदुला गर्ग, संतोष श्रीवास्तव, मधु कांकरिया के लेखन में देखा जा सकता है।इनके उपन्यास महत्वपूर्ण हैं।इस दौर में विभिन्न स्त्री आंदोलनों ने भी अपनी खास भूमिका निभाई और स्त्री को तटस्थ हो कर समझने और संभलने के अवसर दिए।
उसके बाद के दशकों में जिन लेखिकाओं की पीढ़ी आई उनके अपने मूल्य और सिद्धांत थे।उनका अपना ही अलग दृष्टिकोण था।वहां लेखन और वैचारिकता का फलक और भी विस्तृत था।इनमें प्रमुख लेखिकाएं हैं गीताश्री, वंदना राग, प्रज्ञा रोहिनी, कविता, जयश्री राय, नीलाक्षी सिंह, विभा रानी आदि।कहानीकार और भी हैं सभी का नाम लेना मुश्किल है।
(2) यह प्रश्न विमर्श का अहम प्रश्न है।यह खतरे पूंजीवादजनित हैं जिसको पुष्ट करने में स्त्री का ही सबसे बड़ा हाथ है।स्त्री स्वतंत्रता का मतलब यही है कि स्त्री, पुरुष के जिस पारस्परिक संबंध को निभा रही है वह उससे मुक्त हो।लेकिन ऐसा हो नहीं सका।घर की ड्योढी से संघर्ष करके जो स्त्री बाहर आई थी, वहां आकर वह फिर से पुरुष के हाथों की कठपुतली बन गई।बाजार ने उसे घेर लिया है।बिना स्त्री के कोई सामान बिकता ही नहीं।सौंदर्य प्रसाधन तो दूर सिगरेट शराब का विज्ञापन भी उसके बिना नहीं होता।आज स्त्री जिस रूप में स्वतंत्र हो कर आई है उससे लगता है उसका संघर्ष ही भटका हुआ है।वह स्वतंत्रता की नहीं स्वच्छंदता की लड़ाई लड़ रही थी।उसकी लड़ाई जींस, टॉप और आत्म प्रदर्शन के लिए थी अपने अस्तित्व के लिए नहीं।कल जो उसका संघर्ष खुद को एक मुकम्मल पहचान दिलाने के लिए शुरू हुआ था आज वह फटी जींस पर आ कर ठहर गया है।स्त्री को आजादी के बजाए अधिकार की लड़ाई लड़नी चाहिए थी।उसे पहले सुनिश्चित कर लेना था कि वह आजादी किससे चाहती है? अपने घर की चहारदीवारी से, रूढ़ियों से, अपने परिवार से या फिर सामाजिक वर्जनाओं से।भले ही वह चहारदीवारी से मुक्त हुई है मगर एक दासत्व की मानसिकता से आज भी मुक्त नहीं हो सकी है।कल वह घर में चूल्हा-चौकी संभालती थी, आज वह पुरुषों के बनाए प्रोडक्ट बेच रही है।सिगरेट, शराब और ब्लेड बेच रही है।
यदि यह संघर्ष सही दिशा में चल रहा होता तो आज स्त्री विमर्श नहीं, पुरुष विमर्श का दौर चल रहा होता।कहने का तात्पर्य यह कि खतरे अनेक हैं, वे भी स्त्रीजनित ही हैं।यही कारण है कि यह अभी भी नहीं कहा जा सकता कि स्त्री स्वतंत्र है।मुक्त है।क्योंकि स्वतंत्रता का पैमाना ही स्पष्ट नहीं है।
(3) स्त्री कहानीकारों और पुरुष कहानीकारों के बीच वैसी ही भिन्नता है कि पुरुष कहता है ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ और स्त्री कहती है ‘मैं सिर्फ श्रद्धा नहीं हूँ उससे आगे की शय हूँ।’ अर्थात यहां स्वानुभूति और सहानुभूति का फर्क है।स्त्री भोगा हुआ यथार्थ लिखती है और पुरुष आभासीय यथार्थ।पुरुष कहता है ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी’ स्त्री कहती है ‘कोमल हैं कमजोर नहीं हैं’।इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री की स्थिति महसूस करने में पुरुष और स्त्री लेखकों के स्त्री-विमर्श के मूलाधार अलग-अलग रहे हैं।उनकी सहमतियां और असहमतियां अलग-अलग हैं।उनकी सोचों में फर्क है।ठीक वैसे ही जैसे दलित विमर्श में सहानुभूति और स्वानुभूति का द्वंद्व झलकता है।पुरुष ने स्त्री को अबला और देवी मान कर बहुत चालाकी से एक खाने में फिट कर दिया।यही बात स्त्री को अखरती है।इस पर लेखिकाओं ने खुल कर लिखा भी।आधुनिक साहित्य के विकास के बाद कई लेखकों के बहुत ही अच्छे और महत्वपूर्ण उपन्यास आए।भारतेंदु युग में पहली बार उपन्यासकारों का महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर ध्यान गया।इन्होंने भारतीय स्त्री की दयनीय दशा को अपने साहित्य में बखूबी बिंबित किया है।बाल विवाह, विधवा विवाह, वेश्या-वरण इनके प्रिय विषय रहे हैं।द्विवेदी युग के साहित्यकारों ने सामाजिक कुरीतियों से दो चार हो रही स्त्री का वर्णन किया।प्रेमचंद्र काल में परंपरा तथा रूढ़ियों से जूझती स्त्री का संघर्ष लिखा गया और स्त्री की इच्छा-शक्ति को दर्शाया गया।भगवती चरण वर्मा ने ‘भूले बिसरे चित्र’ में भारतीय स्त्री की जागरूकता का अच्छा वर्णन किया है, नायिका को प्रगतिशीलता की ओर अग्रसर दिखाया गया है।प्रेमचंद्रोत्तर साहित्य में देखें तो जैनेंद्र ने मनोविश्लेषित रूप से महिलाओं की समस्याओं को उठाया है। ‘शेखर एक जीवनी’ में अज्ञेय ने शशि के चरित्र को बखूबी उभारा है।एक और उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ में एक आधुनिक नारी है जो समर्थ है, सबल है और जागरूक है।इसी प्रकार ‘मैला आंचल’ की स्त्रियां अपनी इच्छा को महत्व देती हैं।यही तेवर मनोहर श्याम जोशी के ‘हमजाद’ और सुरेंद्र वर्मा के ‘मुझे चांद चाहिए’ के हैं।लेकिन ये सारी कहानियां अपने आस-पास से प्रेरित हैं।अर्थात सहानुभूति की कहानियां।
इसी दौर में काफी बड़ी संख्या में लेखिकाओं की भी आमद हुई।जिनमें कृष्णा सोबती, उषा प्रियवंदा, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान, गीतांजलि श्री, जयंती, मनीषा कुलश्रेष्ठ, ममता कालिया, कात्यायनी आदि हैं।इनमें ममता कालिया का उपन्यास ‘बेघर’ कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ उषा प्रियवंदा का ‘पचपन खंबे लाल दीवारें’, ‘रुकोगी नहीं राधिका’ प्रभा खेतान का ‘पीली आंधी’, मैत्रेयी पुष्पा का ‘अल्मा कबूतरी’, ‘चाक’, नासिरा शर्मा का ‘शाल्मली’, मंजुल भगत का उपन्यास ‘अनारो’, मन्नू भंडारी का ‘आपका बंटी’, अनामिका का ‘दस द्वारे का पिंजड़ा’ इत्यादि प्रमुख हैं, जिनमें स्त्री स्वर काफी मुखर है।कमोवेश सभी में कहीं न कहीं भोगा गया यथार्थ भी झलक ही जाता है जो एक पुरुष रचनाकार के रचाव में संभव नहीं।दोनों की सहमतियों और असहमतियों में भी फर्क है।समानता यह है कि दोनों के वहां स्त्री के लिए संवेदनाएं हैं, एहसासात हैं।यहां मैंने उपन्यासों का ही नाम लिया है कहानियों के बजाए, क्योंकि इनका फलक विस्तृत होता है और जेहन में ठहरे भी रह जाते हैं।
(4) स्त्री का सपना कल भी अपनी एक मुकम्मल पहचान बनाने का था, आज भी वही है।भले ही स्त्री एक बड़े संघर्ष से गुजरी और अपने लिए कुछ अलग कर पाई है, लेकिन अभी भी उसके हिस्से में पूरा आकाश नहीं।महिला कामकाजी तो बन गई, लेकिन अपने कमाए धन पर उसका अधिकार आज भी नहीं है।आज भी वह कोई काम तब तक नहीं कर सकती जब तक उससे जुड़े पुरुष की सहमति न हो।इन स्थितियों से ऊपर उठ पाना और इस बंधुवा संस्कृति से निपट पाना सबसे बड़ा स्वप्न है, एक स्त्री और स्त्री कहानीकार का।मधु कांकरिया के उपन्यास ‘सेज पर संस्कृति’ और ‘खुले गगन के लाल सितारे’ में यह मर्म साफ देखा जा सकता है।
(5) यह एक बड़ा और सार्थक संकेत है स्त्री की प्रगतिशीलता और उसके स्वीकार्य का।आज स्त्री निरंतर रच रही है और अपनी अभिव्यक्तियों को नए फलक दे रही है।आज वह ऐसे विषयों को अपने लेखन का केंद्र बिंदु बना रही है जिसे कभी स्त्री के लिए सोचना भी वर्जित था।यह स्त्री की सबसे बड़ी उपलब्धि है।स्त्री कथाकारों की संख्या में वृद्धि का सबसे बड़ा कारण वर्चुअल दुनिया का आगमन है।स्त्रियां पहले भी अपने अंदर की छटपटाहट को जुबां देना चाहती थीं, लेकिन उनके पास कोई मंच नहीं था।पत्रिकाएं सबके पास पहुंच नहीं पाती थीं और पत्रिकाओं तक वे भी नहीं पहुंच पाती थीं।लेकिन आज स्थिति दूसरी है।उनके पास कई और विकल्प हैं।वेब पत्रिकाओं और ब्लॉग उनके लिए सबसे बेहतर अभिव्यक्ति का जरिया है।और इसके सहारे वे लेखन की दुनिया और काफी नामी गिरामी पत्रिकाओं तक पहुंच जाती हैं।
(6) यह एक जरूरी बदलाव या कहें विकास है।यह एक क्रम है उत्तरोत्तर और आगे तक जाने का।आमतौर पर देखा गया है कि कोई भी रचनाकार अपना लेखन कविताएं रचने से शुरू करता है।आदमी के अंदर कोई कथाकार हो न हो लेकिन एक कवि हर व्यक्ति के अंतस में होता है।कई बार हम देखते हैं कि एक मामूली खेत खलिहान का आदमी भी कुछ-कुछ शब्द गढ़ के गाता रहता है।यह उसके अंदर का कवि ही है।सो लगभग हर रचनाकार अपनी शुरुआत कविताओं से करता है, फिर गद्य में उतरता है और जब कहन में एक ठोस स्थायित्व और प्रवाह आ जाता है तो उपन्यास लेखन की बुनियाद अपने आप पड़ जाती है।कभी-कभी कहानियां भी उपन्यास का रूप ले लेती हैं।कई मित्रों को कहते सुना है कि फलां कहानी लिख रहे थे और लिखने के क्रम में ही उसने उपन्यास का रूप ले लिया।अनामिका को ही ले लीजिए।वो कवयित्री भी रहीं, कहानीकार भी और उपन्यास लेखन भी पूरी रफ्तार से किया।ऐसी और भी लेखिकाएं हैं जैसे ज्योति चावला, गीताश्री, पंखुरी सिन्हा आदि।आज लेखिकाएं खूब उपन्यास लिख रही हैं।रोज नए-नए उपन्यास आ रहे हैं लेखिकाओं के।यह भी एक उपलब्धि है लेखिकाओं के लिए।लेकिन ऐसा नहीं है कि वे कहानी लेखन छोड़ चुकी हैं, बल्कि साथ-साथ वो भी बरकरार है।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 महाराष्ट्र मो.9415778595
स्त्री रचनाकारों ने इधर बहुत सारे स्टीरियोटाइप तोड़े हैं
वंदना राग चर्चित कहानीकार। हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ काफी लोकप्रिय। |
(1) स्त्री संघर्ष के मायने नहीं बदले, संघर्ष का स्वरूप बदल गया है- उसका आवरण, संघर्ष के तरीके और संघर्ष के दावेदारों की बोली-बानी, सबने नया तेवर अपना लिया है।यह तर्कसंगत बात भी है, क्योंकि हम जानते हैं कि जैसे-जैसे हर पीढ़ी अपने समय में उतरती है, अपने समय से संवाद करती है वैसे-वैसे उसकी भाषा बदलती रहती है।वही भाषा फिर जब संघर्ष की भाषा बनती है तो वह नई लगती है, अपने समय से व्यापक मुठभेड़ करती प्रतीत होती है और उसके प्रस्थान बिंदु भिन्न हो जाते हैं।यह एक काल्पनिक रीले रेस की तरह है।हर पीढ़ी अपने पुरोधाओं से बेटन पकड़ निर्धारित दूरी तय करती है और फिर बेटन अपने आगे की पीढ़ी को पकड़ा देती है।हमें पूरी ताकत से यह रेस दौड़नी है, तब तक- जब तक पितृसत्ता द्वारा निर्धारित असमानता के मूल्यों को ध्वस्त न कर दिया जाए।यकीनन लड़ाई लंबी है! लिहाजा संघर्ष भी लंबा है और उसके तेवर बदले हुए लगते हैं, लेकिन हमारे लक्ष्य नहीं बदले संघर्ष के मायने नहीं बदले- न बदलेंगे।
पहले की अपेक्षा हिंदी कहानी में भी बदलाव आए हैं।उसकी बनावट बुनावट में।विषयों में।दरअसल समय जब बदलता है तो अपने साथ नई चुनौतियों के साथ दरपेश होता है।यह उस वक्त में रहने, देखने वालों को अनूठी बात लगती है, लेकिन जब बाद में सभ्यता का इतिहास खंगाला जाता है तो हम पाते हैं कि विचार, आचार-व्यवहार, कला एवं संस्कृति का प्रस्फुटन हर दौर में एक नवीन घटना होती है, नए संस्कारों के साथ, नए आयामों के साथ सभ्यता की नई दिलचस्प कहानियां कही और लिखी जाती रही हैं और भविष्य में भी लिखी जाती रहेंगी।आज का दौर भी इन परिवर्तनकारी घटनाओं से अछूता नहीं।अब देखिए न, कोरोना जैसी महामारी की कल्पना क्या आज से तीन वर्ष पहले हमने की थी? नहीं न? फिर कितने अविश्वसनीय ढंग से आज यह सबकुछ घट रहा है, और लोग उसके बारे में बोल रहे हैं, लिख रहे हैं।नई कहानियां लिखी जा रही हैं, जो कोरोना काल में स्त्री की नई चुनौतियां को दर्शा रही हैं।कैसे आज तथाकथित रूप से स्वतंत्र और समाज में बराबरी का दर्जा रखने वाली स्त्रियां बढ़ी हुई घरेलू हिंसा, वर्क फ्रॉम होम और गृहस्थी चलाने की दोहरी जिम्मेदारियों के बीच शोषित हुई हैं।
इक्कीसवीं सदी की अपनी पेचीदगियां हैं।घर और बाहर के बीच संतुलन बनाने की जद्दोजहद में स्त्रियां, मानसिक और शारीरिक रूप से कैसे थक रही हैं, या सक रही हैं, नई इबारत लिख रही हैं या, जीवन से हार टूट रही हैं- यह सबकुछ कहानियों में दर्ज हो रहा है।प्रेम में पहल की बातें, देह, मन, समाज और राजनीति में निर्णय लेने के अधिकार की बातें, स्त्रियां अब करने लगी हैं और वह सब कुछ उनकी कहानियों में दिखलाई पड़ रहा है।यह हिंदी कहानी में स्वस्थ बदलाव की आहट है जो निसंदेह स्वागतयोग्य है।
(2) स्त्री चेतना पर हमेशा की तरह पितृसत्ता के खतरे ही सबसे हावी रहते हैं।लेकिन उनका तेवर चालाकी से बदल जाता है।कभी स्त्री को पितृसत्ता पूंजीवाद का दिलकश झुनझुना पकड़ा कर कहती है- खेलो अब तुम्हारे पास अनगिन फैसलों के अधिकार हैं -खासतौर से देह को लेकर, मन का पहनो, मन का खाओ, प्रेम करो।लेकिन ठीक उसके समानांतर वह एक सीमा तय कर देती है- बस इतना ही खेलो, उड़ो।निर्णय लेने के इस ऊपरी दिखावटी अधिकार के बाद, असल मुद्दों और सत्ता के अधिकारों पर निर्णय की ताकत वह पुरुषों को सौंप देती है।अर्थात, समाज में, परिवार में, राजनीति में सत्तानशीन पुरुष ही होगा।अगर स्त्री उस सत्ता तक पहुंचना चाहती है तो उसे पुरुष द्वारा ईजाद की हुई सत्ता की भाषा ही बोलनी पड़ेगी और आगे पहुंचने वाली उसी रणनीति का अनुसरण करना होगा।कुछ स्त्रियां इस झांसे में फंस जाती हैं और अपने को उसी सत्ता का एजेंट बना लेती हैं जिसके खिलाफ उन्हें आवाज उठानी चाहिए।इससे समाज में यह कहानी मुखर हो घूमती रहती है- औरत ही औरत की दुश्मन होती है! इस कहानी के पक्ष में भारतीय सास और बहू के रिश्तों को उदाहरण की तरह अकसर पेश किया जाता है।इसी तरह अगर कोई स्त्री अपने को राजनीति या समाज में आगे ले जाना चाहती है तो वह अपने को पुरुषोचित तरीकों से संपृक्त करती है, अपने स्त्रीपने को दबा कर एक नकली आवरण ओढ़ लेती है जो पुरुष जैसा नजर आए और उसकी स्वीकार्यता बढ़े।हमने अपने आसपास और सत्ता के गलियारों में ऐसी सफल स्त्रियों को खूब देखा है।इसके विपरीत जो स्त्रियां इस मिथक को तोड़ने का संकल्प करती हैं उन्हें कटाक्षों और चरित्र हनन के सस्ते गॉसिप का सामना करना पड़ता है।उन्हें अकसर संदिग्ध ठहराया जाता है।आपको याद होगा हाल ही में बंगाल से जब दो अभिनेत्रियां संसद में पहुंचीं तो उनके कपड़ों और श्रृंगार को लेकर सम्मानित सांसद कितने चटखारेदार किस्से सुनाते फिर रहे थे।
मौजूदा समय में, राजनीति में आक्रामक धार्मिक घुसपैठ ने भी स्त्रियों के लिए एक और नया खतरा पैदा कर दिया है।ऐसा नहीं था कि इससे पहले स्त्रियों के लिए धार्मिक अवरोध नहीं थे।सच तो यह है कि स्त्रियों की विकास यात्रा में धर्म हमेशा से बाधा उत्पन्न करता रहा है- सायास और अनायास दोनों ढंग से।चाहे विश्व का कोई भी धर्म क्यों न हो, वह अपनी उत्पत्ति के समय से ही स्त्रियों को गैर बराबरी का दर्जा देता आया है।स्त्री का वस्तुकरण सिर्फ पूंजीवाद ही नहीं करता, लुभावने सपने दिखाकर, बल्कि धर्म भी उन्नत जीवन का शुचिताकारी पाठ पढ़ा कर, स्त्रियों को बेहिसाब प्रतिबंधित करता है और उनकी निर्णय लेने की क्षमता को कुंद करता है।समाज को दिशा दिखाने वाले जरूरी लोग, सत्तानशीन, सब, स्त्रियों को नियंत्रित करना चाहते हैं, इसीलिए स्त्रियों के प्रेम और देह संबंधित अधिकारों पर वे मिलकर फतवे जारी करते हैं।वे स्त्रियों पर अभद्र टिप्पणियां करते हैं और ऐसा करना धार्मिक मान-मर्यादा, शास्त्रों आदि के हवाले से जायज भी ठहराते हैं।
शहरों की शिक्षित और कुछ अशिक्षित स्त्रियां इस विटंडे को थोड़ा बहुत समझती हैं और कुछ ग्रामीण स्त्रियां भी संचार माध्यमों, मोबाइल इत्यादि के आने से इस बात को समझने लगी हैं।वे इन अवरोधों के पार पाने का स्वप्न भी देखने लगी हैं लेकिन अफसोस कि उनकी तादाद बहुत कम है।इसीलिए ज्यादा स्त्रियां न चाहते हुए भी पितृसत्ता के शिकंजों में फंस जाती हैं।जाहिर है इसलिए स्त्रियों को और अधिक चैतन्य बनाने के अथक प्रयासों की जरूरत है।
(3) उदाहरण देना दुष्कर कार्य है।फिर भी प्रयास करती हूँ।दरअसल यह बड़ा सच तो है ही कि अनेक बार पुरुष रचनाकारों की कहानियों में स्त्रियों की बुनावट कमजोर होती है।उनकी कहानियों में स्त्री पात्र या तो अति ममतामयी होते हैं या उच्छृंखल।दोनों के बीच का जो मिलाजुला स्वरूप होता है, वह अद्भुत समन्वय जो स्त्री की निर्मिति एक अच्छे अथवा बुरे मनुष्य के रूप में करता है, वह बारीक समझ और संवेदना पुरुष रचनाकार बहुत ठीक से साध नहीं पाते हैं।लेकिन ठीक इसी तरह से पुरुष रचनाकार ऐसा ही आरोप स्त्रियों पर भी लगा सकते हैं, चूंकि स्त्रियां पुरुष संवेदना को नहीं पकड़ रहीं ठीक से।दरअसल कला का उत्कर्ष यही है कि निज आगे बढ़ पूरे समूह और समाज का स्वर बन उभरे।निज के सुख दुख की अंतर्ध्वनियां व्यापक धरातल पर प्रतिबिंबित हों और साझा लगें।इसमें रचनाकार का परिष्कार और परिपक्वता दोनों दिखलाई पड़ती है।विश्व भर का उत्कृष्ट साहित्य इसका उदाहरण है।एक उदाहरण देती हूँ ब्रॉनटेय बहनों का, जिन्होंने पुरुष छद्म नामों से किताबें लिखीं और खूब प्रसिद्धि पाई।भारत में भी ‘दुलाई वाली’ कहानी बंग महिला के नाम से दर्ज है।उर्दू में सौ साल पहले बहुत सारी स्त्रियों ने अत्यंत प्रगतिशील साहित्य रचा-छद्म पुरुष नामों से।लेकिन यह सब अठारवीं-उन्नीसवीं सदी के उदाहरण हैं, जब स्त्रियों का पढ़ना लिखना ओछी निगाहों से नहीं देखा जाता था।आज भी एलेना फेराँटे ने छद्म नाम से अपनी किताब छपवाने का प्रयोग किया और उनकी किताबों ने खूब सफलता अर्जित की।यह उदाहरण मैं इसीलिए कोट कर रही हूँ कि बात सुस्पष्ट हो जाए।उत्कृष्ट कला में जेन्डर विलीन राहत है और वह टेक्स्ट पर्सनल इज पोलिटिकल की तर्ज पर व्यापक सफलता और स्वीकृति पाता है।पुरुषों ने इस तरह के प्रयोग कम किए हैं, क्योंकि यह क्षेत्र हर क्षेत्र की तरह पितृसत्तात्मक मानकों से चलता है और पुरुष को लिखने-पढ़ने की और लोकप्रिय होने की सहज स्वीकृति हासिल है।इसके बावजूद पुरुष रचनाकार चूकते हैं स्त्रियों की बारीकी पकड़ने में।इसकी वजह क्राफ्ट या भाषा के कौशल में कम नहीं है।यह पुरुष के भीतर की रूढ़िगत कमी है जिसकी मूल वजह शायद हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक पिछड़ापन है-पुरुष और स्त्री में सहजता की कमी और मित्रता के अभाव से यह कमी और परवान चढ़ती है।लेकिन फिर भी रचनाकार प्रयास तो करते ही हैं।समग्रता में तो नहीं, लेकिन अपवाद स्वरूप मेरी पीढ़ी के अनेक पुरुष कथाकारों ने स्त्री संवेदना को बेहतर उकेरने का प्रयास किया है।कुछ कहानियों के नाम याद या रहे हैं- ‘सत्ताईस साल की सांवली लड़की’ -दीपक श्रीवास्तव, ‘डर’-विमल चंद्र पांडे, ‘पुरोहित जिसने मछलियाँ पालीं’ -मनोज कुमार पांडे,‘कहनी’ -शिवेन्द्र, ‘शेक्सपियर क्या तुम मुझसे मिलना चाहोगे’ -उमाशंकर चौधरी, ‘लुत्फ’ -मोहम्मद आरिफ, -‘गुलमहंदी की झाड़ियाँ’ -तरुण भटनागर, ‘मोहब्बत जिन्दाबाद’ -कैलाश बनवासी, ‘दो बहनें’ -चरण सिंह पथिक, ‘चाची चौधरी’ -राहुल श्रीवास्तव, ‘प्रेम कहानी में मोजे की भूमिका’ -कुणाल सिंह, ‘गांधी लड़की’ -राकेश मिश्र, ‘इतवार गीत’ -राजेश प्रसाद, ‘अगिन असनान’ -आशुतोष, कैयश वानखेड़े की।
अंत में इस सवाल के जवाब पर यही कहूंगी कि स्त्रियां अपनी बात बेहतर लिखेंगी ही- लेकिन कोई पुरुष भी किसी दिन लंबी यात्रा कर उनके अंतर्मन की बात जरूर लिख सकेगा यदि लिखना चाहेगा तो।पुरुषों ने भी स्त्री को गहराई से उकेरा है और भविष्य में भी उकेरेंगे, उस दिन लिंग भेद समाप्त हो जाएगा।
(4) बड़ा स्वप्न माने क्या? मैं आपसे पूछती हूँ, क्या समाज के पास कोई बड़ा स्वप्न बचा है या सब मध्यमवर्गीय सुविधा जुटाने के बाद समाप्त हो चुके हैं या हो रहे हैं? मुझे तो नहीं दिखते बड़े स्वप्न।न विज्ञान के क्षेत्र में, न कला के क्षेत्र में, न सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में।स्त्रियां उसी समाज का हिस्सा हैं न? वे समाज से कट कर कैसे काम करेंगी? फिर भी मुझे फख्र है कि स्त्रियां इस बेमुरव्वत समय में भी अपने संघर्षों को लेकर आगे बढ़ रही हैं।
हाल ही में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ स्त्रियों ने मोर्चा संभाला और लंबे समय तक लड़ाई लड़ी।समाज की बेहतरी के लिए आंदोलनों में स्त्रियां मुखर हो आगे आ रही हैं, यही सबसे बड़ा स्वप्न है।स्त्रियाँ राजनीतिक दृष्टि से संपन्न हों, आंदोलनों की अगुआ बनें।इससे सिर्फ स्त्रियां सशक्त नहीं होंगी, बल्कि पूरा समाज संपन्न होगा और यही स्त्री रचनाकारों की कहानियों का मजमून होगा, गांव से शहर तक।स्त्री रचनाकार, चाहे वे किसी भी सामाज की हों -हाशिये के किसी भी समाज की हों, उन्हें अपनी आवाजों को दर्ज करने का मौका मिले, उनकी आवाज सुनी जाए, वे विचार की अगुआ लेखक बनें, समाज की सशक्त ओपिनीयन मैकर बनें और संपूर्ण स्त्री जाति के उत्थान की बातें करें, यही स्वप्न मुझे दिखलाई पड़ता है, जो व्यक्तिगत भी हो और सामूहिक भी।
(5) स्त्री रचनाकारों ने इधर बहुत सारे स्टीरियोटाइप तोड़े हैं।वे बड़ी संख्या में लिख रही हैं और लोगों की सोच बदलने का प्रयास कर रही हैं।यह उपलब्धि बड़ी है।घर-बाहर, शील चरित्र से जुड़े मिथकों को वे ध्वस्त कर रही हैं और अपनी दूर दराज बैठी वंचित बहनों के लिए संकेत-दीप का काम कर रही हैं।परंपरागत सामाजिक ढांचे में तोड़-फोड़ हो रही है और स्त्रियां ऊर्जस्वित हो यह बदलाव ला रही हैं, इसीलिए बोल और लिख रही हैं।साहित्य वह माध्यम है जिससे बड़ी क्रांति लाई जा सकती है।स्त्री रचनाकार धीरे-धीरे उसी क्रांति को अंजाम दे रही हैं।
(6) ऐसा नहीं है कि स्त्री रचनाकार कहानी लिखना छोड़ उपन्यास लिखने लग गई हैं।यह तो अपने को व्यक्त करने के जरिए हैं।साहित्य की विधाएं।सब अपने में परिपूर्ण और सुंदर।मन, तैयारी और विषय की बात होती है।जब बात कहनी ही है तो जिसमें सबसे बेहतर ढंग से कह पाएं वही विधा लेखक चुन लेता है।मैंने इधर खुद, उपन्यास की ओर रुख किया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अब कहानी मुझसे छूट गई है।जाने कब मन पर दस्तक देने लगे।
सी/II, 43, तिलक लेन, तिलक मार्ग, नई दिल्ली-110001 मो 9953944685
साहित्य में किसी तरह का वाद न हो, तो साहित्य की दुनिया ज्यादा खूबसूरत होगी
ममता सिंह सुपरिचित कहानीकार। ‘राग मारवा’ हालिया प्रकाशित कहानी संग्रह। देश के लोकप्रिय चैनल विविध भर्ती में उद्घोषिका। |
(1) आज स्त्री का संघर्ष ज्यादा बड़ा है।बाहर की दुनिया में प्रवेश करने के बाद उसे अलग-अलग स्तर पर जूझना पड़ता है।अपने करियर में जगह बनाने की बात हो, या पुरुषों के साथ कार्य में समानता की बात हो, या अपने आत्म-सम्मान की रक्षा की बात हो या खुद की सुरक्षा का मामला हो उसे किसी न किसी रूप में संघर्ष ही करना पड़ता है, इन सब मुद्दों के लिए एक स्त्री को बाकायदा लड़ाई लड़नी पड़ती है।स्त्री का संघर्ष उसके लेखन की दुनिया में भी है।आज की महिला तीन-तीन स्तरों पर काम कर रही है, गृहस्थी, दफ्तर और लेखन।आज की महिला ने प्रगति पथ प्रशस्त तो कर लिए हैं, लेकिन कांटों से भरा है उनका पूरा सफर।इन तीनों स्तरों पर उसे जूझना ही पड़ता है।
कभी नींद से, कभी अपने हालात से, कभी अपनी परेशानियों से समझौता करना ही पड़ता है।फिर साहित्य में उसे अपनी जगह बनाने के लिए भी प्रयासरत होना पड़ता है, कई बार स्त्री के उत्कृष्ट लेखन को बड़ी आसानी से पुरुष लेखक स्वीकार नहीं कर पाते, क्योंकि वह एक लेखिका है।साहित्य में स्त्रियां जिस खुलेपन से खुद को अभिव्यक्त कर पा रही हैं वह आदर्श नहीं कहा जा सकता।कई बार महिला लेखिका को सामाजिक दबावों का भी सामना करना पड़ता है।
स्त्री की अस्मिता के प्रश्न को लेकर विचार-विश्लेषण या बहस-मुबाहिसे लगातार होते रहे हैं।अगर कहने भर की बात हो तो हमारा पढ़ा-लिखा तबका, इस प्रसंग में बेहद प्रगतिशील बनने में देर नहीं लगाता, लेकिन यदि यह सवाल खुद उसके निजी जीवन में खड़ा हो जाए तब वह तमाम तर्कों से उसको गलत और अव्यावहारिक साबित करने में जुट जाता है।यही वजह है कि आज भी स्त्रियों का आत्मनिर्भर बनना आसान नहीं है।
(2) जैसे-जैसे दुनिया कॉर्पोरेट होती जा रही है, तकनीक आगे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे स्त्रियों की आजादी पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से खतरे और बढ़ते जा रहे हैं।सबसे बड़ा खतरा पुरुष सत्ता है।हर दिशा में महिलाएं अपनी प्रतिभा का परचम लहरा रही हैं उसके बावजूद वे कहीं न कहीं पुरुष के अधीन हैं।एक स्त्री के जीवन की डोर पिता, पति या भाई के हाथ में आज भी है, उनके या परिवार के हर अहम फैसले का अधिकार पुरुष के हाथ में है।भारतीय सिनेमा के परदे पर भी स्त्रियों के पीछे कोई न कोई पुरुष होता है जैसे फिल्म ‘पिंक’ में तापसी पन्नू की लड़ाई में अमिताभ बच्चन स्तंभ बनते हैं।हमें लगता है भारतीय घरों की मानसिकता बदलने में वक्त लगेगा, इन सबके बावजूद स्त्री अपनी पहचान बना रही है।समाज में स्त्री स्वतंत्रता की बड़ी ललित बातें की जाती हैं साहित्यिक आयोजनों में, लेकिन जब अपने खुद के घर में आजादी की बात चलती है तो कभी घरेलू जिम्मेदारियां आड़े आती हैं, कभी सामाजिक प्रतिबद्धता।स्त्री को मनचाहा लिखने की स्वतंत्रता आज भी नहीं मिली है।
इन सबके बावजूद स्त्री अपने करियर में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रही है।तमाम मुश्किलात के बावजूद स्त्री समाज में बड़ी लकीर खींच रही हैं।हवा के विपरीत चलने में उसे कठिनाई हो रही है, पर स्त्रियां हार नहीं मान रहीं।अच्छी बात ये है कि अब स्त्री अपने करियर के प्रति अतिरिक्त सजग है।
(3) सवाल जरा पेचीदा है।पर मेरा यह मानना है कि जब एक स्त्री सामाजिक पृष्ठभूमि पर या स्त्री-दर्शन पर लिखती है या बाल मनोविज्ञान पर लिखती है तो वह उसका भोगा हुआ, अनुभूत होता है इसलिए वह ज्यादा मर्मस्पर्शी होता है, यथार्थ के ज्यादा करीब होता है।स्त्री के हृदय की कचोट या उसकी अंतर्भूत पीड़ा को पुरुष की कलम उस गहरी संवेदना के साथ नहीं छू पाती।कई सशक्त महिला कथाकार हैं जिन्होंने स्त्रियों की रोजमर्रा की जिंदगी की समस्याओं और उनके दुख को बड़ी गहराई से कहानी की शक्ल दी है।मुझे लगता है स्त्रियों के जीवन के अवसाद, खुशियां-दर्द सरोकार को स्त्रियां ही ज्यादा बारीकी कथा सूत्र में पिरो सकती हैं।खुद या आसपास का यथार्थ रचना संसार को समृद्ध बनाता है।दोनों की स्त्री दृष्टि में समानता संभव है, बस जरूरत है तीक्ष्ण नजर और नजरिए की।
(4) हर कथाकार का सपना अलग-अलग होता है।कहानीकार का एक बड़ा सपना होता है कि पुराने ढांचों को तोड़ कर कहानी की दुनिया की नई इमारत खड़ी करे, जिससे वह कहानी के नए बिंदुओं को भी छू सके।अपने सेफ जोन से निकल कर कुछ चुनौतीपूर्ण लिखे वह भी नई विधा में।स्त्री पुरुष के भेद, जाति धर्म से ऊपर लिखे।तकनीक, सामाजिक मुद्दों और सामाजिक बराबरी जैसे विषयों पर लिखा जाए।कुछ अनछुए पहलुओं को भी कहानी में ढाला जाए, जिसमे समाज की क्रूर सच्चाई छिपी है जिसमें समाज अमूमन बचता है।
हर कहानीकार की यह दिली इच्छा होती होगी कि उसका कथा संसार जन-जन तक पहुंचे।उसकी रचनाएं पाठकों द्वारा पढ़ी जाएं और चर्चा भी की जाएं।स्त्री लेखन को किसी खांचे में कैद कर उसकी लकीर को छोटा न किया जाए।कई बार किसी स्त्री की सशक्त कहानी पर पुरुष लेखक की इस तरह टिप्पणी होती है- फलां लेखिका की फलां कहानी पुरुष लेखक की तरह सराहनीय है।मेरा यह मानना है कि स्त्री और पुरुष कथाकार का भेद नहीं होना चाहिए।साहित्य में किसी तरह का वाद न हो तो साहित्य की दुनिया ज्यादा खूबसूरत होगी।
(5) महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा, उनके प्रति हो रहे दुर्व्यवहार, उनकी अस्मिता की असुरक्षा जैसी तमाम घटनाओं ने महिलाओं को भीतर से काफी उद्वेलित किया है जिससे वे टूटी भी, लेकिन सजग भी हो रही हैं।उनके भीतर की टूटन और खुला आकाश पाने की अकुलाहट ने उन्हें शब्दों की तलवार थमा दी है जिसे चला कर वे थोड़ा बहुत सुकून पा लेती हैं।समाज की विडंबना, अपने प्रति हो रहे अत्याचार के प्रति विरोधी स्वर उनकी कहानियों में बाकायदा झलकता है।समाज की विसंगतियों को वे अपने रचना संसार के जरिए बेबाक आवाज देती हैं।स्त्री कहानीकार की वृद्धि का एक बड़ा कारण सोशल मीडिया भी है, कम लिख कर ज्यादा प्रचार पा लेना, जल्द ही कहानीकार के रूप में स्थापित हो जाना, पत्रिका की टीम या संपादक से सोशल मीडिया के माध्यम से सीधा संपर्क और लोगों से जुड़ना।नारीवादी आंदोलन की लहर लगातार सफल हो रही है।कुछ बड़े पुरस्कार लेखिकाओं के नाम आए हैं, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महिला लेखन का संसार व्यापक और समृद्ध हो रहा है।
(6) हर क्षेत्र में महिलाएं क्रांति कर रही हैं, साहित्य में भी उनका दखल विशिष्ट हुआ है।कहानी का आकार छोटा होता है इसलिए बहुत ज्यादा नहीं लिखना होता और उपन्यास इन दिनों खूब चर्चित हो रहे हैं।उपन्यास लिख कर एक कथाकार, साहित्य के ऊंचे पायदान पर पहुंच जाता है।उपन्यास में कथा संसार को बड़े फलक पर चित्रित किया जाता है, जाहिर है कैनवास बड़ा होगा तो रंग भरने का मौका भी ज्यादा मिलेगा।उपन्यास लेखन में प्रवृत्त होना स्त्रियों के और आगे बढ़ने का संकेत है।
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